Tuesday 28 March 2017

ससमय नहीं होगा नगर परिषद् दाउदनगर का चुनाव!


नगर निकायों के साथ यहाँ चुनाव नहीं
पहले होगा परिसीमन, बढ़ेंगे कई वार्ड
तीन महीने बाद नगर परिषद का चुनाव    
बिहार में अप्रैल –मई  में होने वाले नगर निकाय चुनाव के साथ दाउदनगर में चुनाव नहीं होगा! जब भी चुनाव होगा तो नगर परिषद् का ही होगा| पटना उच्च न्यायालय के फैसले के बाद बनी संदेह की स्थिति साफ़ हो गयी है| विश्वस्त सूत्रों के अनुसार पटना में पिछले दिन राज्य निर्वाचन आयोग ने निकाय चुनाव से जुड़े प्रदेश भर के अधिकारियों के साथ बैठक की है| इसमें यह तय किया गया है कि नए नगर परिषद् बने प्रदेश के चार निकायों का चुनाव बाद में होगा| जब बिहार में निकाय चुनाव हो रहे होंगे तब इन चार निकायों में परिसीमन का काम कराया जाएगा| सूत्रों के अनुसार राज्य निर्वाचन आयोग ने साफ़ कर दिया है कि चुनाव नए परिसीमन के बाद ही होंगे| ऐसे में संभावना जताई जा रही है कि निकायों के नियमित चुनाव ख़त्म होने के बाद बिहार में दाउदनगर समेत चार निकायों का चुनाव एक साथ होगा| इस कारण बताया जा रहा है कि करीब तीन महीने बाद यानी जुलाई-अगस्त में यहाँ चुनाव कराया जा सकता है| वार्ड बढ़ेंगे| नगर पंचायत के 132 साल के इतिहास में वह समय अति महत्वपूर्ण होगा, जब नगर परिषद् का चुनाव होगा| सबकी आकांक्षा थी कि नगर परिषद यह बने| शहर की निगाह राज्य निर्वाचन आयोग के फैसले का प्रतिक्षु बना हुआ है|    

132 साल की यात्रा में महत्वपूर्ण घटनाक्रम 

साल 1885 में क़स्बा दाउदनगर नगरपालिका बना| तब से लगातार साल 1983 तक चुनाव होते रहे| इसके बाद बिहार में निकाय चुनाव नहीं हुए| काफी समय के अंतराल के बाद साल 2002 में पुन: चुनाव हुए और यहाँ नगर पंचायत का चुनाव हुआ| इसके बाद चुनाव होने शुरू हुए| स्थानीय शहरी नगरपालिका से नगर पंचायत बनाए जाने को अवनति मानते रहे| उम्मीद जब ख़त्म होती दिखी तो वार्ड पार्षद रामौतार चौधरी उच्च न्यायालय में इस सबंध में याचिका लेकर गए| हालांकि इनके पीछे कई लोग खड़े हुए| गत 18 मार्च 2017 को न्यायालय ने आदेश दिया कि जब भी चुनाव होगा तो नगर परिषद् का ही होगा| अब यह प्रतीक्षा समाप्त होती दिख रही है|

वार्ड गठन को ले अभी कोइ निर्देश नहीं
नगर परिषद के लिए कितने वार्ड गठित होने हैं, इसके लिए अभी राज्य निर्वाचन आयोग से कोइ निर्देश नगर पंचायत या संबंधित निर्वाचन अधिकारियों को नहीं मिला है| वैसे चालीस हजार की आबादी पर नगर परिषद् के लिए 25 वार्ड होना होता है| इसके बाद हर पांच हजार की आबादी पर एक अतिरिक्त वार्ड होगा| ऐसे में जब शहर की आबादी 52340 है तो न्यूनतम 25 और अधिक आबादी के लिए न्यूनतम दो या तीन वार्ड का गठन हो सकता है| संभव है कि कुल 27 या 28 वार्ड हो|

