Wednesday 9 September 2020

पटरियों पर मौत : राजधानी ट्रेन हादसा 2002


बिहार के औरंगाबाद में वर्ष  2002 की भीषणतम रेल दुर्घटना के बाद बिहार की राजनीति का चेहरा और बदशक्ल होकर उभरा है घटनास्थल पर ग्रामीणों की कार सेवा ने जहां मुसीबत के मारे यात्रियों का मन मोह लिया, वहीं बिहारी राजनेताओं द्वारा लाश पर की जा रही राजनीति ने एक बार फिर बिहारियों का सिर नीचे कर दिया है आपदा प्रबंधन की केंद्र और राज्य सरकार दोनों की नीतियों की पोल खुल गई

० घटनास्थल से उपेंद्र कश्यप ०

पूर्व रेलवे के गया मुगलसराय रेलखंड पर 9 सितंबर की रात 10:40 बजे अचानक भारतीय रेलवे की शान ढह गयीसबसे बेहतर रेलवे लाइन जिसे सघन परिवहन लाइन (ग्रैंड कार्ड लाइन) भी कहा जाता है, उस पर एक बेहतरीन प्रतिष्ठित ट्रेन राजधानी एक्सप्रेस औरंगाबाद जिले के रफीगंज रेलवे स्टेशन से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर धावा नदी पर दुर्घटनाग्रस्त हो गयीयात्री सुविधा वर्ष में जब भारतीय रेलवे अपनी भव्यता और बेहतर व्यवस्था का ढोल पीट रहा था, ऐसे हादसे से उसे कई तरह की क्षति होगी लेकिन इस हादसे पर जिस तरह की राजनीति की जा रही है वह भारतीय राजनीति के लिए गहरा आघात है रेलवे और राजनीति अपनी परिपक्व उम्र में हैं, ऐसे में ऐसी छिछली हरकतें भारतीय गौरव के लिए घातक कहीं जाएगी आज सबसे ज्यादा बहस और चर्चा इस बात की हो रही है कि यह हादसा क्यों हुआ, कैसे हुआ, और इसके लिए दोषी कौन है? घटनास्थल पर पहुंचे रेलमंत्री नीतीश कुमार ने कहा-“फीश प्लेट खोले जाने के कारण यह हादसा हुआ 13 मीटर लंबाई वाला लॉक बेल्डेड रेल खोल कर रखा हुआ था 1 दिन पूर्व ही इस क्षेत्र में 50 की संख्या में नक्सली देखे गए थे।‘ इशारा साफ था तो परोक्ष रूप से राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास भी इसी बयान में निहित था घटनास्थल पर ही दूसरी तरफ खड़े थे राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद, शिवानंद तिवारी और मुख्यमंत्री राबड़ी देवी पलटवार करते हुए लालू ने कहा-‘अंधा भी कहेगा कि दुर्घटना पुल ढहने से हुई है और पुल जर्जर था।‘ लालू गुस्से में थे, क्योंकि नीतीश के बयान से यह स्पष्ट था कि हादसा उग्रवादियों की कारर्वाई का नतीजा है, और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है इसलिए हादसे के लिए दोषी राबड़ी सरकार भी है

 


लालू ने कहा -रेल मंत्री अपनी जान बचाने के लिए अनाप-शनाप बक रहे हैं घटना का कारण स्पष्ट नहीं है जांच आयोग बैठा दिया गया है लेकिन राजनीतिक बयानों से जब छीछालेदर शुरू होनी शुरू हुई तो उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी और नीतीश के बीच बातचीत के बाद तय किया गया कि बिना जांच रिपोर्ट आए अब कोई बयान बाजी नहीं उधर इसी दिन घटनास्थल पर पहुंचे रेल राज्य मंत्री एके मूर्ति ने भी घटना का कारण तोड़फोड़ बताया लेकिन दूसरे रेल राज्य मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने घटनास्थल पर ही “न्यूज ब्रेक” से कहा कि जब तक जांच आयोग की रिपोर्ट नहीं आती है कुछ भी कहना संभव नहीं हालांकि नितीश के बयान से ये सहमत हैं रेल सुरक्षा आयुक्त ने भी नीतीश के बयान को मनाकर रिपोर्ट तैयार की, किन्तु जिला प्रशासन ने जब उस पर आपत्ति की तो संयुक्त मसौदा तैयार करने के कारणों का विकल्प खुला रखा गया पुलिस प्रशासन ने तो रेलवे के विरुद्ध प्राथमिकी तक दर्ज की है। दरअसल, केंद्र में राजग की सरकार है तो राज्य में राजद की। दोनों की राजनीति दो धारा में चलाती हैदोनों ने अपनी राजनीति साधते हुए बयान दिया विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर डॉ अनिरुद्ध सिंह कहते हैं- “राजनीति करने की जगह है? भाषण देना चाहिए? यह समय मानवीय संवेदना व्यक्त करने की है।“ लेकिन सवाल है कि जो राजनीतिक चरित्र है उसमें से ऐसे आदर्श दिख सकते हैं क्या? दरअसल नीतीश और लालू दोनों ही अपने उत्तरदायित्व से मुंह चुरा रहे हैं घटना क्यों घटी? स्पष्ट कारण बाद में ही पता चल पाएगा। लेकिन परिस्थिति जन्य उपजे सवालों के कारण मामला बहुत ही उलझा हुआ है घटनास्थल पर राजद के जिला अध्यक्ष कौलेश्वर यादव ने कहा है-पूल में दरार पड़ी थी, जिसे कुछ रोज पहले मरम्मत कराया गया था जब यहाँ रेल मंत्री आए थे तब तक फिश प्लेट नहीं खुला था फिश प्लेट खुलवाया, ताकि अपनी खामियां छुपाई जा सकेदूसरी तरफ प्रोफेसर अनिरुद्ध कहते हैं-‘कोई भी देखे, यह तोड़फोड़ के कारण घटी घटना ही है इस ट्रैक से बेहतर रेल गुजरती हैं कुछ समय पूर्व दो माल गाड़ी भरी हुई इस ट्रैक से गुजरी है, पुल कमजोर होता तो धंस जाता।‘ यदि गंभीर विश्लेषण करें तो रेलवे और राज्य सरकार दोनों समान रूप से दोषी नजर आएंगे 

 तोड़फोड़ के लिए नक्सली संगठन एमसीसी को जिम्मेदार माना जा रहा है इसमें दम भी है क्योंकि एमसीसी की ओर से ऐसे हमले की आशंका पहले ही व्यक्त की जा चुकी थी इस संगठन ने कई बार फिश प्लेट खोलकर राजधानी या ऐसी कई सवारी गाड़ियों को दुर्घटना का शिकार बनाने की कोशिश की थी कई बार स्टेशन भी लुट लिया गया है कष्ठा, परैया, गुरारू, इस्माइलपुर, रफीगंज, देव हाल्ट, रफीगंज, जाखिम जैसे नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में स्थित रेलवे स्टेशनों पर बराबर खतरा बना रहता है समझा जाता है कि यदि प्रशासनिक सक्रियता होती तो ऐसा नहीं होता अपने नेताओं की गिरफ्तारी से तंग आकर एमसीसी ऐसी कार्रवाई कर सकती है लेकिन 2 प्रश्नों का उत्तर तलाशना होगा यदि एमसीसी ऐसा करती तो क्या वह स्वीकार नहीं करती फिर उसके प्रभाव क्षेत्र के ग्रामीणों ने पलायन ना कर प्रभावितों की मदद में जुटने का जोखिम क्यों लिया? जब उसी ट्रैक से 20 एवं 40 मिनट पूर्व गाड़ियां गुजरी तो कुछ नहीं हुआ? क्या इस समय अंतराल में कई फिश प्लेट खोलना, रेल लाइन हटाना संभव है जब तक इस प्रश्न का जवाब नहीं मिलता, एमसीसी या राज्य, जिला प्रशासन को दोषी नहीं ठहराया जा सकता उधर कहा जा रहा है कि 1917 में बने इस पुल की स्थिति जर्जर थीपानी का बहाव तेज था पुल के खम्भों में कंपन हुई और जब राजधानी 125 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से गुज़री तो वह पूरी तरह हिल गया। नतीजतन दुर्घटना घटी

