Tuesday 27 June 2017

कैसे हो पढाई: 900 बच्चों के लिए मात्र आठ कमरे


फोटो-जिला में नौवां स्थान लाने वाला नीरज अपनी माँ के साथ
कक्षा नौवीं व दसवीं में है 13 सेक्शन


प्रति कमरा 70 विद्यार्थी एक 
सेक्शन

उपेन्द्र कश्यप


राष्ट्रीय इंटर स्कूल एक बार फिर चर्चा में है| यहाँ के विद्यार्थी नीरज कुमार ने 433 अंक लाकर  जिला में नौवां स्थान प्राप्त किया है| उसके पिता  रामराज शर्मा मजदूर हैं| वह जिनोरिया में रह कर कोचिंग किया और यह मुकाम हासिल किया| इस स्कूल की स्थिति भी ज़रा जानिए| सूत्रों के अनुसार यहाँ करीब नौ सौ बच्चे नामांकित हैं| मात्र आठ कमरा है यहाँ| प्रति कमरा 70 बच्चों का औसत आता है जो नियमों का खुला उलंघन है| अधिकतम 40 बच्चे होने चाहिए वैसे नियमत: औसतन तीस बच्चे पर एक कमरा व एक शिक्षक होना चाहिए| शिक्षकों की संख्या 12 है अर्थात शिक्षक-छात्र औसत भी नियमानुकूल नहीं है| इसके लिए किसी प्रधानाध्यापक को कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है| यह स्थिति तो किसी प्रधानाध्यापक के लिए ही चुनौतीपूर्ण है कि वह क्लास कैसे मैनेज करेगा? आप समझ सकते हैं कि यहाँ नौवीं में सात और दसवीं में छ: सेक्शन है| अब तेरह सेक्शन और कमरा आठ| कितना चुनौतीपूर्ण है स्कूल चलान? बताया गया कि संस्कृत में कोइ शिक्षक नहीं हैं| अंगरेजी व विज्ञान में मात्र एक-एक शिक्षक और गणित के दो शिक्षक कार्यरत हैं| बताया गया कि कुल 489 परीक्षार्थियों में से 301 पास और 188 फेल हुए हैं| इस स्कूल की व्यवस्था बदलने की चुनौती है और सरकारी महकमा आँख कान बंद कर चुका है|

16 साल से संस्कृत के शिक्षक नहीं
बिहार विद्यालय परीक्षा समिति की व्यवस्था के अनुसार यदि कोई परीक्षार्थी संस्कृत विषय में फेल हो जाए और अन्य सभी विषयों में 100 फिसदी अंक भी प्राप्त कर ले तो वह मैट्रिक की परीक्षा में फेल हो जाएगा। रास्ट्रीय इंटर स्कूल में संस्कृत का शिक्षक गत सोलह साल से नहीं हैं। सेवानिवृत प्रभारी प्रधानाध्यापक कृष्ण कुमार सिंह ने बताया था कि कई बार विभाग ने रिक्तियों की सूची मांगी किंतु शिक्षक नहीं मिले। हर बार भेजी गयी सूची ही भूल जाती रही। जरा सोचिए कि जब संस्कृत के शिक्षक ही नहीं हैं, पढाई ही नहीं होती है तो फिर यहां के छात्र परीक्षा में पास कैसे करते हैं? इसका जवाब किसी के पास नहीं है क्योंकि मामला ओपेन सिक्रेट है।   

1953 का राष्ट्रीय हाई स्कूल

शहर में राष्ट्रीय मध्य विद्यालय खोले जाने के बाद राष्ट्रीय उच्च विद्यालय खोलने का सपना देखा गया। जुलाई 1953 में इसका प्रारंभ चुडी बाजार में कबीर मियां (मो.अकबीरुद्दीन अंसारी) की बाडी में किराया पर किया गया। बाद में अंकोढा और पिलछी के लोगों से जमीन खरीद कर वर्तमान राष्ट्रीय इंटर स्कूल के भवन की बुनियाद रखी गई। 01 जनवरी 1961 माघ शुक्ल पंचमी को भुतपूर्व विधायक रामनरेश सिंह (अब स्वर्गीय) ने शिलान्यास किया। इस विद्यालय के भवन में लगे शिलापट्ट इसकी गवाही देते हैं कि जुलाई 1953 में तत्कालीन विधायक राम नरेश सिंह व पदारथ सिंह, हजारी लाल गुप्ता और रामकेवल सिंह ने इसकी स्थापना की थी|   




Sunday 25 June 2017

बदल गयी बिहार की बेटी, बदलेगी प्रदेश की राजनीति?

शहरनामा- उपेंद्र कश्यप।
ह्वाट्सएप, ट्वीटर और फेसबुक ऐसे सोशल प्लेटफॉर्म बन गए हैं जहां आदमी अपने मन की बात खुलकर लिख जाता है। उसका क्या भाव है, क्या क्या अर्थ लगाए जाएंगे, क्या सामाजिक प्रभाव पड़ेगा, इसकी चिंता लिखने वाले को  कतई नहीं होती है। हालांकि बहुतेरे ऐसे हैं जो सोच समझ कर लिखते हैं। लेकिन बिना सोचे समझे लिखने वालों की संख्या अधिक दिखती है। देश में राष्ट्रपति चुनाव का माहौल है। स्वाभाविक है हर तरफ इसकी चर्चा है। औरंगाबाद और दाउदनगर इससे भला अछूता कैसे रह सकता है? इनबॉक्स में इसी संदर्भ में एक मैसेज टपका। 'बिहार की बेटी तो इशरत जहां होती थी, मीरा कुमार कैसे हो गई?' सवाल मौजू था। सवाल पूछना चाहिए, यह लोकतंत्र की ताकत है। सवाल पूछने पर रोक ही आपातकाल की घोषणा है। चाहे कोई भी राजनीतिक दल ऐसा करे। दुर्योग से जब शहरनामा लिख रहा हूँ तो यह याद भी आ गया कि आपातकाल की बरसी भी है। खैर, सवाल ने चौंकाया नहीं। इसी सुशासन बाबू ने इशरत जहां को वोट लाभ के लिए बिहार की बेटी बताया था। बड़े गर्व कब साथ। अब इनके सहयात्री समाजवादी धड़े वाले मीरा कुमार को बिहार की बेटी बता रहे हैं। तब एक धर्म विशेष के वोट के लिए ऐसा कहा गया था आज भी ऐसा ही कुछ है। वोट बैंक बनाम पावर व प्रेशर पॉलटिक्स है यह सब भाई। चर्चा बहुत कुछ है। लोग पूछ रहे और सवाल उठाने का अवसर नेता दे रहे हैं। सवाल उठ रहा है कि बिहार की बेटी बदल गयी तो क्या प्रदेश का सियासत भी बदलेगा? समीकरण बदलेंगे? या फिर जैसा एक नेता कहते हैं- गाछे कटहल, होठे तेल। वैसा ही होगा। क्योंकि डूब रहा शख्स कभी नौका नहीं छोड़ता। एक के पास विकल्प है दूसरे के पास तिनके का सहारा। जिसके जरिए वह स्थापित हो रहा है। इसलिए सौ चूहे खाकर भी जैसे बिल्ली हज को चली गयी थी वैसे ही नेता जी सबकुछ सहते हुए साथ रहेंगे। कहते हैं न- मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। अब देखिए, समय का इंतजार करिए। क्या क्या बदलता है? बेटी बदली, सियासत बदलती दिख रही है। किंतु कब क्या बदल जाएगा, यह कोई नहीं जानता, क्योंकि पॉलटिक्स है भाई ।