वार्डों के बीच काफी असमान आबादी
वार्डों का यहाँ गठन बेतरतीब ढंग से किया गया था| शहर की कुल जनसंख्या 52364 है| इसमें अनुसूचित जाति की संख्या 6717 है| कुल मात्र 40 अनुसूचित जनजाति की संख्या है जबकि अन्य जातियों की मिश्रित आबादी कुल 45607 है| एक दूसरे वार्ड के बीच आबादी में काफी अंतर है| वार्ड एक में जहां मात्र 1065 की आबादी है| वहीं वार्ड संख्या सोलह की आबादी 4009 है| नए परिसीमन में इस असमानता का भे एख्याला रखना अपेक्षित होगा| हर वार्ड की जनसंख्या का विवरण निम्नवत है----
वार्ड संख्या-कुल जनसंख्या
एक 1065
दो 2234
तीन 2471
चार 1075
पांच 2001
छ: 2267
सात 1764
आठ 2280
नौ 2428
दस 1344
ग्यारह1584
बारह 2148
तेरह 1396
चौदह 3160
पंद्रह 3132
सोलह 4009
सतरह 2570
अठारह 1691
उन्नीस 2823
बीस 2479
इक्कीस 2888
बाईस 2104
तेईस 3451

Monday 27 March 2017

अनुकंपा कुमार बनाम योग्य मुखिया


अभिव्यक्ति की आजादी का इस्तेमाल खूब हो रहा है। सोशल मीडिया ने इसके लिए बड़ा प्लेटफॉर्म मुहैया कराया है। जिसको जो मन में आए वह बक सकता है। कह सकता है। कोई रोक टोक या संपादन का खतरा नहीं। कानून का खतरा तो तब है न जब कोई लड़ने को सामने खड़ा हो। सरकार बनी तो मुखिया की योग्यता पर सवाल उठने लगे। जायज है, लोकतांत्रिक और संवैधानिक धिकार भी। कभी-कभी यह नुचित या हास्यास्पद तब हो जाता है जब हजार छेद वाली चलनी सूप के छेद गिनाने लगे या फिर कहे की उस सूप में बहुत छेद हैं। ऐसा ही हास्यास्पद एक वाकया हुआ। मुखिया की योग्यता पर सवाल उठाया एक न्य प्रदेश के उपमुखिया ने। सोशल मीडिया में इसे लेकर सवाल उठा और शहर ने खूब मजा लिया। एक शहरी ने इस युवा नेता को नुकंपा कुमार बताते हुए टिप्पणी की। रे भाई। नुकंपा वालों पर तो सवाल उठाए ही नहीं जाने चाहिए। जिस जन्म से कोई ताकत प्राप्त करता हो उसके लिए दूसरी कोई भी योग्यता मुकाबले में कैसे खड़ी हो सकती है? जितनी उम्र बेचारे नुकंपा कुमार की हो रही है लगभग उतनी उम्र से वो देश के सबसे बड़ी पंचायत में प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। तो क्या ऐसे में यह धिकार है कि वह योग्यता पर सवाल उठाए? शहरी चर्चा में कह रहे हैं कि नुकंपा कुमार से धिक योग्यता तो उनकी है ही नहीं। जायज है। मुङो इस तर्क वितर्क में मसाला मिला। सही है। कोई बच्चा पैदा हो, बड़ा हो और पढ़े या न पढ़े और पहली बार में ही .. बन जाए तो सवाल तो है ही कि उसके आगे पांच बार से सदस्य रहने वाला धिक योग्य तो हो ही नहीं सकता? आखिर कोई भी समाज परिणाम को धिक तवज्जो देता है वनस्पति इसके कि किसी ने वह हासिल कैसे किया जिसके लिए उसकी चर्चा हो रही है।
..और अंत में
श्रम हमेशा सस्ता होता है। जन्मना महानता ही देश की परंपरा रही है। इसे कोई नहीं तोड़ सकता है। जिनकी पॉकेट फटी थी और हर संकट या हार के बाद विदेश यात्रा पर जाते हैं उनकी खासियत भी जन्मना महान होना ही है।

Monday 20 March 2017

सुखद आश्चर्य ! गंदी राजनीति में शुद्ध राजनीतिज्ञ !


