Saturday 16 April 2016

आपसी विद्वेष में पार्टी को दिया सेल्टर

पंचायत, राजनीति और इतिहास-11
स्वार्थ न सधा तो सेल्टर देना बन्द
बेलवां के सोनी में हुई कई हत्यायें
उपेन्द्र कश्यप
दाउदनगर (औरंगाबाद) नक्सलबाडी आन्दोलन से प्रेरित बिहार में हुए मजदूर आन्दोलन के पीछे का रहस्य बहुत कुछ उद्घाटित होना बाकी है। जो नक्सली या मजदूर आन्दोलन के हिस्सेदर जीवित हैं, उनके पास कहने को बहुत कुछ है। उनके पास संघर्ष, उसके पीछे के वैचारिक संघर्ष, द्वन्ध और साजिशों के कई किस्से स्मरन में जीवित हैं। इस इलाके में इस आन्दोलन का अगुआ रहा है भूमिगत रही भाकपा माले लिबरेशन। तब आईपीएफ इसका फ्रंट मोर्चा हुआ करता था। सोनी गांव 2001 से पूर्व जब 1978 में पंचायत चुनव हुआ था तब खुद पंचायत मुख्यालय हुआ करता था। आज बेलवां पंचायत का हिस्सा भर है। यहां पार्टी को खडा करने का काम विकास जी ने किया था। यहां स्मरण रहे पार्टी में किसी भी हार्डकोर का नाम वास्तविक नहीं छद्म हुआ करता है। उन्हें यहां लाने वाले थे- गांव के ही पिछडी जाति के एक व्यक्ति। जिनका उद्देश्य था अपनी हे जाति के कुछ लोगों बदला लेना। यह रहस्य था किंतु जब खुला तो कथित नक्सली कार्यकर्ता पीछे हट गये। वे ऐसा करते तो उनका ही संगठन नुकसान उठा सकता था। सोनी में ऐसे लोगों ने बताया कि जिसने पार्टी को लाया, संगठित किया उसी ने गंव के ही कुछ लोगों के खिलाफ गन्दी राजनीति शुरु कर दी। योजना थी कि एक वृद्ध की हत्य कर दुश्मन को फंसा दिया जाये। किंतु पार्टी तैयार नहीं हुई। सेल्टर देने वालों का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ तो वे पीछे हत गये। उस निर्दोष वृद्ध की जान तो बच गयी किंतु भाडे के अपराधियों को बुलाकर अपने दुश्मन का सफाया करा दिया गया और बाद में पार्टी के एक नेता को आरोपी बना दिया गया। उस वाम कर्यकर्ता की भी बाद में हत्या कर दी गयी। इस कार्यकर्ता के बारे में साथियों ने बताया कि उसे सामने की लडाई में मारन संभव नहीं था सो धोखे से मार डाला गया। वह दौर अब गुजरे जमाने की बात हो गयी किंतु यादें हैं, जो लंबे समय बाद भी जीवित बची रह जाती हैं।
...और संगठन शिथिल पड गया
 पार्टी ने हबुचक में सभा की योजना बनायी। दूबे खैरा के पार्टी कार्यकर्ता ने योजना बनाया था। उसी ने जनता को उत्साहित किया था। जनता पहुंच गयी किंतु रक्षा दल मौके पर नहीं पहुंचा। स्थिति चिंताजनक बन गयी। जनता में खामोश बेचैनी छा गयी। जो लीडर थे वे चिंतित थे। लडाई से परेशान किसान संगठित हो कर मौके पर पहुंच गये। हमला कर मजदूरों, गरीबों को भगा देने की योजना थी। जनता एकमत हो कर वापस होने में भलाई समझी। वह पीछे हट गयी। किसानों की भीड ने माईक एवं अन्य सामग्री तोड फेंका। इस घटना ने मजदूरों, गरीबों को हिला कर रख दिया। नतीजा पार्टी संगठन शिथिल पडता गया। 


Friday 15 April 2016

दूबे खैरा के खिलाफ योजनाबद्ध कारर्वाई

पंचायत, राजनीति और इतिहास-10
लडाई को लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए काटा धान
लंबे संघर्ष के बाद जनता को हटनी पडी
उपेन्द्र कश्यप
दाउदनगर (औरंगाबाद) लाल-वाम विचारधारा वालों ने बेलवां पंचायत के दूबे खैरा के किसानों के खिलाफ योजनाबद्ध तरीके से कारर्वाई की, किंतु कामयाबी नहीं मिली। एक तरफ मजदूरी के सवाल पर एकजुट हुए गरीबों के साथ कम संख्या में हथियारबन्द दस्ता था तो दूसरी तरफ संपन्न, समृद्ध किसानों का समूह, जिनका प्रेरणा स्त्रोत थे-पूर्वज। जी, हां। सुनील दूबे कहते हैं-हमारे पूर्वज कह गये थे कि किसी के खिलाफ लडाई नहीं करनी है किंतु संपत्ति और जान की रक्षा के लिए संघर्ष से पीछे भी नहीं हटना है। बताया कि इसी कारण दूबे खैरा के किसान न कभी किसी को सताने में विश्वास करते हैं न कभी लडाई करने वालों से पीछे हटने की नौबत आयी। यहां सवाल मौजू है कि फिर किसानों के खिलाफ वाम संघर्ष क्यों हुआ? इसकी पृष्ठभूमि में गांव के ही एक व्यक्ति की कोशिश थी जो बाद में सामने आ गयी। मजदूर आन्दोलन के अगुआ रहे सोनी के मजदूरों का कहना है कि पार्टी ने कारर्वाई के लिए एक दूबे जी को चिन्हित किया था और इनके बहाने दूसरे दूबे को निपटा देना लक्ष्य था। योजना बनी कि लडाई की शुरुआत चना काट कर की जाय। रात्रि में 16 से 20 बिगहा जमीन पर लगा चना एक घंटा में काट लिया गया। बेलाढी, अंछा, केशराडी समेत समीपवर्ती इलाके के करीब एक हजार मजदूर इसके लिए लगे। इनकी सुरक्षा में सशस्त्र दस्ता दल के सुरक्षा प्रहरी भी थे। किसानों ने मुकदमा किया। पार्टी का मानना था कि लडाई जहां ले जानी थी वहां नहीं पहुंच रही है। इस लक्ष्य को साधने के लिए दिन में धान की फसल काट लेने की योजना बनी। अगहन में जब धान की फसल लहलहा रही थी तो दिन में करीब 600 से 700 मजदूरों ने चढाई कर दी। कई के पास हथियार थे। सशस्त्र दस्ता के 20 से अधिक सदस्य सुरक्षा के लिए मोर्चा लिये थे। जवाब में किसान पुलिस के साथ कारर्वाई में उतरे। बेलवां में तब पुलिस पिकेट था, इसके जवान लगे और बाद में दाउदनगर पुलिस भी आ गयी। मजदूरों के लिए चुनौती कडी थी तो रणनीति बनी। दोपहर से शाम तक मुकाबला चला। जनता को इस दोतरफा गोलीबारी से बचाना पहली प्राथमिकता बन गयी। हथियारबन्द दस्ता मोर्चा संभाले रही और मजदूरों को पीछे सुरक्षित हटा दिया गया। शाम के धुन्धलके में दस्ता भी सुरक्षित वापस चली गयी। 

