Wednesday 30 July 2014

राम ने की थी शिवलिंग की स्थापना



उपेन्द्र कश्यप
 : सावन के महीने में देवकुंड का महत्व बढ़ जाता है। खासकर सोमवार को। यहां हर श्रवणी सोमवार को करीब 15 से 20 हजार शिव भक्त आते हैं। इनमें चार हजार कांवरिए होते हैं। यह महर्षि च्यवन से संबद्ध इलाका है, जो महर्षि भृगु के पुत्र थे। महर्षि च्यवन ऋषि के आश्रम के चलते इसका पौराणिक एवं धार्मिक महत्व है। त्रेता युग में जब भगवान राम अपने पिता का गया श्रद्ध करने की यात्र में देवकुंड आए तो उनका महर्षि ने स्वागत किया था। उस समय यह क्षेत्र कीकट देश के नाम से विख्यात था। कीकट देश अति निंदनीय था। इस क्षेत्र में गयाधाम, पुनपुन और देवकुंड ही पवित्र स्थल माने गए थे। भगवान श्रीराम देवकुंड के सहस्त्रधारा में स्नानकर च्यवन ऋषि का दर्शन किए तथा रामेश लिंग की स्थापना किया। यह वर्तमान में बाबा दुग्धेश्वरनाथ शिवलिंग के नाम से विख्यात है। यहां एक मठ भी है जिसके संस्थापक बाबा बालापुरी जी थे। इस मठ को बेलखारा के यशवंत सिंह ने तीन सौ बीघा जमीन दान दिया था। यह मठ गिरीनार पर्वत जूना अखाड़ा के नागा संयासियों की शाखा है। दशवें महंथ रामेश्वर पुरी जी के समय एक संस्कृत विद्यालय की स्थापना की गयी। टेकारी राज की महारानी ने कुंड के घाटों का जिर्णोद्धार करीब 90 वर्ष पूर्व करवाया था। सन् 1925 ई? में महामना पं. मदन मोहन मालवीय द्वारा प्रेषित स्वामी राघवानंद के प्रय} से 90 बीघा भूमि प्राप्त कर एक गोशाला का निर्माण कराया था। आज भी महाशिवरात्रि तथा फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तथा वैशाख मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को मेला का आयोजन किया जाता है।
               श्रद्धालुओं के लिए भोजन और दवा जरूरी: महंत
: देवकुंड में श्रवण के महीने में भारी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। सजावट का काम किया जाता है। मठ की ओर से इनके लिए भोजन और दवा की भी व्यवस्था की जाती है। महंत कन्हैयापुरी ने बताया कि हर सोमवार को 15 से 20 हजार श्रद्धालु आते हैं। इसमें कांवरिए करीब 4000 होते हैं। विभिन्न पवित्र सोन, पुनपुन और गंगा के घाटों से जल लेकर श्रद्धालु पैदल यात्र कर जलाभिषेक के लिए आते हैं। इसमें कई बीमार पड़ जाते हैं, जिनके लिए मठ की ओर से दवा की व्यवस्था की गई है। सैकडों़ श्रद्धालु हर सोमवार को भोजन करते हैं।
             कुंड की पवित्रता खतरे में 
देवकुंड के कुंड (तालाब) को पवित्र माना जाता है। इसका निर्माण देवताओं द्वारा किया गया माना जाता है। कहा जाता है कि इसमें स्नान करने से कुष्ठ रोग खत्म हो जाता है। वर्तमान में इसकी स्थिति देखकर कह सकते हैं कि शरीर निरोग नहीं बल्कि स्नान करने से रोगी बन जायेगा। इसकी पवित्रता खतरे में हैं। समीपवर्ती लोग अपने प्रतिष्ठानों और घरों का कचड़ा इसी में या इसके किनारे फेंक देते हैं। समाज का सफाई के प्रति जो नजरिया है उससे इस कुंड की स्थिति बदतर होती जा रही है।
                                नीलम का है शिवलिंग 
देवकुंड मंदिर में स्थित शिवलिंग नीलम पत्थर का है। इसकी जांच होनी बाकी है। यदि यह साबित हो जाए तो इस शिवलिंग की कीमत तय करना मुश्किल हो जायेगा। वैसे इसकी कीमत गुणवत्ता और प्राचीनता पर निर्भर करती है। यह शिवलिंग वैसे भी अमूल्य है। जब राम ने ही स्थापना किया था तो प्राचीनता खुद काफी है। इस शिवलिंग की जांच कराकर वैज्ञानिक और पुरातात्विक महत्व जानना आवश्यक लगता है।