बाप-दादे के जमाने से सुनता आ रहा हूँ कि –काजल की कोठरी से बिना दाग कोइ नहीं निकल पाता है| बिहार ने हमेशा मिथकों को तोड़ा है और नये मिथक गढा है| बिहार कर्मचारी चयन आयोग (पेपर लिक) काण्ड ने फिर ऐसा ही किया है| देश के अन्य हिस्से के भाई लोग हम बिहारी को समझते ही नहीं हैं| हमने हमेशा देश को नयी दिशा दिया है| उपलब्धियां भरमार पडी हैं भाई लोग| गिनने बैठूं तो पूरा पेज चारे की तरह खा जाउंगा और आप समझते समझते बुढा जाइयेगा| बिहार को समझते क्या है आप लोग? अधिकारी जेल जा सकते हैं नेता भला क्यों जायेंगे जेल? हम नेताओं का तो रोजमर्रे का काम ही है अनुशंषा करना| नेता का कद बड़ा हो या छोटा| यदि अनुशंषा नहीं करेगा तो कैसे आजीविका चलेगी? खेत थोड़े जोत-कोड कर खाना है भाई ! सही तो कह रहे हैं हमारे नेता जी| ‘हमारा काम है अनुशंषा करना| कोइ जनता जनार्दन आवेदन लेकर आता है तो हम उसे निराश कैसे लौटा सकते हैं| जनता तो मालिक होती है| उसे कैसे इनकार भला कर सकते हैं?’ यह छोटी सी बात बिहार में मीडिया और विपक्ष को समझ में नहीं आ रहा तो सत्ताधारी दल या नेता भला क्या करें? उनका दोष क्या है? वास्तव में गाँव से कसबे तक कहा जाता है कि दलों की सीमा फिल्ड तक ही होती है बाकी समय सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे होते हैं| सभी ने अंदरखाने कई मुद्दों पर एका बना रखी है| इसलिए सभी किसी न किसी छोर को पकड़ कर एक आदर्श स्थापित करने में जुट गए हैं| एक नयी दिशा दे रहे हैं, नया मिथक गढ़ रहे हैं| यह बता रहे हैं कि काजल की कोठरी हो या हमाम नेता ही वह गुण रखता या जनता है कि उससे बिना दागी हुए या भींगे बिन अकैसे निकला जा सकता है| अनुशंषा अधिकारी के लिए अपराध और नेता के लिए आवश्यक विवशता भर है, अपराध नही| अनुशंषा के लिए किसी नेता को दोषी नहीं ठहराया जा सकता| यह मिथक गधा जा रहा है, प्रतीक्षा करीए, कल को कोइ नेता इसे कानूनी जामा पहनने के लिए सदन में बिल लेकर आ सकता है| आमीन, उस भावी दिन के लिए अभी से सभी नेतागणों को शुभकामनाएं|

खैर, इन्हें पढ़ कर हंस लीजिए...
तुम्हारी मेज चांदी की, तुम्हारे जाम सोने के|
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी तराबी है||
(आदम गोंडवी)
राजनीति के मंच पर, चढ़ गए आज दबंग|
फुट-फुट कर रो रहे, ध्वज के तीनों रंग||

(अलबेला खत्री) 

