Monday 29 July 2019

दाउदनगर विशेष: मील का पत्थर चला गया जो मील का पत्थर दे कर


(डॉ.बीके प्रसाद को श्रद्धा सुमन : सबके अपने-अपने अनुभव)

० उपेंद्र कश्यप ०
मील का एक पत्थर बन गए डॉ.बीके प्रसाद, और इस पत्थर पर अपने हस्ताक्षर उकेर दिया सुरेश कुमार गुप्ता ने। यह भी मील का पत्थर ही बनाया गया दाउदनगर के इतिहास में कि किसी शिक्षण संस्थान द्वारा किसी की श्रद्धांजली सभा का आयोजन किया गया। वह भी विद्यालय की बंद चारदीवारी से बाहर और आयोजक के बैनर में लिखा दिखा-आम जनता। डॉ.प्रकाशचंद्रा स्वयं एक शिक्षण संस्थान (भगवान प्रसाद शिवनाथ प्रसाद बीएड कॉलेज) के सचिव हैं। वे बोले-इस तरह के आयोजन के लिए आयोजक धन्यवाद के पात्र हैं। सबसे बड़ी बात कि अपनी यात्रा में सहयोग करने वाले को इस तरह स्मरण करने की सोच विद्या निकेतन स्कूल ऑफ़ ग्रुप्स के सीएमडी सुरेश गुप्ता सर और सीईओ आनंद प्रकाश रखते हैं। यह आगे चल कर उन सबको प्रेरित करेगा जो समाज के लिए कुछ सोचते या करते हैं। 
ख़ास बात यह रही कि इतनी जल्द डॉ.साहब पर डाक्यूमेंट्री बना दी गयी। डॉ.प्रकाशचंद्रा ने कहा-इसके लिए इसके लेखक दाउदनगर के इतिहासकार उपेंद्र कश्यप, धर्मवीर फिल्म एंड टीवी प्रोडक्शन के धर्मवीर भारती, आवाज दने वाली मिस डॉली के श्रम के प्रति सबको आभारी होना चाहिए। सीएमडी सुरेश कुमार गुप्ता ने कहा कि जब सरकारी चिकित्सा व्यवस्था चरमराई हुई थी, चिकित्सकों का घोर अभाव था, उस वक्त आये थे डॉ.साहब। इनके साथ ही विद्यानिकेतन की यात्रा भी प्रारंभ हुई थी। दवा लिखते थे, जांच अनावश्यक रूप से नहीं लिखते थे। इस कारण मरीज चौंकता था। यह अनुभव था उनका। विधायक बीरेंद्र कुमार सिन्हा ने कहा कि शोक संतप्त परिवार को संबल देने की ईश्वर से कामना की। 
विधायक रवींद्र सिंह ने कहा कि सेवा करने आये थेसेवा करते ही चले गए। इंसानियत थी इनमें। पूर्व उप मुख्य पार्षद कौशलेंद्र कुमार सिंह ने कहा कि वे सीमित दवा देते थे। विश्वास के साथ मरीज जाते थे। आज डॉक्टर मरीज को जल्द छोड़ना नहीं चाहते। जबकि बीके प्रसाद स्थिति को देखते हुए तुरंत रेफर कर देते थे। डॉ.बीके प्रसाद के सुपुत्र अमेरिका में सेवारत डॉ.संजीव कुमार, पूर्व जिला पार्षद राजीव कुमार उर्फ़ बब्लू और पुणे में कार्यरत कृति आजाद ने भी अपने अनुभव साझा किया।

