Monday 30 July 2018

यादवों को बी.पी. मंडल और लालू में बांटने की कोशिश


क्या यादव समाज यह जानता है कि श्री मंडल यादव जाति से थे?
विधान सभा में "ग्वाला" शब्द कब से बना असंसदीय शब्द?
बीपी मंडल को "भारत रत्न" देने के लिए आन्दोलन होने का मतलब क्या है?

लोकसभा चुनाव को लेकर भाजपा का थिंक टैंक रणनीतियां बनाने में व्यस्त् है। राष्ट्रीय स्तर पर वर्तमान बनाम अतीत के तर्ज पर मोदी बनाम नेहरु की रणनीति तो जारी है ही, बिहार में भी लालू बनाम मंडल की तैयारी है। जाहिर तौर पर इसकी वजह यह है कि नीतीश कुमार को साथ मिलाने के बाद भी भाजपा लालू प्रसाद का तोड़ नहीं खोज पा रही है। 
आरक्षण को लेकर राष्ट्रीय बवाल जारी है। चुनावी वर्ष में इसके कई मायने हैं। भाजपा पर संविधान प्रदत आरक्षण व्यवस्था खत्म करने का आरोप लगाने वालों पर आरोप लग रहा है कि वे विभिन्न जातियों में बंटे हिन्दुओं को एकजुट होने से रोकने के लिए आरक्षण-कार्ड खेल रहे हैं। वास्तविकता जो भी हो, इस बीच एक नयी कोशिश दिख रही है। बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल को ‘भारत रत्न’ देने की मांग करते हुए नया आन्दोलन शुरू हो रहा है। प्रदेश के सभी 38 जिला में 9 से 20 अगस्त तक कार्यक्रम होगा। इसकी तैयारी चल रही है। इसका आगाज अगस्त क्रान्ति दिवस यानी 9 अगस्त 2018 को मधेपुरा से हो रहा है। वही मधेपुरा जो यादवों के सन्दर्भ में सर्वाधिक शिक्षित माना जाता है, जहां लालू संसदीय चुनाव में मात खा चुके हैं। एक साल तक यह कार्यक्रम चलेगा और अगले 25 अगस्त 2019 को काशी में समाप्त होगा, जहां मंडल का जन्म हुआ था।

तब तक लोकसभा का चुनाव ख़त्म और नए प्रधानमंत्री का शपथग्रहण भी हो चुका होगा। याद करिए- इससे पहले बी.पी. मंडल को ‘भारत रत्न’ देने की मांग यादव समाज से कब उठी थी? इस मांग को लेकर एक साल तक चलने वाले कार्यक्रम के प्रणेता हैं- पूर्व लोकसभा सदस्य डॉ. रंजन यादव। आपको याद आया, वही रंजन यादव जो लालू प्रसाद के ‘चाणक्य’ कहे जाते थे। बाद में लालू प्रसाद यादव के विरोधी बन गये। फिलहाल वे भाजपा में है। स्वाभाविक है उनकी हर राजनीति को भाजपा-हित से जोड़ कर देखा जाएगा। हालांकि खुद रंजन यादव इस लेखक से बताते है-आयोजक कोई राजनीतिक दल नहीं ‘हम मंडल के लोग’ है। इस आयोजन या मांग से भाजपा का कोई लेना देना नहीं है।
प्रथम यादव मुख्यमंत्री सामाजिक वैज्ञानिक बी.पी. मंडल’ बुकलेट का होगा प्रकाशन
उनके इंकार के बावजूद यह आसानी से समझा जा सकता है कि इस अभियान से हित तो भाजपा का ही सधने वाला है। बी.पी. मंडल को भारत रत्न दिलाने की मांग के साथ लालू के अपने समाज में कद कम करने की कोशिश यह कैसे है? इसका संकेत रंजन यादव के बयान से तो मिलता ही है, छपने वाले प्रस्तावित बुकलेट से भी प्रतीत होता है। ‘पिछड़ों के मसीहा: बिहार के प्रथम यादव मुख्यमंत्री सामाजिक वैज्ञानिक बी.पी. मंडल’ –का प्रकाशन किया जाना है। इस पर ध्यान दें – ‘प्रथम यादव मुख्यमंत्री!’
रंजन यादव ने बताया,”यादव समाज यही जानता है कि लालू प्रसाद ही प्रथम यादव सीएम थे, और आख़िरी भी। जबकि प्रदेश के प्रथम यादव मुख्यमंत्री बी.पी. मंडल थे। उनकी ही देन है कि यादव समेत तमाम पिछड़ा वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिल रहा है। उतने मजबूत, पवित्र, साहसी और समाज के लिए समर्पित नेता दूसरा कोई नहीं हुआ।”

