Monday 10 October 2022

सजा भुगत रही अंगरेजी हुकूमत के विद्रोहियों की पीढियां

 

          


(घुमंतू जनजातियां - समाज का उपेक्षित वर्ग राजस्थानी ग्रंथागार से प्रकाशित पुस्तक में प्रकाशित मेरा आलेख)



  ० उपेंद्र कश्यप ० 



विश्व की यह पहली ऐसी घटना थी जब अंग्रेजों ने भारत के करीब 200 जन जातियों को जन्मना अपराधी घोषित कर दिया था। क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट 1871 के तहत जन्मजात अपराधी घोषित इन जातियों को आजाद भारत में 31 अगस्त 1952 को इस काले कानून से भारत सरकार ने मुक्त कर दिया तो इन्हें विमुक्त जनजातियां कही जाने लगी। इन जातियों के साथ जो दुर्भाग्य अंग्रेजी हुकूमत के समय जुड़ा था, उसे भारत सरकार ने जारी रखा और यह अब भी इनका पीछा नहीं छोड़ रहा। इन घुमन्तु-विमुक्त जन जातियों को जन्मजात अपराधी के कलंक से मुक्त करते हुए भारत सरकार ने नये काले कलंकित एक दुसरे क़ानून के खूंटे से इनको बांध दिया। अंग्रेजों के काले कानून से यह कम काला और कलंकित करने वाला कानून नहीं है। इसे आजाद भारत सरकार ने नाम दिया था- हैबिचुअल ओफेंडर्स एक्ट। यानी ‘जन्मजात अपराधी’ घोषित जातियों को आजादी मिली तो उनके लिए नया कलंक-शब्द दिया गया-‘आदतन अपराधी’। अर्थात 81 वर्ष बाद जब विमुक्त हुए तो दूसरे कम कलंकित खूंटे से इनको सदा के लिए बांध दिया गया। अंग्रेजों के काले क़ानून के कारण इन जातियों को रोज थाने में तीन से चार बार हाजिरी लगानी पड़ती थी। चितौडगढ़ जिला के कपासन के मेंदा कोलानी में कंजड जाति के लिए पुलिस चौकी 1934 में खोला गया था। जहां रोज समुदाय के लोगों को हाजरी देनी पड़ती थी। मांग कर खाने वाले इस समुदाय को पुलिस चोर बताती थी, कच्ची शराब बनाने-बेचने के आरोप में प्रताड़ित करती थी। यह हाल तक स्थिति रही। समाज इन जातियों को, जो प्राय: खानाबदोश या बंजारा माने-समझे जाते हैं को चोर समझता है, शक की निगाह से देखता है। इसके लिए समाज नहीं, वह सरकार और क़ानून जिम्मेदार है जो बच्चे को धरती पर आते ही उसे अपराधी मान लेता है। धीरे-धीरे भारतीय समाज ने भी इनको अपराधी जाति मान लिया। पुलिस में भर्ती होने वाले जवानों को इनके बारे में पढ़ाया जाने लगा। प्रशिक्षण के दौरान उन्हें बताया जाता था कि ये जनजातियां पारंपरिक तौर से अपराध करती आई हैं। नतीजा इनको हर जगह अपराधियों के तौर पर देखा जाने लगा। पुलिस को उनका शोषण करने के लिए अपार शक्तियां दे दी गईं। देशभर में लगभग 50 ऐसी बस्तियां बनाई गईं जिनमें इन जनजातियों को जेल की तरह कैद कर दिया गया। इन बस्तियों की चारदीवारी के बाहर हर वक्त पुलिस का पहरा लगता था। बस्ती के बच्चों से लेकर हर सदस्य को बाहर आते-जाते वक्त पुलिस को अनिवार्य रूप से सूचना देनी होती थी या उपस्थिति दर्ज करानी पड़ती थी। इनकी किस्मत का फैसला पुलिस अधिकारियों के हत्थे छोड़ दिया गया। इनको अदालतों में अपने ऊपर लगे आरोपों के विरुद्ध पैरवी का अधिकार नहीं दिया गया। इनकी बस्तियां खुले जेल की तरह थीं। बिजनौर के नजीबाबाद किले के भातुओं को सुधारने के नाम पर अनोखा प्रयोग हुआ। इसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप वहां से भागा साधारण सुल्ताना इतना बड़ा डाकू बन गया कि उसे पकड़ने के लिए तीन साल तक संयुक्त प्रांत की फ़ौज को लगाना पड़ा था। गौरतलब है कि 2008 में संसद में एक एप्रोप्रियेशन बिल पास हुआ था जिसमें विमुक्त जातियों के हालात पर सांसदों ने कुछ तथ्यात्मक बातें रखी थीं। तब ओडिशा के सांसद ब्रह्मानंद पांडा ने ज़िक्र किया था कि उनके निर्वाचन क्षेत्र का लोधा समुदाय जो वास्तव में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, उन्हें आज भी समाज एवं शासन सत्ता पर बैठे लोग जन्मजात अपराधी ही मानते हैं। इस सबके कारण ही स्थिति ऐसी बनी कि छोटे कस्बे या शहर में छोटा-मोटा कोइ अपराध होता है तो पुलिस तंबू गाड़ कर रहने वाले बंजारों, खानाबदोशों को पकड़ कर ले आती है और घटना की लीपापोती कर देती है। जब सरकार और उसकी व्यवस्था का व्यवहार अपने ही वंचित नागरिकों के साथ ऐसा होगा, तो स्वाभाविक है जनता भी उसी तरह ट्रीट करेगी।