लडाई मजदूरी की नहीं बर्चस्व की- किसान

 दूबे खैरा के किसानों का कहना है कि संघर्ष मजदूरी को लेकर नहीं था बल्कि बर्चस्व के लिए था, जिसे किसानों ने बर्दास्त नहीं किया। मजदूरी तो जितना मांग जाता दे दिया जाता था। तीन सेर की जगह तीन किलो की मांग थी। वह मिलता था। सरकारी दर तीन किलो अनाज और 250 ग्राम सत्तु था। दूबे खैरा में सत्तु इससे अधिक दिया जाता था। आज भी दर्जनों परिवार किसानों के दिये खेत के आसरे जीते हैं।

Wednesday 13 April 2016

समाज को सुधारने के लिए आते रहे हैं धर्मगुरु

साहित्य और हिकमत पर लिखी थी किताबें
मनाया जा रहा है 73 वां उर्स मुबारक
लाहौर के रिसालों में प्रकाशित हुई हैं नुस्खे
उपेन्द्र कश्यप
दाउदनगर(औरंगाबाद) पुरानी शहर में खानकाह आलिया कादरिया अब्दालिया के तत्वावधान में हजरत सैय्यद शाह अनीस अहमद कादरी का 73 वां उर्स मनाया जा रहा है। उनको अनीसे बेकशां के नाम से भी जाना जाता है। इन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। इनके वंशज सबा कादरी ने बताया कि जब-जब संसार में अधर्म फैलत है, तब तब कोई धर्मगुरु समाज को सुधारने के लिए धरती पर अवतरित होते हैं। समाज को दिशा दे कर सही मार्ग पर चलने का शउर सीखाते हैं। बताया कि फारसी और उर्दू में हेयात सैयदना, अजकारे तैयबा, अनीसुलकलुब, कलाम ए रब्बानी, सफीन-ए-हयात, कशकोल, दिवाने अनीस समेत दर्जनों किताबें लिखी हैं। इसके अलावा हिकमत यानी आयूर्वेद पर भी किताब लिखी। कई नुस्खे इजाद किया जिसे लाहौर के रिसाले अलहकीम एवं अल अतबा में प्रकाशित हुए हैं। पटना हाई कोर्ट के सेवानिवृत जज एवं बीपीएससी के सदस्य रहे सैयद बहाउद्दीन ने अपनी किताब गुलस्ताने हजार रंग में भी अनीस के शेर शामिल किए थे। जिस पर शिक्षा मंत्री अब्दुल कलाम आजाद ने प्रशंसा किया था। सबा ने बताया कि 847 हिजरी में सैयदना अमझरी बगदाद से भारत आये। ये सूफी संत थे। सिलसिला कादरिया का प्रचार भी किया। इनके खानदान में ही हिजरी 1300 में चार रज्जब को अनीस अहमद कादरी का जन्म हुआ। बडे होने पर अपने पिता और चाचा से तथा अमझर शरीफ में मदरसा कादरिया में सैयद शाह इसा कादरी से शिक्षा ग्रहण किया। हिकमत की शिक्षा दिल्ली जाकर हकीम अजमल खान से ली। शिक्षा पुरी करने के बाद खनकाह आए और तत्कालीन सज्जादानशीं गुलाम नजफ कादरी से मुरीद होकर खलिफा बन गए। नजफ कादरी के निधन के बाद खुद अनीस कादरी खनकाह के सज्जादानशीं हो गए। पुरी जिम्मेदारी से इस कार्य को निभाया। अपनी हिकमतगीरी से जनता को फायदा पहुंचाया। 63 साल की उम्र में चार रज्जब हिजरी 1364 को उनका इंतकाल हो गया। इस खानकाह के सज्जादानशीं सैयद वलीउल्लाह अहमद जेया कादरी लोगों को अध्यात्मिक शिक्षा दे रहे हैं। मकसद है लोगों तक इंसानियत का पैगाम पहुंचाना। जहां तक और जब तक पहुंचे। 

सीएम भी मांग गये हैं अपनी मुराद
 मुख्यमंत्री रहते जीतन राम मांझी 29 जनवरी 2015 को आस्ताना पर जाकर अनीसे बेकशां के मजार पर अपनी हाजिरी लगा गये हैं। उन्होंने सूफी संत सैयद शाह अनीस अहमद कादरी के मजार पर चदरपोशी की और आशीर्वाद मांगा था। आस्ताना कादरिया अबदालिया सुलेमानिया में उन्होंने चादर पोशी करते वक्त दुआ की कि उन्हें इतनी शक्ति मिले कि वे सभी का एक समान तरक्की कर सकें। बिना किसी भेद भाव का। भाईचारगी के लिए दुआ की। बिहार में अमन और शांति बनी रहे इसकी कामना की। सैयद वलीउल्लाह अहमद जेया कादरी ने चादरपोशी कराया था। इसके पहले सबा कादरी ने उनको इस्लामिक रिवाज के हिसाब से पगडी बंधाया था। तब शहर में मुख्यमंत्री के इस कार्यक्रम की काफी चर्चा हुई, और मजार को भी राज्य स्तर पर ख्याति मिली। खानकाह के तत्कलीन गद्दीनशीं सैयद शाह सज्जाद अहमद कादरी से उनके खानकाह जा कर उनसे मुलाकात की। मुख्यमंत्री के इस आगमन से आस्ताने की शोहरत दूर तक फैली।

कब्जा कर जमीन गरीबों में बांट दी

पंचायत, राजनीति और इतिहास-9
* हसपुरा का ‘अलपा’ था प्रेरणास्त्रोत
* पुलिस की छिनी राइफल विनती पर लौटाया
* पुलिस से केशो साव को जनता छुडा ली थी