और अंत में डा. अजय जनमेजय को पढ़िए-

वो भी चतुर था, उसने सियासत सीख ही ली।
धोखा देना, हाथ मिलाना सीख गया।
उसको दे दो नेता पद की कुर्सी, वो।
वादे करना और भुलाना सीख गया।


Saturday 24 June 2017

सरकार फीस तय करेगी तो आयेगी निजी स्कूलों को मुश्किल


 उपेन्द्र कश्यप
 राज्य सरकार अब नीजी स्कूलों के फीस तय करेगी| इसके लिए चार राज्यों के अध्ययन के बाद रेगुलेशन प्रस्ताव तैयार किया गया है| इस महीने के अंत तक सरकार इस पर कोइ ठोस निर्णय ले सकती है| जिस तरह पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में अभिभावकों का विरोध बढ़ रहा है शायद बिहार सरकार उससे सतर्क हो गयी है| लेकिन क्या यह इतना आसान होगा? नीजी स्कूल इसे स्वीकार कर सकेंगे? कितना आसान या मुश्किल होगा यह अभी नहीं कहा अजा सकता किन्तु नीजी स्कूलों की चिंता इस खबर से बढ़ गयी है|

सही मापदंड तय करना मुश्किल-सुरेश कुमार

बाल कल्याण शिक्षण संस्थान के पूर्व अध्यक्ष व विद्या निकेतन के सीएमडी सुरेश कुमार कहते हैं कि सौ फीसदी यह अनुचित है| सरकार कैसे तय कर सकती है| शिक्षकों को मासिक भुगतान एक हजार से तीस हजार तक होता है| व्यवस्था के हिसाब से फीस तय करना होता है| सरकार किस मापदंड पर यह तय करेगी?

दाउदनगर के गवान प्रसाद शिवनाथ प्रसाद बीएड कॉलेज के सचिव डा.प्रकाशचंद्रा का कहना है कि सरकार वोट के लिए लोक लुभावन नीति बनाती है, इस कारण यह व्यवहारिक नहीं होता है| एक साल पूर्व बीएड कॉलेजों के लिए सरकार ने फीस तय किया था| नतीजा अब चलाना मुश्किल हो रहा है| सरकार वेतन और संसाधन देती है तब भी सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता ठीक नहीं हुई| नीजी स्कूल अपनी सुविधा और गुणवत्ता के हिसाब से फीस तय करते हैं|
प्राइवेट स्कूल एंड चिल्ड्रेन वेलफेयर एसोसिएशन के सदस्य स्कूल नव ज्योति शिक्षा निकेतन के निदेशक नीरज कुमार ने कहा कि 

"विद्यालय की व्यवस्था के अनुरूप फीस तय करते हैं| जिनकी जैसी व्यवस्था होती है उसकी उस हिसाब से फीस होती है| शिक्षकों का वेतन सरकार तय करेगी और देगी या स्कूलों को देना है?"   



स्कूल भी चलें व भला भी हो-डा.शम्भूशरण सिंह
फोटो डा.शम्भूशरण सिंह

विवेकानंद मिशन स्कूल के निदेशक डा.शम्भूशरण सिंह का मत इस नुद्दे पर सबसे अलग है| उन्होंने कहा कि नीजि स्कूलों को मनमाना छोड़ देना हो सकता है उचित न हो, किन्तु नीजि शिक्षण संस्थानों का समाज में योगदान भी भुलाया नहीं जा सकता| समाज का भला तो नीजि स्कूल करते ही हैं, जनता का अहित न हो यह भी सरकार को देखना चाहिए| इन्होने कहा कि यह व्यापक क्षेत्र है| गाँव, पंचायत, ब्लाक, अनुमंडल व जिला सस्तर पर स्कूल हैं| सुविधा और गुणवत्ता का बड़ा अंतर भी होता है| सरकार को देखना चाहिए कि स्कूल भी चलते रहें, ढांचा भी बरकरार रहे और लोगों को भी दिक्कत न हो|

नीति और नियत की बात
बिहार सरकार की यह पहल बहुतों को अच्छी लगेगी कि नीजि स्कूलों की फीस वह तय करेगी| सवाल यह है कि यह कितना सफल हो सकेगा? राज्य में कभी भी नीजि स्कूलों का सर्वे नहीं हुआ है| बिना प्रमाण नीति बनाना और उसे लागू करना इसी को शायद कहते हैं| सरकार ने नीजि स्कूलों के निबंधन का फैसला लिया था| स्कूलों से पैसे (रसीद के साथ) लिए गए किन्तु सरकार पीछे हट गयी| शायद उसे यह इल्म हो गया था कि ऐसा करने से सरकारी स्कूलों की खराब स्थिति और साफ़ हो जायगी| इस खबर में भी सरकार की नीति और नियत पर संदेह है| शायद ही वह ऐसा कर सके|   

