Wednesday 28 August 2019

जाति का बोध या गर्व कब, किसको, क्यों, जाग जाए वह भी नहीं जानता




"तुम ......, ...... कब से हो गयी? पढ़े लिखे लोग अधिक जातिवादी होते हैं, यह इसी कारण माना और कहा जाता है।"
ऊपर की पंक्ति, एक करीबी प्रोफेसर की बेटी को मेरे द्वारा भेजा गया निजी मैसेज है। नाम और जाति खाली जगह में दर्ज था। यहां डॉट डॉट है, क्योंकि जीवन भी रिक्त ही होता है, जिसमें समय के साथ अच्छाइयां और बुराइयां भरती जाती हैं। नाम कोई भी हो सकता है और जाति भी। वास्तव में हुआ यह कि इंजीनियरिंग की नौकरी कर रही इस बहन का फ्रेंड रिक्वेस्ट आया। तो चौक गया क्योंकि मैं उसे उसके नाम के आगे कुछ नहीं उसके स्कूल में देखा-सुना था। वह बड़े स्कूल की सफल छात्रा थी, आज अच्छे पैकेज पर नौकरी कर रही है। चौंकने का कारण उसके नाम के साथ लगा जाति था। अब उसने मैसेज के जवाब में कारण नहीं बताया, बस इतना पूछा-आप पहचान लिए भैया। मन में यह सवाल उठा कि क्या नौकरी के समय उसे जातीय श्रेष्ठता का बोध हुआ, या कार्यस्थल के माहौल के कारण उसे कोई मजबूरी हुई, क्या वजह रही होगी? मैं स्वयं से तय नहीं कर पा रहा हूँ। लेकिन अपने कहे इस विचार पर और अडिग होने का अवसर जरूर मिला। मैं यह कई बार कहता रहा हूँ कि जाहिल, कमअक्ल, निरक्षर, गरीब और कमजोर आदमी जातिवाद नहीं करता। वह जातिवादी नहीं होता। उसे बहकाया जाता है जब-तब। जब रोटी-रोजी की मजबूरी होती है तभी वह जातिवाद करता है। अन्यथा संबन्ध के अलावा वह कभी जाति के फेर में नहीं रहता। राजनीति में भी जाति नीचे तक बरगलाने, बहलाने और प्रेरित करने के कारण ही प्रभावित करती है। इसके उलट पढ़े लिखे लोग जाति को पेशेवर लाभ के लिए इस्तेमाल करते हैं। चाहे वह डॉक्टर हो, इंजिनियर हो, प्रोफेसर हो, व्यवसायी हो, या राजनीतिज्ञ हो। वह जाति का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करता है।
निदा फाजली का एक शेर स्मरण हो आता है-
"बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो।
चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे।" 
वाकई शिक्षा ही सामाजिक समस्या की जड़ में है। इस कारण शिक्षा नीति को बहस का मुद्दा बनाया जाना चाहिए। खैर, यहां मुद्दा जातिवाद है।
इस आलेख को लिखते वक्त, एनडीटीवी पर रवीश कुमार को देख-सुन रहा हूँ। वाहनों पर जाति लिखने का विश्लेषण कर रहे हैं वो। वाहनों पर गुर्जर, यादव, ब्राह्मण, राजपूत, प्रजापति जैसे जाति बताते शब्द लिखे हैं। बेचारे रविश भी इसका कारण अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट नहीं बता सके। मैं तो फिर भी मुफ़स्सिल का पत्रकार हूँ। खैर, भारतीय समाज जातियों में विभाजित है। परत दर परत जाति। जाती के भीतर जाति। जिसे हम पारिछ कहते, समझते हैं। वर्ग के बाद जाति और उसके बाद जाति में उप जाति या पारिछ का खांचा। विभाजन इतने स्तर पर है कि उसे खत्म करना मुश्किल है। मैं दिल से कहता हूँ, गांठ बांध लीजिये-जाति कभी खत्म न होने वाली सच्चाई है। और जातिवाद का विरोध हमेशा चालाक लोग करते हैं, जो इसका इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करते हैं और दूसरे को जातिवादी बताते हुए तीखी आलोचना करते हैं। आज जातिवाद का विरोध वही कर रहे हैं, जो ऐसा करते हुए सर्वाधिक लाभ लेते रहे हैं, ले रहे हैं। जो अब लेना चाहते हैं वे पहले वालों को खटकते हैं। 
इस झांसे में आने की जरूरत नहीं कि अमुक व्यक्ति जातिवाद विरोधी है। मैं एक डॉक्टर के पास गया था। हो गए कई बरस। घर पहुंचा तो घर से अति व्यस्त दिखते हुए डॉक्टर साहब निकल रहे थे। मुझे उनको दिखाना नहीं था, बीमार नहीं था मैं, बस गप्पें मारने गया था। बोले-आज समय नहीं है भाई। सम्मेलन में जाना है। जातीय सम्मेलन का आयोजन उसी दिन था और उनको देर हो रहा था। इस सम्मेलन में उस जाति के सभी नामचीन बुलाये जाते हैं और वे पहुंचते हैं। चाहे वे किसी दल के हों, किसी पेशे में हों। किसी सरकारी ओहदे से सेवानिवृत्त हुए हों। और हां, सबका उद्देश्य एक ही होता है, जाति को मजबूत करना। जुटाए गए बड़े पढ़े लिखे, ओहदेदारों, विशेषज्ञ पेशेवरों और अधिकारियों को इस बात के लिए प्रेरित करना कि अपनी जाति के लोगों से सहानुभूति रखो, उनका काम प्राथमिकता के आधार पर करो, संभव हो तो अधिक से अधिक सरलता से, थोड़ा कम पैसे लेकर काम करो। इसकी प्रेरणा सबको दी जाती है। अब इसमें कोई पीछे रहना नहीं चाहता। सब एक दूसरे से इस होड़ में आगे निकलने को बेताब हैं। बेचैनी से इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। जातिवाद पर कई तरह के आलेख, किताब और खबर आपको पढ़ने, देखने को मिलेंगे। मिलते हैं। समस्या यह है कि जाति विहीन भारतीय समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। हकीकत यही है कि भारत में कोई भारतीय नहीं रहता। यहां धार्मिक आधार पर बंटे लोग रहते हैं, जाति को कस कर पकड़े लोग विभिन्न खांचों में बंटे लोग रहते हैं। कोई भारतीय नहीं रहता। 