विमुक्त का अर्थ है-आजाद, स्वतन्त्र। दूसरा अर्थ है-छोड़ा गया और तीसरा अर्थ है-कार्यभार से मुक्ति। इन तीनों अर्थों के निकष पर यदि परखें तो इन जातियों/जनजातियों के हिस्से क्या लगा, भारत की आजादी मिलने से। वे 31 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं, किन्तु तब भी ये कितने स्वतन्त्र हैं भला? जन्मजात और आदतन में बहुत महीन अंतर है। इनको न 1947 में आजादी मिली, न 1952 में। इनको 31 अगस्त 1952 को “जन्मजात अपराधी” के खूंटे से खोल कर “आदतन अपराधी” के खूंटे से बांध दिया गया। जिनके साथ अंग्रेजों ने और फिर भारत सरकार ने ऐसा किया। उनकी आबादी देश में 2011 की जनगणना के अनुसार 15 करोड़ और वर्तमान में 20 करोड़ होने का अनुमान है। इतनी बड़ी आबादी जो समाज के मुख्यधारा से अलग, हाशिये पर खड़ी होकर बिना गुनाह किये अपराधी मानी जाती है, इस कलंक के साथ जीना कितना दुष्कर है, इस पीड़ा को खुद कलंकित हो कर ही समझा जा सकता है। वो देहात में कहते हैं न-जाके न फटी बेवाई, वो का जाने पीर पराई। यही स्थिति इनके मामले में है। सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह थी, जो अंग्रेजों ने इनको जन्मजात अपराधी माना?  