 रेलवे सूत्रों के अनुसार उस पुल को बैन किया गया था आमतौर पर इस रास्ते में 60-70 किलोमीटर प्रति घंटा की गति से रेल चलती है लेकिन दुर्घटना बाद रेलवे इसे स्वीकार नहीं रहा मान लें, पुल ठीक था और फिश प्लेटें खुली थी तब भी घटना के लिए दोषी रेलवे ही है, क्योंकि व्यवस्था के अनुसार किसी भी सुपरफास्ट ट्रेन के गुजरने से पहले रेलकर्मी लालटेन की रोशनी में ट्रैक चेक करते हैं तो क्यों नहीं उस दिन जांच की गई कारण कोई भी हो सकता है दरअसल दोनों पक्ष ही उत्तरदायित्व लेने से बच रहे हैंरेलवे के पूर्व सदस्य एम के मिश्रा कहते हैं-बहर्हाल्म, घटना के कारणों पर राजनीति न करें यदि उत्तरदायित्व लेकर सुधार की कोह्सिः की जाये तो अधिक बेहतर होगा। वरना ऐसे हादसे होते रहेंगे।“

 


बिहारियों की सुधरी छवि

बिहार के बाहर बिहारियों की छवि संवेदनहीन, लुटेरा, जातीय आधार पर लाश गिराने वालों की और न जाने क्या-क्या है? ऐसे में राजधानी हादसा में जिस तरह से आसपास के ग्रामीणों ने राहत एवं बचाव कार्य किया, उससे बिहारियों की छवि सुधरी है घटना के बाद करीब एक घंटे के अंदर ही कराप, फेसर, लबरी, चंद्रहरा, फीता बीघा, रफीगंज, हाजीपुर एवं अब्दुलपुर के ग्रामीण लाठी, लालटेन आदि लेकर पहुंच गए घायलों ने कहा कि यदि समय पर ग्रामीण नहीं आते तो मृतकों की संख्या 2 गुना अधिक होतीराहत ट्रेन तो 4 घंटे बाद पहुंचीग्रामीणों के प्रयास की सराहना सबने कीघायल कर्नल बख्शी ने कहा कि जिंदा बचे यात्री इसलिए परेशान थे कि कहीं बिहारी लूट ना लें लेकिन ये तो साक्षात भगवान साबित हुए मौके पर पहुंचे एक कार्यपालक दंडाधिकारी अरुण कुमार ने बताया कि एक दबी हुई महिला को बचाने के लिए ग्रामीणों ने तत्काल उसे दवा पानी और चाय दिया यात्री ग्रामीणों के बारे में कह रहे थे इन लोगों ने निस्वार्थ भाव से सेवा की कहा जाता है कि एक व्यक्ति को डेढ़ लाख रुपये मिला उसने पुलिस के पास जमा किया यह पहली घटना है जब लूट की एक भी घटना नहीं हुई उन्होंने बताया कि उसने कहा कि बिहार के बारे में उन्हें गलत जानकारी दी गई थी बिहारी निस्वार्थ भाव से सेवा करने वाले, भोले-भाले लोग हैं सच में यही है आम बिहारी अपनी छवि को लेकर चिंतित है और वह मेहनतकश, इमानदार और सेवा समर्पण भाव रखने वाला है लेकिन बिहारियों की छवि को वास्तव में बड़े लोगों की जमात ने खराब बना रखी है नेता, अफसर स्वार्थ सिद्धि में गलत व नीच हरकत करते हैं घटनास्थल पर रफीगंज, औरंगाबाद, भभुआ, रोहतास और गया के 65-70 आरएसएस कार्यकर्ता थे। इनको लाश निकालने की जिम्मेदारी मिली थी रफीगंज के दुकानदारों ने दूकान खोलकर दवाइयां मुफ्त बांटी रेल राज्यमंत्री बंडारू दत्तात्रेय इससे काफी प्रभावित हुए और घटनास्थल पर पहुंचते ही पहले उन्होंने ग्रामीणों की सेवा भावना का अभिनन्दन किया



 ‘व्यवस्था में बदलाव जरूरी’

रेल राज्य मंत्री बंडारू दत्तात्रेय से उपेंद्र कश्यप की बातचीत

 ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए क्या प्रयास किए जा रहे हैं?

कपूरथला और एलएचबीडी कारखानों में नए बोगी बनाने पर विचार हो रहा है इसमें आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल होगा ताकि मृतकों एवं घायलों की संख्या न्यूनतम हो सके 

राहत एवं बचाव कार्य देर से क्यों होते हैं?

 अभी जो व्यवस्था है उसमें बदलाव जरूरी है नए दिशानिर्देश जारी होंगे इमरजेंसी स्कवायड के गठन का विचार है वैसे ऐसे हादसों में थोड़ी बहुत शिकायत रह ही जाती है जब गोदावरी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हुई थी उसमें मैं खुद सवार था करीब 36 घंटे तक राहत एवं बचाव कार्य करना पड़ा थाऐसे हादसों में यह करना आसान नहीं होता

 प्रभावित लोग काफी शिकायत कर रहे हैं?

हां कुछ शिकायतें हैं गैस कटर देर से पहुंची चिकित्सा सुविधा प्रयाप्त नहीं हो सकी मृतकों को मृत्यु प्रमाण पत्र मिलने, सूचना मिलने में देरी हो रही है इसीलिए तो अब आपातकालीन सेल का गठन करने पर विचार किया जा रहा है

Friday 21 August 2020

अंछा में क्लास प्रेशर पॉलिटिक्स का प्रयोग तो नहीं


कल्चर जोड़ता है जबकि पॉलिटिक्स बांटता है

बच्चों की लड़ाई को दिया जातीय संघर्ष का रूप

कुछ माह बाद विधान सभा का होना है चुनाव

उसके बाद पंचायत चुनाव की शुरू होगी तैयारी

उपेंद्र कश्यप । दाउदनगर (औरंगाबाद)