और अंत में:-
साक्षी मिश्रा और अजितेश (दलित) के बच्चे को किस जाति का प्रमाण पत्र बनाएगा शासन-प्रशासन?
इस निकष पर आप राहुल गांधी, और उनसे पहले उनके पिता राजीव गांधी को किस जाति का सर्टिफिकेट मिलेगा? आप तय करिये। जनेऊधारी बताने से यदि कोई जनेऊधारी सनातनी हिन्दू हो जाये तब तो धर्म परिवर्तन की तरह जाति-परिवर्तन का भी सिलसिला चल पड़े। कम से कम हिन्दू सामाज में जाति बदलने की कोई सुविधा सामाजिक और कानूनी तौर पर नहीं है। हां, धर्म आसानी से बदल सकते हैं आप। जाति जन्मना होती है। कर्मणा नहीं। धर्म ग्रंथो के बहाने जाति को कर्मणा बताने वाले सच छुपा कर आपको भ्रमित करते हैं। अपना उल्लू सीधा करते हैं। बचिए ऐसे लोगों से। सच यही है जाति जन्म से तय होती है कर्म से नहीं। वरना साक्षी और अजितेश हों या राहुल- राजीव-सोनिया, इंदिरा-फिरोज। इनको लेकर जाति का विवाद और बखेड़ा, कोर्ट और समाज, राजनीति का प्रवेश नहीं होता। किसी को पहनावे के ऊपर जनेऊ पहन कर खुद को जनेऊधारी बताने की भला क्या आवश्यकता पड़ती। यदि जाति जन्मना नहीं कर्मणा होती तो?