Wednesday 25 July 2018

भीड़ की हिंसा पर नियंत्रण के लिए सामूहिक दंड आवश्यक


(मीडिया दर्शन के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)
दो ताजा प्रतिघटनाओं ने मॉब लिंचिंग (भीड़ द्वारा हिंसा) को राष्ट्रीय बहस के केंद्र में ला खड़ा किया है। देश में भीड़ की हिंसा ने भयावह रूप ले लिया है। इसकी प्रतिक्रया में दो प्रतिघटना यह साफ़-साफ़ बताती है कि भीड़ की हिंसा का हर कोई अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करता है। ऐसे आरोपियों को सांसद, मंत्री माला पहना रहे हैं, समर्थन में बयान दे रहे हैं, और दूसरा मेहुल चौकसी ने इसका चौकस इस्तेमाल किया। कहा- वह भारत इसलिए नहीं लौटना चाहता कि उसे भीड़ द्वारा पीट-पीट कर ह्त्या कर देने की आशंका है। लगातार हो रही भीड़ की हिंसा पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्ती दिखाई है और आदेश दिया है कि चार सप्ताह में संसद क़ानून बनाये। केंद्र सरकार के प्रधान सेवक नरेंद्र मोदी ने सदन में अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश करते हुए, राज्य सरकारों के पाले में गेंद डाल दी। इस संदर्भ में कुछ स्वाभाविक सवाल उठते हैं। दुष्कर्म से लेकर शराबबंदी तक के सख्त कानून से क्या लाभ हुआ? क्या दुष्कर्म की घटनाएं ख़त्म हुई? उलटा क़ानून सख्त बनाये जाने के बाद लगातार तीन साल से दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। यह राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है, भले ही कारण जनहित से अधिक दलीय राजनीतिक हित साधना उद्देश्य हो। बिहार में शराबबंदी को लेकर सख्त कानून बने, किन्तु यह पहले की अपेक्षा अधिक सहजता, सरलता से सर्वसुलभ है। नीतीश कुमार डंका बजाते हैं और दारु हर गली में माफियाओं को पैदा कर रहा है। नाजायज मोटी आय अर्जित करने वाले समाज के लिए नुकसानदायक साबित होंगे, यह तय हैं। अन्य मामलों यथा-डायन प्रथा, दहेज़ उन्मूलन को लेकर भी जो क़ानून बने या बाद में सख्त किये गए, उनका परिणाम बहुत सकारात्मक नहीं रहा। तो फिर करें क्या, क्या किया जाना चाहिए? एक घटना पूर्वोत्तर की याद आ रही है। पुलिस प्रशासन की मौजूदगी में हिंसा हुई। अपराधी समूह में आये और एक बड़े नामचीन की हत्या कर चले गए। सवाल है ऐसा क्यों होता है? जवाब है किसी की जिम्मेदारी का तय नहीं होना। 
भीड़ की हिंसा रोकने के लिए सामूहिक दंड का प्रावधान होना चाहिए। आम लोगों के दिमाग में यह बात बैठी हुई है कि भीड़ पर कोइ क़ानून लागू नहीं होता। उसका कोई चेहरा नहीं होता। कुछ भी न होने की यही आश्वस्ति भीड़ को हिंसक बनाने में उत्प्रेरक बनाती है। दुर्भाग्य यह है कि भारत के राजनीतिक दल और मीडिया भीड़ की हिंसा का संज्ञान तब लेते हैं जब यह गो कशी से जुड़ा हो, राजनीतिक या धार्मिक कारण से जुड़ा हो। जबकि ऐसी हिंसक भीड़ से अधिक भीड़ जातीय कारण से जुटती है और उग्र होती है, घटना को अंजाम देती है। ऐसी भीड़ द्वारा हिंसा की तुलना में राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनने वाली हिंसा की घटना की संख्या कहीं नहीं टिकती। मीडिया और राजनीति, दोनों को धार्मिक-राजनीतिक कारण से जुटी भीड़ की।