मंडल कमीशन की रिपोर्ट तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को
सौंपते मंडल कमीशन के अध्यक्ष बी. पी. मंडल

रंजन यादव कहते हैं कि ऐसा क्यों है कि लोग लालू को जानते हैं और मंडल को नहीं। जबकि वे सामाजिक वैज्ञानिक थे। उनकी वजह से हिंदुस्तान के 27 फीसदी जो मंडल के लोग हैं, उनको आरक्षण मिला। हम वी.पी. सिंह के प्रति भी आभारी हैं, जिनकी सरकार चली गयी, किन्तु काम किया। रंजन यादव कहते हैं कि लालू यादव को जो करना था, वह नहीं किया, आज रोज शोर मचाते हैं कि आरक्षण ख़त्म हो जाएगा। आरक्षण कभी ख़त्म नहीं होगा। जो लाभ मिलना चाहिए था युवाओं को, वह दिया नहीं, इस कारण युवाओं में लालू के खिलाफ आक्रोश है।
बुकलेट के जरिए यादवों में पैठ बनाने की कोशिश
यह आयोजन यादव समाज के दिल में लालू प्रसाद की अपेक्षा बी.पी. मंडल की तस्वीर बैठाने की कोशिश दिखती है। एक हैण्डविल का वितरण यादव जागरण मंच के प्रदेश सचिव ई.राधाकृष्ण यादव द्वारा किया जा रहा है। इसमें बताया गया है कि कैसे राम मनोहर लोहिया और इंदिरा गांधी की खिलाफत के बावजूद मंडल पहले पिछड़े मुख्यमंत्री बने। यानी कांग्रेस भी लक्षित है, क्योंकि उसका और राजद का महागठबंधन है।


बुकलेट में बताया गया है कि जब मंडल मुख्यमंत्री थे तब तुरंत बाद ही बरौनी रिफायनरी से तेल का रिसाव गंगा में होने से आग लग गयी। तब बिनोदानंद झा ने विधानसभा में कहा था- ‘शुद्र मुख्यमंत्री बना है तो गंगा में आग लगेगी ही।’ बताया गया है कि उनकी कोशिश से विधानसभा में ‘ग्वाला’ शब्द के इस्तेमाल पर रोक लगाई गयी। जब उनकी मांग यह कह कर खारिज की गई कि यह शब्द शब्दकोष में है तो असंसदीय कैसे होगा? तब मंडल ने कई गालियों को शब्दकोष में दिखाते हुए कहा कि-‘ये शब्द भी कैसे असंसदीय हो सकते हैं।’ तब मामला निपटा और “ग्वाला” शब्द का इस्तेमाल सदन में असंसदीय हो गया।



यह भी कहा गया है कि आरक्षण की व्यवस्था करना आसान नहीं था। बीपी मण्डल को देश की विशाल जनसंख्या में से जो सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हैं,उनकी स्थिति सुधारने के लिए चिन्हित करने की जिम्मेदारी दी गयी थी। आयोग बनाया गया, कई सदस्य थे, किन्तु अध्यक्ष बी.पी. मंडल को बनाया गया, जिसे हम मंडल आयोग के नाम से जानते हैं। मोरारजी देसाई ने 1 जनवरी 78 को यह आयोग बनाया था। बी. पी. मंडल ने पूरे देश का भ्रमण किया और 24 महीने के अंदर सरकार को समर्पित अपनी रिपोर्ट में पिछड़ा वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की अनुशंसा की। इसे लंबे समय तक कांग्रेस ने ठंढे बस्ते में रखा और बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लागू किया।
HTTPS://WWW.FORWARDPRESS.IN/2018/07/YADAVO-KO-BP-MANDAL-AUR-LALU-ME-BATANE-KI-KOSHISH/