० यात्रा की यादों के सहारे डॉक्टर साहब को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि ०
                                                      (...जो डाक्यूमेंट्री में है)
यह सावन का पवित्र महीना बैजू (बाबा बैजनाथ) को समर्पित है। इसी महीने में दाउदनगर के बैजू (डॉ. बीके प्रसाद) शहर और परिवार को छोड़कर स्वर्ग में वास करने चले गए। 269 किलोमीटर दूर स्थित खगड़िया से जब चार दशक पूर्व दाउदनगर आए थे डॉ. साहब, तो इलाके के स्वास्थ्य की देखभाल की जिम्मेदारी उनके कंधे पर आ गयी थी। अब नहीं रहे तो शहर का कंधा बोझिल हो गया है। फुटबॉल के खिलाड़ी डॉ. साहब ट्रेन से लंबी यात्रा कर खेलने जाया करते थे, अपने गांव में फुटबॉल टूर्नामेंट का आयोजन करते।
जब भारत 1983 में क्रिकेट का वर्ल्ड चैंपियन बना तो विश्व विजेता भारतीय टीम का खेल देखने अपने बड़े पुत्र डॉ. संजीव कुमार के साथ चेन्नई (तब मद्रास) गए। वहां दोनों सुनील गावस्कर के 236 रन बनाने के विश्व रिकार्ड के साक्षी बने। चंचल स्वाभाव के धनी डॉ. साहब के पैर एक बार आम खाने के चक्कर में तब टूट गया था जब पेड़ से तोड़ने का प्रयास कर रहे थे। वे बीजू आम के शौकीन थे, जिसे चूस कर खाया जाता है।
डॉ. साहब के अब कई किस्से दाउदनगर के फिजां में तैरने लगे हैं। उनके बड़े पुत्र डॉ. संजीव कुमार अमेरिका में भारतीय संस्कार को जीवित रखे हुए हैं। मरीज के घर तक जाकर इलाज करना उनके संस्कार में है। मंझले बेटे राजीव कुमार जिला पार्षद बने, जन सेवा उनकी साधना है। छोटे बेटे कीर्ति आजाद जीआईए इंडिया में पुणे में कार्यरत हैं। 
आज शहर मर्माहत है। सभी अश्रुपूरित नयनों से डॉ. बीके प्रसाद सर को श्रद्धांजलि दी रहे हैं। उस महान आत्मा को हमारी ओर से श्रद्धांजलि, जो आत्मीयता का साक्षात्कार कराता था।

Friday 19 July 2019

शहर गढ़ने के गवाह डॉक्टर बीके प्रसाद सर नहीं रहे, उनको श्रद्धांजलि


अभिभावक चिकित्सक की दूसरी पीढ़ी समाप्त
उनसे मिलते वक्त का उनका चेहरामुस्कानस्फूर्ति  और संवाद मस्तिष्क में पैबंद हो गए। सब पूर्ववत ही तो थे। इसमें कहीं से भी खतरे का संकेत कतई नहीं था। लगा ही नहीं कि वे थोड़ा भी अस्वस्थ हैं। अचानक से उनके नहीं रहने की सूचना ने इसी कारण चौंका दिया। वे अभिभावक चिकित्सक की पीढ़ी के अंतिम किरदार थेजो अब नहीं रहे।
    0 उपेंद्र कश्यप 0
प्रायः देर रात और अहले सुबह मोबाइल के रिंग बेचैन करते हैं। क्योंकि अक्सर इस अवधि में बुरी सूचना ही आती है। शुक्रवार की सुबह 5:32 बजे मोबाइल ने शोर किया। अस्वस्थ हूँ, इस कारण स्फूर्ति गायब है। देखा, नम्बर गुलाम रहबर के नाम से शेव था। आवाज आई-भैया, सर नहीं रहे। डॉक्टर बीके प्रसाद सर को लेकर यह सूचना बेचैन करने से अधिक चौंका गई। कल यानी 18.9.2019 दिन गुरुवार को पूर्वाह्न ही दाउदनगर से डेहरी आते वक्त उनसे मिला था। बीमार था तो एक कफ सिरफ दिया और पहले की परची पर एक एंटीबायटिक लिखा। भाई राजीव उर्फ बबलू की दवा दुकान से दवा ली और चल दिया था। उनको पहली बार मैंने कुछ महंगी दवा दी, जो मैंने खरीदा था किन्तु इस्तेमाल सब नहीं कर सका था। उनको यह कह कर दिया कि किसी को यह दवा काम आयेगी, उनको दे दीजिएगा। वह दवा शायद अब उनके सामने के टेबल पर ही पडा रहा गया। तब मिलते वक्त का उनका चेहरा, मुस्कान, स्फूर्ति  और संवाद मस्तिष्क में पैबंद हो गए। सब पूर्ववत ही तो थे। इसमें कहीं से भी खतरे का संकेत कतई नहीं था। लगा ही नहीं कि वे थोड़ा भी अस्वस्थ हैं। अचानक से उनके नहीं रहने की सूचना ने इसी कारण चौंका दिया। वे अभिभावक चिकित्सक की पीढ़ी के अंतिम किरदार थे, जो अब नहीं रहे। डॉ. राम परिखा बाबू को हमने पिछले साल खोया था। वे पहली पीढ़ी के चिकित्सक थे। उनके पास गुलाम भारत से लेकर 2010 के दशक तक की यात्रा के संस्मरण थे। दिमाग में किसी डिक्सनरी या इनसाइक्लोपीडिया की तरह सुरक्षित। इसी कारण मैंने उन्हें "दाउदनगर का इनसाईक्लोपीडिया" की संज्ञा दी थी। स्वतंत्रता संग्राम से लेकर बाद के दिनों तक के किसी 'समय यात्रा' और उसके 'सारथी' या 'यात्री' से संबद्ध पूरा विवरण उपलब्ध करा देते थे। इसी तरह 1980 के दशक (जब वे दाउदनगर आये) से लेकर अपने निधन के वक्त तक का इतिहास डॉ.बीके सर के पास उपलब्ध था। इन्होंने दाउदनगर के बनने और गढ़ने के वक्त को जिया था। एक बड़ी घटना की एक कड़ी इनके सरकारी आवासीय क्लिनिक से जुड़ी, जो दाउदनगर के लिए ऐतिहासिक रही। व्यापक सामाजिक, राजनीतिक प्रभाव उसका शहर ने देखा था। लेकिन इस घटना का विवरण मैं सार्वजनिक नहीं कर सकता। यह 1990-2000 के दशक की घटना है। खैर।


