Thursday 12 December 2019

सब कुछ ख़त्म हो जाने का परिहास है मुठभेड़ पर जश्न


(सन्दर्भ-बलात्कार-ज़िंदा जलाना-मुठभेड़ और समाज-संविधान-व्यवस्था)
० उपेंद्र कश्यप ०
देश उबल रहा है। चर्चा में भावना अधिक, वास्तविकता से सामना या मुठभेड़ कम है। समय-समाज-राज-काज पर विमर्श कम दिखा। बलात्कार और उसकी पीड़िता को ज़िंदा जलाने की घटना के बाद आरोपियों के मुठभेड़ में मारे जाने का जश्न मनाना वास्तव में सब कुछ ख़त्म हो जाने का परिहास उड़ाना है। सत्ता द्वारा जनता के जश्न का समर्थन करना उसके डरे होने का सबूत है। वह चाहती नहीं है कि जनता सही दिशा की ओर आक्रामक उंगली उठाये। मीडिया का समर्थन उसके चरित्रहीन होने और बना दी गयी या बन गयी जनभावना का दोहन कर अपना टीआरपी बढाने की गरज का प्रमाण है। हैदराबाद की पीड़िता दया की पात्र है, यह जघन्य अपराध है। उन्नाव की पीड़िता की जलाकर हत्या करना जो समाज के कुछ हिस्से के भेड़िया बन जाने की गवाही देता है। कैमूर की घटना व्यक्ति या समूह के ऐसा हैवान बन जाने की ताकीद करती है, जिससे हैवानियत भी शरमा जाए। कथित भावनाओं का ज्वार ठंढा हो गया हो तो ज़रा धरातल पर हकीकत के कुछ ओर-छोर पकड़ने की कोशिश करिए।

सबसे पहले हैदराबाद में तथाकथित बलात्कारियों के पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने पर विमर्श करिए। घटना के बाद चार आरोपी पकड़े जाते हैं। कोइ सबूत नहीं मिला होता है कि आरोपी ही बलात्कारी हैं, इसके बावजूद उनकी ह्त्या कर दी जाती है-पुलिस द्वारा। यह ह्त्या ही दिखता है। अब यदि जैसा पुलिस कह रही है कि आरोपितों ने हथियार छीन लिए थे, इसलिए मारे गए। तब भी यह पुलिस की विफलता है, सफलता नहीं। इतना साहस कैसे आरोपित कर गए, फिर कम से कम चार गुणा साथ रही पुलिस उसे पकड़ कैसे न सकी? सवाल बहुत है। तय जानिए जांच में यह सही मुठभेड़ साबित होगा। किन्तु खुद से सवाल पूछिये कि कहीं किसी तरह के दबाव में तो यह ह्त्या नहीं की गयी? कारण जो हो, इन्तजार करिए किन्तु अब जांच में यह मुठभेड़ ही है, इस पर आंच आने की उम्मीद कतई मत करिए। जनता ने जिस तरह से इसका स्वागत किया, क्या वास्तव में किया जाना चाहिए? इससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि ऐसा करने को जनता मजबूर क्यों हुई? सीधा सा जवाब है जनता को भारतीय न्यायिक-कानूनी-राजनीतिक-व्यवस्था की प्रक्रिया पर भरोसा नहीं है। इसलिए कथित बलात्कारियों का मारा जाना न्याय लगा। क्योंकि बदले की भावना का बवंडर दिलों में गुब्बार बन कर बैठा हुआ है। जो जनता पुलिस पर फर्जी मुठभेड़ करने, किसी को भी फंसा देने और पैसे के लिए किसी को भी निर्दोष बता देने, दबंगों-धनपशुओं के सामने सर झुकाये खड़ी रहने का आरोप लगाती है, उसी ने हैदराबाद पुलिस में ईश्वरीय दूत को देखा, फुल बरसाया। यह संदिग्ध हो सकता है कि अपनी असफलता को छुपाने के लिए पुलिस ने मुठभेड़ कर दिया हो, किन्तु यह असंदिग्ध है कि पुलिस का स्वागत सत्ता-व्यवस्था-क़ानून-न्यायिक व्यवस्था का उपहास है। कल्पना करिये यदि चारों आरोपितों में कोइ भी एक निर्दोष हो तो क्या उसे जीवन दुबारा दिया जा सकता है? जबकि सजा दिलाने के कई अवसर या तरीके उपलब्ध रहते हैं। अब तो मुठभेड़ में मारे गए आरोपित की पत्नी मांग कर रही है कि इसी तरह जेल में बंद कैदियों का मुठभेड़ होना चाहिए। अब भला इसे गलत कैसे ठहराएंगे? किस निकष पर इसे कसेंगे? इसी जनता को यदि समय पर न्याय मिलता, कानूनी प्रक्रिया की जटिलता का सामना नहीं करना पड़ता, तो वह कतई घटना के घंटो बाद मुठभेड़ करने वाली पुलिस पर गुलाब की पंखुड़िया नहीं बरसाती। हां, तुरंत मौके पर बलात्कारी पकड़े जाते और मारे जाते तो पुलिस स्वागत के योग्य होती। यही पुलिस है जो सेंगर के पक्ष में लगातार खड़ी है और कैमूर में जबकि सामूहिक दुष्कर्म करते वीडियो उपलब्ध है, जिसमें आरोपितों के चेहरे साफ़ दिखते हैं। उनकी हैवानियत से हैवान लजा जाए, ऐसा वीडियो है। फिर इनको पकड़ कर क्यों नहीं मुठभेड़ रच दिया जाता है? सेंगर मामले में तो हैदराबाद से अधिक स्पष्ट है कि उसने ही पीड़िता के परिजनों की ह्त्या किया या कराया और अब पीड़िता को भी जला कर मार डाला। फिर पुलिस सेंगर का मुठभेड़ क्यों नहीं करती? क़ानून के हाथ क्यों बंध गए, न्यायपालिका स्वत: संज्ञान लेकर क्यों नहीं शीघ्र सजा सुनाती है, क्यों नहीं सत्ता को शर्म आती है? क्या सिर्फ इसलिए कि हैदराबाद वाले गरीब-कमजोर थे और उन्नाव में ताकतवर और रसूखदार हैं? आप अपने अगल बगल देखिये, स्मरण करिए ऐसी घटनाएँ मिलेंगी जब सबूत के रूप में वीडियो है, और जांच की पेचीदगियों और क़ानून की जटिलताओं, न्यायपालिका की सुस्ती और पुलिस की लापरवाही के कारण दोषी बरी हो जाती है। या दशकों तक मामले चलते रहते हैं और हर बार अगली तारीख के लिए मामला स्थगित होते रहता है। ऐसे में विचार करिए आखिर क्यों हैदराबाद में पुलिस पर फुल बरसाने वाली जनता 36 घंटे में दिल्ली में पुलिस मुर्दाबाद का नारे लगाने लगती है? और पटना से सटे हाजीपुर में जब सामूहिक दुष्कर्म की पीडिता एएनएम जब पुलिस के पास पहुँचती है तो पुलिस कहती है-तुम लोग का यही काम है। जबकि पीडिता बेतिया से बिहार शरीफ जा रही थी। पुलिस का यह चाल-चरित्र-चेहरा है। और ज्यादा सर्वव्यापी है।  