Saturday 18 March 2017

सवर्णवादी मीडिया बनाम अवर्ण नेतृत्व की संकुचित मानसिकता

मीडिया को अपना विरोधी मानने वालों के लिए-------
मैं मीडिया का आदमी हूँ| गत ढाई दशक से गैर सवर्ण चेहरा| यह बात काफी सालों से कचोट रही थी तो खुद को लिखने से नहीं रोक पाया| ख़ास कर उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद मीडिया पर काफी सवाल उठाये गए| हिन्दी पट्टी क्षेत्र में मीडिया को स्वयंभू समाजवादी राजनीतिक दल, राजनीतिक कार्यकर्ता सवर्णवादी, सवर्ण वर्चस्व वाली और यहाँ तक कि पिछड़ा, अति पिछड़ा और दलित विरोधी बताते हैं| यह एक फैशन सा बन गया है कि अपनी खामी को छुपाने के लिए मीडिया को अपना विरोधी बताओ| ऐसा भी नहीं है कि मीडिया पर ऐसे आरोप एकदम से खालिस झूठे हैं, किन्तु यह अकाट्य सत्य है कि जितना और जिस तरह आरोप लगाये जाते हैं वह भी पूर्ण सत्य नहीं है|
मैं जितने भी मीडिया हाउस में काम किया और कर रहा हूँ, उसमें एक मात्र “फारवर्ड प्रेस” छोड़ कर (जिसके भी संपादकों में एक ब्राह्मण मित्र शामिल हैं) सभी पर सवर्णवादी होने का आरोप लगता है| (बिहार से प्रकाशित व बंद हो चुके प्राय: सभी  अखबार, पत्रिका व दिल्ली से प्रकाशित कई प्रतिष्ठित पत्रिका में लिखा है मैंने) इसके बावजूद मुझ पर कभी यह दबाव नहीं डाला गया कि अमुक सवर्ण के बारे में लिखे, उसे हाई लाईट करें या उसे तवज्जो दें| खबरों को सवर्णवादी नजरिए से लिखें| दैनिक जागरण के साथ बिहार में उसके आगमन के साथ से काम कर रहा हूँ| आज तक जितने आलेख, व्यक्ति विशेष पर भी गैर सवर्णों पर लिखा वह छपा| दर्जनों उदाहरण बता सकता हूँ| बल्कि गैर सवर्ण संस्कृति हो या ‘व्यक्ति विशेष’ स्थापित ही दैनिक जागरण ने किया है उन्हें|  
सवाल है कि क्या जिस तरह सवर्णवाद करने वालों की मानसिकता होती है उस स्तर तक अवर्ण समुदाय में परिपक्वता है?
यह समुदाय तो थोड़ा ही मिलने पर अपनों के खिलाफ सक्रीय होता है| दावे से कह सकता हूँ कि अवर्ण को अपने और गैर की पहचान ही नहीं होती| अपनो के ही खिलाफ ईर्ष्या भाव से कलम चलाता है? अपनो पर वार करना फितरत होती है और जिसे गलियाता है उसके खिलाफ खडा होने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है अवर्ण|
गैर सवर्ण समुदाय के नेताओं ने क्या कभी कोशिश की कि सवर्णवादी मीडिया के खिलाफ गलियाने के अलावा किसी अन्य विकल्प पर विचार करें? अपना बनाने की कोशिश करे? किसी को गाली देकर अपने अनुकूल तो आप कतई नहीं बना सकते है। समानांतर भी खड़ा होना एक विकल्प है।
बिहार पर ही विचार करें- 1990 से लालू प्रसाद यादव, राबडी देवी और नीतीश कुमार की सरकार निरंतर और पूरी शक्ति के साथ चल रही है| बिहार में इनके अलावा जो नेता अग्रिम कतार में है उसमें शामिल सुशील मोदी व राम विलास पासवान ने क्या कभी कोशिश की कि समानांतर मीडिया हाउस खडा किया जाए?
किसी को अपने हित साधन से रोका नहीं जा सकता| हाँ, सबसे बेहतर विकल्प है खुद को समानांतर खडा किया जाए| हिन्दी पट्टी क्षेत्र में उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा प्रांत है| यहाँ भी लगभग बिहार जैसी ही स्थिति है| 1990 से मुलायम सिंह, कल्याण सिंह, मायावती और अखिलेश यादव की सरकार रही है| सभी पिछड़े, दलित और स्वयंभू लोहियावादी, जयप्रकाश नारायणवादी हैं| बीच में बमुश्किल 17 महीन सवर्ण राजनाथ सिंह की सरकार रही है| क्या कभी इन सबने समानंतर मीडिया हाउस खडी करने के लिए प्रयास किया? यदि चाहते तो अपनी ही सरकार के विज्ञापन से खडा कर सकते थे? किन्तु ऐसा नहीं किया| किसने रोका था इन्हें? क्यों नही खड़ा कर सके? इसके पीछे बहुत दिमाग खपाने की आवश्यकता नहीं है|
सभी स्वार्थी जातिवादी और उससे पहले परिवारवादी राजनीति से बाहर निकल ही नहीं सके| अपनी ही पार्टी में लालू प्रसाद, मुलायम सिंह, मायावती और नीतीश कुमार दूसरी पंक्ति तैयार नही कर सके| कारण साफ़ है कि उन्हें अपने या अपने खानदान से बाहर के व्यक्ति के उभरने से खतरा महसूस होता है| सभी सिर्फ अपने तई सिमटे रहे, सोचते रहे| न व्यापक सोच न व्यापक समाज की चिंता? इनका समाज सबसे पहले स्वयं फिर परिवार तक सिमटा रहा है|
मेरे भाई| सिर्फ विरोध कारने से कुछ नही होता| कुछ करने से ही कुछ होता है| समाज के लिए वह कुछ करता है जो व्यापक सोचता है| स्वयं से, परिवार से बाहर समाज बसता है और उसकी चिंता ये नहीं करते| सभी सक्षम थे- समानांतर मीडिया हाउस खड़ा करने में| ये भी अलिखित नियम बनाते कि अपने मीडिया हाउस में सभी पदों पर सिर्फ गैर सवर्ण को नियुक्त करेंगे| क्या तब कोइ सवर्ण सडक पर खिलाफत को उतरता? नहीं| दूसरे को अपना हित साधने से रोक नहीं सकते| और ऐसा करना उचित भी नहीं है| अपना हित साधन, किन्तु तात्कालिक ही राजनीति से तो कर सकते हैं किन्तु समाज का हित बिना साहित्य के नहीं हो सकता| बिना मीडिया के नहीं हो सकता| यह आज की आवश्यकता है|