विष, झाड़-फूंक, मनोविज्ञान और विज्ञान


उपेन्द्र कश्यप 
विष, मंत्र, झाड़-फूंक, लोक जीवन का मनोविज्ञान और विज्ञान को समझना आवश्यक है। जिस सांप की हम पूजा करते हैं, उसी से डरते हैं, और देखते ही उसे मारने के लिए दौड़ पड़ते हैं। सच यह है कि अन्य जीवों की तरह ही सर्प भी मनुष्य को देखकर डरता है। हां प्रजनन एवं प्रणय के वक्त हिंसक हो उठता है, ऐसा ही स्वभाव तो मनुष्य का भी होता है। विश्व में लगभग 2600 प्रजातियां सापों की है। इनमें सिर्फ 270 विषैली होती है, और मात्र 25 प्रजातियों के ही काटने से मृत्यु होती है। भारत में हर साल करीब 20 हजार लोग सर्पदंश के शिकार होते हैं। दरअसल भय, भ्रांतियां और अज्ञानता के कारण सर्वाधिक मौतें होती है। सर्पदंश के बाद व्यक्ति दहशतजदा हो जाता है, वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। मानसिक रूप से जबरदस्त आघात लगता है, और वह मरणासन्न हो जाता है। उसे लोग लेकर सीधे ओझा गुणी के पास जाते हैं। ये लोग तरह तरह के मंत्र जाप करते हैं, पानी छिंटते है और व्यक्ति अचेतावस्था से चेतनावस्था में जाता है, जिसे जिंदा करना बताया जाता है। जब ऐसा नहीं होता तो बाबा कहते हैं कि लाने में देर कर दिया इसलिए जहर नहीं उतारा जा सका। वास्तव में जिसकी चेतना लौटती है वह मरा हुआ नहीं होता और जो मर गया था, उसे जिंदा नहीं किया जा सकता। लोगों को चाहिए कि सर्पदंश के तुरंत बाद अस्पताल ले जायें। इसकी एकमात्र दवा है - ऐंटीवेनय। कोई विकल्प तक नहीं है। सरकार अंधविश्वासों को खत्म करना चाहती है तो अस्पतालों में कम से कम बरसात के मौसम में ही सहीऐंटीवेनयउपलब्ध कराने का बंदोबस्त अवश्य करे।

सभी धर्म संस्कृतियों में पूजनीय हैं सांप
सांपों की पूजा सिर्फ हिंदू धर्म संस्कृति में ही नहीं की जाती है। पुरानी सभ्यताओं में सनातन के साथ यूनान और मिश्र की सभ्यता रही है। दोनों धर्मो में इसकी पूजा की जाती है। यूनान में औषधि की देवता एस्क्लीपियस नागमुखी है। मिश्र में उर्वरता की देवी नागमुखी नारी है। यहां तो सभी प्राचीन फेरों के मुकुट पर सर्प बना होता है। आस्ट्रेलिया में अजगर की पूजा की जाती है तो अमेरिका का एक आदिवासी वर्ग एजटैक सांप को मानव के गुरु के रूप में मानता पूजता है।