उपेन्द्र कश्यप
दाउदनगर (औरंगाबाद) बेलवां पंचायत में कई जगह जमीन कब्जा की गयी। मजदूर आन्दोलन में  दस बिगहा जमीन कब्जा कर मजदूरों के बीच बांट दी गयी। लाल झंडे वाली पार्टी का तब बोलबाला हुआ करता था। मजदूर आन्दोलन में शामिल सोनी के नेतृत्वकर्ता मजदूरों के अनुसार उन्हें हसपुरा प्रखंड का अलपा गांव प्रेरणा देता था। मालुम हो कि जिला में खेत कब्जा की पहली घटना इसी गांव में हुई थी। इसी के बाद लाल झंडे, पार्टी और नक्सली जैसे शब्द यहां धीरे-धीरे खौफ का प्रयाय बनते चले गये। बताया कि जब भी मजदूर संगठित होते, कारर्वाई की योजना बनाते तो “अलपा” उन्हें हिम्मत देता, प्रेरणा देता और संबल के साथ उम्मीद भी कि सफलता मिलकर रहेगी-बस संघर्ष जारी रखो। 1990 के दशक में उचकुंधी में 10 बिगहा जमीन कब्जा की गयी। उस पर लला झंडा गाडा गया। यह जमीन अब भी गरीबों के कब्जे में है। इसका वितरण कर दिया गय। किसी को दो कट्ठा तो किसी पांच कट्ठा कर। सभी खेती करते हैं और अपनी आजीविका चलाते हैं। आन्दोलनकारियों ने बताया कि जमीन्दार का अहरा पर कब्जा था। मछली मारने के लिए मजदूर-गरीब चढाई करने पहुंचे। लडाई मछली पर कब्जे का था। पुलिस पहुंची तो मजदूरों ने पुलिस का राइफल छिन लिया। पुलिस प्रशासन ने आग्रह किया, सशर्त राइफल लौटा दिया गया। मुकदमा नहीं किया गया। महिला, पुरुष की भीड देख पुलिस सहम गयी थी। हालांकि पुलिस ने केशो साव को पकड लिया था। जनता आक्रामक होकर पुलिस के कब्जे से उन्हें छुडा लिया। इसके बाद पुलिस ने कभी भी गरीबों को मछली मारने से रोका नहीं, तंग भी करना छोड दी।    

Tuesday 12 April 2016

बेलवां-संसा में मजदूरी को लेकर चला लंबा संघर्ष

पंचायत, राजनीति और इतिहास-8
फसल के साथ हुई तनावों की भी खेती
आन्दोलन से मिल समानता क अधिकार
40 बिगहा जमीन कब्जा में किंतु स्थायीत्व नहीं

उपेन्द्र कश्यप
दाउदनगर (औरंगाबाद) बेलवां पंचायत मजदूरी के सवाल को लेकर नक्सल आन्दोलन के वक्त उबाल पर था। हत्या, आगजनी, गोलीबारी हुई। किसानों और मजदूरों के बीच तनातनी का लंबा दौर इसने देखा है। सोनी और खैरा द्विप या दूबे खैरा ने खेतों में फसल लहलहाने के साथ तनाव की खेती होते भी देखा है। उस आन्दोलन में शरीक लोग आज भी अपनी यादें साझा करते हैं, जो कल खुंखार नक्सली बताये जाते थे आज सहज जीवन जी रहे हैं। उनके चेहरे पर यह गौरव बोध साफ झलकता है कि उनके आन्दोलन के कारण ही समानता से जीने और रहने का अधिकार मिला। मजदूरी बढी और मजदूरों का शोषण समाप्त हुआ।
किसानों द्वारा मजदूरों को तीन सेर कच्ची बतौर मजदूरी धान मिलता था। आन्दोलन में शामिल मजदूरों ने बताया कि 12 महीने का श्रम करने के बाद भी चार महीने का खर्च नहीं जुट पाता था। फाल्हुन चैत से ही हर काम के लिए मजदूरों को मालिक का मुंह ताकना पडता था। मजदूरी का अग्रिम भुगतान मांगना पडता था। एक तरह से बन्धुआ मजदूर थे सब। मालिक से बिना अनुमति के कहीं बाहर नहीं जा सकते थे। इलाके में हसपुरा थाना का अलपा मजदूर आन्दोलन के लिए चर्चित हो रहा था। लोग इससे प्रेरित होने लगे थे। धीरे-धीरे स्थिति बनी कि मजदूरों ने एकजुट होकर हडताल कर दिया। किसानी का काम बन्द। इनकी मांग थी कि तीन किलो पक्का वजन में चावल दें। मुकदमेबाजी हुई। सोनी में एक साथ चार घरों में आग लगा दी गयी। उस टकराव में हरदेव पासवान की हत्या हुई। चकबन्दी हुई तो चार स्थानों पर गैर मजरुआ आम और अन्य तरह की जमीन निकली। इस तरह की करीब 40 बिगहा जमीन पर एक साल खेती के गयी। मजदूर आपस में उपज को बांट लेते। यह दौर नहीं चला। अब मजदूर कहते हैं कि किसानों ने इस जमीन पर पुन: कब्जा कर लिया और इन्हें छोडना पडा। कहते हैं कि पार्टी के कारण ही जुबान मिली, मजदूरी बढी और शोषण खत्म हुआ। किसान अब खुद मजदूरी बढा देते हैं। अभी पांच किलो तक मजदूरी मिल रही है।     