Wednesday 25 July 2018

भीड़ की हिंसा पर नियंत्रण के लिए सामूहिक दंड आवश्यक


(मीडिया दर्शन के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)
दो ताजा प्रतिघटनाओं ने मॉब लिंचिंग (भीड़ द्वारा हिंसा) को राष्ट्रीय बहस के केंद्र में ला खड़ा किया है। देश में भीड़ की हिंसा ने भयावह रूप ले लिया है। इसकी प्रतिक्रया में दो प्रतिघटना यह साफ़-साफ़ बताती है कि भीड़ की हिंसा का हर कोई अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करता है। ऐसे आरोपियों को सांसद, मंत्री माला पहना रहे हैं, समर्थन में बयान दे रहे हैं, और दूसरा मेहुल चौकसी ने इसका चौकस इस्तेमाल किया। कहा- वह भारत इसलिए नहीं लौटना चाहता कि उसे भीड़ द्वारा पीट-पीट कर ह्त्या कर देने की आशंका है। लगातार हो रही भीड़ की हिंसा पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्ती दिखाई है और आदेश दिया है कि चार सप्ताह में संसद क़ानून बनाये। केंद्र सरकार के प्रधान सेवक नरेंद्र मोदी ने सदन में अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश करते हुए, राज्य सरकारों के पाले में गेंद डाल दी। इस संदर्भ में कुछ स्वाभाविक सवाल उठते हैं। दुष्कर्म से लेकर शराबबंदी तक के सख्त कानून से क्या लाभ हुआ? क्या दुष्कर्म की घटनाएं ख़त्म हुई? उलटा क़ानून सख्त बनाये जाने के बाद लगातार तीन साल से दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। यह राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है, भले ही कारण जनहित से अधिक दलीय राजनीतिक हित साधना उद्देश्य हो। बिहार में शराबबंदी को लेकर सख्त कानून बने, किन्तु यह पहले की अपेक्षा अधिक सहजता, सरलता से सर्वसुलभ है। नीतीश कुमार डंका बजाते हैं और दारु हर गली में माफियाओं को पैदा कर रहा है। नाजायज मोटी आय अर्जित करने वाले समाज के लिए नुकसानदायक साबित होंगे, यह तय हैं। अन्य मामलों यथा-डायन प्रथा, दहेज़ उन्मूलन को लेकर भी जो क़ानून बने या बाद में सख्त किये गए, उनका परिणाम बहुत सकारात्मक नहीं रहा। तो फिर करें क्या, क्या किया जाना चाहिए? एक घटना पूर्वोत्तर की याद आ रही है। पुलिस प्रशासन की मौजूदगी में हिंसा हुई। अपराधी समूह में आये और एक बड़े नामचीन की हत्या कर चले गए। सवाल है ऐसा क्यों होता है? जवाब है किसी की जिम्मेदारी का तय नहीं होना। 
भीड़ की हिंसा रोकने के लिए सामूहिक दंड का प्रावधान होना चाहिए। आम लोगों के दिमाग में यह बात बैठी हुई है कि भीड़ पर कोइ क़ानून लागू नहीं होता। उसका कोई चेहरा नहीं होता। कुछ भी न होने की यही आश्वस्ति भीड़ को हिंसक बनाने में उत्प्रेरक बनाती है। दुर्भाग्य यह है कि भारत के राजनीतिक दल और मीडिया भीड़ की हिंसा का संज्ञान तब लेते हैं जब यह गो कशी से जुड़ा हो, राजनीतिक या धार्मिक कारण से जुड़ा हो। जबकि ऐसी हिंसक भीड़ से अधिक भीड़ जातीय कारण से जुटती है और उग्र होती है, घटना को अंजाम देती है। ऐसी भीड़ द्वारा हिंसा की तुलना में राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनने वाली हिंसा की घटना की संख्या कहीं नहीं टिकती। मीडिया और राजनीति, दोनों को धार्मिक-राजनीतिक कारण से जुटी भीड़ की।