सर्प विष भय से मुक्ति का पर्व नागपंचमी


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 नागपंचमी पर विशेष
साहित्य और पुराणों में नागों पर सामग्री
उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद)
नागों को शीतलता देता है दुध आज शुक्रवार को सावन शुक्ल पंचमी तिथि को नागपंचमी है। प्रात: काल स्नानादि के बाद दुध और लावा सर्पों को समर्पित किया जाता है। इस दिन नमक का प्रयोग नहीं किया जाता है। बकस बाबा के नाम से सर्पों की पूजा होती है। इससे एक साल तक सर्प के विष के प्रभाव होने का भय नहीं होता है। कहते हैं दुध समर्पित करने से सर्प को शीतलता प्रदान होती है। पं. लालमोहन शास्त्री ने बताया कि वेद पुराणों में नागों की उत्पत्ति महर्षि कश्यप और इनकी पत्नी कद्रु से माना गया है। नागों का मूल स्थान पाताल लोक है और उसकी राजधानी भोगवती पुरी विख्यात है। कथा सरित्सागर नाग लोक और वहां के वाशिन्दों की कथा से भरा पडा है। गरुण पुराण, भविष्य पुराण, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, भाव प्रकाश जैसे ग्रंथों में नाग कथाओं की भरमार है। पुराणों में यज्ञ, किन्नर और गन्धर्व के साथ नागों का वर्णन मिलता है। भगवान विष्णु की शय्या की पूजा है नागपूजा। भगवान शंकर और गणेश का आभुषण नाग है। भारतीय संस्कृति में नागों को देवरुप में स्वीकार किया गया है। कश्मीर के प्रसिद्ध कवि कल्हण ने राजतरंगिणीमें लिखा है कि कश्मीर की संपूर्ण भूमि को ही नागों का अवदान माना है। वहां के एक नगर का नाम अनंत नाग होना इसका ऐतिहासिक प्रमाण है। देश के दक्षिण प्रदेशों और पर्वतीय भागों में नाग की पूजा विशेष तौर पर होती है। ग्राम देवता और लोक देवता के रुप में भी नगों की पूजा होती है। श्री शास्त्री के अनुसार एक बार मातृ श्राप से नाग लोक जलने लगा, इस दाह पीडा से निवृति के लिए सावन नाग पंचमी को गो दुध समर्पण कर शीतलता प्रदान किया। जनमेजय ने नाग यज्ञ द्वारा सभी सर्पों को नाश करने लगे। तब तपस्वी जरत्कारु के पुत्र आस्तिक ने नागों की रक्षा किया। अनंत, बासुकी, शेष, पद्मनाभ, कंबल, शंखपाल, धार्त्र राष्ट्र, तक्षक और कालिस नौ तरह के नाग बताये गये हैं। इनकी एक बहन मनसा देवी हैं। प्राणि शास्त्र के अनुसार नागों की असंख्य प्रजातियां हैं जिन में विष भरे नागों की संख्या कम है।

   

Monday 21 July 2014

छ: दशक में भी नहीं बदला पुलिसिया चरित्र


                     ब्रिटिश पुलिस की मानसिकता से मुक्ति नहीं
निर्दोष को उग्रवादी बताने की पुरानी लत
उपेन्द्र कश्यप
भारतीय पुलिस का चाल, चरित्र और चेहरा आजादी के छ: दशक बीत जाने पर भी नहीं बदल सका है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है मदनपुर और अकबरपुर गोली कांड। भारतीय पुलिस प्रणाली ब्रिटिश राज की देन है। पीडी मैथ्यू ने अपनी किताब में लिखा है कि –‘अंग्रेजों ने पुलिस का भारत में अपने शासन को कायम रखने के लिए जनता को सताने की नियत से इस्तेमाल किया था। कानून और व्यवस्था कायम रखने से अधिक राष्ट्रवादी आन्दोलनों को कुचलने का काम करने में पुलिस का इस्तेमाल किया गया।‘ यह हम आज भी देखते हैं। गुलाम भारत में रोजाना हुए अभ्यास के कारण पुलिस का चरित्र जो बना वह इस संस्था की आदत बन गई। वह छ: दशक में भी नहीं बदल सका। उसको लेकर जनता में सन्देह, डर और अविश्वास आज भी बना हुआ है। कारण साफ है कि पुलिस अंग्रेजों के जाने के बाद जमींदारों और रईसों की चाकरी करती रही और आम आबादी के प्रति उसका रवैया सकारात्मक नहीं बन सका। पुलिस को जनता का मित्र बनाने का हर संभव प्रयास विफल होता रहा। यह प्रमाणित तथ्य है खासकर औरंगाबाद जिला के सन्दर्भ में। औरंगाबाद की घटना ने तो पुलिस का पुराना बर्बर चेहरा ही उद्घाटित किया है। अस्सी के दशक में यहां एसपी रहे विमल किशोर सिन्हा ने जिला स्मारिका “कादंबरी” में लिखा था कि-“थानों से दूर उनकी नियंत्रण से बाहर पुलिस पिकेटों पर नजर आए मस्ती से खाते पीते जिन्दगी जीते पुलिस के जवान। जिनका उद्देश्य पीकेट की रक्षा करना था वे ग्रामीणों को पकडते, उसका दोहन करते और उग्रवादी की संज्ञा दे देते।“ उनका यह अनुभव आज भी अपने मूल रुप में ही जिंदा है। इस घटना क्रम के मूल में यही बात है कि पुलिस जवान आम आदमी को नक्सली बता कर उसे गाली गलौज कर रहे थे। उसका मुर्गा खा रहे थे। जब इसका विरोध शुरु हुआ तो आला अधिकारियों ने नोटिस नहीं ली। समस्या के समाधान की पहल नहीं की। जब भीड आक्रोशित होकर सडक पर उतर गई तो गोली चला कर हत्या कर दी गई।
हत्या के शिकार क्या कलावती देवी और बारह वर्षीय सातवीं का छात्र रामध्यान रिकियासन नक्सली थे? पुलिस यह समझती है कि उसकी गोली का डर ही आन्दोलनों को कुचल सकती है। ठीक इसी समय वह यह भूल जाती है कि आन्दोलनकारी भारतीय हैं, अंग्रेज नहीं जो देश छोडकर चले जायेंगे। वे जितना शोषित होंगे उतना ही संगठित होंगे। पुलिस मैनुअल नहीं पढती। हर नागरिक को पुलिस कारर्वाई के खिलाफ तब आत्मरक्षा का अधिकार प्राप्त हो जाता है जब उसे लगे कि पुलिस अधिकारी की कारर्वाई से मृत्यू या गंभीर चोट की समुचित आशंका हो। क्या नाबालिग लडकों बिट्टु, पप्पु और रितेश को हथकडी लगाने वाली पुलिस के खिलाफ भी प्राथमिकी दर्ज की जाएगी? उच्चतम न्यायालय ने 23 मार्च 1990 के युपी के अलीगंज थाने के एक मामले में दिए गए अपने फैसले में असलम को हथकडी लगाने के कारण पुलिस पर 20 हजार का जुर्माना किया था। 