बाबू अमौना के बनने के हैं अपने किस्से

पंचायत, राजनीति और इतिहास-7
आपसी सहमति का था सर्वमान्य रास्ता
1956 तक थाने नहीं पहुंचते थे मामले
दाउदनगर के गोरडीहां पंचायत का अमौना गांव। महत्वपूर्ण गांव जिसने इतिहास के कई पन्ने खुद लिखे और संघर्ष की दासतां भी लिखी। इसके बसने की अपनी कहानी है। मुगल काल में यह गांव मुस्लिम बहुल था। किसी हादसे या परिस्थितिवश गांव उजड गया। आबादी नहीं रही। बाद में गोह के डिंडिर निवासी बाबू बुनियाद सिंह ने मुस्लिमों से जमीन्दारी खरीद ली और गांव को आबाद किया। इससे पहले वे अपने गोतिया से तंग आकर बल्हमा गांव में बस गये थे। शायद यही वजह रही कि यहां कभी भी सांप्रदायिक तनाव नहीं हुआ है। सामाजिक समरसता का इतिहास सामूहिकता से बनाया गया है। यहां दो कब्रिस्तान और एक करबला है जिसके लिए जमीन जमींदार राघो सिंह ने जमीन दी थी। इसके संचालन के लिए सात बिगहा खेत भी दिया गया था, जिसकी फसल से करबला का खर्च आज भी चलता है। यहां मुस्लिमों का गढ हुआ करता था। वर्तमान गढ उससे अलग है।
अमौना गांव के विवाद 1956 तक आपसी सहमति से निपटाये जाते थे। अंजनी कुमार प्रसाद सिंह ने बताया कि गांव के विवाद जब औरंगाबाद स्थित एसडीओ कोर्ट तक जते तो वहं से मामले को गांव में ही निपटा देने का पत्र आया करता था। जमींदार राघो प्रसाद सिंह जब तक जीवित रहे यह परंपरा चलती रही। उनके निधन के बाद यह व्यवस्था खत्म हो गयी। 
अमौना बनाम बाबू अमौना
सरकारी दस्तावेजों में बाबू अमौना शब्द नहीं है। इसका मशहूर नाम है- अमौना। यही राजस्व ग्राम है। फिर इसे बाबू अमौना कब और कैसे कहा जने लगा? ग्रामीण अंजनी कुमार प्रसाद सिंह बताते हैं कि इलाके में अमौना नाम के तीन गांव हैं। एक को लाला अमौना कहा जाने लगा तो गांव के एक जमीन्दार  अपने डाक पता में बाबू अमौना लिखने लगे। बस इसी तरह यह बाबू अमौना कहाने लगा। मुखिया भगवान सिंह बताते हैं कि जमीन्दार राघो सिंह के प्रभाव के कारण गांव के नाम से पहले बाबू जोडा गया जो प्रचलन में चल पडा।
चार कोण, चार पोखरा
बाबू अमौना गांव के चारों कोण पर चार पोखरा हुआ करता था। अब दो का वजूद खत्म हो गया है। इनका अतिक्रमण कर लिया गया है। कभी ये सिंचाई के प्रमुख साधन हुआ करते थे। आज पंचायत में सिंचाई की कोई समस्या नहीं रह गयी है। गोरडीहां और नोनार में जमीन्दारी बान्ध का मरम्मत कार्य हुआ है। कैनाल और करहा से संसा के खेत आबाद हो गये हैं। अनुसूचित जातियों की जमीन भी बंजर से सिंचित हो गये हैं।

Monday 11 April 2016

‘माया’ के मस्तिष्क में ‘सरस्वती’

उपेन्द्र कश्यप 
जी हां, नन्हीं मासूम गुडियों से खेलने वाली माया के मस्तिष्क में सरस्वती का वास है। शहर उनका प्रवचन रोजाना संध्या को यहां श्रवण कर रहा है। कुमारी माया सरस्वती उर्फ मीरा जी मात्र 11 साल की हैं। गया जिला के कोंच थाना के तरारी गांव की निवासी और यहीं मिडिल स्कूल में सातवीं की छात्रा हैं। इसी उम्र में उन्हें रामचरित मानस के बालकांड से लेकर उत्तरकांड तक याद है। कभी खिलौने से कभी मोबाइल का गेम खेलने वाली यह नन्ही बालिका डाक्टर बनना चाहती है। प्रवचन के लिए स्वयं को तैयार करने के साथ अपनी कक्षा के दस विषयों को भी पढती हैं। इस कारण माता उत्तम देवी ने अपनी शिक्षिका का पेशा छोड कर सिर्फ पुत्री को पढाने और साथ देने में जुट गयीं। एक बार माया ने पिता से कहा कि वकालत के पेशे में झुठ बोलना पडता है इसलिए दिनेश सिंह चौहान ने अपनी 18 साल की जमी जमायी वकालत का पेशा छोड दिया। सात और नौ दिन तक प्रवचन करने का उन्हें अवसर पूर्व में मिल चुका है। यहां पहली बार उन्हें 12 दिन निरंतर प्रवचन करने का अवसर मिला है। इससे पहले डोभी के अमारुत में 11 दिन का प्रवचन दे चुकी है। दाउदनगर में रिकार्ड बना जिस कारण पिता को शहर से स्नेह अधिक हो गया है। माता-पिता का लक्ष्य है कि पुत्री स्वयं प्रवचन कर सके इतना आत्मविश्वास प्राप्त कर ले और सामने नीचे भूमि पर बैठकर दोनों पुत्री का प्रवचन सुन कर ज्ञान प्राप्त कर सकें। दूसरा लक्ष्य है कि जब माता-पिता स्वर्ग सिधार जायें तो माया दोनों की तस्वीर अपने मंच पर रखे और इसके सथ गुरु, प्रभु का आशीर्वाद लेकर प्रवचन का प्रारंभ करें।
संत के मार्ग पर चलना है
 माया सरस्वती के पिता का कहना है कि सिर्फ प्रवचनकर्ता या कथावाचक बनाना लक्ष्य नहीं है। हमारी कोशिश है कि संत के मार्ग पर पुत्री चले और दूसरों को भी तभी ऐसा करने को प्रेरित करे। बताया कि एक बार प्रात: मां,पिता और गुरु को प्रणाम करने की सीख प्रवचन में दिया तो पूछा कि बेटी जब आप ऐसा नहीं करतीं तो दूसरे को कैसे प्रेरित करेंगी। इसके बाद प्रतिदिन प्रात: को माया ऐसा करने लगीं।
धीरे-धीरे बढ रहा आत्मविश्वास
 माया सरस्वती का आत्मविश्वास धीरे-धीरे बढ रहा है। इस कच्ची उम्र में परिपक्वता की अपेक्षा भी कदाचित उचित नहीं। जब उन्होंने मंचीय कार्यक्रम प्रस्तुत करना प्रारंभ किया तो सिर नीचा रहता था। सर झुकाकर प्रवचन करती थीं। सामने वाले को इनक चेहरा नहीं दिखता था। अब यह समस्या खत्म हो गयी है। अब चेहरे पर आत्मविश्वास झलकने लगा है।
स्मरणशक्ति ईश्वर की देन
 माया की स्मरणशक्ति की दाद देनी होगी। वह निरंतर प्रवचन कएम भी करती है और स्कूली शिक्षा के लिए दस विषयों की पढाई भी। वह धर्मग्रंथों को भी पढते समझते रहती है। सातवीं कक्षा की छात्रा है और नवीं, दसवीं की गणित प्रश्न हल कर देती है।
साध्वी प्रज्ञा से मिली प्रेरणा
 साध्वी प्रज्ञा भारती का वैभव संसार देखकर नन्हीं माया प्रवचनकर्ता बनने को प्रेरित हुई थीं। करीब ढाई सल पहले वह अपने पिता दिनेश सिंह चौहान के साथ डा.संकेत नारायन के यहां गयीं थीं। वहां साध्वी प्रज्ञा का प्रवंचन होना था। वह आयीं तो सभी लोग उनका चरणरज ले आशीर्वाद ग्रहण करने लगे। इससे इस बालमन पर गहर प्रभाव पडा। पिता से इसकी वजह पूछी तो बताया और फिर आध्यात्मिक स्कूल में नामांकन को जिद करने लगीं। पिता टालते रहे और अंतत: अपनी प्यारी इकलौती संतान को इस दिशा में ले जाने को दृढनिश्चय कर लिया। 