वास्तव में इन जनजातियों ने अंग्रेजों के छक्के छुडा दिए थे। इतिहास की पुस्तकें यूं ही आरोपित नहीं हैं। इनके पन्नों पर जहां इन जन जातियों को तवज्जो मिलनी चाहिए थी, एक सिरे से इनकी चर्चा तक नदारद है। विमुक्त जनअधिकार संगठन कार्यकर्ता बीके लोधी ने लिखा है कि घुमन्तु जनजातियाँ वास्तव में भारतीय (हिन्दू) संस्कृति की रक्षक थीं और हैं। राज्यसभा में वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह ने योजना जनवरी 2014 में एक लेख-नयी रौशनी की तलाश में घुमंतू जनजातियाँ- में लिखा कि यह समुदाय युद्धकला में प्रवीण थीं। मुगलों को खूब छकाया तो सन 1857 की क्रान्ति में इनकी अग्रणी भूमिका रही है। भारत सरकार ने कुछ आयोग एवं कमेटियों का गठन किया था। उन्होंने भी यह माना था कि विमुक्त समुदाय को ब्रिटिश विद्रोह के कारण जन्मजात अपराधी के रूप में कलंकित होना पड़ा। विभिन्न शोधकर्ता, इतिहासकार एवं विद्वान स्पष्टत: यह स्वीकार करते हैं कि विमुक्त जातियां ब्रिटिश हुकूमत की सशस्त्र विद्रोही थीं, ये वास्तविक स्वातंत्र्य योद्धा थे। स्थानीय कृषक जातियों/जनजातियों ने अपने-अपने स्तर और क्षमता के अनुसार सशस्त्र विद्रोह किया था। तब 53 देशों में शासन करने वाले अंग्रेजों ने आखिर सिर्फ भारत में ही क्यों क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट लागू किया था? इसकी पृष्ठभूमि में अंग्रेज़ों की धारणा यह थी कि जिस तरह से भारत में जातिगत व्यवसाय होते हैं, जैसे लोहार का लड़का लोहार होता है, बढ़ई का लड़का बढ़ई, चिकित्सक का लड़का चिकित्सक, इसी तरह अपराधी की संतानें अपराधी ही होती हैं।

इसलिए भारत की लड़ाकू जातियों की संतानों को भी अनिवार्य रूप से जन्मजात अपराधी मान लिया गया था। बीके लोधी कहते हैं-यदि जीविका के लिए चोरी-चकारी जैसे छोटे अपराधों के कारण क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट लागू करना होता तो अंग्रेज़ों ने 1857 के पहले ही कर दिया होता। सच्चाई यह है कि 1857 की क्रांति विफल होने के पश्चात जब महारानी विक्टोरिया ने कंपनी सरकार से शासन अपने हाथ में ले लिया और उन तमाम विद्रोहियों को क्षमा कर दिया, जिन्होंने क्षमा याचना कर ली थी। किन्तु कुछ जन समुदाय ऐसे थे जो समझौता परस्ती को कायरता समझते थे और प्रतिशोधात्मक कार्रवाई के लिए सदैव तत्पर रहते थे। ऐसे ही समुदायों की पहचान करने के लिए क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट 1871 लागू किया गया था। हकीकत यह है कि यह वह समुदाय है जिसने हथियार बनाने, साजो-सामान जुटाने, सन्देश पहुंचाने से लेकर कई अन्य तरीके से क्रांतिकारियों की मदद की थी। इस समुदाय के बारे में कहा गया है कि ये प्राचीनकाल से व्यापार करते रहे हैं, तब से जब कारवां चला करता था। भारत में रेल आयी तो इनकी कारोबारी ताकत बढ़ी। बन्दरगाहों से सामानों को देश के अन्य भीतरी हिस्से तक पहुंचाने की जिम्मेदारी इनके कन्धों पर ही थी। लेकिन दुर्भाग्यवश इनको अंग्रेजों ने देशभक्ति और विद्रोह के कारण अपराधी जाति घोषित कर दिया और आजाद भारत की सरकार ने आदतन अपराधी।