Sunday 20 July 2014

सावन का सोमवार भगवान शंकर का महत्वपूर्ण दिन



                                 फोटो- देवकुंड का मन्दिर और शिवलिंग
देवकुंड में श्रीराम ने किया था लिंग स्थापना
वाणभट्ट ने च्यवनाश्रम का किया था जिक्र
उपेन्द्र कश्यप
सावन में सोमवार का अलग महत्व है। इसे भगवान शंकर का दिन माना जाता है। प्रथम ज्योतिर्लिंग का नाम सोमनाथ होने के कारण यह दिन शिव को भी अति प्रिय दिन है। जल और विल्व पत्र चढाने वालों की हर मनोकामना पूर्ण होती है। शिव पर एक माह तक जल चढाने की कथा अलग है। पं.लालमोहन शास्त्री के अनुसार समुद्र मंथन के वक्त जब जहर निकला तो उसका पान शिव ने किया। तब माता सती ने उनका कंठ पकड लिया था जिस कारण विष गला से नीचे नहीं उतर सका। शिव निलकंठ बन गये और उनके अन्दर विष के व्याप्त ताप को नष्ट करने के लिए उनपर निरंतर एक महीने तक जल चढाया जाने लगा। यह परंपरा बन गई। गंगा जल चढाने से शिव प्रसन्न होते हैं और अन्न, धन और जन प्राप्त कराते हैं। मगध में महत्वपूर्ण तीर्थ च्यवनाश्रम है जो देवकुंड के नाम से जाना जाता है। पटना गाय घाट से जल लाकर यहां चढाया जाता है। इस शिवलिंग को दुग्धेश्वर महादेव कहा जाता है। आनन्द रामायण के अनुसार च्यवनाश्रम आकर श्री राम ने सहस्त्र धारा देवकुंड में स्नान कर इस शिवलिंग की स्थापना किया था। ब्रह्म पुराण के अनुसार रामेश लिंग का नाम दुग्धेश्वर महादेव है। बाणभट्ट ने च्यवनाश्रम को “चैत्ररथ कल्पं काननम” कहा है। उन्होंने इसकी चर्चा की है। ब्रह्म रामायण के अनुसार इस क्षेत्र में बैर, गुग्गुल और परास समिधा खूब पाये जाते थे।