गोरडीहां में नक्सल बनाम जमींदार संघर्ष


पंचायत, राजनीति और इतिहास-6
हुआ अपहरण, आगजनी और गडा लालझंडा
उपेन्द्र कश्यप
 गोरडीहां पंचायत का इतिहास संघर्ष का रहा है। यहां किसानों के खिलाफ जमकर संघर्ष हुआ है। इसका लीडर रहा है भाकपा माले। वह तब भूमिगत संगठन हुआ करता था और आईपीएफ इसका फ्रंट मोर्चा था। जिसके बैनर तले 1995 के बिहार विधान सभा चुनाव लड कर राजाराम सिंह विधायक बने थे। यहां 1997 में राघो सिंह की 22 बिगहा जमीन पर लाल झंडा पहली बार गाडा गया था। 1998 में 30 बिगहा जमीन में लगी फसल नक्सलियों ने काट लिया था। 1999 में इनके बल्हमा निवासी एक व्यक्ति का अपहरण कर लिया गया था। साल 2000 में इस बडे जोतदार वाले किसान के सभी खेत को नक्सलियों ने 84 जोडा बैल लगाकर जोत दिया। अंजनी कुमार प्रसाद सिंह बताते हैं कि स्थिति इतनी विकट आ गयी थी कि बडे किसानों  को घर या गांव छोडने की नौबत आ गयी। तभी यहां 1999 में यहां एलपी स्कूल में पुलिस पिकेट की स्थापना की गयी। यह तब तक रहा जब तक यहां स्थिति नियंत्रण में आ कर शांत न हो गयी। किसानों की अपनी जमीनों पर कब्जा हो गया और इसके साथ ही यहां से पिकेट चला गया। संभवत: 2001 तक यहां पिकेट स्थापित रहा। यह तनाव भरा क्षण सबके लिए था। लाल पताके की गतिविधियां खूब होती थीं। इस संवाददाता ने जिला में पहली बार 2002 में नक्सलियों के हथियारबन्द दस्ते की तस्वीरें दैनिक जागरण में इसी पंचायत की सार्वजनिक किया था। इस दौर में लाल सलाम खूब सूने गये जब कि कभी यहां सामूहिकता और सार्वजनिक कार्य के लिए सहभागिता आम बात थी। जब नहरें टूटती थी तो अमौना, गोरडीहां और नोनार के किसान सभी एक साथ मजदूर लगाकर काम करते थे और अमौना के इसी किसान घराने का ढाबा, दालान और खाद्यान काम आता था।
 क्रांतिकारियों को मंदिर में मिला संरक्षण
ठाकुरबाडी में स्थापित भगवान की प्रतिमायें

गुलाम भारत में क्रांतिकारियों ने देव स्थलों को भी अपना शरणस्थली बनाया था। बाबू अमौना ठाकुरबाड़ी मंदिर (राम जानकी मंदिर) भी ऐसी ही भूमिका में था।  क्रांतिकारियों को अपना छांव देकर दुश्मन अंग्रेजों से बचाया, उन्हें जीवन दान दिया। सन 1857 के गदर में बाबू वीर कुंअर सिंह के सिपहसालार जीवधर सिंह ने अंग्रेजों से युद्ध के वक्त यहां शरण लिया था। उन्हें अपनी जान की चिंता पड़ी थी। किंतु गददारों ने या भेदियों ने अंग्रेज प्रशासन को इसकी सूचना दे दी। गया से पुलिस के मुखिया यहां चले आए। इसकी सूचना जमींदार को मिल गयी और जीवधर सिंह बच निकले। 1942 की अगस्त क्रांति के वक्त भी गया के नामचीन वकीलों ने यहां शरण लिया था। तब यहां टियां हुआ करता था। यानि वह स्थान जहां यात्री विश्राम करते थे और उसे मीठा पानी गला तर करने को प्राप्त होता था। यह गांव तब गया-देवहरा (पुनपुन नदी पार कर) बाबू अमौना- महदेवा घाट (सोनपार) होते कुरमुरही पीयरो (भोजपुर के पास) होते रामरेखा घाट बक्सर पहुंचने वाले पैदल मार्ग पर पड़ता था। कुंभ मेला जाने वाले यात्री साधु संयासी इसी मार्ग से जाते और इस टियां पर ठहर कर तृप्त होते।


Saturday 9 April 2016

अमौना ही 2001 में बन गया गोरडीहां पंचायत

पंचायत, राजनीति और इतिहास-5
भाकपा माले ने की थी लाल-क्रांति

उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) अमौना कभी खूद पंचायत मुख्यालय हुआ करता था। अब गोरडीहां पंचायत का हिस्सा बन गया है। यह बदलाव 21 वीं सदी में हुआ जब 2001 में पंचायतों का परिसीमन बिहार में किया गया। तब तक बिहार में लालु प्रसाद के नेतृत्व में सामाजिक न्याय की क्रांति हो चुकी थी। यह और बात है कि बिहार में उनके कार्यकाल में पंचायत चुनाव नहीं हो सके। इस पंचायत का नाम गोरडीहा हो गया। चुनाव हुआ तो रुपचंद बिगहा के लखन यादव मुखिया निर्वाचित हो गये। तब ई.भगवान सिंह मात्र 26 मतों से हार गये। मधेश्वर शर्मा और भाकपा माले नेता मदन प्रजापति भी चुनाव हार गये थे। जब कि माले ने इस क्षेत्र में अपने तरीके की लाल-क्रांति की थी। किसान राजकुमार सिंह की जमीन पर साल 1997-98 में झंडा गाडने का नेतृत्व माले ने किया था। तब यहां इतना अधिक तनाव बना कि पुलिस पिकेट बिठाना पडा था। जब मामला शांत हो गया और किसनों ने अपनी जमीन अपने कब्जे में ले लिया तो पिकेट का भी कोई मतलब नहीं रह गया। सरकार ने उसे हटा दिया। इस चुनाव के बाद जब 2006 में चुनाव हुआ तो बिहार में पहली बार पंचायत के एकल पदों पर आरक्षण लागू कर दिया गया। यह सीट सामान्य रहा। यहां चुनाव में गोरडीहां के ई.भगवान सिंह जीते और अमौना के सुबोध शर्मा और तत्कालीन निवर्तमान मुखिया लखन यादव हार गये। फिर 2011 में चुनाव हुआ और पुन: सुबोध शर्मा हारे और भगवान सिंह दूसरी बार मुखिया बन गये। इस बार यह सीट महिला आरक्षित है तो इनकी पत्नी सबिता देवी मैदान में हैं। जो अंकोढा कालेज में प्राचार्य के पद से त्यागपत्र दे कर राजनीति में आयी हैं।   `  