उदाहरण- मीडिया के सन्दर्भ में दक्षिण के राज्य है|
और दूसरा दवा क्षेत्र से दे रहा हूँ-
एक दवा कंपनी (नाम जान बुझ कर नहीं दे रहा हूँ) में यह अलिखित नियम है कि यहाँ गैर सवर्ण ही सभी तरह के पदों पर नियुक्त होगा| इसकी वजह है| इसके मालिक एक दवा कंपनी में गए| वहा सवर्णों के बीच कुंठित रहने लगे| इन्होने गलियाने की जगह समानांतर खडा होने की कोशिश की| अलग कंपनी खडा की और आज यह देश के प्रथम दस में स्थान बना सका है|       
   

Saturday 11 March 2017

इस प्रचंड जीते की वजह क्या है?


(पांच राज्यों में चुनाव परिणाम-त्वरित टिप्पणी)

2019 का सेमीफाइनल बताये जा रहे पांच राज्यों के चुनाव परिणाम बहुत कुछ कहते हैं| 
इस परिणाम का वजह क्या है?

विकास और महंगाई के साथ भ्रष्टाचार क्या वास्तव में चुनावी मुद्दे अभी हैं? यदि ऐसा होता तो ख़ास कर उत्तर प्रदेश में ऐसा परिणाम नहीं आता| अखिलेश ने पूर्व की अपेक्षा विकास किया| विकास, जनता यह मान कर चल रही है कि सरकार किसी की हो समय-समय पर महंगाई आयेगी ही आयेगी| टमाटर दो रूपए किलो से लेकर सौ रूपए किलो तक बिकेंगे ही| विकास होगा ही| दुर्भाग्य से भारत में सत्तर साल की आजादी के बाद भी विकास के मायने विश्व विद्यालय, बड़े अस्पताल, नहीं हैं| नाली गली, मुफ्तखोरी ही बड़ा विकास माना जाता है| विकास मुद्दा होता तो अटल बिहारी वाजपेयी हारते नही और न ही 100 से अधिक विधायक वाले नीतीश कुमार लालू संग जाकर भी 50 सीट पर सिमटते| भ्रष्टाचार एक हद तक मुद्दा है| विपक्ष का दुर्भाग्य है कि व्यक्तिगत तौर पर न नरेंद्र मोदी न केंद्र सरकार पर भ्रष्टाचार के पुख्ता आरोप लगे हैं|