अंछा में कहीं क्लास प्रेशर पॉलिटिक्स का प्रयोग तो नहीं हो रहा है?  सिर्फ कुछ महीने बाद विधानसभा का चुनाव है, जिसे लेकर राजनीतिक माहौल तैयार हो रहा है। इसके तुरंत बाद ग्राम पंचायतों के चुनाव होना है। इस कारण राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषकों का यह मानना है कि संभव है बच्चों के बीच के मामूली बात विवाद को इस ऊंचाई तक पहुंचा देना कि जातीय संघर्ष और गुटबाजी की स्थिति बन जाए, संभव है यह क्लास प्रेशर पॉलिटिक्स का परिणाम हो। गांव की बसावट और डेमोग्रेफ़ी जानने वालों का कहना है कि एक जाति विशेष के लोगों का घर जहां समाप्त होता है वहां से आगे कई जातियों के बसावट का इलाका प्रारंभ होता है। तनाव पूर्व में भी रहा है। एक अधिकारी का मानना है कि कल्चर लोगों को मिलाता है। आपसी मतभेदों को दूर करता है, लेकिन जहां पॉलिटिक्स का प्रवेश होता है वहां मिलने जुलने की संस्कृति खत्म होती है और विभाजक रेखा खींची जाने लगती है। महत्वपूर्ण है कि आयोजित नाच कार्यक्रम में किसी जाति-वर्ग के प्रवेश पर रोक नहीं थी। क्लास और कास्ट प्रेशर की पॉलिटिक्स करने वालों के लिए जातियों का समूह खड़ा करना राजनीतिक लाभ देता है। जो जाति और वोट की राजनीति करते हैं उनको जातीय गुट को अपने हिसाब से इस्तेमाल या डील करने में सुविधा होती है। ऐसे लोग अपने लाभ के हिसाब से भीड़ को अपने पाले में ले लेते हैं। ऐसा हर तरह के जातीय गुटों-समूहों के साथ राजनीति करने वाले करते हैं। ऐसी घटनाओं से वोट और समर्थन का लाभ मिलता है। तो क्या अंछा जाति और वर्ग की राजनीति करने वालों की प्रयोग भूमि बन गई है? महत्वपूर्ण है कि यहाँ जातीय संघर्ष नई बात नहीं है। वोट को लेकर भी संघर्ष रहा है। आज अंछा जिस मुहाने पर खड़ा है वहां जाति और वर्ग भेद का विभाजन साफ साफ दिखता है। गांव में तनाव बना हुआ है। यह तनाव कब समाप्त होगा अभी कुछ भी कहने की स्थिति में कोई नहीं है, न पुलिस प्रशासन, न ग्रामीण। दो खेमों में मानसिक तौर पर विभाजित इस गांव में भौगोलिक तौर पर भी विभाजक रेखा साफ साफ दिखती है। आने वाला दिन अंछा के लिए कैसा होगा, कुछ भी कहा नहीं जा सकता। हालांकि सभी पक्ष यह चाहेंगे कि जो हुआ वह अब  आगे ना बढ़े और गांव में शांति बनी रहे। सबका भला इसी में है। गाँव में घटना के बाद कुछ लोग ही उतावले दिखे, अन्यथा दोनों पक्षों के प्रौढ़ और वृद्ध सिर्फ शान्ति ही चाहते हैं।

Tuesday 4 August 2020

जब गुलाम था भारत तो देवकुंड में चलता था संस्कृत विद्यालय

संस्कृत दिवस पर विशेष रिपोर्ट : दैनिक जागरण विशेष

    • 1943 तक चला था यह संस्कृत विद्यालय

विद्यालय के प्रारंभ होने की तिथि ज्ञात नहीं

बिहारोत्कल संस्कृत समिति पटना से था संबद्ध

उपेंद्र कश्यप । दाउदनगर (औरंगाबाद)

आज संस्कृत दिवस है। भारत में संस्कृत को देवभाषा माना जाता है। पौराणिक इतिहास, ज्ञान सब संस्कृत में ही लिपिबद्ध हैं। आज संस्कृत पढ़ने वालों की संख्या न्यूनतम है। जब भारत गुलाम था, तब यहाँ के देवकुंड में एक संस्कृत विद्यालय हुआ करता था। इसका प्रारंभ कब हुआ यह ज्ञात इतिहास में दर्ज नहीं है। हां, यह तय है कि वर्ष 1843 के बाद महंत रामेश्वर पुरी के समय यह शुरू हुआ था रामेश्वर पूरी 400 वर्षों के महंत परंपरा के इतिहास में सर्वाधिक 70 वर्ष तक वर्ष 1843 से 1913 तक देवकुंड के महंत रहे हैंवर्ष 1943 ईस्वी तक पटना के परशुरामपुर निवासी पंडित शिव शंकर मिश्र ने इस विद्यालय को किसी तरह जीवित रखा इस विद्यालय को बिहार उत्कल संस्कृत समिति पटना से संबद्धता मिली थी और शास्त्री तक की पढ़ाई होती थी मालुम हो कि बिहार उड़ीसा का हिस्सा रहा हैअकरौंजा निवासी पंडित विशेश्वर मिश्र (वृद्ध महाराज), करहरी निवासी शास्त्रार्थ महारथी नंदलाल शास्त्री, बांसाटांड निवासी महापंडित रघुनाथ मिश्र इस विद्यालय के प्रधान पंडित पद को अलंकृत किये थे। हठयोगी पंडित बालमुकुन्द मिश्र जब विद्यालय से बोर्ड की संस्कृत पाठशाला में चले गए तब कृष्णा दयालु पाठक ने विद्यालय संभाला। बिहारोत्कल संस्कृत समिति पटना से शास्त्री परीक्षा तक की स्वीकृति के बाद 1933 ई. से 1938 तक बासांटांड के मोहन शरण मिश्र ने इस विद्यालय को चंद्रशेखर संस्कृत विद्यालय के रूप में चलाया था। अब देवकुंड में विद्यालय के होने का कोइ प्रमाण जमीन पर नहीं मिलता। अगर विद्यालय आज तक जिंदा होता तो इलाके में संस्कृत की शिक्षा की स्थिति संभवत बिहार में सबसे मजबूत होती

 वर्ष 1969 से संस्कृत दिवस की शुरूआत

भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने 1969 से संस्कृत भाषा के विकास के लिए इस दिवस की शुरूआत की थी। तभी से पूरे देश में संस्कृत दिवस मनाने की परंपरा शुरू हुई थी। ये भी मान्यता है कि इसी दिन से प्राचीन भारत में नया शिक्षण सत्र शुरू होता था। गुरुकुल में छात्र इसी दिन से वेदों का अध्ययन शुरू करते थे, जो पौष माह की पूर्णिमा तक चलता था। पौष माह की पूर्णिमा से सावन की पूर्णिमा तक अध्ययन बंद रहता था। आज भी देश में जो गुरुकुल हैं, वहां सावन माह की पूर्णिमा से ही वेदों का अध्ययन शुरू होता है।

32 साल पहले रामशिला पूजन आन्दोलन में दाउदनगर था शामिल

राम मंदिर आन्दोलन में दाउदनगर का भी रहा है योगदान

जन सैलाब ऐसा कि आज तक न टूट सका भीड़ का रिकॉर्ड

  • उपेंद्र कश्यप । दाउदनगर (औरंगाबाद)

आज रामजन्म भूमि मंदिर निर्माण के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब भूमि पूजन कर रहे हैं तो दाउदनगर भी इस आन्दोलन में स्वयं के सम्मिलित होने के कारण गौरव का बोध कर रहा है। इस शहर ने भी मंदिर आन्दोलन में अपना योगदान दिया है और लोग उसे याद कर आज अभिभूत हो रहे हैं। वर्ष 1988 में राम शिला पूजन आन्दोलन के वक्त यहाँ भी शिला पूजन हुआ था। अयोध्या से यहाँ राम लिखी हुई शिलाएं आयी थीं। उसे गाँव-गाँव, मोहल्ले-मोहल्ले वितरित की गयी थी। मान सम्मान के साथ शिला जहां गयी, वहां 24 घंटे का अखंड कीर्तन हुआ। फिर उसे सम्मान के साथ दाउदनगर लाया गया और तब उसे अयोध्या भेजा गया। इस आन्दोलन में जो जन सैलाब उमड़ा था, वह एक रिकोर्ड है और वह अभी तक नहीं टूटी है जबकि जनसंख्या इस बीच ढ़ाई गुनी से अधिक हो गयी है। जो लोग उस आन्दोलन में शामिल थे, वे गौरव का बोध कर रहे हैं। दिली इच्छा है कि भूमि पूजन में शामिल होते किन्तु कोरोना काल के कारण जो स्थिति बनी है उस कारण आज अफसोस मात्र रह गया है। मंदिर बंटे देखना सबको सुखद लग रहा है। मंदिर निर्माण के बाद उसके दर्शन के आकांक्षी सभी हैं।