अविनाश का भूत और जब उडी हवाइयां

रिसॉर्ट में अपने जन्म दिन पर केक काटते भाई अविनाशचन्द्र जी

गतांक से आगे...
अलविदा आईपॉलिसी नौकुचियाताल-2
यह नैनीताल का नौकुचियाताल है| इसका यह नाम क्यों पडा? गूगल बाबा ने बताया कि यहाँ के ताल के नौ कोण हैं| इसलिए यह नाम है| किंवदती है कि एक साथ सभी नौ कोण कोइ देख लेता है तो उसकी मौत हो जाती है| हालांकि आसमान से देखने का विकल्प छोड़ दें तो सभी कोण एक साथ दिखने की कोइ संभावना नहीं है| इसके अलावा उपर पहाड़ पर एक प्वाइंट है-सुसाइड प्वाइंट| हालांकि गाइड के अनुसार यहाँ किसी ने आत्महत्या नहीं की| तब भी यह रहस्य ही है कि यह नाम क्यों और कब पडा? खैर पहाड़ों में ऐसी किन्वदतियाँ होती ही हैं| इसे छोड़ दें, लेकिन एक सच जो हम सबसे जुडा वह भी कल को किंवदती ही बन जाये तो आश्चर्य नहीं| उस भुक्त यथार्थ (सच्ची घटना) को हमने अनायास ही संबोधन के क्रम में शीर्षक दिया था- अविनाश का भूत!
इस शीर्षक को सुनते ही आयोजन के मुख्य कर्ताधर्ता बड़े भाई अविनाशचन्द्र चौंक गये थे| हां, साथियों याद आया आपको, उनका भूत! जिसे आप सब ने ग्रेजुएशन सेरेमनी में मुझे बताने के लिए कहा था। 17 जून की रात। आजीवन याद रहने वाली घटना। शायद सिर्फ मेरे लिए ही नहीं, इस घटना क्रम में जितने साथी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शामिल थे, सभी को वह घटना याद आ जाती होगी। बरबस ही। हुआ यह था कि कोलकाता के सबसे कम उम्र (62) के नौजवान साथी अमित दा ने कमरे में 15 मिनट में आने को कह गए थे। रुम पार्टनर रेडियो जॉकी शाहिल एक घन्टे में आने का वादा कर गए। दोनों रात 12 बजे तक नहीं आये तो मैं भी सो गया। करीब सवा एक बजे, जब गहरी नींद में मैं था, अचानक मित्रों ने कमरे का दरवाजा पीटना शुरू किया। घबराया हुआ चेहरा लिए बाहर निकला। साथ में मनमीत भी। कहा गया कि -मार हो गई है, अभी इसी वक्त यहां से बाहर भागना है। मेरे और मनमीत के चेहरे पर घबराहट और आश्चर्य का बोध एक साथ झलक रहा था। किसी की जुबान फिसली तो बोल निकले-भूकंप आने वाला है। कोई मित्र बोल गया-अभी ही कल का सत्र पूरा करना है। दुविधा हुई तो आशंकाएं व घबराहट कम होने लगी। इस बीच मनमीत ने कहा कि अविनाश को कॉल करता हूँ। साथियों ने मना किया और पूछा कि अभी तो अविनाश जा रहे थे। आगे वो क्या गए? मेरी नजर ने भी इसकी पुष्टि की। जब आगे सन्नाटे में, अंधेरे में बढा तो कोई बोला वो सफेद साड़ी में एक आत्मा दिख रही है। कोई बोला देखिए तेंदुए के पैर के निशान। खैर जब सभी मिले तो देखा- यह अविनाश नहीं अमित थे। अविनाशचन्द्र के छोटे भाई, करीब करीब हमशक्ल| इसे ही मेरी जुबान से ग्रेजुएशन सेरेमनी में सुनने को कहा गया तो मैंने शीर्षक दी- अविनाश का भूत! दरअसल, लोक सभा टीवी के इंडिया स्पीक के प्रस्तोता व प्रतिष्ठित टीवी एंकर सर अनुराग पुनेठा जी की उपस्थिति में घटनाक्रम से कुछ घन्टे पहले ही भाई अविनाशचन्द्र ने सुनाया था कि कैसे कोई अमित से मिलने आता था तो वही बात कर लेते थे और जब वह जाने को होता था तो बताता कि वे अमित नहीं अविनाश है। यह सुनते ही सामने वाले के चेहरे का भाव बदल जाता था|  ऐसा ही भ्रम उस रात मुझे हुआ था। इसीलिए जब साथियों ने स्मरण सुनाने को कहा तो शीर्षक अनायास ही निकल गया- अविनाश का भूत!
ग्रेजुएशन सेरेमनी में जे पार्थ शाह व डा.अमितचन्द्र से
 प्रमाणपत्र लेती रुचिका गर्ग
 यहां चर्चा थोड़ी ग्रेजुएशन सेरेमनी की भी। मुम्बई में हिंदुस्तान टाइम्स की पत्रकार रही और अब फ्रीलांसिंग कर रही अंतरा को वर्कशॉप में और उसके बाद सेरेमनी में मनमीत ने अंग्रेजी की जगह हिंदी बोलने को कहा। वह हिंगलिश बोली। रुचिका गर्ग को हिंदी समझ नहीं आती है। वह पॉलिसी बनाने के कार्य में मेरी पार्टनर भी बनी थी। वह टोंट कसती और हम हंस जाते थे। सर्टिफिकेट कोर्स का प्रमाण पत्र लेते वक्त साथी प्रमाण पात्र लेने वाले का नाम लेकर जोश प्रकट करते, जैसे क्रिकेट मैदान में सचिन, सचिन की आवाज लगाई जाती थी| साथी ताली बजाते हुए उत्साहवर्धन करते तो आनंद कई गुणा बढ़ जाता था। हमने द लेक रिसोर्ट का आनंद खूब लिया। खास कर उनके स्टाफ का सहयोग और उनके हाथों का बना भोजन। वाकई, सच बता रहा हूँ, किसी भी पहाड़ी इलाके में (यह मेरी पांचवी यात्रा थी, पहाड़ी इलाके की) ऐसा भोजन नहीं किया था। इसकी आशंका थी, किन्तु लखनऊ से नौकुचियाताल के रास्ते में ही अविनाश ने खाना के स्वादिष्ट होने की जानकारी दी थी, तो थोड़ा आश्वस्त था। किंतु इतने व्यंजन और उसके ऐसे स्वाद होने की सच में कल्पना नहीं की थी। मैनेजमेंट देख रहे जसमीत (सरदार जी) की भी आत्मीयता दिखी। नौकुचियाताल का यह खूबसूरत रिसोर्ट काफी आकर्षक था। इसके प्राकृतिक सौंदर्य ने मन मोह लिया। मनमोहक नजारे ही थे कि कार्यशाला छोड़कर जाने को मन नहीं करता था। जब कभी अवसर मिलता लेक के सामने हल्की ठंढ में कुर्सीमान होकर चाय, कॉफी, पकौड़े या अन्य का आनन्द लेता। यह आनंद स्मरणीय है। 
धन्यवाद नौकुचियाताल|

Tuesday 20 June 2017

अलविदा आईपॉलिसी नौकुचियाताल!