हिंसा दिखती है, क्योंकि इसमें बिकाऊ मशाला शामिल होता है। यह समझना होगा कि भीड़ का कोई चेहरा हो या न हो किन्तु उसका जातीय चरित्र और चेहरा अवश्य होता है। जब कोई सड़क दुर्घटना होती है तब भीड़ अधिक तभी जुटती है और आक्रामक होती है जब उस मृतक की जाति की संख्याबल उस इलाके में अधिक हो, अन्यथा कमजोर जाति का व्यक्ति जब मारा जाता है, तब भीड़ क्यों नहीं जुटती, तोड़ फोड़ नहीं करती, हिंसा नहीं होती है। अपवाद छोड़कर। यह प्रवृत्ति क्यों है? सीधा सा दो टूक जवाब है-वोट बैंक पोलटिक्स। जिस जाति की बहुलता भीड़ में होती है, उसके गलत होते हुए भी राजनीतिज्ञ उसके पक्ष में खड़ा होते हैं। उसकी पैरवी करते हैं। क़ानून उनकी मदद करता है। पुलिस सिर्फ तमाशबीन बनी रहती है। जब कोई इसके खिलाफ उठता है तो क़ानून के रखवाले से लेकर जनहित की शपथ लेने वाले तक, सभी उसे दबाव में लाकर तोड़ते हैं। उसे आगे नहीं बढ़ने देते। पुलिस भी कई बार भीड़ जुटने देती है, जब तक वह हिंसक नहीं हो जाती तब तक हिलती-डुलती नहीं है। और जब हिंसा हो जाती है तो भीड़ को भगा देती है। खदेड़ती है, दुर्घटना हो सकने की स्थिति तक। कोइ आम आदमी वीडियो फुटेज पुलिस को इसलिए नहीं देना चाहता कि उसे पुलिस पर भरोसा है कि आरोपितों को कुछ हो या न हो, पुलिस आरोपितों को बता देगी कि उसे किसने वीडियो दिया है। क़ानून तो खुद आरोपितों को कुछ सजा नहीं देगी, सजा दिलाने की चाहत रखने वालों, सबूत देने वालों की शामत अवश्य ला देती है। इस कारण भी कोइ व्यक्ति पुलिस को सहयोग करने सामने नहीं आता। यह संकट है पुलिस, प्रशासन और व्यवस्था से भरोसा के ख़त्म होने के कारण।
तो फिर किया क्या जाए? देश के सामने मौक़ा है। सुप्रीम कोर्ट ने दिया है। संसद क़ानून बनाये कि भीड़ का भी चेहरा होता है, उसकी गतिविधि के लिए भी कोइ जिम्मेदार माना जाएगा। क़ानून बने कि यदि भीड़ हिंसा करती है तो उसमें शामिल हर शख्स पर ह्त्या का मुकदमा चलेगा और सजा एक समान सबको मिलेगी। हाँ, भीड़ का हिस्सा होते हुए भी घटना में कोई शामिल नहीं है तो उसे यह साबित करना होगा कि वह भीड़ में शामिल क्यों हुआ? क्या वह पत्रकार है? पुलिस-प्रशासन का हिस्सा है? वहीं का दुकानदार है? या कहीं आते-जाते घटना के वक्त अचानक भीड़ का हिस्सा बन गया किन्तु हत्या या हत्या की कोशिश से उसका कोई लेना देना नहीं है? दूसरी बात क़ानून यह जिम्मेदारी तय करे कि यदि कहीं पुलिस या प्रशासन का अधिकारी तैनात है और तब हिंसा होती है तो ह्त्या का मुकदमा में वह भी आरोपित होगा। उसे भी हत्यारे के समान सजा दी जायेगी। नौकरी तो तत्काल ही चली जायेगी, नो बर्खास्तगी, नो संस्पेंशन, नो वेतन कटौती। तब जा कर कुछ सुधार संभव हो सकेगा, क्योंकि उस स्थान विशेष पर तैनात अधिकारी पर किसी उच्च अधिकारी या नेता का कोई दबाव काम नहीं करेगा। ऐसा कानून बन जाने पर पुलिस-प्रशासन का हर कर्मी जवाबदेह होगा, तो वह अनैतिक पैरवी भी नहीं सुनेगा और हर हाल में हिंसा होने से रोकने को तत्पर रहेगा, अन्यथा वर्तमान की तरह वह अपनी ड्यूटी भर बजाता रहेगा। भीड़ हिंसक कम होगी या कि उसको हिंसक कम बनाया जाएगा। क़ानून को जिम्मेदारी तय करनी होगी, हर अधिकारी की, हर नेता की, हर तरह के पदधारी की। अन्यथा क़ानून चाहे जितना सख्त बना लें, कुछ नहीं होने वाला है। यह भारत है, जहां 'सब कुछ चलता है।' यही प्रकृति बन गयी है, भारतीयों की। इसे बदलना असंभव तो नहीं है, किन्तु मुश्किल से अधिक कठीन अवश्य है।