प्रथम मुखिया और मुकदमा
आधुनिक भारत में प्रथम बार तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा राजस्थान के  नागौर जिले में 02 अक्टूबर 1959 को पंचायती राज व्यवस्थ लागू की गई थी। जब अमौना पंचायत का प्रथम चुनाव होना था, चुनाव आम सहमति से हुए और नोनार के राम राज यादव को जनता ने मुखिया चुन लिया। एक समूह इनके खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया। उच्च न्यायालय तक सुनवाई चली। दूसरा चुनाव आ गया। फैसले में अब भला किसे दिलचस्पी रह जाती। जब 1978 में चुनाव हुआ तो बलिराम शर्मा निर्वाचित मुखिया बने। इसके बाद 2001 में चुनाव हुए। 

मजदूरी को ले हुआ था वाम आन्दोलन

पंचायत, राजनीति और इतिहास-4
100 एकड जमीन पर गाडा था झंडा
मजबूत भी और कमजोर भी बनी ‘पार्टी’
किसानों की जमीन से ही गरीबों की रोटी
उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) 2006 और 2011 के पंचायत चुनाव में भाकपा माले की राजनीति हारती गयी। चूंकि वह ग्राउंड जीरो पर परिस्थितियों का आकलन और पूर्वानुमान दोनों करने में असफल रही। वह अपनी पूर्व की गलतियों से सीख न सकी थी। कभी गांव के गरीबों को किसानों के मुकाबले खडा करने में लगी पार्टी की असफलता की पृष्ठभूमि करीब डेढ दशक पूर्व के मजदूर आन्दोलन ने तैयार कर दी थी। उंचाई देने के बावजूद फिसड्डी होने के कारण का बीजारोपण भी तब हो गया था। वस्तुत: शोषण से तंग समाज के कुछ युवाओं ने यहां पार्टी (तब पार्टी शब्द हथियारबन्द नक्सली संगठन का पर्यायवाची था) को बुलाया था। उसे सेल्टर उपलब्ध कराया। उसमें कई जिन्दा हैं। बताते हैं कि मजदूरी के खिलाफ आन्दोलन प्रारंभ हुआ। तब तीन किलो धान या दो किलो चावल मजदूर को दिया जाता था। करीब 100 एकड जमीन पर संभवत: 1986 या 1988 में लाल झंडा गाड दिया गया। यह पार्टी की उपल्ब्धि थी और मजबूत होने की दिशा में एक बडी शुरुआत। इसे पार्टी बरकरार नहीं रख सकी। किसानों ने लाल झंडा उखाड फेंका। भाकपा माले पीछे हट गयी। किसानों की तरफ से खडी टीम का मुकाबला तब तीन लोगों ने किया था। तीनों के पास मात्र तीन भरेठ गोली थी। इनको अपने हथियार पुलिस की डर से सोन में छुपाकर रखना पडता था। ऐसे हथियार अप्रत्याशित आक्रमण पर काम नहीं आ सके। हमलावरों की नजर से ओंझल होकर तीन तिकडी का एक सदस्य एक फायर करता और विरोधी जवाब में फायरिंग इतनी करते कि उसकी गिनती मुश्किल थी। काफी देर बाद ताकतवर समूह वापस चले गये और परिणामत: पार्टी में बिखराव आ गया। आज उन्हीं किसानों के भरोसे गरीबों की बडी आबादी अपनी आजीविका चला पा रही है। समाज में बदलाव दिखता है। किसानों के खेत उन्हीं कथित विरोधियों के जिम्मे है और वे अपनी दाल रोटी चला पा रहे हैं।

अफरा-जफरा और अंछा पट्टी
 अंछा के बारे में एक किंवदति है कि दाउद खां को अफरा-जफरा तंग करते थे जिससे मुक्ति अंछा के राजपूतों ने दिलाया था। ग्रामीण और कांग्रेस प्रखंड अध्यक्ष राजेश्वर सिंह ने बताया कि सुना जाता रहा अहि कि अंछा और इमामबाडा के बीच दोनों भाई रहते थे। जब यहां दाउद खां आये तो उन्हें दोनों तंग करने लगे। दाउद खां अंछा के राजपूतों से संपर्क किये तो दोनों से दाउद खां को मुक्ति मिली। इससे खुश हो कर दाउद ने पसवां और लहसा की जागीर अंछा के राजपूतों को दे दी। इसे अज भी पसवां में ‘अंछा पट्टी’ के नाम से जाना जाता है।

किसान, किसानी और समृद्धि
अंछा पंचायत किसानी के लिए समृद्ध माना जाता है। यहां के किसानों ने अपने परिश्रम के बदौलत कद्दु, लाल गुलाब आलु और धान –गेंहू की पैदावार अच्छी करते हैं। इससे किसानों के साथ मजदूरों एवं गरीबों को भी आमदनी हो रही है। गांव जितना संघर्ष के जमाने में समृद्ध था उससे आज अधिक समृद्ध है। इससे विकास की गति बढ रही है।