तुम स्मरण आते रहोगे आजीवन-1
उपेंद्र कश्यप, दैनिक जागरण, औरंगाबाद, बिहार।


सेंटर फॉर सिविल सोसायटी (CCS) के तीन दिवसीय कार्यशाला आईपॉलिसी नौकुचियाताल से वापस घर बिहार के औरँगबाद लौट रहा हूँ। ट्रेन है, शोर है और नौकुचियाताल की बहुत सारी गुदगुदाती यादें हैं। हर पल याद आ रहा है, कुछ न कुछ। आखिर इतनी जो गतिविधियां हुई। देश भर के 25 विभिन्न संस्थानों से जुड़े पत्रकार मिले। सबके अपने अनुभव संसार, सबके अपने आग्रह-पूर्वाग्रह, सबके अलग अलग ज्ञान और पत्रकारिता का अनुभव। क्या कमी रह गयी इस कार्यशाला में? बताउंगा, खोज रहा हूँ|

० अविनाशचंद्र-
CCS  या एटलस की जान और ipolicy कार्यशाला की आत्मा। मैं इनका इसलिए कायल हो गया कि मेरा यह पांचवा कार्यशाला या सेमिनार है, किन्तु इतनी आत्मीयता और अनुशासन के साथ जिम्मेदारी का निर्वहन करते मैंने किसी अन्य को नहीं देखा था। हालांकि दिल्ली में आयोजित फॉरवर्ड प्रेस के दो दिवसीय कार्यक्रम की यादें भी हैं। वहां के सुखद अनुभव व प्राप्त ज्ञान संसार से यहां अधिक मिला। हालांकि दोनों दो चीचें थी और दोनों के विषय के साथ तमाम बातों में भिन्नता थी। खैर, मकसद तुलना करना नहीं है।
अविनाश सर से भाई बन गए। मित्र बन गए। उनका जन्मदिन मनाया केक काटे और खाए| उनकी जिम्मेदारियों के निर्वहन की अदा आजीवन याद रहेगी। इनसे सीखने के बाद अब मैं भी अमल करने का प्रयास करूंगा। यह वादा मैं खुद से कर रहा हूँ। 

इनके अलावा डॉ अमिचन्द्र ने एक दूसरे से सर्वदा अपरिचित स्त्री- पुरुष पत्रकारों के बीच की दूरी और असहजता, आशंका को खत्म करने के लिए जो गेम खिलाया, खास कर बैंडाना और पोल गेम, स्मरणीय, संदेशपरक और ज्ञानवर्धक रहा। मैं कल्पना नहीं कर सकता कि इन गेमों के अभाव में अपरिचित पत्रकार साथी जो एक दूसरे की संस्कृति, एक हद तक भाषा भी, रहन सहन और ज्ञान से अपरिचित थे, इतने आत्मीय हो सकते थे। संभवतः कई मित्र इससे सहमत होंगे। यदि गेम न होते तो शायद विदा होते वक्त एक दूसरे के प्रति आत्मीयता का भाव प्रकट नहीं होता, आंखें न भरती, हल्द्वानी में फिर से चाय के बहाने मिलने की भावना (मेरी) व्यक्त नहीं होती। कई को यह अनुभव हुआ होगा।
जे पार्थ शाह, डॉ गीता गांधी kingdon, डॉ. अमितचन्द्रा, अविनाशचंद्र के क्लास अच्छे लगे। इन कक्षाओं से काफी कुछ सीखने को मिला। कितना, बता नहीं सकता। अनुभव संसार व्यापक हुआ है। ज्ञान का विस्तार बढ़ा है। खूबसूरत नजारों व मौसम के बीच शांति मिली और यह भी कि कैसे आंकड़ों को प्राप्त किया जा सकता है, इनका इस्तेमाल किया जा सकता है- अपनी पत्रकारिता में, जिससे खबरों की गहराई और उसका असर अधिक हो सकता है। दृष्टिकोण - जो खबर खोज लेने और उसकी प्रस्तुति का मुख्य अंग है, वह व्यापक हुआ, बदला है। एक कमी थी बिहार का कोई पत्रकार नहीं था किंतु उत्तर प्रदेश के मित्रों ने इस अभाव का अहसास ही नहीं होने दिया। इसके लिए मैं up के सभी सहभागी पत्रकार साथियों को धन्यवाद देता हूँ। इनके अलावा दिल्ली, मुम्बई, राजस्थान, कोलकाता, पुणे और हर उपस्थित पत्रकार साथियों का शुक्रगुजार हूं जो भी इस कार्यशाला में शामिल हुए। सभी ने बड़ा दिल दिखाया। हंसी मजाक की। एक दूसरे के साथ यह समझने की कोशिश की कि नीति निर्धारण की खामियां क्या है, इन्हें बनाना कितना आसान है या कितना काफी मुश्किल। जाना हमने कि शिक्षा में देश और प्रदेशों का क्या हाल है? क्या मुश्किलें है। जानते तो पहले भी थे किंतु इतना व्यापक तो कतई नहीं। और शायद हर मित्र इससे सहमत होंगे। बजट स्कूलों के अखिल भारतीय गठबंधन नेशनल इंडिपेंडेंट स्कूल्स अलायन्स (निसा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष कुलभूषण शर्मा  से भी अच्छी जानकारी मिली हालांकि पूरक प्रश्न के उत्तर संतोषजनक नहीं रहे|  कार्यक्रम के इवेंट मैनेजमेंट संभाल रहे सरदार जस्मीत भाई और ipolicy देख रहे नितीश आनंद की आत्मीयता भी दिखी| इन्होने हर जरुरत को पूरी करने और हर आशंका को दूर करने की जिम्मेदारी बखूबी निभाया|

और अंत में......
मैंने अपने जीवन की वह बात साथियों के बीच लोक सभा टीवी के एंकर अनुराग पुनेठा सर की उपस्थिति में साझा की, जिसे अपने शहर या फेसबुक वॉल या ब्लॉग पर मैं नहीं कर सका था और न ही कर सकता हूँ। उसे आप सब याद कर मुस्कुराइए। इसी अपेक्षा के साथ की हम जब भी एक दूसरे से मिलेंगे वही आत्मीयता व्यक्त होगी, सबको धन्यवाद। दिल से सबको शुक्रिया।।।।।।