             186 शिला हुई थी वितरित-सुनील केशरी

तब विश्व हिन्दू परिषद के संयोजक रहे सुनील केशरी ने बताया कि 186 शिला वितरित की गयी थी। बाबा बिहारी दास संघत में। देहात का पहले, दूसरे दिन शहर की शिला इकठा की गयी। दो दिन वितरण और दो दिन इकट्ठा करने में लगा था। सवा सवा रुपया हर घर से इकट्ठा किया गया था। 80 से 90 तोरण द्वार शहर में बनाये गए थे। शहर का भगवाकरण कर दिया गया था। कसेरा टोली में बर्तन से तोरण द्वार बना था। सीआरपीएफ़ तैनात था सुरक्षा के लिए। पंचायत स्तरीय झांकी प्रतियोगिता हुई। मखराअंछा से कई झांकिया आई थीं। एक माह यह पूरा प्रकरण चला था। रमेश प्रसाद कोषाध्यक्ष थे।

  •  गड़बड़ी न हो थी इसकी जिम्मेदारी-नरेंद्र देव

तब जुलुस के सुरक्षा प्रमुख थे कुमार नरेंद्र देव। बताया कि कुछ गड़बड़ी न हो इसकी जिम्मेदारी उनके साथ तब बजरंग दल के अध्यक्ष राजाराम प्रसाद को दी गयी थी। यमुना प्रसाद ईंट को सुरक्षित रखवाते थे। सीमेंट से बने सभी ईंट पर राम राम लिखा हुआ था। ईंट जगदीश काँस्यकार के आवास पर रखा जाता था। यहां से जिला गया, फिर वहां से अयोध्या गया। ई.शम्भू जी, गोपाल सोनीगोपाल गुप्तागोपाल प्रसाद शिक्षक सुरक्षा टीम में शमिल थे। गांव से जुलूस आया। हर गांव वाला अपने गांव का नाम लिखा बैनर रखता था।

  •  चौकस प्रशासन का था भय-सुरेश कुमार

आरएसएस के मुख्य शिक्षक रहे सुरेश गुप्ता ने बताया ईंट मध्य रात्रि के बाद आया था। प्रशासन चौकस था कि कहां रखा जाएगा। विहिप और संघ के कहने पर अपनी निगरानी में रखवाया। पुलिसिया रौब जबरदस्त था। कोई सामने आने को तैयार नहीं था। तय तिथि पर गांव से लोग जुटे। कार्यक्रम का अध्यक्ष विजय सिंह मुखिया एवं राम चन्द्र प्रसाद उर्फ़ फेकू साव को पूजा मंत्री बनाया गया था। ताकि कोइ बोले नहीं। 

  •  शांति का लोहा माना प्रशासन-राजाराम

तब बजरंगदल के अध्यक्ष थे राजाराम प्रसाद। बताया कि वैसा जुलूस आज तक नहीं हुआ। वह भी शांतिपूर्वक। 50 हजार की भीड़ रही होगी। पुलिस प्रशासन ने भी लोहा मान लिया। भीड़ नहीं जनाब रेलाऔर वह भी उत्तेजना के बावजूद पूरी तरह शांतिपूर्वक। सबको खाने के लिए घर घर से पांच आदमी का भोजन मांगा गया थाताकि गांव से आये लोगों को दिया जा सके। इसके लिए घर-घर पोलोथिन वितरित किया गया था। भोजन बांटने की व्यवस्था गर्ल्स है स्कूल में थी। रोज समीक्षा बैठक सरस्वती विद्या मंदिर में होती थी।     


Wednesday 22 July 2020

'चीन की दीवार' ढाह कर भागे युद्धबन्दी 5 वर्ष बाद पहुंच सके थे घर

दैनिक जागरण में 23 जुलाई 2020 को प्रकाशित रिपोर्ट


1962 के भारत-चीन युद्ध में युद्धबंदी बनाए गए थे रामचरित्र सिंह
जंगलों में भटकते थे भूखे प्यासे, खाते थे घास और जंगली फल 
उपेंद्र कश्यप । दाउदनगर (औरंगाबाद)
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को लेकर इधर रोज कुछ ना कुछ अप्रत्याशित खबरें आ रही हैं। वर्ष 1962 में भारत और चीन युद्ध कर चुके हैं। कभी भी युद्ध हो सकने के मुहाने पर दोनों देश आज खड़े हैं। ऐसे में वर्ष 1962 में हुए भारत चीन युद्ध के समय युद्ध बंदी बनाए गए फौजी रामचरितर सिंह का संघर्ष और उनकी तीसरी और चौथी पीढ़ी के स्वजनों की सोच लोगों को जानना आवश्यक है। इस कहानी के किरदार रामचरित्र सिंह और उनके समेत 14 साथियों ने चीन को भारत की ताकत अपने बाहुबल से दिखाया था। 1962 के भारत-चीन युद्ध में युद्ध बंदी बनाकर जेल में डाल दिए गए भारतीयों में से 14 जवानों ने जेल की दीवार ढाह कर फरार हो गए थे। श्री सिंह मूलतः पड़ोसी जिला अरवल के मेहंदिया थाना के टेरी गांव के निवासी थे। अभी अनुमंडल के हसपुरा प्रखंड के बाघेरवा में उनके पोता रामाशंकर सिंह अपने परिवार के साथ रहते हैं, जहां फौजी को बतौर बीरता पुरस्कार सरकार ने 16 एकड़ बंजर जमीन दी थी। तब सभी 14 जेल से भागकर भारतीय सीमा में प्रवेश कर गए। जंगल जंगल भटकते हुए, दर-दर की ठोकरें खाते हुए, भूख प्यास से बिल बिलाते हुए, घास और जंगली फल खाते हुए, गंदे पानी पीते हुए, अपनी यात्रा करते रहे। इनके पोते 62 वर्षीय रामाशंकर सिंह को याद है कि उनके दादा उन्हें भारत चीन युद्ध, जेल में बंद रहने के दौरान प्रताड़ना व जीवनचर्या तथा जेल तोड़कर भागने से लेकर घर पहुंचने तक के सारे किस्से कैसे बताया करते थे। आज रामाशंकर सिंह किसी पहचान के मोहताज नहीं। अपने दादा को बतौर वीरता पुरस्कार मिले उसर 16 एकड़ जमीन को उर्वर बना चुके हैं। जबकि तब सरकार फौजियों को ऊसर या पथरीली जमीन ही बतौर पुरस्कार दिया करती थी। शायद सरकार की सोच यह होगी कि फौजी बंजर जमीनों को सोना उगलने वाले बना देंगे। शायद इसी कारण दादा को पथरीली जमीन मिलने का कोई अफसोस नहीं है। रामाशंकर बाबू बताते हैं कि उनके दादा और अन्य साथी भारतीय सीमा में भटकते रहे। जंगल में जीने का संघर्ष करते रहे। तब आसमान में फौजी हेलीकॉप्टर दिखा। दादा इनको बताया करते थे कि तब वैसा हेलीकॉप्टर हुआ करता था जो जंगल झाड़ में कहीं भी उतरने में सक्षम नहीं होता था। इशारों में हेलीकॉप्टर में बैठे सैनिकों ने इन फौजियों को रास्ता बताया और उसी के संकेत पर यह आगे बढ़ते चले गए। फिर अपने अपने गांव आ गए।

सरकारी सूचना पर हो चुका था दशकर्म और ब्रह्मभोज:- 
रामाशंकर सिंह ने बताया कि बताया कि भारत चीन युद्ध के बाद सूचना मिली कि दादा शहीद हो गए हैं। इनके स्वजनों ने हिंदू परंपरा के तहत अंतिम संस्कार दशकर्म और मृत्यु भोज कर दिया। जब सब लोग निश्चिंत हो गए तो वह अचानक से करीब 5 साल बाद रामचरित्र सिंह अपने घर पहुंचे। उनकी पत्नी फुलेसरी देवी उन्हें पहचान नहीं पा रही थी। जब पहचान हुई तो भव्य स्वागत हुआ। इनके आने के बाद पेंशन और अन्य सरकारी सुविधा लेने के लिए नियम और प्रक्रिया पूरी करने में संघर्ष करना पड़ा। संभवत: 1970 में वे से सेवानिवृत्त हुए थे। इनकी मृत्यु 1993 में हुई जबकि उनकी पत्नी की मृत्यु इनसे पहले ही हो चुकी थी।