उज्जैन का उप ज्योतिर्लिंग है गोरकट्टी में



                                    फोटो- मन्दिर और शिवलिंग
पहली बार....
ब्रह्म रामायण में है इस स्थान की चर्चा
गरीबनाथ महादेव की पूजा की थी राम ने
उपेन्द्र कश्यप 
 गोह प्रखंड का गोरकट्टी गांव पौराणिक काल का हो सकता है। यह अगर प्रमाणित हो जाये तो ग्रामीणों के लिए बडी खुशी की बात होगी, लेकिन इतिहास के लिए महत्वपूर्ण होगा। यहां गांव से दूर पुनपुन के तट पर एक गरीबनाथ महादेव मन्दिर है। मन्दिर कब बना इसकी धुन्धली यादें हैं। सत्तर वर्षीय सरयु सिंह बताते हैं कि उनके सामने ही मन्दिर बना है। तब वे तीसरी कक्षा में पढते थे। संभवत: 1956 में। इनके अनुसार जब भगवान राम गया पितृपक्ष में गये थे तो वहां से देव सूर्य मन्दिर जाने के क्रम में यहां रुके थे। श्री सिंह और शैलेश सिंह ने बताया कि जब मन्दिर का निर्माण हो रहा था तब पीपल के वृक्ष के नीचे शिवलिंग पडा हुआ था। कहते हैं ताडुका का भाई सुबाहु भी यहां पुजा के लिए आता था। जब मन्दिर का निर्माण हो रहा था तो लोगों ने सोचा कि बनारस से बडा शिवलिंग लाकर यहां प्रतिस्ठापित किया जाये तभी रात्रि में स्वत: यह शिवलिंग पेड के नीचे से उठकर मन्दिर के गर्भ में स्थापित हो गये। तभी से इसका महत्व बढ गया। पं.लालमोहन शास्त्री ने बताया कि ब्रह्म रामायण में कहा गया है कि ‘च्यवनेश्वर शिवम पश्येत गोश्ठिल तीर्थ मुतम’। अर्थात देवकुंड का दर्शन करने के बाद गोष्ठिल (अब-गोरकट्टी) में च्यवनेशवर महादेव का दर्शन करें। राम यहां आए और दर्शन किया। बताया कि यह उज्जैन का उप ज्योतिर्लिंग है। दोनों की संरचना लगभग एक समान है-उपरी शिरा चिपटा। दादर के वेंकटेश शर्मा, भजयुमो के जिला उपाध्यक्ष दीपक उपाध्याय, धीरज सिंह चौहान एवं प्रमोद पासवान ने इस स्थान को पर्यटन केन्द्र के रुप में विकसित करने की मांग की है।   


Tuesday 15 July 2014

जहां उद्गम दिशा की ओर मुडती है पुनपुन




फोटो-द्क्षिण पथगामिनी पुनपुन
मात्र गोरकट्टी में दक्षिण दिशा की ओर मुडती है
   कोई नदी जब अपने उद्गम स्थल की दिशा की ओर पुन: मुडती है तो वह स्थान अध्यात्मिक और धार्मिक दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। पं.लालमोहन शास्त्री का कहना है कि अपने उद्गम स्थल की दिशा की ओर जब भी नदी मुडती है वह स्थान महत्व पाता है। जैसे उत्तर की ओर गंगा बनारस और फिर जहांगडा (सुलतानगंज) के पास मुडती है और यह बताने की जरुरत नहीं कि सनातन धर्मियों के लिए गंगा का महत्व बनारस और सुलतान गंज में क्या है। उसी प्रकार गोरकट्टी में दक्षिण दिशा की ओर मुडती है पुनपुन। बता दें कि पुनपुन का उद्गम झरना पहाड़ के उत्तर में सेमीचक गाँव के दक्षिण पलामु जिले के उत्तरी भाग में है। पाँच सोते हैं सेमीचक पहुंचते पहुंचते इनका पानी एक हो जाता है। अन्य बरसाती नालों का जल समेटे हुए लगभग चार किमी की उत्तर यात्रा के बाद औरंगाबाद जिला में प्रवेश कर जाती अहि पुनपुन। उत्कर्ष 2007 के अनुसार पुनपुन नाम के शाब्दिक अर्थ पर विचार करें तो संभव है कि यह नदी बहुत काल तक उरांव कुडुखों के पूरवजों की संगिनी रही है। और इसके कल-कल स्वर ने इनका स्वर मोहा होगा। पुनपुन पौराणिक नदी है और पुण्यदायिनी भी मानी गयी है। मगध में बौद्ध धर्म के विकास और ब्राह्मण धर्म के पुनरूत्थान में भी इसे आदर मिला है। मगध में गंगा से संगम करने वाली यह एक मात्र नदी है, और आठवीं- दसवीं सदी बीच में ही यह गंगा की सहायक नदी बनी जब इसे नदी पुण्या पुनः पुना शब्दों से अभिहित किया गया। इसके पहले यह सोन (शोणभद्र) सहायक नदी थी। आज इस स्थान का महत्व बढता जा रहा है। मनोरम दृष्य है यहां का।