Friday 8 April 2016

आरक्षण ने बदल दी जनप्रतिनिधित्व की सूरत


दैनिक जागरण-8.4.16
पंचायत, राजनीति और इतिहास-3
दो बार मिला अनु. जाति को मौका
उपेन्द्र कश्यप
21 वीं सदी बिहार में सामाजिक बदलाव लेकर आया। 1978 के बाद नये परीसीमन के साथ पंचायत चुनाव का आगाज 2001 में हुआ। गत चुनाव में निर्विरोध निर्वाचित बीरेन्द्र कुमार सिंह इस चुनाव में खडे हुए तो विपक्ष भी खडा हुआ। राज्य में सामाजिक न्याय की सरकार थी। सोन में बहुत पानी बह चुका था। इलाके में सक्रिय आईपीएफ (इंडियन पीपुल्स फ्रंट) यहां राजनीतिक हस्तक्षेप में उतरी। उसने भाकपा माले के कार्यकर्ता मोहन चौधरी को प्रत्याशी बनाया। बीरेन्द्र सिंह 900 वोट लाकर जीत गये। श्री चौधरी को लगभग 500 से कम वोट मिला और राम श्लोक सिंह को 700 से अधिक मत। यह आने वाले राजनीतिक बदलाव की आहट थी। 2006 में यह पंचायत अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित घोषित हो गया। भाजपा समर्थित नीतीश कुमार (जदयू) की सरकार ने आरक्षण की व्यवस्था को तेज धार दे दी थी। चुनाव की बिसात बिछी तो पासे भी कम नहीं चले। अंछा पंचायत में पहली बार किसी अनुसूचित जाति का मुखिया बनना तय हुआ था। राजनीतिक मजबूरियां ही सही किंतु बिहार में हाशिए पर खडी आबादी को जनप्रतिनिधित्व का अवसर मिलना पहली बार तय हुआ था। भाकपा माले बडी भूमिका निभाने उतरी। पार्टी की बैठक हुई। उसमें युदागीर राम को नहीं बुलाया गया। द्वारिक राम की कोशिश थी प्रत्याशी बनने की। यहां यह स्पष्ट हो लें कि चुनाव पार्टी आधार पर बिहार में नहीं हो रहा था। बस राजनीतिक दल अपने स्तर से समर्थक प्रत्याशी बना कर विजेता बनाना चाहते थे। पार्टी ने युदागीर राम (अनुपस्थिति के बावजूद) को सरपंच का  प्रत्याशी बनाने का निर्णय लिया। इन्होंने इसे चुनौती दी। ग्रामीणों ने पार्टी पर अनदेखी करने का आरोप लगाया। बात नहीं बनी तो खुला ऐलान कि युदागीर भी चुनाव लडेंगे। उन्होंने द्वारिक पासवान को 367 मत से हराया और भद्र लोक में पहली बार क्रांतिकारी लाल बदलाव लाया। फिर जब 2011 में चुनाव हुआ तो द्वारिक को 456 मत से हराया। वे चौथे स्थान पर रहे। दूसरे स्थन पर चौरम के राम प्रवेश पासवान और तीसरे स्थान पर केशराडी के विन्देश्वरी पासवान रहे। अब सीट अनारक्षित हो गयी है, मुकाबला कौन जीतता है देखना दिलचस्प होगा।    
अंछा गांव का दृष्य
बडी शख्सियत-शिवशंकर सिंह
 28 मार्च 1978 से 1983 तक दाउदनगर नगर पालिका (तब, अब नगर परिषद) के चेयरमैन रहे शिवशंकर सिंह अंछा के मूल निवासी हैं। अब शहर में शुक बाजार में रहते हैं। इनके पुत्र कौशलेन्द्र कुमार सिंह अभी नगर पंचायत के उप मुख्य पार्षद हैं। उनका नाम ही “चेयरमैन साहब” पड गया। कितने चेयरमैन बने लेकिन वे बाद में अपने नाम से पुकारे जाते रहे हैं। यह बडी उपलब्धि रही। 14 फरवरी 1978 को चुनाव हुआ। और 28 मार्च को वे चेयरमैन बने थे। उन्होंने ‘नगरपालिका के बढते कदम’ फोल्डर निकाला। इसमें आठ सडकें बनाने का दावा किया गया। कादरी हाई एवं मिडिल स्कूल, हाता मिडिल स्कूल, पटना के फाटक स्कूल, बुधु बिगहा स्कूल समेत आठ स्कूलों को सडक से जोडने की योजना बनायी थी। उनके राजनीतिक अनुभवों और कार्यों ने उन्हें “राजनीति की किताब” की छवि दे दिया। आज भी वे अंछा के गौरव के रिप में शहर में देखे जाते हैं।




Wednesday 6 April 2016

सत्ता बनाम सामाजिक संघर्ष का गवाह अंछा

पंचायत, राजनीति और इतिहास-2
दासता की मुक्ति में गुजर गयीं पीढियां
स्थिति के लिए नई पीढि जिम्मेदार नहीं
उपेन्द्र कश्यप
 औरंगाबाद के दाउदनगर शहर के सटे अंछा पंचायत ने सत्ता और समाज का संघर्ष देखा है। खूब देखा है। भारत आजाद हुआ किंतु यहां के मजलुमों के लिए नया बिहान न होना था न हुआ। इनके लिए बाबा साहब भीमराव अंबेदकर का कानून तत्काल दासताओं से मुक्ति नहीं दिला सका। चुनावी प्रक्रिया प्रारंभ हुई तो डर से न कोई वोट देने जाता था न कोई कमजोर वर्ग का उम्मीदवार बन सकता था। दासता और डर ऐसी कि जब वोट दिया तो जैसा और जिसको कहा गया उसी को। गांव के चंद प्रभावशाली व्यक्ति जो कह दें सो ही सही। हालांकि यह हालात प्राय: अन्य स्थानों में भी देखा गया है। इसके लिए अब की पीढि को जिम्मेदार नहीं समझा जा सकता। किसकी मजाल बाबू- कोई बोल दे। टोकने और विरोध में उंची आवाज लगाना तो बडी दूर की कौडी रही है। यह स्थिति तो गत दशक में विधान सभा चुनाओं में भी दिखा है, किंतु गरीब गांव से उठ कर थाने पहुंचने की हिम्मत करने लगे थे, यह बडा बदलाव दिखा है। 1980 के दशक तक किसी की क्या मजाल कि अपने घर के दरवाजे पर खाट लगा कर बैठ जाये। यह तो अब भी जीवित आबादी के सैकडों लोगों के स्मरण में पैबस्त है। कैसे रिश्तेदार भी आकर अगर खाट पर बैठा हो और मलिकार देख लें तो गाली देकर उठा देते। खेत में काम देने से मना कर देते। पेट की ज्वाला सताती रही और हाशिये पर खडा वर्ग जुल्म के बावजूद दासता स्वीकरता रहा। घुटता जीवन कभी बदलेगा, दासता की बेडियां कभी भला टूटेंगी, यह सोचती पीढियां गुजर गयीं। नरसिंह सिंह, रामबैरिष्टर सिंह, राजाराम सिंह और बीरेन्द्र सिंह पंचायत के मुखिया रहे हैं। 1978 में जब मुखिया का चुनाव हुआ तो बीरेन्द्र कुमार सिंह निर्विरोध मुखिया बने। फिर चुनाव ही नहीं हुआ। जब 2001 में बिहार में पंचायत चुनाव हुए तो तस्वीर ने करवट बदलना प्रारंभ कर दिया।