शुक्रिया संतोष...
इस अवसर को उपलब्ध कराया मुजफ्फरपुर में दूरदर्शन के रिपोर्टर संतोष भाई ने| वे मेरे साथ फ़ॉरवर्ड प्रेस में लिखते हैं| हमारे मुलाक़ात दिल्ली में फ़ॉरवर्ड प्रेस के सेमीनार में हुई थी| करीब पांच साल पूर्व| तब की मुलाकात से जन्मे आत्मीय संबंध का ही यह कमाल था कि उन्होंने मुझे ccs के कार्यशाला आईपॉलिसी नौकुचियाताल के लिए आवेदन को कहा| मैं नेपाल था सो उनकी सूचना नहीं मिली| अचानक 10 जून को उन्होंने फोन किया और पूछ तो मैंने कहा-नहीं मालुम| उन्होंने तुरंत ही आवेदन को कहा| मैंने बिना अदेरी किए कोइ सवाल पूछे आवेदन किया और पहुँच गया वहां जहां की कल्पना तो नहीं ही की थी| सो धन्यवाद संतोष भाई| आपकी चर्चा कार्यशाला में मेरे अलावा फैजाबाद के ज़ी रिपोर्टर मनमीत भाई ने भी की| 

हत्याओं के दौर से निकले देवकुंड में सात साल से शांति

महंत ने बदल दी पूरी सामाजिक व्यवस्था
उपेन्द्र कश्यप
दो महंत और दो कर्मचारी की ह्त्या का दर्द झेल चुका देवकुंड गत सात साल से शांत है| यह परिवर्तन आया है युवा महंत कन्हैयानंद पूरी की नीतिगत बदलाव के कारण| अपने पिता महंत अखिलेश्वरानंद पूरी की 03 मार्च 2010 को ह्त्या होने के बाद वे यहाँ महंत बन कर आये थे| यह चौथी ह्त्या थी| सूत्रों के अनुसार दहशत का यह आलम था कि यहाँ कोइ महंत बन कर नहीं आना चाहता था| ऐसे में पुत्र को उत्तराधिकारी बना कर भेजा गया| इन्होंने रहने के लिए शांतिपूर्ण माहौल बनाने का प्रयास किया, तरकीब निकाली और सफल भी रहे| उन्होंने सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक बदलाव लाया| इस क्षेत्र में नीतिगत बदलाव किए और आज बाबा दुग्धेश्वरनाथ का देवकुंड शान्ति से अपना जीवन यापन कर रहा है| वास्तव में महंत कन्हैयानंद पूरी ने अपने पिता से उलट सोच विकसित की| इनका स्पष्ट मानना है कि संपत्ति उनकी नहीं है| लूटने नहीं देंगे और बेकार भी नहीं रहने देंगे| इन्होने जमीने समेटने की जगह उसे कल्याणकारी योजनाओं के लिए देने में विशवास रखा| नतीजा सबके सामने है|

मठ को जनोन्मुखी बनाया-मनोज शर्मा
क्षेत्रीय विधायक मनोज शर्मा ने कहा कि वास्तव में महंत कन्हैयानंद पूरी युवा हैं और उन्होंने मठ को जनोन्मुखी बनाया| जनता के काम के लिए, उनके कल्याण के लिए जमीनों का इस्तेमाल किया| उसे थाना, शिक्षण संस्थान के लिए इस्तेमाल किया| जनता के लिए दिया| नतीजा जनता स्वयं को मठ की जमीन से जुड़ाव का अहसास करता है| उसे लगता है कि मैथ की संपत्ति उसी के कल्याण के काम आ रही है| महंत की सोच और सामाजिक व्यवहार के कारण ही आज देवकुंड में सात साल से शान्ति है|
  

भागे महंत तो जमीन पर हुआ कब्जा
हत्याओं से बने दहशतजदा माहौल में उत्तराखंड के पिथौरागढ अखाडे ने यहां महंत राम जी पुरी को नियुक्त किया। वे दहशत में भाग गये। उन्हें लगा कि जान का खतरा है। वे भाग गये। देवकुंड मठ में बताया गया कि उनके जाने के बाद बाजार में मन्दिर के समीपवर्ती इलाके की दो एकड जमीन पर विभिन्न लोगों ने अवैध कब्जा जमा लिया। यहाँ संघर्ष की वजह ही जमीन पर कब्जा जमाने की प्रवृति रही है|   
  
कितनी जमीन यह स्पष्ट नहीं
 देवकुंड मठ के पास कितनी जमीन है यह स्पष्ट नहीं है| दिसंबर 2004 में प्रकाशित ‘लोकायत’ की एक रिपोर्ट में प्रमोद दत्त ने बताया है कि मठ के पास 899 बिगहा जमीन होने का रिकार्ड सरकार के पास है। इससे अलग मठ के मैनेजर राम कृपाल विश्वकर्मा ने बताया कि जमींदारी उन्मूलन के वक्त मठ के नाम 350 बिगहा जमीन थी| यह जमीन देवकुंड के अलावा धराना (अरवल) और मानपुर (गया) में है|

125 परिवार का जीविकोपार्जन
 इस समय मात्र 105 बिगहा जमीन पर ही मठ काबिज है| शेष सब अवैध अतिक्रमण का शिकार है| इसमे से 60 बिगहा खेतिहर जमीन है| मठ खेती करता है| 20 से 22 बिगहा जमीन पर मठ का निर्माण है| इतनी ही लगभग जमीन मठ के कर्मचारियों के जिम्मे या पट्टा पर है| इस जमीन से करीब 125 परिवार जीता है| उनका जीविकोपार्जन होता है|         

52 एकड़ भूहदबंदी में गयी

भूमि हदबन्दी क़ानून के तहत 52 एकड़ जमीन का परचा गरीबो में बांटा गया| मैनेजर राम कृपाल विश्वकर्मा ने बताया कि 1992-93 में 52 आदमी के नाम परचा वितरित किया गया| इसमे 14 एकड़ अनुसूचित जाति के लोगो के बीच वितरित हुआ| शेष अन्य कमजोर जातियों के बीच बांटे गए थे| बताया कि इसके बावजूद अतिक्रमण के लिए लोग प्रयासरत रहते है जो गलत है|  

मियांपुर : व्यवस्था की तरह देवमतिया भी कम सुनने लगी

अब भी दिखती है नाउम्मीदी की बेचैनी
अपने लोगों की सरकार ने ही ठगा
चुप रहने लगे है अब मियांपुर के पीड़ित
उपेन्द्र कश्यप