चीन को सबक सीखाये जाने की जरुरत:-
क्या सोचती है इनकी पीढ़ी
आज रामचरित्र सिंह के पुत्र रामाशंकर सिंह और इनके पुत्र मुकेश कुमार का कहना है कि भारत और चीन में युद्ध अवश्यंभावी है, वक्त चाहे जो लगे। चीन को सबक सिखाएं जाने की जरूरत है। दादा अपने वंशजों को बताते थे कि भारत और चीन के बीच सीमा रेखा जिस स्थिति में है उस स्थिति में युद्ध होना निश्चित है। गलवान घटना को लेकर रामचरित्र सिंह की पीढ़ियों में आक्रोश है। कहते हैं-कि दादा कहा करते थे कि भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान में युद्ध होगा ही होगा। क्योंकि ऐसी ही भौगोलिक स्थिति और राजनीतिक परिस्थिति रहेगी।

Friday 5 June 2020

परिस्थितियाँ जैसी भी हो झेलता हमेशा गरीब, मजदूर व्यक्ति ही है


कोरोना और कलाकार-1

फिल्म डायरेक्टर/ एक्टर राव रणविजय सिंह ने काफी कुछ सीखा
रील लाइफ के शब्दों को रियल लाइफ में किया अनुभव
उपेंद्र कश्यप । दाउदनगर (औरंगाबाद)
लॉक डाउन से अब अनलॉक-01 में जीने लगे हैं हम। फ़िल्मी दुनिया की स्थानीय हस्तियां क्या और कैसे इन दिनों को जीए, यह जानने की कोशिश नबिटा ने की। ओबरा के निवासी राव रणविजय सिंह फिल्म-धारावाहिक-डॉक्युमेंट्री में अपने नाम को स्थापित कर चुके हैं। उन्होंने बताया-कलाकार दुनिया के लगभग हर चरित्र को जीने की क्षमता रखता है और अपने आप को उसके बहुत क़रीब पाता है पिछले ढ़ाई महीनों में हमने बहुत कुछ सीखा। स्वयं को घरों मे क़ैद कर लेनासिमित संसाधनों में अपना व अपने परिवार की जीविका चलानासरकार के दिशा निर्देशों का पालन करनाअगर देखा जाये तो इससे हम लोगों ने सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं को सीखा। हम कलाकार रील लाइफ में भूखखौफ़मज़बूरी जैसे बहुत शब्दों से सामना तो करते ही रहते हैं लेकिन ये सारे शब्द आज रियल लाइफ (वास्तविक जीवन) में भी बहुत क़रीब से अनुभव करने का एहसास प्राप्त हुआ लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूरोंलाचारों लोगों को हज़ारों किलोमीटर दूर सड़क पर चलते हुए देखना हृदय विदारक था कुछ लोगों को कोरोना का खौफ़ तो कुछ लोगों को पापी पेट की भूख ने शहरों से उन्हें उनके गाँव के लिए पलायन करने पर मजबूर कर दिया परिस्थितियां चाहे जो भी हो हमेशा इसको झेलता वो ग़रीबलाचारबेबस मजदूर ही होता है ग़रीब मजदूर हमारे देश की अर्थव्यवस्था के रीढ़ हैं। मुंबई में रहते हुए अक्सर बिहारउत्तर प्रदेश के मजदूरों को टारगेट किया जाता देखता रहा हूँ। हमेशा उन्हें यहाँ से अपने राज्य में जाकर काम करने की सलाह दी जाती है। सरकार भी यह कहने पर मजबूर हुई कि सभी राज्य छोड़कर अपने घर चले जाएँ तो उद्योग धंधे के साथ साथ अर्थ व्यवस्था चरमरा जायेगी। मजदूरों का इनके लिए क्या महत्व है ये अब पता चला।
राव बोले- मैंने टीवी और सोशल मीडिया के माध्यम से बहुत सारे ऐसे वीडियो देखा जब आँखें नम हुई। सबसे ज़्यादा हृदय विदारक दृश्य देखा- एक बेहद ग़रीब, भूखा व्यक्ति सड़क पर मरे हुए कुत्ते के मांस को खाने को विवश हुआ। अंदर से झकझोर कर रख दिया।

बहुत जिल्लत की है मजदूरों की जिन्दगी:-
कोई मजदूर अपने घर से हज़ारों किलोमीटर दूर आकर 2 पैसे कमाने के लिए बहुत जिल्लत भरी ज़िंदगी जीता है। हर राज्य सरकारों को अपने अपने राज्य में उनके लिए रोज़गार मुहैया कराना चाहिए। ऐसा कुछ करने के बारे में सोचना ही नहीं बल्कि ठोस क़दम उठाना चाहिए। कम से कम वो मजदूर अपने परिवार के पास रहकर वहीं वो 2 पैसा कमा तो सकता है। हर मजहबहर जातिहर समुदाय के लोगों ने गरीबोंमजदूरोंभूखों को एकजुट होकर अपने अपने स्तर से उन्हें खानापानीकपड़ा व ज़रूरत की चीज़े मुहैया करवाया जो हमारे देश के लिए बहुत ही सुख़द पहलु रहा। दुःख हुआ की ऐसे संकट की घड़ी मे भी कुछ राजनीतिक पार्टियां राजनीति करने से बाज नहीं आयी।

आम के लिए ख़ास सन्देश:-
प्रार्थना है कि सबकुछ जल्द ठीक हो जाये। सभी दिशा निर्देशों का सभी लोग पालन करें। लोगों के संपर्क में ना आयें। सोशल डिस्टेंस का पालन करें। कोरोना को लेकर अफवाहों से दूर रहें। बहुत जल्द हम इस कोरोना पर भी विजय प्राप्त करेंगे और पुनः एक बार हमारी ज़िंदगी पहले की तरह सामान्य हो जायेगी।