सत्ता ने मुठभेड़ पर जश्न का समर्थन क्यों किया? विरोध में कोइ दल क्यों सामने नहीं आया? कारण जन भावना बताना सतही है। वास्तव में सत्ता-प्रतिष्ठान-राजनीतिक दलों को यह अनुमान है कि विरोध उनकी किरकिरी कराएगा। यह असफलता है उनकी, जिसे छुपाने के लिए उसने जन भावना को ढाल बना लिया। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था जिम्मेदार है जिसने न्याय-सत्ता प्रतिष्ठान-पुलिस को अमीरों-दबंगो-धनपशुओं की चाकरी को मजबूर कर रखा है। अन्यथा सत्ता व्यवस्था चाहे और बलात्कार की घटना न रुके, यह कतई संभव नहीं है। आज आपराधिक प्रवृति के लोगों में क़ानून-न्याय व्यवस्था का डर नहीं है और सत्ता के समर्थन की गुंजाइश वोट-बैंक राजनीति के कारण उनको दिखती है। उनमें यह विश्वास है कि पकडे नहीं जायेंगे, पकडे गए तो कुछ नहीं होगा। इस विश्वास के पीछे रिश्वत की सुविधा, तारीख-दर-तारीख लेने की सुविधा, मामले को उलझाए रखने और बेल ले लेने की सुविधा उपलब्ध होना एक कारण है। और इस स्थिति के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार सत्ता है, उसके तंत्र हैं और राजनीतिक दल और उसके प्रतिनिधि हैं।

मीडिया की व्यावसायिक मजबूरी है। मैं इसे जस्टीफाई नहीं कर रहा हूँ, किन्तु टीआरपी की भूख सीधे व्यावसायिक विवशता से संबद्ध है। इस कारण वह मजबूर हुआ जन भावना को उभारने में। कुछ एंकर तो काफी आक्रामक समर्थन करते दिखे, कुछ ने संतुलन बैठाने की कोशिश की, कुछ ने सवाल उठाये, पूछे। कुल मिलाकार संतुलित दिखने की कोशिश करती मीडिया दिखी।