गोह का मियांपुर, एक ऐसा गाँव जिसने बिहार में नरसंहार के खात्मे के मुनादी की थी| 16 जून 2000 को यहाँ रणवीर सेना ने पहली पिछड़ी और सत्ताधारी जाति के खिलाफ जनसंहार किया था| इसके बाद बिहार में कभी नरसंहार नहीं हुए| इसीलिए बिहार में नारसंहारों के दौर का मुसहरी प्रारम्भ था तो मियांपुर अंत| विकास के मोर्चे पर इस गाँव में कुछ नहीं बदला| जिन सडकों किनारें 34 लाशें गिरी थी वह भी नहीं बनी|
गाँव में 65 वर्ष की देवमतिया घटना की प्रतिनिधि तस्वीर है| सतरह साल बाद उसके चेहरे पर  झुर्रियां आ गयी हैं। कम सुनती है। शायद व्यवस्था की मार ने यह ठीक ही किया कि जमाने की शोर न सुनना पडे। अन्यथा क्या-क्या सुनेगी और क्या क्या बतायेगी बेचारी देवमतिया? कहते हैं ईश्वर इसीलिए बहरा के साथ गुंगा भी बनाता है, ताकि सुनने के बाद बोलने की बेचैनी जानलेवा न हो जाये? उसका पुत्र राम लेख यादव और बेटी जानती कुमारी (13) मारे गए थे| बताती है घटना के बाद आश्रित को नौकरी देने की घोषणा हुई| बाद में कई और घोषणा की गयी, किन्तु सिर्फ एक लाख मुआवजा और दशकर्म व ब्रह्मभोज के लिए ग्यारह हजार रूपए मिले| आश्रित की शर्त के कारण नौकरी नहीं मिली, जबकी घटना के वक्त देवमतिया मात्र 48 साल की थी| सामाजिक न्याय के झंडाबरदार की सरकार तब भी थी और अब भी है| गाँव के लोग खुद के शासकों द्वारा ठगा हुआ महसूस करते हैं| इसीलिए देवमतिया अब चुप रहने लगी, कम सुनाने लगी, क्यों की न कल कोइ सूना न अब कोइ सुनता है न कल कोइ सुनेगा, इसकी उम्मीद ही है|

जो मारे गए थे
मियांपुर में मारे गए 34 में 20 स्त्री, 14 पुरुष शामिल हैं| इसमें 26 यादव, छ: पासवान व दो बढ़ई जाति के शामिल हैं|
 
मियांपुर का रास्ता भूल गयी सड़कें
मियांपुर ने जब 34 जानें दी तो उन्हें सत्ता ने आश्वस्त किया कि सड़क भी शीघ्र पक्की होगी और केवाल मिट्टी में यात्रा का दर्द सदा के लिए दूर हो जाएगा| अलबत्ता दो सड़कें मियांपुर के लिए बनी और दोनें ही वहां पहुँचने का रास्ता भूल गईं| अरंडा से मियांपुर तक की सड़क गाँव पहुँचने से करीब एक किलोमीटर पहले ही ख़त्म हो गयी| दूसरी सड़क बुधई मोड़ से मियांपुर तक बननी थी तो वह रास्ता भटक कर बीच में करीब डेढ़ किलोमीटर पहले ही हरिगांव तक सिमट कर रह गयी| इस रास्ते भी गाँव में नहीं पहुचं सकते हैं|


लालू भक्तों ने हथियार, नीतीश भक्तों ने सुरक्षा ली
फोटो-नरसंहार स्मारक के साथ श्याम सुन्दर

जन अधिकार पार्टी (लोकतांत्रिक) के प्रदेश प्रवक्ता श्याम सुंदर ने कहा कि तब से लगातार बिहार में सामाजिक न्याय और न्याय के साथ विकास के नारा लगाने वाली सरकार है। एक ओर जहां नरसंहार बाद पिछड़ी जाति के लालू भक्तों ने सामंतों का डर बताकर हथियार के लाइसेंस लिये वहीं नीतीश भक्तों ने नक्सलियों के डर के नाम पर सरकार से अपनी सुरक्षा बढ़वाई। आज भी मियांपुर सामंती दंश का शिकार है। सामंती दलालों ने इस बीच मियांपुर को दर्द दिया है। जब-जब मियांपुर को सड़कों से जोड़ने की योजना बनी, सामंती दलालों ने सड़कों को मियांपुर पहुंचने में अडंगा लगाया। कहा कि राजद-जदयू के स्थानीय सियासतदानों ने पीड़ितों के साथ छल किया है। 

मियांपुर: 34 शवों के बदले सिर्फ 11 को नौकरी

सरकारी बहाने कैसे-कैसे...
नौकरी न देने के लिए दिये क़ानून के तीन किताब
किसी को अनपढ़ तो किसी आश्रित विहीन बताया
उपेन्द्र कश्यप

अभागा मियांपुर सामाजिक न्याय की सरकार के खिलाफ सामन्ती आक्रोश का पीड़ित ठीक सतरह साल पहले बना था| लोगों के दुःख पर मुआवजे की मरहम सरकार हर घटना के बाद लगाते है किन्तु यहाँ अपने लोगों की सरकार ने अपने लोगों को ठगा लिया| जिस सेनारी के बदले मियांपुर ने 34 जानें दीं वहां 34 के बदले 34 नौकरी मिली और उसी सरकार ने यहाँ मात्र ग्यारह नौकरी दिए| ग्रामीणों की मानें तो हद यह कि राबडी देवी सरकार की ओर से क़ानून के तीन किताब भेज कर गाँव वालों को बताया गया कि नौकरी कम क्यों मिली? इस नरसंहार में मरे गए देवनंदन यादव के बेटे ओमप्रकाश सिंह यादव को अनपढ़ बता कर नौकरी नहीं दी गयी| आश्वस्त किया गया कि साक्षर होते ही नौकरी मिल जायेगी| बताया कि दौड़ते थक गये किन्तु नौकरी नहीं मिली| कोर्ट गया, मुकदमा किया किन्तु वहां भी थक गये| रामसागर यादव को नौकरी मिली है| उनकी पत्नी और भाई व बहन की ह्त्या हुई थी| भाई की पत्नी के मौत पहले हे एहो गयी थी सो कोए नौकरी नहीं मिली| गोपाल यादव ने चार और छ: साल के दो बेटा गंवाया किन्तु नौकरी नहीं मिली|

जिन ग्यारह को नौकरी मिली
मियांपुर निवासी रामसागर यादव, अशोक यादव, राम प्रवेश यादव, सुरेन्द्र यादव, रामाधार यादव, कृष्णा यादव, रीता देवी, फूलकुमारी देवी, रमाकांत पासवान व मुनेश्वर पासवान के अलावा बुधई की चिंता देवी को नौकरी मिली है|