Friday 24 April 2020

रिश्तों का प्रेम ही सुख, बाकी निराधार राजमहलों या वैभव से नहीं मिलता सुख


(संदर्भ-महाभारत में जयद्रथ बनाम द्रौपदी संवाद से आज तक)
सुख क्या है
क्या राजभवन, ऐश्वर्य, वैभव, संपदा से सुख का कोई नाता है
क्या सब कुछ भौतिक रूप में उपलब्ध होने पर भी उसके भोगने का अधिकार रखने वाले को सुख मिलता है?
इसमें एक और शब्द जोड़ दें-शांति। भोग के लिए उपलब्ध तमाम तरह के भौतिक संसाधनों के बावजूद क्या सुख-शांति व्यक्ति या परिवार को मिल सकता है?
इन प्रश्नों में उलझ गया हूँ। द्रौपदी का जब (बीआर कृत महाभारत में) जयद्रथ हरण करता है तो वह उसे समझाता है कि तुम्हारे पास अब राजभवन नहीं, दास, दासी नहीं रहे। तुम दुखी हो। द्रौपदी कहती है-सुख राजभवन या कुटी से नहीं मिलता।
क्या वाकई ऐसा है
मेरी समझ में नहीं। शायद आपके लिए मायने जो भी हो। दर्जनों उदाहरण आपके आस पास हैं जिसमें आप देखेंगे कि सबकुछ उपलब्ध होने के बावजूद सुख नसीब नहीं होता। व्यक्ति या परिवार सुख की तलाश में कठीन श्रम और यात्रा करता है। करता रहता है जीवन पर्यंत। फिर भी उसे यह नसीब नहीं होता। 
वास्तव में, द्रौपदी ने जो कहा था, वह हमेशा का सत्य है। तब भी था, अब भी है और कल को भी यही सत्य यही रहेगा कि सुख-शांति का संबन्ध भौतिक संसाधनों की उपलब्धता से नहीं है। कुछ हद
तक ही यह संभव हो पाता है, किन्तु अधिकांश समय या मामलों में यह भौतिक संसाधन मात्र सुख ही दे पाता है।
जबकि सुख-शांति मानसिक स्थिति है। इसी कारण सुख-शांति भावनाओं से अधिक करीबी से जुड़ा है। यह वास्तव में भावनाओं से संबंधित स्थिति है। आप खूब ऐश्वर्य, वैभव प्राप्त कर लिए हैं, बड़े-बड़े
भवनों में रह रहे हैं, दुनिया की हर सुविधा उपलब्ध है लेकिन तब भी यह निश्चित नहीं है कि आपको सुख शांति मिल ही जाए। इसकी वजह है व्यक्ति चाहे जितनी ऊंचाई प्राप्त कर ले, उसे सुख के लिए हर हाल में प्रेम ही चाहिए। रिश्तों में मिठास भरने वाला हो प्रेम, अन्यथा सुख-शांति नहीं मिल सकता।
कल्पना करिए स्वयं में, यदि जन्म देने वाली मां, पालनकर्ता पिता, जिसके साथ खेले-पले-बढ़े उन भाई-बहनों से, मित्र-सखाओं से, गुरु से, पत्नी से आपको प्रेम न मिले तो फिर सुख है क्या? खूब आपके पास धन-वैभव-ऐश्वर्य है, बड़े महल हैं, हर भौतिक सुख-सुविधा-संसाधन उपलब्ध है, क्या सुख मिलेगा जब रिश्तों का प्रेम न मिले? हां, प्रेम। प्रेम ही जीवन है। चाहे किसी का हो।

प्रेम, जो जीवन को नीरस बनने से रोकता है, दुखी होने से बचाता है, निराश होने से रोकता है। थकने से रोकता है। ऊर्जान्वित करता है प्रेम। प्रेम मानसिक थकान को दूर करता है। घर को स्वर्ग बनाता है प्रेम, संसाधन नहीं। रिश्तों में मिठास न हो तो क्या विश्राम के लिए आवश्यक रात्रि और क्या श्रम के लिए आवश्यक दिन। सब बेकार।
न विश्राम में शांति और सुख की प्राप्ति होगी, और न ही श्रम के लिए एकाग्रता, शक्ति और उत्साह मिलेगा। ऐसे फिर कैसे आप कोई काम कर सकते हैं। न काम करने में शांति या सुख, न काम का सुख प्राप्त होगा। इसलिए कि रिश्तों में यदि प्रेम नहीं मिल रहा तो व्यक्ति किसी काम का नहीं रह जाता है। 

Tuesday 14 April 2020

ओबरा के पूर्व विधायक बीरेंद्र प्रसाद सिंह को विनम्र शब्द-श्रद्धांजलि


जमींदार होकर भी सादगी के प्रतिमूर्ति बने रहे बीरेंद्र प्रसाद सिंह
(उनकी राजनीतिक यात्रा, स्वभाव, विचार और....)
०उपेंद्र कश्यप०
जमींदार होते हुए, सामन्ती ठाठ से दूर, सादगी, इमानदारी के प्रतिमूर्ति रहे पूर्व विधायक बीरेंद्र प्रसाद सिंह नहीं रहे। उन्होंने खुद को काजल की कोठरी में रहते हुए बेदाग़ रखा, राजनीतिक तिकड़बमबाजी से दूर रहे। मैं 1994, यानी उनके राजनीतिक अवसान के शुरू होने के बाद  पत्रकारिता में आया। कई बार उनसे मुलाकात भी राजनीतिक कार्यक्रम के दौरान है। किन्तु बिना बताये कोइ उनको पूर्व विधायक नहीं समझ सकता था, ऐसी कोइ ठसक उनमें नहीं दिखी कभी। वे हमेशा समाज और राजनीति को लेकर ही विमर्श करते, कभी व्यक्तिगत हित की बात नहीं करते थे। वे 1980 में ओबरा विधान सभा क्षेत्र से बतौर भाजपा नेता विधायक बने। अब तक बीते 40 साल में वे अकेले ऐसे नेता रहे, जो कमल खिला सके थे। 06 अप्रैल 1980 को भाजपा का गठन हुआ था, और तब हो रहे चुनाव में वे ओबरा से जीते। जब कमल को जनता में स्थापित करना था कि-कमल मतलब भाजपा। यह काम उन्होंने बखूबी किया। इसके बाद वे राजनीति में सफल नहीं हो सके और फिर भाजपा कभी सफल नहीं हो सकी-ओबरा में। अब तो उसके हाथ से यह सीट भी चली गयी है-करीब दो दशक से। उनकी जीत कोइ तीर-तुक्का नहीं था। समाजवादियों के गढ़ में वामपंथ के लिए तो स्पेस होता है, किन्तु सीधे दक्षिणपंथ की जीत बहुत कुछ बता जाती है। यहाँ यह महत्वपूर्ण तथ्य भी देखें कि, तब राम मंदिर जैसा आन्दोलन दूर की कौड़ी था। यह आन्दोलन 1990 के बाद शुरू हुआ था। इसके बाद भाजपा इस ओबरा में कमजोर होती गयी। समाजवादियों की धरती, यह इसलिए कि 1951 के प्रथम चुनाव से लेकर लगातार समाजवादी नेता ही दाउदनगर अनुमंडल से जीतते रहे। एकाधिक अवसर पर कांग्रेसी। इनके अलावे वामपंथी-गोह से पांच बार और ओबरा से दो बार जीते। किन्तु अनुमंडल में भाजपा कहीं नहीं दिखी। पिछले चुनाव में वर्ष 2015 में गोह से भाजपा को जीत मनोज शर्मा ने दिलाया।
बीरेंद्र प्रसाद सिंह सबसे पहले 1972 में  दाऊदनगर विधान सभा क्षेत्र से (तब हसपुरा प्रखंड साथ था) जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़ कर हार गए थे। जबकि उनका पैत्रिक घर कोइलवां हसपुरा प्रखंड में है। इसके बाद परिसीमन हुआ तो ओबरा (साथ में दाउदनगर प्रखंड) और गोह (साथ में हसपुरा प्रखंड) नया क्षेत्र बना। 1977 में ओबरा विधानसभा क्षेत्र से लोकदल कोटा से तत्कालीन विधायक रामविलास सिंह (अब स्वर्गीय) को जनता पार्टी से टिकट मिला, जीते भी। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि राम बिलास सिंह समाजवादी से सीधे दक्षिणपंथी विचारधारा के साथ हो गए, क्योंकि टिकट का सवाल था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लागू आपातकाल (1975-1976) के बाद दक्षिणपंथी जनसंघ सहित भारत के प्रमुख राजनैतिक दलों का विलय कर के एक नए दल जनता पार्टी का गठन किया गया था। जनता पार्टी ने 1977 से 1980 तक भारत सरकार का नेतृत्व किया है। सरकार में रहते हुए आंतरिक मतभेदों के कारण जनता पार्टी 1980 में टूट गयी। भाजपा बनी, और इसी पार्टी ने 1980 के विधान सभा चुनाव में बीरेंद्र बाबू को टिकट दिया और वे तब निवर्तमान विधायक रामविलास सिंह को पराजित कर विधायक बने। उसके बाद के दो चुनाव 1985 और 1990 में वे रामविलास सिंह से ही पराजित हुए। बदले हालात में उन्होंने स्वयं को सिमटा लिया, संभव है राजनीतिक दुराचारों वाली परिस्थिति में वे स्वयं को ढाल न सके हों।