असली वजह है अति मुस्लिम परस्ती| जिसके खिलाफ 2014 में मोदी जीते और 2017 में उत्तर प्रदेश जीता| सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल क्या सिर्फ मुस्लिम मत के तुष्टीकरण के लिए नही उठाये गए थे? बुरहान वानी, रामजस कॉलेज, जेएनयू, अफजल हम शर्मिन्दा है तेरे कातिल ज़िंदा है, भारत तेरे टूकडे होंगे-इंशाल्लाह इंशाल्लाह, पुरस्कार वापसी क्या सिर्फ मुस्लिम मतों की चाहत के मुद्दे नहीं थे, इनके समर्थन में उतरने वाले क्या चाहते थे? अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकार तब कहाँ थे जब देवी माने जाने वाली सरस्वती को नंगा दिखाया गया था| क्या मकबूल फ़िदा हुसैन इस्लाम के किसी चरित्र को नंगा दिखा सकते है? जब खुद को नंगा नहीं कर सकते तो दूसरे की माँ को नंगा करना सेकुलरिज्म व अभिव्यक्ति की आजादी कैसे है जनाब? चुरकी पर 786 लिख देने वाले को दशक बाद उड़ा देना अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला नहीं है तो मकबूल का विरोध करना गलत कैसे है? अफजल हम शर्मिन्दा है तेरे कातिल ज़िंदा है, यह सीधे ही सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ है या नहीं? तब भी इसके खिलाफ बोलने की जगह साथ खडा होना कैसी राजनीति है? ऐसी राजनीति जब भी होगी, भाजपा ताकतवर होगी| कांग्रेस तो एंटनी की वह रिपोर्ट भी खारिज कर दी जिसमें कहा था कि कांग्रेस की दुर्गति की वजह ही अति मुस्लिम परस्ती है| सिर्फ इसी वोट बैंक की वजह से देश व समाज के खिलाफ नेता बोलते हैं| गुजरात याद है? गोधरा में मारे गए व्यक्ति भारतीय नहीं थे, क्योंकि वे हिन्दू थे? इस घटना की निंदा किसी स्वयभू सेकुलर दलों ने नहीं की थी| जब गुजरात हो गया तो बवाल हुआ क्योंकि इस बहाने सभी मुस्लिम मत के मसीहा बनने में जुट गए थे| तीन बार जो व्यक्ति अपनी बदौलत मुख्यमंत्री बना, जो वंश की वजह से नहीं सीएम बना था, उसे क्या क्या कहा गया? याद करिए? गुजरातियों को मुर्ख कहा गया| यानी जो आपके साथ है वह काबिल जनता है और भाजपा के साथ जो है वह मुर्ख इतना है कि उसे बरगला दिया जाता है| अभी ताजा मामला में भी अखिलेश यही कह गए कि-समझाने से नहीं बहकाने से मत मिलता है| सवाल है कि यदि ऐसा ही है तो यह कैसे न माना जाए कि 2012 में भी जनता बहक कर आपको वोट दी थी| यह दोहरा चरित्र क्यों? जब पीएम बन गए मोदी तो भी ऐसी ही बात कही गयी| अरे भाई, यदि सत्तर साल में जनता इतनी बेवकुफ़ बनी रही तो इसके लिए भला मोदी कैसे जिम्मेदार हो गये? इसके जिम्मेदार भी तो सेकुलर दलें ही हैं| अब एक तर्क (कुतर्क) ये सेकुलर पार्टी दे रहे हैं कि केंद्र की सरकार अल्पमत की है| और यूपी में भी| 50 फीसद से कम मत प्राप्त सरकार| हद है| 60-65 साल सत्ता में रहने वाली एक सरकार बताइए कि कब 50 फीसद मत लेकर चुना गया कोइ प्रधानमंत्री? नियम बना देते कि 50 फीसद प्लस एक मत लेकर ही कोइ सत्ता में रह सकता है| यह नही किया तो क्यों नही किया? 