मनिंदरजीत सिंह बिट्टा ने भी ठगा
ऑल इंडिया एंटी टेररिस्ट फ्रंट (आतंकवाद विरोधी मोर्चा) के चेयरमैन मनिंदरजीत सिंह बिट्टा ने भी मियांपुर के पीड़ितों को ठगा| उन्होंने घटना के बाद गाँव पहुँच कर सभी पीड़ितों को 25-25 हजार रूपए देने की घोषणा किया था| ग्रामीणों का कहना है कि पच्चीस हजार के बदले पांच रुपया भी नहीं दिया|
लालू राबडी सरकार ने ठगा-श्याम सुन्दर
जन अधिकार पार्टी (लोकतांत्रिक) के प्रदेश प्रवक्ता श्याम सुंदर का ने कहा कि नौकरी देने में तत्कालीन लालू-राबड़ी की सरकार ने ठगने का काम किया। सरकार की ओर से कानून के तीन किताब भेजे गये और बताया गया कि कानून के अनुसार  34 के बदले 11 की नौकरी ही होगी| कमजोर लोगों ने सरकार की बातों पर भरोसा किया। सामाजिक न्याय के लिये विडंबना है कि एक ओर जहां राबड़ी देवी की सरकार सुरक्षा के नाम पर पुलिस पीकेट खुलवाई, उसे कुछ समय के बाद नीतीश कुमार की तत्कालीन सरकार ने हटवा दिया।

वादे नहीं हुए पूरे
तब सरकार के प्रतिनिधियों ने कुल छ: वादे किये थे। सामाजिक न्याय वाले जाकर देखें की कितने वादे पुरे किये गये| एक भी नहीं। मुआवजा की राशि भले ही सभी के बदले मिली किंतु नौकरी नहीं, सडक नहीं, अस्पताल नहीं, स्कूल नहीं, डाकघर नहीं, पुलिस पिकेट नहीं।

आश्वासन का ‘लेटर बॉक्स’
मियांपुर में नरसंहार के बाद तत्कालीन वाजपेयी सरकार में सूचना प्रसारण मंत्री राम विलास पासवान पहुंचे| गाँव में डाकघर खोलने की घोषणा की| अभी केंद्र में खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हैं वे| घोषणा बाद यहाँ एक लेटर बॉक्स पेड़ में टांग दिया गया| कभी चिट्ठी पतरी आयी गयी नहीं| धीरे धीरे बाद में वह जर्जर हो गया|    


बिना पाठ्य पुस्तक के काबिल बनाये जा रहे स्कूली बच्चे

बिहार सरकार का कमाल----------
अप्रैल में मिलनी होती है बच्चों को किताबें
सरकार ने अभी मात्र डिमांड मांगा है
सितंबर तक पुस्तकें मिलने की संभावना
उपेन्द्र कश्यप

बिना साइंस शिक्षकों के ही बिहार के जमा दो स्कूलों ने तीस  फिसदी से अधिक बच्चों को पास करा दिया| यह और बात है कि उसमें शायद ही कोइ सरकारी स्कूल में पढ़ता होगा| प्राय: सभी नीजी स्कूलों या कोचिंग संस्थानों में पढ़े बच्चे ही पास कर सके हैं| बिहार सरकार का नया कारनामा प्राथमिक और मिडिल स्कूलों में भी जारी है| कक्षा एक से लेकर आठ तक के बच्चों को सरकार किताब उपलब्ध कराती है| इन्हें अप्रैल में सत्र प्रारंभ होने के साथ वितरित होना चाहिए, जबकि अभी तक किसी स्कूल में किसी कक्षा के बच्चे को किताब नहीं मिली है| प्रखंड संसाधन केंद्र (बीआरसी) के अनुसार अभी तो सरकार ने डिमांड ही मांगी है| स्कूल अब जब खुलेंगे तो प्रभारी या प्रधानाध्यापक स्कूल की कक्षावार जरुरत के मुताबिक़ डिमांड भेजेंगे कि कौन सी किताब कितनी मात्रा में चाहिए| संभावना जताई जा रही है कि शायद सितंबर तक किताबें सरकार उपलब्ध करा सके| तब वितरित होगा| सवाल है कि बाढ़ महीने के सत्र में से जब छ: महीने की पढाई ही नहीं होगी तो बच्चे क्या ख़ाक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल कर सकेंगे? क्या सरकार वाकई गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए तैयार है? क्या ऐसे बच्चे मैट्रिक की परिक्षा उत्तीर्ण कर सकेंगे? सवाल फिर वाहे उठेगा कि मैट्रिक में पास होने वाल बच्चे भी किसी नीजि शिक्षण संस्थान में पढ़े होंगे, जिनका सरकारी स्कूलों में दोहरा नामांकन हुआ होता है| सिर्फ सरकारी लाभ के लिए, न कि पढ़ने के लिए| स्कूलों की स्थिति है कि छात्र और अभिभावक शिक्षकों से आकर पुस्तक माँगते हैं| कभी-कभी शिक्षकों पर ही गुस्सा झाड़ने लगते हैं। शिक्षक या अधिकारी भी क्या करेंगे जब पुस्तक की छपाई ही नहीं हुई है?

किताब वापसी का फरमान पूरी तरह फेल
सरकार का किताब वापस लेकर बच्चों में पुन: वितरण करने का फरमान पूरी तरफ फेल हो गया है| इस वर्ष के लिए पहली बार यह निर्देश था कि -वर्ग तीन से पांच तक की कक्षाओं की पुस्तकें मूल्यांकन परीक्षा में शामिल होते वक्त ही विद्यार्थियों से लेकर उसका पुनः वितरण करना है। बीआरसी की मानें तो बमुश्किल दस फीसदी छात्रों ने पुस्तकें लौटायी और वह भी बिल्कुल फटी अवस्था में। वर्ग एक व दो छात्रों को नई पुस्तकें देनी थी, जबकि वह अभी तक उपलब्ध ही नहीं कराई गई है।

गत वर्ष मिली थी किताबें
गत शिक्षा सत्र के समय किताबें बच्चों को लगभग समय पर मिल गयी थीं| बीआरसी ने बताया कि गत सत्र में अप्रैल से मई तक किताबें स्कूलों को भेज दी गयी थीं| हालांकि विलंब हुआ था किन्तु तब भी वर्त्तमान से गत साल बेहतर स्थिति थी|