एक संक्षिप्त परिचय:-
नाम-वीरेंद्र प्रसाद सिंह। पिता-केशव प्रसाद सिंह। माता-सुदामा देवी। पितामह-गोपी प्रसाद सिंह। मूल पुरुष-बाबू गौड प्रसाद सिंह। जन्म भूमि-कोइलवां, प्रखंड-थाना-हसपुरा। औरंगाबाद, बिहार।  
पत्नी-शान्ति देवी। ससुर-भागवत बाबू- करपी पुराण, अरवल।
जन्म तिथि-01/02/1938, अध्ययन-जिला स्कूल गया। राजनीति में 1965 में आये।
पूर्वजों का आगमन-फैजाबाद जिला के सिमरहुता गाँव से 1670 ई. में यहाँ आये। इनके पूर्वज बाबू गौड़ प्रसाद सिंह यहाँ आये थे। इनके ही वंशज कोइलवा, कलेन, शेखपुरा, तिलकपुरा के जमींदार थे। दाऊद नगर से गोह तक और जाखिम से मेहंदीया तक जमींदारी का क्षेत्र था। 
मृत्यु तिथि-14/04/2020, दिन-मंगलवार की सुबह 04/15 बजे, स्थान- गया जिला मुख्यालय।
किरानी घाट गया में कोइलवां हाऊस नाम से विख्यात है उनका आवास।

राजनीतिक प्रदर्शन:-
ओबरा विधान सभा क्षेत्र में बीरेंद्र प्रसाद सिंह का चुनावी प्रदर्शन
वर्ष    विस क्षेत्र/संख्या     विजेता/उपविजेता  पार्टी          प्राप्त मत
1980 ओबरा-240   बीरेंद्र प्रसाद सिंह      भाजपा                  38855                                                             राम बिलास सिंह      जेएनपी (जेपी)        33451
1985 ओबरा-240   राम बिलास सिंह      एलकेडी                 28786
                           बीरेंद्र प्रसाद सिंह      भाजपा                  20924
1972  दाउदनगर-240  राम बिलास सिंह, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसओपी) 23935
                                  राम नरेश सिंह                   स्वतंत्र                    14449
(लॉक डाउन के कारण-मेरा पूरा आर्काइव मेरे पास अनुपलब्ध है, इस कारण 1972 का और अन्य डाटा नहीं दे सकता)

स्त्री तो सदियों से लॉक डाउन में ही रही है- सीमोन की पूण्यतिथि पर विशेष



(लॉक डाउन और स्त्री विमर्श)
०उपेंद्र कश्यप०
भला स्त्री कब लॉक डाउन में नहीं रही हैं? सदियों से स्त्री लॉक डाउन में ही रही है। घर की देहरी के अंदर। यही वजह होगी कि वर्ष 1949 में जब दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित पुस्तक सीमोन द बोऊवार ने लिखा तो उसे नाम दिया- 'द सेकेंड सेक्स'। यहां भी औरत दूसरे लिंग के रूप में है, प्रथम नहीं। स्त्री हर जगह घर की दहलीज से निकलने से रोकी गई है। सीमोन की पुण्यतिथि पर "मेरा रंग" में पढ़िये उपेंद्र कश्यप का लेख। लिंक करें क्लिक...



लॉक डाउन है। घरों में करीब 250 करोड़ आबादी बन्द है। स्त्री सन्दर्भ में देखें तो आधी आबादी उसकी है, तो इस लिहाज से करीब 125 करोड़ पुरुष वह पीड़ा पहली बार झेल रहे हैं, जिसे इतनी ही स्त्री आबादी सभ्यता के विकास के साथ से झेल रही है। विकसित या अविकसित या विकासशील देश हों, सब जगह स्त्री की त्रासदी, दुर्दशा प्रायः एक सी रही है। पितृ सत्तात्मक समाज ने उसे सदियों से लॉक डाउन कर रखा है। प्रश्न कर सकते हैं कि भला स्त्री कब लॉक डाउन में नहीं रही हैं? सदियों से स्त्री लॉक डाउन में ही रही है। घर की देहरी के अंदर। हर देश, काल, समाज में स्त्री देहरी के अंदर ही कैद रखी गई। उसे इस लॉक डाउन से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। फर्क पड़ा है उसे लॉक डाउन में रखने वाले पुरुष वर्ग को। वह बेचैन है, क्योंकि उसे बाजार, रंगीनियत, चकाचौंध, भाग दौड़, गप्प लड़ाना पसंद है। आनंद मिलता है उसे। पुरुष समाज को सिर्फ रात्रि-विश्राम भर ही लॉक डाउन पसन्द है। घर में रहना, वह भी स्त्री संपर्क और आनन्द के लिए, आवश्यक समझने के कारण। बच्चे तो तब भी क्षणिक ही सुखदायी समझ में आते हैं। शैक्षिक- आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के कारण अब हुआ यह है कि स्त्री राजनीतिक लाभ के लिए घर की देहरी लांघने लगी है। उसे भी ऐश्वर्य भोगने, सत्ता-सुख पाने के साथ स्वतंत्रता चाहिए, किन्तु अधिकतर मामले ऐसे ही हैं कि कानूनी-राजनीतिक विवशताओं के कारण वर्चस्वशाली पुरुष जमात स्त्री को आगे करता है। यहां भी औरत स्वतंत्र स्त्री नहीं बस माध्यम या साध्य भर होती है। आज भी अधिकतर समाजों, परिवारों में स्त्री को दोयम दर्जा प्राप्त है। शायद यही वजह रही है कि वर्ष 1949 में जब दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित व विस्तृत पुस्तक सीमोन द बोऊवार ने लिखा तो उसे नाम दिया-द सेकेंड सेक्स। यहां भी औरत दूसरे लिंग के रूप में है, प्रथम नहीं, जबकि स्त्री ही प्रजनन की शक्ति रखती है, जिसके बिना वंश या सृष्टि की कल्पना नहीं की जा सकती है। स्त्री हर जगह घर की दहलीज से निकलने से रोकी गई है, रोकी जाती है, अब भी। बिहार का उदाहरण लें तो स्कूली छात्राओं को जब यहां की नीतीश सरकार ने साइकिल दिया तो किशोरियों के प्रति घृणित पारंपरिक नजरिया बदला। इसके पीछे वजह यह थी कि लोभवश सबने साइकिल अपनी बेटियों के लिए लिया तो फिर साइकिल चलाती दूसरी किसी किशोरी को कोई कैसे गलियाये। कैसे उस पर फबती कसे, जबकि खुद उसके घर किशोरी साइकिल चलाने लगी। इसने देहरी से बाहर किशोरियों को निकाला। बिहार के संदर्भ में नारी सशक्तीकरण की इससे बड़ी योजना दूसरी नहीं थी। यह क्रांतिकारी बदलाव का आगाज था। और फिर त्रिस्तरीय पंचायत और निकाय चुनाव में आधी आबादी को आधा आरक्षण के सिद्धांत लागू होने से स्त्री घर की देहरी से बाहर निकली। यह सब पिछले दशक-डेढ़ दशक की घटना है। अन्यथा इसके पहले तो बस लॉक डाउन ही रहता था हर स्त्री के लिए। एक स्त्री सुबह (ब्रह्म मुहूर्त) में जगने के साथ कई हिस्सों में बंटनी शुरू होती है, और खटने का उसका सिलसिला शुरू होता है। दिन भर काम करने के साथ, सबको, हां सबको, सास-ससुर, पति, पुत्र, पुत्री समेत घर में उपलब्ध सभी बड़े-छोटे रक्तसंबंधियों को खुश रखने के साथ घर आने वाले अतिथियों का स्वागत की जिम्मेदारी भी उसी के जिम्मे है। इसके बावजूद उसे दिन भर असंतोष के कटु स्वर सुनने को मिलते हैं।
सदियों से औरत लॉक डाउन में क्यों है? आखिर जड़ कहां है? यह जड़ मानव सभ्यता के संस्कारों, धार्मिक-पारंपरिक मान्यताओं और सिद्धांतों में छुपा है। पहले मातृसत्तात्मक समाज था, जब स्त्री के ही नाम से वंश का नाम होता था, संपत्ति पर उसका अधिकार होता था। जब स्थिति बदली और पितृसत्तात्मक समाज हुआ तो, स्त्री की स्वतंत्रता क्षीण होती चली गयी। 
पुरुष की मानसिकता बर्चस्व वाली रही है। पितृसत्तात्मक समाज का नेतृत्व उसके हाथ में है, इसलिए उसने अपनी सुविधा के लिए स्त्री को लॉक डाउन में ही रखना श्रेयस्कर समझा / बताया है। भू-राजनैतिक स्थिति जो है, उसमें पश्चिम जगत को बहुत ही उदार मानसिकता, स्वतंत्र विचार वाला खुला समाज माना/ समझा/ बताया जाता है। लेकिन स्त्री उस समाज में भी लॉक डाउन में ही रही है।
112 वर्ष पूर्व 09 जनवरी 1908 को पेरिस के एक कैथोलिक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी सीमोन द बोउवार ने अपनी चर्चित पुस्तक "द सेकेंड सेक्स" में लिखा है-'स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि उसे बना दिया जाता है'। स्त्री के पूर्व और वर्तमान स्थिति का यही अंतिम सत्य है। 
मतलब साफ है। अपनी सुविधा के अनुकूल गढ़े माहौल में स्त्री को रखा जा सके, इसलिए स्त्री बना दी जाती है। उसे उसी तरह की शिक्षा-संस्कार-व्यवहार बताया-सीखाया जाता है। यह सदियों से है। पूरब में धार्मिक आख्यान हों या परंपरा, उसमें भी यह साफ दिखता है कि स्त्री घर की देहरी से बाहर न निकले, इसकी पूरी व्यवस्था की गई है। अरस्तू जैसा महान दार्शनिक औरत की परिभाषा इस कदर देता है-'औरत कुछ गुणवत्ताओं के कारण ही औरत बनती है। हमें स्त्री के स्वभाव से यह समझना चाहिए कि प्राकृतिक रूप में उसमें कुछ कमी है। वह एक प्रासंगिक जीव है। वह आदम की एक अतिरिक्त हड्डी से निर्मित है।' अरस्तू ने स्त्री को एक निष्क्रिय पदार्थ माना है और पुरुष को शक्ति, गति और जीवन। वहीं मनु संहिता भी स्त्री को एक निकृष्ट वस्तु माना है। जिसे बंधनों में रखने की बात कही गयी। रोमन कानून औरत को संरक्षण में रखने के लिए कहता है, ताकि उसकी मूढ़ता पर लगाम लगाई जा सके। कुरान शरीफ घोषणा करता है कि -'पुरुष औरत से उन गुणों के कारण श्रेष्ठ है, जो अल्लाह ने उसे उत्कृष्ट रूप से दिए हैं और अपनी श्रेष्ठता के कारण पुरुष औरत के लिए दहेज जुटा पाता है।' जिस गैर भारतीय संस्कृति को हम बहुत भाव देते हैं वहां स्त्री का हाल क्या है? औरतों को शैतान का खाला तक कहा गया है। टर्टयूलियन ने लिखा है-'औरत तुम शैतान का दरवाजा हो। जहां शैतान सीधा आक्रमण करने में हिचकता है, वहां वह औरत का सहारा लेकर पुरुष को मिट्टी में मिला देता है। यह तो औरत की गलती है, जिससे प्रभु के पुत्र को मरना पड़ा। तुम औरतों को हमेशा शोक संतप्त रहना होगा।' एक तो कोसते हैं दूसरे श्राप भी देते हैं, महान लोग। संत एम्ब्रोस तो प्रजनन की प्रक्रिया के लिए स्त्री को पापन बताता है। लिखा है-'आदम को पाप के रास्ते हव्वा ले जाती है, न कि हव्वा को आदम।' हद है स्त्री के प्रति पूर्वाग्रह।