न्याय की आग्रही विमुक्त जातियों की अजब न्याय व्यवस्था


अंग्रेजों द्वारा जन्मजात अपराधी का दर्जा देने और फिर भारत सरकार द्वारा आदतन अपराधी का दर्जा देने का दुर्भाग्य झेल रहा घुमंतू-विमुक्त समुदाय भारत सरकार से और अपने अपने राज्य सरकारों से न्याय का आग्रही है। इन जन जातियों को न्याय चाहिए ही चाहिए। किसी भी सभ्य समाज में यह स्वीकार्य अपेक्षा होती है। किन्तु दूसरी तरह इन जनजातियों की न्याय व्यवस्था विचित्र और उलझी हुई है। पारंपरिक व्यवस्था ही चली आ रही है। किसी तरह के मामले में कोइ थाना-पुलिस नहीं जाता। पंचायत बैठती है और दोनों पक्षों की बात सुन कर किसी निर्णय पर पहुँचती है। किसी विवाद पर पहले पंचायत बैठता है। विचार विमर्श के बाद सजा तय किया जाता है। कोइ विरोध नहीं कर सकता। सजा जो भी हो, जितना भी कठीण हो, आरोपित को स्वीकारना पड़ता ही है। चाहे आर्थिक दंड हो या शारीरिक प्रताड़ना का दंड। जिस जाति के स्त्री-पुरुष पर आरोप लगता है, उस जाति के अगल-बगल के कई गाँवों के स्वजातीय जुटते हैं। तब सुनवाई होती है। परखा जाता है कि आरोपित सही बोल रहा है या गलत। प्रेम प्रसंग, सेक्सुअल ह्रासमेंट, चोरी जैसे अपराध करने पर पंचायत जुटाए जाते हैं। हड़िया-बर्तन बन्द, मतलब घर खाना नहीं खाने, जाति से निकाल देने के फैसले होते हैं। आर्थिक सजा भी सुनाई जाती है। दोष सिद्ध होने पर सजा देने और मुक्त करने का प्रावधान है। आर्थिक दंड लगाया जाता है। छोटी गलती के लिए कम अर्थ दंड। एक लाख रुपये तक का भी दंड हो सकता है। जब स्थिति कठीन होती है, समझौता मुश्किल होता है, वाद-प्रतिवाद तीखा हो तो सजा के रूप बदल जाते हैं। यह तब होता है जब सजा सुनने वाला खुद को निर्दोष बताने पर अडिग हो। वह पंचायत के फैसले को खारिज करने के लिए स्वयं को निर्दोष बताता हो। ऐसे में उसकी परीक्षा ली जाती है। जैसे सीता ने अग्नि परीक्षा दिया था। आग में जले तो दोषी, न जले तो पतिव्रता, शुद्ध स्त्री। इस सन्दर्भ में तीन तरीके प्राय: आजमाए जाते हैं-




न्याय - सजा के तीन ख़ास तरीके:-

01-खनता लकड़ी काटने वाला एक औजार होता है। करीब सवा किलो वजन का। इसे एकदम गर्म लाल कर आरोपित के हाथ पर पीपल या आम का दो पत्ता रखकर उस पर रख दिया जाता है। इसके बाद वह व्यक्ति तीन बार एक ही स्थान पर परिक्रमा कर आगे सात कदम या डेग चलता है। शर्त यह है कि हाथ पर फोड़ा नहीं पड़ना चाहिए। यदि ऐसा हुआ तो हार माना जायेगा। इसके लिए एक पारंपरिक पूजा विधान है। खनता जिसके हाथ पर रखा जाना है उसको बिना सिला एक कपड़ा में ही रहना है। भूखे एक दिन पहले। ब्राह्मण पूजा कराएगा। वेद पुराण पढ़ने के लिए। मान्यता है कि ब्राह्मण के के वाणी से सब शुद्ध हो जाता है। खनता की पूजा करते हैं। कूल देवी की पूजा करते हैं। उनको ही साक्षी मान कर हाथ पर खनता रख दिया जाता है। कलयुग में कोई विश्वास नहीं करेगा लेकिन यहां यह सत्य माना जाता है।

  

02- आरोपित को नहर में पानी के अंदर तब तक रहना है जब तक दूसरा व्यक्ति 150 कदम आगे जा कार पीछे उसके पास न लौट जाए। यानी 300 कदम दूसरे व्यक्ति को चलना है और तब तक आरोपित को पानी के अन्दर रखना है। ऊपर दिखे तो दोषी माना जायेगा। यानी सांस रोके रखना है तब तक। 


03- एक किलो गर्म खौलते तेल में एक सिक्का डाला जाता है। उसे आरोपित को निकालना है। यदि हाथ जला तो दोष सिद्ध माना जायेगा। नहीं जला तो माना आजायेगा कि आरोपित का कथन ही सत्य है। वह निर्दोष है। 



