Tuesday 15 April 2014

                                                  सोन तुम हो
(यह कविता साभार मैंने फेसबुक से अपने अग्रज उपेन्द्र मिश्रा के जरिए प्राप्त किया है)

सोन तुम रहते सदा-
निकल अमरकंटक से सुदूर,
बहते मुझी में हो।
चाहता हूं-
पोंछ दूं,
रगड़कर निशान तेरे,
बदन से मेरे,
मगर तेरी धार,
रहती सदा,
बहती मुझी में।
सोन तुम कहां हो-
देश या विदेश में,
जहां भी रहता,
तेरी धार की शांत शोर,
बजती मुझी में है।
खेलने तेरी ही धार में-
तब तलक,
बसा है मेरी रगों में,
सोचता हूं,
अंतिम यात्रा भी हो खत्म तुम्हीं में।
देखता हूं-
निर्निमेश,
तुम हो ख़ामोश,
शांत और सिकुड़े हुए भी,
मुझे देना बिछौना राख को,
जब मैं आउं तुम्हारे ठौर।

प्रस्तुतकर्ता Kaushlendra Prapanna

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