हिंसा दिखती है, क्योंकि इसमें बिकाऊ मशाला शामिल होता है। यह समझना होगा कि भीड़ का कोई चेहरा हो या न हो किन्तु उसका जातीय चरित्र और चेहरा अवश्य होता है। जब कोई सड़क दुर्घटना होती है तब भीड़ अधिक तभी जुटती है और आक्रामक होती है जब उस मृतक की जाति की संख्याबल उस इलाके में अधिक हो, अन्यथा कमजोर जाति का व्यक्ति जब मारा जाता है, तब भीड़ क्यों नहीं जुटती, तोड़ फोड़ नहीं करती, हिंसा नहीं होती है। अपवाद छोड़कर। यह प्रवृत्ति क्यों है? सीधा सा दो टूक जवाब है-वोट बैंक पोलटिक्स। जिस जाति की बहुलता भीड़ में होती है, उसके गलत होते हुए भी राजनीतिज्ञ उसके पक्ष में खड़ा होते हैं। उसकी पैरवी करते हैं। क़ानून उनकी मदद करता है। पुलिस सिर्फ तमाशबीन बनी रहती है। जब कोई इसके खिलाफ उठता है तो क़ानून के रखवाले से लेकर जनहित की शपथ लेने वाले तक, सभी उसे दबाव में लाकर तोड़ते हैं। उसे आगे नहीं बढ़ने देते। पुलिस भी कई बार भीड़ जुटने देती है, जब तक वह हिंसक नहीं हो जाती तब तक हिलती-डुलती नहीं है। और जब हिंसा हो जाती है तो भीड़ को भगा देती है। खदेड़ती है, दुर्घटना हो सकने की स्थिति तक। कोइ आम आदमी वीडियो फुटेज पुलिस को इसलिए नहीं देना चाहता कि उसे पुलिस पर भरोसा है कि आरोपितों को कुछ हो या न हो, पुलिस आरोपितों को बता देगी कि उसे किसने वीडियो दिया है। क़ानून तो खुद आरोपितों को कुछ सजा नहीं देगी, सजा दिलाने की चाहत रखने वालों, सबूत देने वालों की शामत अवश्य ला देती है। इस कारण भी कोइ व्यक्ति पुलिस को सहयोग करने सामने नहीं आता। यह संकट है पुलिस, प्रशासन और व्यवस्था से भरोसा के ख़त्म होने के कारण।
तो फिर किया क्या जाए? देश के सामने मौक़ा है। सुप्रीम कोर्ट ने दिया है। संसद क़ानून बनाये कि भीड़ का भी चेहरा होता है, उसकी गतिविधि के लिए भी कोइ जिम्मेदार माना जाएगा। क़ानून बने कि यदि भीड़ हिंसा करती है तो उसमें शामिल हर शख्स पर ह्त्या का मुकदमा चलेगा और सजा एक समान सबको मिलेगी। हाँ, भीड़ का हिस्सा होते हुए भी घटना में कोई शामिल नहीं है तो उसे यह साबित करना होगा कि वह भीड़ में शामिल क्यों हुआ? क्या वह पत्रकार है? पुलिस-प्रशासन का हिस्सा है? वहीं का दुकानदार है? या कहीं आते-जाते घटना के वक्त अचानक भीड़ का हिस्सा बन गया किन्तु हत्या या हत्या की कोशिश से उसका कोई लेना देना नहीं है? दूसरी बात क़ानून यह जिम्मेदारी तय करे कि यदि कहीं पुलिस या प्रशासन का अधिकारी तैनात है और तब हिंसा होती है तो ह्त्या का मुकदमा में वह भी आरोपित होगा। उसे भी हत्यारे के समान सजा दी जायेगी। नौकरी तो तत्काल ही चली जायेगी, नो बर्खास्तगी, नो संस्पेंशन, नो वेतन कटौती। तब जा कर कुछ सुधार संभव हो सकेगा, क्योंकि उस स्थान विशेष पर तैनात अधिकारी पर किसी उच्च अधिकारी या नेता का कोई दबाव काम नहीं करेगा। ऐसा कानून बन जाने पर पुलिस-प्रशासन का हर कर्मी जवाबदेह होगा, तो वह अनैतिक पैरवी भी नहीं सुनेगा और हर हाल में हिंसा होने से रोकने को तत्पर रहेगा, अन्यथा वर्तमान की तरह वह अपनी ड्यूटी भर बजाता रहेगा। भीड़ हिंसक कम होगी या कि उसको हिंसक कम बनाया जाएगा। क़ानून को जिम्मेदारी तय करनी होगी, हर अधिकारी की, हर नेता की, हर तरह के पदधारी की। अन्यथा क़ानून चाहे जितना सख्त बना लें, कुछ नहीं होने वाला है। यह भारत है, जहां 'सब कुछ चलता है।' यही प्रकृति बन गयी है, भारतीयों की। इसे बदलना असंभव तो नहीं है, किन्तु मुश्किल से अधिक कठीन अवश्य है।

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