न्याय-व्यवस्था-प्रणाली के इन तीन तरीकों को सभ्य समाज कतई स्वीकार नहीं करेगा, किन्तु इनकी यही अपनी परंपरागत न्याय व्यवस्था है। शायद न्याय-व्यवस्था के इस तरह न्याय-संगत न होने के कारण ही, कभी दहेज़-ह्त्या की घटना अंजाम नहीं पाती। खुले आसमान के नीचे, बिना दरवाजे वाली झुग्गियों में रहते हुए भी दुष्कर्म, छेड़खानी की घटना नहीं घटती है। फिर भी कोइ खारिज करता रहे, इनको परवाह नहीं। कोइ तर्क नहीं मानते ये। यह भी तो संभव है कि निर्दोष का हाथ गर्म दपदप खनता रखने से जल जाए, जल में स्वयं को डूबाये रखते वक्त मौत हो जाए, गर्म खौलते तेल से सिक्के निकालने से हाथ जल जाए? नहीं इस समाज में यह तर्क नहीं चलेगा। कोइ सुनने को तैयार नहीं। वास्तव में इनकी न्याय व्यवस्था-प्रणाली धार्मिक आस्था पर टिकी है, चमत्कार पर, और बिना चमत्कार धर्मं का वजूद नहीं होता। आपकी वे नहीं मान सकते, इसलिए हम ही मान लेते हैं कि, जो निर्दोष है वह, इनकी तय अग्नि परीक्षा से बिना जले बाहर निकला जाता होगा। खैर...


हिन्दू समाज की अन्य जातियों की तरह ही इन जातियों/ जन जातियों में शामिल हर एक जाति में सात कुड़ी या पारिछ होता है। सब एक दुसरे से स्वयं को ऊपर यानी श्रेष्ठ बताते हैं। जातीय सोपान एक तरह से गोल है। सब एक दुस्सरे से नीचे भी और ऊपर भी। यह गिनने वाले पर निर्भर करते है, गिनती कहाँ से किस ओर शुरू करता है। कुछ जातियां यथा- लाठौर या नट, गोही, कोडरिया, बको, कोंगड, तुरकेल, गुलाम, उमराहा, मणिकपुरिया, गदही, ओआण, छाता साथ रहते हुए भी अलहदा रहते हैं। सब एक दूसरे से खुद को व्यवसाय और खान-पान में अलगाव का आधार मानकर श्रेष्ठ और नीच का निर्धारण करते हैं। अन्य हिन्दू परंपराएं भी ये पालन करते हैं किन्तु मृत्यु बाद के संस्कार अलग हैं। वे शव को जलाते नहीं दफना देते हैं। बच्चा मरने पर जमीन में गाड़ दिया जाता है, जैसा प्राय: हिन्दू परिवार करता है। उम्रदराज की मौत पर जलाते नहीं दफनाते हैं। दशकर्म, भोज बरखी होता है। नेवता हँकारी देना पड़ता है। सबको बुलाना पड़ता है। अपने एक्शामता के अनुसार खाने-पीने की व्यवस्था जात-समाज-हित-नाता के लिए करना पड़ता है। जब कोइ बच्चा जन्म लेता है तो  सोहर गाते हैं लोग-

जुग जुग जियसु ललनवा, भवनवा के भाग जागल हो
ललना लाल होइहे, कुलवा के दीपक मनवा में आस लागल हो॥

आज के दिनवा सुहावन, रतिया लुभावन हो,
ललना दिदिया के होरिला जनमले, होरिलवा बडा सुन्दर हो॥

नकिया त हवे जैसे बाबुजी के,अंखिया ह माई के हो
ललन मुहवा ह चनवा सुरुजवा त सगरो अन्जोर भइले हो॥

सासु सुहागिन बड भागिन, अन धन लुटावेली हो
ललना दुअरा पे बाजेला बधइया, अन्गनवा उठे सोहर हो॥

नाची नाची गावेली बहिनिया, ललन के खेलावेली हो
ललना हंसी हंसी टिहुकी चलावेली, रस बरसावेली हो॥

जुग जुग जियसु ललनवा, भवनवा के भाग जागल हो
ललना लाल होइहे, कुलवा के दीपक मनवा में आस लागल हो॥