Sunday 1 July 2018

संघी धन के सामने नाचे सामाजिक न्यायवादी, लोहियावादी और धर्मनिरपेक्ष स्वंयभू

(संदर्भ-बनिया के शहर में राजनीति की बनियागिरी)
उपेन्द्र कश्यप-(लेखक-"श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर")


नगर परिषद दाउदनगर का चुनाव कुछ स्पष्ट रेखा खींच गया। यह साफ हो गया कि धन-लाभ के आगे नीति, सिद्धांत, वाद का कोई वजूद नहीं होता। ईमानदारी सापेक्ष होती है-वह ईमानदार है, किन्तु फलाने से अधिक है, या कि कम है। यह साफ-साफ दिखा। कथित सामंती और लूटेरे की छवि प्रतिद्वन्दी या कह लें कि प्रतिकूल रहने वाले व्यक्ति की गढ़ दी गई। राजनीति ऐसा काम हमेशा करती है। बनिया का (आबादी की बहुलता और सहनशीलता की प्रवृति के कारण) यह शहर है। बनियागिरी स्वाभाव में है। राजनीति भी बनिअऊटी पर जब उतारू हो जाये तो बनियागिरी चरम पर दिखती है। खरीद बिक्री का रिवाज संसद से सड़क तक एक ही प्रवृति की है। अब जब बिकना और खरीदना होता है तो किसी वाद से क्या मतलब? जिस परिवार को स्वघोषित सामाजिक न्याय वाले, समाजवादी, लोहियावादी और धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार जनसंघी कहते रहे, एक तरह से संघी होने को गाली बना दिये, वे लोग लाइन लगा कर खुद को बेच दिए। या मूल्यवान को बिकने में सहयोगी बने। हद है न यह, अटपटा लग रहा है क्या आपको? एक टिप्पणी आई थी-'जब कम मूल्य मिलते थे तो खरीदने वाला बिकने वाले के घर पहुंचता था। चुपके से बड़े अदब से पैसे दे देता था। इस बार बिकने वाले खुद ही क्रेता के घर कतारबद्ध हो गए।' भाई कीमत जो ऊंची थी।  बिकने में लाज शर्म नहीं आई, बल्कि डर था कि कहीं संख्याबल की राजनीति में खरीदने से ही सामने वाला इनकार न कर दे, सो बिकने की हड़बड़ी भी दिखी। कुछ लोग बिके नहीं, कुछ खरीदे नहीं जा सकते थे, लेकिन इनकी संख्या एक हाथ की उंगली पर गिनी जा सकती है। बिकने वालों में वैसे लोग भी शामिल हैं जो रोज सुबह से शाम तक भाजपा, जनसंघ, आरएसएस और मोदी को गलियाते हैं। भाई लोगों को जब संघी के साथ लाभ दिखा तो बिकने में हिचके नहीं। इस बिकने को लबादा ओढ़ाया गया कि सामंती और लूटेरे से शहर को बचाना है। कुछ ने लबादा दिया कि बनिया के शहर में बनिया को ही ताज मिलना चाहिए। लेकिन शहर और जातीय वर्ग हित को बचाने निकले किसी ने इसी नाम पर सामने वाले से पैसे लेने से इंकार करना तो छोड़िए हिचक तक नहीं दिखाई। यह है समाजवाद, जातिवाद, वर्गहित और सबसे अंत में शहरहित। क्या बात है, बिकिये, लेकिन 'वाद' के लबादे में, बिकिये खुद के हित में और कहिए-
"हम तो निकले हैं शहर बचाने जनाब।
अपना घर फुंक सको तो साथ चलो।।"

वार्ड वार विजेता वार्ड पार्षद की जाति:-

वार्ड संख्या 01 से जागेश्वरी देवी-पासवान, वार्ड संख्या 02 से सीमन कुमारी-कोइरी, वार्ड संख्या 03 से तारीक अनवर-अंसारी, वार्ड संख्या 04 से शकीला बानो-अंसारी, वार्ड संख्या 05 से बसंत कुमार-माली,वार्ड संख्या 06 से सुहैल राजा उर्फ सुहैल अंसारी-अंसारी, वार्ड संख्या 07 से राजू राम-रविदास, वार्ड संख्या 08 से हसीना खातून-अंसारी, वार्ड संख्या 09से सुमित्रा साव -तेली, वार्ड संख्या 10 से कांति देवी -मल्लाह, वार्ड संख्या 11 से प्रमोद कुमार सिंह-चंद्रवंशी, वार्ड संख्या 12 से मीनू सिंह-राजपूत, वार्ड संख्या 13 से दीपा कुमारी-रौनियार वैश्य, वार्ड संख्या14 से सुशीला देवी-गंधर्व, वार्ड संख्या 15 से ममता देवी-कुम्हार, वार्ड संख्या 16 से ललिता देवी-कुम्हार,वार्ड संख्या 17 से लिलावती देवी-तांती, वार्ड संख्या18 से सोनी देवी-स्वर्णकार, वार्ड संख्या 19 से पुनम देवी-कुम्हार, वार्ड संख्या 20 से रीना देवी उर्फ रीमा देवी-तांती, वार्ड संख्या 21 से दिनेश प्रसाद-तेली, वार्ड संख्या 22 से नंदकिशोर चौधरी-पासी, वार्ड संख्या 23से सीमा देवी-चंद्रवंशी, वार्ड संख्या 24 से कौशलेन्द्र कुमार-राजपूत, वार्ड संख्या 25 से पुष्पा कुमारी-यादव,वार्ड संख्या 26 से इंदु देवी-रजक व वार्ड संख्या 27 से सतीश कुमार-यादव।