भूगोल और अतीत के सुखद अध्याय
प्रारंभ से अंछा पंचायत मुख्यालय
अंछा पंचायत की सीमा का प्रारंभ थाना से बमुश्किल दो किलोमीटर की दूरी से होता है। इसकी पश्चिमी सीमा सोन से सटती है। इस पंचायत में तीन राजस्व ग्राम हैं-अंछा, केशराडी और चौरम। ये गांव भिन्न भिन्न समाजों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनके अलावा ठाकुर बिगहा, जागा बिगहा, मन बिगहा और आंकोपुर है। अंछा निवासी और कांग्रेस प्रखंड अध्यक्ष राजेश्वर सिंह ने बताया कि अंछा हमेशा से पंचायत मुख्यालय रहा है। जब 2001 में नया परीसीमन हुआ तो केशराडी पंचायत का वजूद खत्म हो गया। वह अंछा में मर्ज कर गया।

अंछा पचायत का बडा आयोजन
अंछा पंचायत के चौरम गांव ने गुलाम भारत में मगध की राजनीति में महत्वपूर्ण मुकाम हासिल किया था। 9-10 फरवरी 1939 को चतुर्थ गया राजनैतिक जिला सम्मेलन का आयोजन सुभाश आदर्ष उधोग मंदिर चौरम द्वारा किया गया था। नेता जी सुभाश चन्द्र बोस के साथ कुमार नरेन्द्र देव जैसे दिग्गजों ने जन सैलाब को संबोधित किया। किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती ने आयोजन की अध्यक्षता की थी।
बडी शख्सियत- रामबैरिष्टर भाई
अंछा निवासी राम बैरिष्टर भाई चर्चित सख्शियत रहे हैं। मुखिया तो रहे ही, भूदान आन्दोलन से भी जुडे रहे हैं। इस सर्वोदयी नेता का व्यक्तित्व काफी प्रभावशाली रहा है। इस संवाददाता को भी एक मुलाकात का अवसर प्राप्त हुआ है। बडे ही सौम्य और समाजवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाला यह सख्श जय प्रकाश आन्दोलन में जेल जा चुका है। ग्रामीण राजेश्वर सिंह ने बताया कि भागलपुर जेल में रहे और 1957 में ग्रेजुयेशन किये थे। भूदान यज्ञ कमिटी के राज्य स्तरीय कमिटी के सदस्य रहे हैं।
श्यामप्रकाश सिंह और अंछा फीटर
अंछा निवासी श्यामप्रकाश सिंह भूदान यज्ञ कमिटी में बडे पद पर थे। 1966 में पडे अकाल रिलिफ कमिटी के सचिव बने थे। राजेश्वर सिंह ने बताया कि हजारीबाग में सरिया के पास कमिटी ने उन्हें रहने को आश्रम दिया था। वाहन और नौकर चाकर भी। बताया कि सिंचाई के लिए अंछा फीटर इन्हीं की देन है। तत्कालीन सिंचाई मंत्री दीपनारायन सिंह को अंछा ला कर इसकी मंग पूरी कराया था।

Tuesday 5 April 2016

गुल्ली रविदास का अंछा परगना और ‘पुरली भुइयां’

 अंछा गांव का विहंगम दृष्य
पंचायत, राजनीति और इतिहास-1
बदलाव : परगना से बन गया पंचायत
बौद्धकालीन गांव मुगलकाल में बना नामचीन
उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) 
अंछा ! मुगलकालीन कस्बा और गुलाम भारत का शहर दाउदनगर का पडोसी पंचायत। पुराना परगना, जिसका एक हिस्सा भर कभी था-दाउदनगर। हां, बाद में चट्टी के रुप में मशहुर हुआ दाउदनगर। अंछा की पहचान मुगलकाल में रही है। इतिहास में एक लोकोक्ति दर्ज है- अंछा पार जब गये भदोही, तब जानो घर आये बटोही। इसी रास्ते वसूला गया राजस्व दिल्ली सल्तनत के दरबार में जाता था। यह गांव मुगलकाल से काफी पूर्व शायद बौद्धकाल का माना जा सकता है। यह खोज का विषय है कि भगवान बुद्ध जब बोधगया में बुद्धत्व प्राप्त कर सारनाथ जा रहे थे तो क्या रास्ते में यह परगना पडा था? माना जाता है कि मनौरा परगना निश्चित रुप से इस मार्ग में पडा था जिस कारण यह गांव बौद्धस्थल बना। अंछा चूंकि सीमावर्ती था तो यह संभावना बनती है। मुगलकाल में यह अंछा परगना रहा है। यहां अनुसूचित जाति की संख्या अधिक है। यह गुल्ली रविदास का गांव है। इनके पास 100 बिगहा से अधिक की खेतिहर जमीन करीब डेढ सौ साल पहले थी। उनकी इकलौती बेटी और खुद जब स्वर्ग सिधार गये, तो कथित तौर पर गांव के समृद्ध तबके ने उस जमीन पर कब्जा कर लिया। इस भौतिक कब्जे के बावजूद समाज में गुल्ली रविदास की छवि अंकित रही भले ही वह धुन्धली ही सही। इसी वजह से उस भूखंड को आज भी “गुलाही वाला” शब्द से संबोधित किया जाता है। कुछ समृद्धों ने अंग्रेजी राज में इस जमीन के कागजात अपने नाम करा लिए और घर धन-धान्य से भरने लगे। अभी इनकी संख्या अनुसूचित जाति से काफी कम है। मुझे याद है जब बिहार विधान सभा चुनाव 2015 में मैं यहां गया था तो एक ने मुझे से कहा था- सब माले के वोटर हैं। पूछा- देख रहे हैं कितनी भीड है। यहां तो बस माले ही आगे है। यह बदलाव का चरमोत्कर्ष था। पहली बार अनारक्षित वर्ग की समृद्ध बिरादरी सोन के पश्चिम से पुरब यहां जब आयी तो पुरली भुइयां (अंछा का सीवान) में ठहरे। धीरे-धीरे उनका दबदबा कायम हो गया। वे बाहर से आ कर बसे और समृद्ध बन बैठे। मालिक, मलिकार, हुजूर, माई-बाप बन गये और मूल निवासी दास, मजदूर बन गये। मूल निवासी चर्मकार और मल्लाह यहां के हैं, जिन्होंने प्रताडना का हर रुप देखा है। अंछा मूलत: कारा नवाब की कचहरी थी। जहां बसी अनुसूचित जाति का विस्तार हुआ और साथ ही अन्य पिछडी, अतिपिछडी जातियां बसने लगी थीं। आज यहां रजवार, पासवान, भुइयां, धोबी भी हैं। सामाजिक सौहार्द और व्यवहार बदल गये। अनुसूचित जाति के परिवारों की जमीनें सतुआ, मडुआ, धन-चावल और रुपए-दो- रुपए पर कब्जा करने के किस्से फिजां में हैं।