नाच गाना होता है। शंकर बाबा को पूजते हैं। छठी, सतईसा होता है। जिसके घर अधिक वर्ष पर पुत्र रत्न प्राप्त होता है, वहां तब खाने पीने का समारोह होता है। छह दिन प्रसूति से घर का कोइ बर्तन नहीं छुआयेगा। खाना अलग से फूल पीतल नहीं तो स्टील के बर्तन में उसे दिया जाता है। यहाँ भी हिन्दू परिवारों में प्रचलित रस्म का पालन दिखता है। 

शादी-विवाह में बाजा-नाच में कमी नहीं होती है। लोग अपनी क्षमता के अनुसार आयोजन-खर्च करते हैं। बनारस, जौनपुर, हरिहरगंज, दौलतपुर, संजीवन बिगहा, दूर-दूर तक रिश्तेदारी है। खाना पीना खूब होता है। दहेज़ का रोग यहाँ भी है-5 से 30 हजार रुपये तक दहेज नगदी दिया जाता है। बर्तन, मशाला जो सम्भव हो सका राजी खुशी से दिया जाता है। 

दहेज प्रताड़ना या हत्या की घटना कभी नहीं। वधु से मांगने, मारपीट करने, हत्या करने की घटना कभी नहीं घटी। यदि ऐसा हो जाए तो जिस लड़की के साथ घटना कारित किया गया, उसके परिजन, रिश्तेदार और जाति-समाज के लोग वर पक्ष के घर धावा बोल देते हैं। आरोपित के खिलाफ पंचायत लगेगी, कारर्वाई होगी, कभी-कभी यह हिंसक हो जाती है और आरोपित की हत्या तक कर दी जाती है। शिक्षा का इस समाज में घोर अभाव है। 200 की एक बस्ती में इस लेखक को इंटर फाइनल किया हुआ एकमात्र लड़का कुंदन मिला। उसकी दो बहन मैट्रिक, दो बहन इंटर और एक बहन बीए किये हुए है। बाकी सब के सब असाक्षर हैं। कुछ बच्चे समीप के विद्यालय जाने लगे हैं। लेकिन शिक्षा की उनकी यात्रा अभी शुरू हुई है, आजादी की आधी सदी बाद। कुंदन दो सांढ़, एक भैंसा, एक भैंस और एक कड़िया रखा है। गर्भ धारण करने की स्थिति में पहुंचे जानवर को पाल दिलाने का काम करता है। 200 या 300 रुपये तक एक जानवर मालिक से लेता है। अब यह धंधा सीमेन देने की मशीनी व्यवस्था से चौपट हो गया है। जिस धंधे में लाभ दिखा कर लेते हैं। खाद्यान मांगकर जमा कर लेते हैं। कटनी नहीं करते। कृषि कार्य नहीं करते। कुछ अपवाद भले हैं। अब आबादी का एक हिस्सा कृषि मजदूर बन रहा है। मणि बटैया पर खेती करने को कुछ लोग तैयार होने लगे हैं। ये जनजातियां सब दिन मांसाहार भोजन कर सकती हैं। हिन्दू परंपरा की तरह मंगलवार, गुरूवार या शुक्रवार, रविवार को मांसाहार न करने को यहाँ वर्जित नहीं है। एक्कादुका लोग शाकाहारी मिलेंगे। मुर्गा, मछली, खस्सी के अलावा भेड़ी, भेड़ा, गदहा, बिलार, सुअर भी खाने वाले लोग इन जातियों में हैं।  


अंत में बस इतना कि..

बाबू भैया कहकर, मांग खा कर जीने वाले ये लोग आरोपित हैं। जन्मजात या आदतन अपराधी नहीं। लोगों को नजरिया बदलना होगा। इनका प्रश्न है-अगर हमारी जाति अपराधी होती तो एक ही स्थान पर 60 बरस से कैसे रहती? सरकारी जमीन पर कैसे बसे रहते? लोग भगाने नहीं आते? समाज में घुल मिलकर रहते हैं। मांग चांग कर खाते हैं। भारत के हर हिस्से में घूम कर मांगते खाते हैं। इस प्रश्न का जवाब जो आप देंगे, वही हकीकत है।


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