Tuesday 12 April 2016

बेलवां-संसा में मजदूरी को लेकर चला लंबा संघर्ष

पंचायत, राजनीति और इतिहास-8
फसल के साथ हुई तनावों की भी खेती
आन्दोलन से मिल समानता क अधिकार
40 बिगहा जमीन कब्जा में किंतु स्थायीत्व नहीं

उपेन्द्र कश्यप
दाउदनगर (औरंगाबाद) बेलवां पंचायत मजदूरी के सवाल को लेकर नक्सल आन्दोलन के वक्त उबाल पर था। हत्या, आगजनी, गोलीबारी हुई। किसानों और मजदूरों के बीच तनातनी का लंबा दौर इसने देखा है। सोनी और खैरा द्विप या दूबे खैरा ने खेतों में फसल लहलहाने के साथ तनाव की खेती होते भी देखा है। उस आन्दोलन में शरीक लोग आज भी अपनी यादें साझा करते हैं, जो कल खुंखार नक्सली बताये जाते थे आज सहज जीवन जी रहे हैं। उनके चेहरे पर यह गौरव बोध साफ झलकता है कि उनके आन्दोलन के कारण ही समानता से जीने और रहने का अधिकार मिला। मजदूरी बढी और मजदूरों का शोषण समाप्त हुआ।
किसानों द्वारा मजदूरों को तीन सेर कच्ची बतौर मजदूरी धान मिलता था। आन्दोलन में शामिल मजदूरों ने बताया कि 12 महीने का श्रम करने के बाद भी चार महीने का खर्च नहीं जुट पाता था। फाल्हुन चैत से ही हर काम के लिए मजदूरों को मालिक का मुंह ताकना पडता था। मजदूरी का अग्रिम भुगतान मांगना पडता था। एक तरह से बन्धुआ मजदूर थे सब। मालिक से बिना अनुमति के कहीं बाहर नहीं जा सकते थे। इलाके में हसपुरा थाना का अलपा मजदूर आन्दोलन के लिए चर्चित हो रहा था। लोग इससे प्रेरित होने लगे थे। धीरे-धीरे स्थिति बनी कि मजदूरों ने एकजुट होकर हडताल कर दिया। किसानी का काम बन्द। इनकी मांग थी कि तीन किलो पक्का वजन में चावल दें। मुकदमेबाजी हुई। सोनी में एक साथ चार घरों में आग लगा दी गयी। उस टकराव में हरदेव पासवान की हत्या हुई। चकबन्दी हुई तो चार स्थानों पर गैर मजरुआ आम और अन्य तरह की जमीन निकली। इस तरह की करीब 40 बिगहा जमीन पर एक साल खेती के गयी। मजदूर आपस में उपज को बांट लेते। यह दौर नहीं चला। अब मजदूर कहते हैं कि किसानों ने इस जमीन पर पुन: कब्जा कर लिया और इन्हें छोडना पडा। कहते हैं कि पार्टी के कारण ही जुबान मिली, मजदूरी बढी और शोषण खत्म हुआ। किसान अब खुद मजदूरी बढा देते हैं। अभी पांच किलो तक मजदूरी मिल रही है।     



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