यहां यह महत्वपूर्ण है कि प्रागैतिहासिक यायावर मानव समाज में शारीरिक कमजोरी के बावजूद औरत पुरुष की इतनी अधीनस्थ नहीं थी कि वह एक गुलाम कहलाये। आदिकाल में मातृसत्तात्मक समाज रहा है, यह ध्यान रखें। मातृसत्तात्मक समाज में वंश का नाम मां के नाम से चलता था। सामूहिक संपत्ति का स्वामित्व भी तब औरत के पास था। जिसकी रक्षा वह अपने सन्तानों के माध्यम से करती थी। ऋग्वेद की ऋचा गीतों में स्त्री की जो वंदना है, उसमें ह्रास ब्राह्मण युग के साथ हुआ। वेदकालीन औरत को जो सत्ता मिली थी, कुरान में उसकी स्थिति हीन बना दी गई। एंगेल्स ने कहा भी है कि- 'मातृसत्ता से पितृ सत्तात्मक समाज का अवतरण वास्तव में औरत जाति की सबसे बड़ी ऐतिहासिक हार थी।' अतीत देखें तो तमाम सभ्यताओं में देवी प्रधान रही है। बाद में इसे भी बदला पुरुष में और देव प्रधान होने लगे। मातृत्व की महानता को अपदस्थ किया गया, समय के साथ। यह कोई क्रांति या घटना नहीं थी। पुरुष अपने वैशिष्ट्य गुण के कारण खुद को श्रेष्ठ समझता रहा और साबित करता रहा। इस संघर्ष ने मातृ सत्ता व्यवस्था को अपदस्थ कर पितृ सत्ता में बदला। फ्रेजर ने एक जगह लिखा-'पुरुष देवता बनाता है, औरत उसकी पूजा करती है।' इसके आगे सीमोन लिखती हैं-'यह पुरुष ही था, जो निर्णय लेता था कि ईश्वर का चेहरा पुरुष का होगा या नारी का।'
स्त्री आज भी नहीं बदली। इसलिए कि पुरुष उसे बदलने नहीं देना चाहता। स्त्री को स्त्री बनाये रखने में पुरुष वर्ग अपना गौरव समझता है। इसलिए ही व्याभिचार में इज्जत स्त्री की जाती है, पुरुष की नहीं, भले ही दोष पुरुष का हो, अपराध पुरुष ने किया हो। यह मानसिकता जब तक खत्म नहीं होगी तब तक स्त्री लॉक डाउन में ही रहेगी। कोरोना से पहले और कोरोना संकट के बाद भी स्त्री की स्थिति नहीं बदलने वाली। 


14 अप्रैल 1986 को सीमोन द बोउवार की पुण्यतिथि है। इस आलेख के लगभग संदर्भ उनकी लिखी पुस्तक "द सेकेंड सेक्स" के प्रभा खेतान द्वारा किये गए हिंदी अनुवाद "स्त्री उपेक्षिता" से लिये गए हैं। बोउवार की इस पुस्तक के मुकाबिल दूसरे किसी लेखक की स्त्री केंद्रित पुस्तक कहीं नहीं टिकती।

MeraRanng  मेरा रंग एक वैकल्पिक मीडिया है जो महिलाओं से जुड़े मुद्दों और सोशल टैबू पर चल रही बहस में सक्रिय भागीदारी निभाता है। यह स्रियों के कार्यक्षेत्र, उपलब्धियों, उनके संघर्ष और उनकी अभिव्यक्ति को मंच देता है।