शिक्षा मंत्री दें जवाब
परिवर्तनकारी प्रारंभिक शिक्षक संघ के प्रवक्ता सुनील बॉबी का कहना है कि- क्या पदाधिकारी और शिक्षा मंत्री अपनी दैनंदिन (डायरी) को साल भर नये जैसे रखते है? नही तो फिर बच्चों के पास किताबें सुरक्षित कैसे रह सकती हैं? पिछले साल भी कुछ वर्गो की किताबें उपलब्ध नहीं करायी गयी थी| कहा कि विभागीय फरमान जारी किया गया था कि बच्चों से पुरानी किताब जमा कर फिर से वर्ग वार वितरित किया जाय। ऐसा किया भी गया है, जिसमें कुछ बच्चों ने फटी पुरानी कुछ किताब जमा किया| बच्चों को ऐसी ही एक दो किताबें देकर खाना पूर्ति किया गया है।


निवाला देने वालों का छीन रहा निवाला... हाय रे घोटाला, हाय रे घोटाला

आज रवि राठौर याद आ रहे हैं- 
एक आदमी पेट काट कर , अपना घर चलाता है,
खून पसीना बहा बहा कर , मेहनत की रोटी खाता है।
खुद भूखा सो जाये पर , बच्चों की रोटी लाता है,
तू उनसे छीन निवाला , जाने कैसे जी पाता है।।

आज निवाला देने वाले दो तबके परेशान हैं। एक जो उपजाता है वह किसान और दूसरा वह जो सरकार के अनाज व तेल गरीबों तक पहुंचाता है। दोनों के अपने कारण है। देश भर में किसान परेशान हैं। कर्ज माफी की बात उठ रही है। कर्ज माफ किए गए थे इसलिए मांग का क्षेत्रफल बढ़ रहा है। हंगामा बरपा हुआ है। कोई यह नहीं कह रहा कि यह गलत है? कोई नहीं पूछ रहा कि किनके कर्ज माफ हुए थे? कर्ज माफी की नीति से किसान को क्या लाभ हुआ? क्या इस नीति से किसान विपन्नता से संपन्नता की यात्रा पूरी कर सकेंगे? जब ऐसे सवाल नहीं उठाए जा रहे तो यह कौन और कैसे कहा सकेगा कि इस नीति से लाभ के बदले हानी अधिक हो रही है। कर्ज उन किसानों के माफ हुए थे जो एक भी क़िस्त नहीं दिए थे। जो किसान अपना पेट काटकर, बच्चों की पढ़ाई, उनके सपने, और अन्य आवश्यकताओं को छोटा कर या कम कर एक दो या अधिक क़िस्त दिए थे माफी उन्हें क्यों नहीं मिली थी। ऐसे किसान समृद्ध कैसे मान लिए गए? इन्हें ईमानदार क्यों नहीं माना गया? क्या एक क़िस्त भी कर्ज का नहीं देने वाले आए ये अधिक बेईमान किसान है? नहीं यह मुद्दा घोटाले से जुड़ा है। यह घोटाला, बेईमानी ही तो है कि ईमानदार किसानों को माफी नहीं और अन्य को जिन्हें बेईमान नहीं कह सकते उन्हें माफी देकर करजखोर बनाने की कोशिश सरकार के स्तर से की जा रही है।
किसान को समृद्ध बनने से रोकिए और उन्हें सबल की जगह पराश्रित बनाइये, यही पॉलटिक्स है भाई।
जिला में उफान मचा हुआ है। जन वितरण प्रणाली की दुकानों पर अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई की जा रही है। क्यों की जा रही है? पहले क्यों नहीं होती थी? विचार करियेगा। भारत में जन वितरण प्रणाली का औसत सफलता डर मात्र 30 फीसद है। यानी 70 प्रतिशत असफल योजना है यह। आप गांवों में जाइये और कार्डधारियों से सवाल करिए। समझ में आ जायेगी बात कि वाकई कितना घोटाला इस विभाग में है। जिला में करीब 1200 डीलर हैं। इनसे पूछिए कि ये ईमानदारी से पीडीएस दुकान क्यों नहीं चला रहे है? यह आम चर्चा है कि 'की पोस्ट' पर बैठा हर अधिकारी इसका दोहन करता है। अपनी रेट पदस्थापित होते ही बढ़ा देता है। कहता है- पहले वाले ने अपना स्टेटस खराब कर लिया तो क्या मैं भी कर लूं? उसने रेट काफी कम कर रखा था। जिला के डीलर प्रति क्विंटल खाद्यान 30 से 50 रुपये और किरासन में प्रति लीटर एक से डेढ़ रुपए कमीशन देता है। यह ओपन सीक्रेट
मामला है। कुछ भी छुपा हुआ नहीं, और कुछ भी खुले में स्वीकार्य नहीं। इसे न देने वाला खुल कर स्वीकार करेगा न लेने वाला। देने वाला यह कहता है कि नीचे से ऊपर तक सभी को देना होता है। जिसकी जितनी ताकत उसकी उतनी हिस्सेदारी। लेने वाला कहता है ऊपर तक देना पड़ता है, इसलिए लिया जाता है। तर्क कि मैं अपना छोड़ भी दूं तो क्या फर्क पड़ता है। दूसरे ऊपर वाले तंग करेंगे। यह है पीडीएस सिस्टम। अब सरकार को दिखाने के लिए जनता को बेवकूफ बनाने के लिए कार्रवाई डीलरों के खिलाफ हो रही है। यकीन जानिए, बली का बकरा बनाये जा रहे हैं डीलर, हालांकि यह भी सच है कि डीलर सभी न बेईमान हैं न सभी ईमानदार है, किन्तु उन्हें चोरी के लिए मजबूर तंत्र करता है, जिसमें अफसर और खद्दर दोनों शामिल हैं। दोनों के कई काम इनके जरिए ही निपटते हैं सो वे इसे फुलप्रूफ नहीं बनने देना चाहते हैं। जनता मजबूर है, उसकी आवाज कोई सुनता नहीं, खैरात की आदत ऐसी है कि जो मिल रहा वही ढेर है। काहे का शोर, कौन सुनेगा, किसको सुनाएं, इसीलिए चुप रहते हैं।


...और अंत में
फहमी बदायूंनी को पढ़िए और समझिए कि समाज किस तरह भरस्टाचार को देखता है। अपना दामन ठीक दिखता है, बाकी सब का धब्बेदार दिखता है। इससे बात अब आगे निकल चुकी है। अपने धब्बों को लोग गुरुर में भूलकर अब दूसरों को नीचा दिखाने में लगे हैं-
साफ़ दामन का दौर तो कब का खत्म हुआ साहब,
अब तो लोग अपने धब्बों पे गुरूर करने लगे हैं….!