डॉ. ब्रज किशोर प्रसाद (बीके बाबू) शहर के लिए एक एसेट थे। अब उनके बिना शहर इस सन्दर्भ में चिकित्सक विहीन लगता है, कि उन पर यह भरोसा था लोगों को कि दाउदनगर में उनका इलाज अंतिम है। स्वस्थ हुए तो ठीक अन्यथा रेफर। उनसे न जाने कितनी बार मेरा साक्षात्कार हुआ। उनके बारे में अखबार में काफी कुछ लिखा। उनके राजनीतिक सामाजिक मुद्दों से संबद्ध विचार मैंने सार्वजनिक किया। अखबार में काफी जगह ली उन्होंने। आज कई घंटे फाइल ढूंढता रहा। कुछ मिला, अधिकतर नहीं मिला। उनके बारे में जनता को, बीमार को आश्वस्ति थी, कि रेफर कर दिया तो फिर औरंगाबाद तक इलाज कतई संभव नहीं। राजधानी और वाराणसी या दिल्ली ही ठाँव मिल सकता था। इसके अलावा कोई कितना भी प्रतिष्टित हो, बड़ा आदमी हो, इनके सामने नतमस्तक ही रहा। कोई लफंगा हो तब भी वह इनके क्लिनिक में इनके सामने सभ्यता से ही पेश आता था। इनको लेकर काफी कुछ लिखा जा सकता है। लिखा भी हूँ। अब शहर में अनुभवी चिकित्सक कम ही बचे हैं। तीसरी पीढ़ी के चिकित्सकों को अब शहर के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी अपने कंधे पर ढोनी होगी, जिसमें डॉ. महेंद्र शर्मा, डॉ. रंजू, डॉ. विनोद कुमार जैसे चिकित्सक शामिल हैं। इनके बाद की चिकित्सक पीढ़ी को अभी बहुत कुछ देखना-समझना शेष है। 

                                    अंत में एक संस्मरण:-
डॉ.बीके प्रसाद सर के पुत्र डॉ.संजीव कुमार का साखात्कार, फोटो में गुलाब रहबर भी
एक बार मुझे चिकेन पॉक्स हुआ था। मैं उनके वर्तमान वाले क्लिनिक गया। सफेद हल्का चादर ओढ़े। देखते ही कहा- जाओ, मैं इलाज नहीं करूंगा। करीब-करीब भगा दिया। मुझे अपने घर वापस आ जाना पड़ा। फिर डॉ. महेंद्र शर्मा सर को फोन किया तो वे स्वयं घर आये और इलाज किया। मैं समझ नहीं सका था, ऐसा क्यों किया? खैर, कभी कभी व्यक्ति किसी कारण से उखड़ जाता है। मैं यही सोच खामोश हो गया। आश्चर्य इस बात का था कि वे मेरी माँ को और ममहर को जानते-पहचानते थे। जब मां के साथ गया था तो उनका व्यवहार अलग था। मेरे साथ वाले व्यवहार से एकदम उलट। उनको बाद में मेरी पृष्ठभूमि का ज्ञान हुआ। हालांकि बाद में इतना करीब हुए हम कि गप्पे लड़ाने के लिए शाम को बैठा करता था। 
भगवान उनकी आत्मा को शांति दे। भाई बबलू समेत पूरे परिवार को दुख सहने का संबल दे। बस यही ईश्वर से कामना करता हूँ।