राजनीति बदलिए यदि सच में भाजपा को कमजोर देखना है तो, अन्यथा दोगली व छद्म सेकुलरिज्म बनाम साप्रदायिकता की जंग में गैर भाजपा को लंबा इंतज़ार करना होगा| और इस स्थिति का नुकसान देश को ही होगा| हो भी रहा है| आज कई समुदाय शक की नजर से देखे जाने के कारण ही मुख्यधारा से अलग है|   

Sunday 5 March 2017

आजादी, आजादी, हाय आजादी क्या चाहिए आजादी या मुक्ति?

बड़ी शोर है बाबा|  आजादी, आजादी| ले के रहेंगे आजादी| सुनते सुनते यह भ्रम होने लगा है कि हम भारत में है, जो 1947 में आजाद हो गया था, या फिर अभी भी गुलाम है? सवाल भीतर तक बेध रहा है कि आजादी के मायने बदल गए या गुलामी के अर्थ? हम किसके खिलाफ नारे लगा रहे हैं और किससे आजादी चाह रहे हैं? जब बड़े बड़े सुरमा भोपाली भी नारा बुलंद करने वालों के महफ़िल में नाचने पहुँच जाते हैं तो भ्रम और घना हो जाता है| समझ में नही आता कि हम इसको कैसे लें? हर गरीब चाहता है कि उसको कठिन परिश्रम से आजादी मिले| हर व्यक्ति जब किसी सरकारी कार्यालय में काम के लिए पहुंचता है तो काम बिना रिश्वत हो यही चाहता है| उसकी यह चाहना 70 साल में पूरी नहीं हुई| वह बेचारा आजादी चाहता है भ्रष्टाचार से, रिश्वतखोरी से, भूख से और गुंडा नेताओं के गुंडई से, दबंगई से? कहाँ मिल सकी इस सबसे भला आजादी? आजादी तो हम इससे भी चाहते हैं कि बीच सफ़र में घंटों ट्रेन की प्रतीक्षा न करनी पड़े| आजादी हर परेशानी से चाहती है आबादी| मगर यह मुआ आजादी कहीं मिला ही नही रही है| क्या आपको मिली है कहीं? किसी मोड़ पर, किसी चौराहे पर, किसी दूकान पर सौरी राजनीति की दूकान पर, कही मिली है तो बताइए और नहीं तो जब मिल जायेगी आजादी तो बताइयेगा| आपकी प्रतीक्षा और करूंगा| अभी तो सत्तर साल ही आयु हुई है हमारी| भारतीय मैथोलोजी में यह उम्र वृद्धाश्रम का है| स्वर्गारोहण का है| इसी लिए मुक्ति की कल्पना की गयी है| इस उम्र के बाद मुक्ति मिलने की चाहना होती है| मुक्ति समस्या से नहीं हर समस्या से, सदा के लिए| मोह- माया, लोभ-लाभ से मुक्ति की कामना अब है| स्वतंत्रता के बाद जिस तरह आजादी के नारे इस बुढ़ाते भारत में लग रहे है, जब कि आबादी जवान है, अब लगता है, स्वतंत्रता मिले न मिले मुक्ति मिल जायेगी| भारत से, उसके शरीर से, उसके भूगोल से, उसकी आत्मा से| आखिर मृतात्मा ही डायन बनती है, और भारत माता तो डायन ही बतायी जा रही है| इंतज़ार करीए, समय आने वाला है जब सबको मुक्ति मिल जायेगी| तब न भारत होगा न भारतीयता होगी, न भारतीय होंगे, सब मुक्त होंगे| इस भारतीयता धूरी कौन है? आप समझिए, अन्यथा चरित्र बदलते ही आजादी के नारे लगाने लायक भी आजाद नहीं रह सकिएगा|

   

और अंत में ----
ये नफरत बुरी है , न पनपने दे इसे
दिलो में बैर है , तो मिटा दो इसे|
न तेरा ,न मेरा ,न इसका , न उसका
यह सब का वतन है , यह सब का आँगन है|