Thursday 25 April 2019

गरीबी में जाति या जाति में गरीबी नहीं ढूंढते हैं सुपर-30 वाले आनंद सर


उदंड शिष्य के लिए दोष शिक्षक का
सुपर थर्टी के हीरो का साक्षात्कार
० उपेंद्र कश्यप ०
विजन ने दाउदनगर के शैक्षणिक इतिहास को बुधवार के दिन एक नया आयाम दिया। इस दिन सुपर थर्टी के हीरो विश्व विख्यात शख्सियत आनंद कुमार का आगमन हुआ। 
भगवान प्रसाद शिवनाथ प्रसाद बीएड कॉलेज के सचिव डॉ.प्रकाशचंद्रा ने सबका स्वागत किया। सभी को फिर अपने कार्यालय ले गए। उन्होंने आनंद सर की खासियतों और उनके सामाजिक योगदान को बताया। मंच से आयोजक संस्था के निदेशक अरविंद कुमार धीरज ने कुछ प्रश्न पूछे और उसका “दिल से जवाब” उन्होंने दिया। उन्होंने समयाभाव के कारण यह साफ़ कर दिया कि अलग से कोइ संबोधन नहीं, इन्हीं प्रश्नों में वे हर बात कह देंगे। उनसे सबसे रोचक और चौंकाने वाला प्रश्न पूछा गया-गरीबी में जाति या जाति में गरीबी ढूंढते हैं? जवाब दिया-हर समाज में गरीब होते हैं। हर जरूरतमंद को हम मदद करें तो बिहार बदल जायेगा। बगैर जाति का मतदान करें, चुनाव और चयन करें। देश बदल जायेगा। इससे पूर्व उनसे पूछा गया था-सुपर 30 का संचालन आप करते हैं। बच्चों का चयन आप किस आधार पर करते हैं? मानवता, जाति या टैलेंट के आधार पर? बोले- सुपर थर्टी और उनके बारे में भ्रम फैलाया जा रहा है। सुपर 30 में हर जाति धर्म के बच्चे लिए जाते हैं। ज्योतिष कुमार को सामने लाकर उदाहरण दिया। वे दाउदनगर कॉलेज में लेक्चरर बने। बोले-गरीब थे ज्योतिष, मानवता भी चयन का आधार है।

आनंद और धीरज के सवाल-जवाब:-
प्रश्न-एक विद्यार्थी जब अपेक्षा के अनुकूल सफल न होकर फ्रस्टेड हो जाये तो शिक्षक क्या करे?
जवाब-बच्चे को हतोत्साहित न करे शिक्षक। समझाए कि परिश्रम करोगे तो अवश्य सफल होंगे। उदाहरण दें कि अमुक सफल व्यक्ति असफल हुआ था और फिर सफल हुआ। आत्म विश्वास बढ़ाने का काम शिक्षक का है। यह दायित्व यदि शिक्षक नहीं निभा पाता तो शिक्षक खुद को समझे। शिक्षक को कहना चाहिए कि बेटे बेटी मुझमें ही कोई कमी रह गई होगी, इस कारण आप सफल नहीं हुए।

प्रश्न-आईआईआईटी जीईई बनने से बच्चे कतरा रहे हैं। वे ऐसा सेक्टर चुन रहे हैं जिसमें जल्द नौकरी और पैसा मिले। अभिभावक कहते हैं हर दूसरा इंजीनियर सड़क पर हैं।
जवाब-नौकरी की संभावना उतनी नहीं है जितनी चाहिए। पढ़ने का मकसद ही आर्थिक होता है। पढ़ने के दूसरे मकसद बाद में होते हैं। देश गरीब है, संघर्ष कर रहा है। जिस देश का भविष्य सुनहला है, उसमें इंजीनियरों का योगदान काफी होता है। जो बनें उसमें उत्कृष्टता के साथ करें, सफलता मिलेगी। अच्छा काम करिये, सबसे बेहतर बनने का काम करियेगा तो वह बुरा नहीं है। संभावना उसमें कम नहीं है।

प्रश्न-राजनीतिक दबाब शिक्षा क्षेत्र में महसूस कर रहे हैं?


जवाब-सुपर थर्टी के लिए किसी से पैसा नहीं लिया। पीएम, सीएम, और कई उद्योगपति आर्थिक सहयोग करना चाहे किन्तु नहीं लिया। ख्याति कुछेक को नहीं पची। बड़ी फिल्म बननी शुरू हुई तो कुछ लोग साजिश कर सुपर 30 को बदनाम करने के लिए साजिश रचे। पहले सब ठीक था। लेकिन फ़िल्म बनने के लिए शुरू हुआ तो साजिश रची गई। जब हर तरफ से निराश हुआ तो प्रमोद चंद्रवंशी आगे आये और पहली पहचान हुई। डीजीपी ने उच्च स्तरीय जांच कराया तब उस बच्चे को जमानत मिली जिसे सिर्फ संबंध होने के कारण फंसाया गया। 
प्रश्न-सबसे कठीन पल, जब आप रोये हों।
जवाब-दर्दनाक पल रहा, दिल से बता रहा हूँ। ट्रक भाई पर चढ़ाया गया और मेरे से संम्बंध के कारण एक लड़के को जेल भेजा गया। फंसाया गया। वह सबसे खतरनाक पल था। खुशकिस्मत रहा कि प्रमोद चंद्रवंशी ने साथ दिया।
प्रश्न-किस व्यक्तित्व से आप प्रेरणा लेते हैं?
जवाब-सच है कि बहुत सारे लोग हैं। लेकिन छोटे लोग भी होते हैं जो प्रेरणा देता हैं। जो कुछ मदद नहीं कर सकता वह भी आकर संबल दिए। ताकत बढ़ाया। प्रेरणा दिया। 
प्रश्न-आदर्श व्यक्ति कौन?
जवाब-पिता जी। फ़िल्म में उनका कैरेक्टर देख कर पता चलेगा। किसी का बुरा मत सोचो। किसी से बदला मत लो। 
प्रश्न-विद्यार्थियों की उदंडता का कोई गणितीय फार्मूला है क्या?
जवाब-कोई बच्चा तो अभी तक आपका उदंड नहीं दिखा। जब बच्चा उदंड हो तो शिक्षक से पूछना चाहिए कि वह क्यों बच्चे को नहीं सीखा पा रहा है। इसके लिए दोष शिक्षक का बच्चे से अधिक है।
प्रश्न-दो बड़ी कार फिर नैनो से क्यों चलते हैं?
जवाब-दूर के लिए स्कार्पियो। जरूरत के अनुसार उपयोग करें। दुरुपयोग और फिजूलखर्ची नहीं करनी चाहिए। 

बोले-सफल होने के लिए चार बात का ध्यान रखें-
1.प्रबल प्यास-दिन रात सोचिए। सोते जागते सोचिए।
2.सकारात्मक सोच-हमेशा पोजेटिव सोच रखिये। ऐसा मत सोचिये कि पैसा नहीं तो इतिहास नहीं रच सकता। छोटा शहर है यहां क्या कर सकते हैं, यह मत सोचिए।
3.अथक प्रयास-प्रयास करना आवश्यक है। सफलता के लिए बिना थके हारे बिना आराम किये काम करिये।  
4.असीम धैर्य-धैर्य आवश्यक है। फिर प्रयास फिर प्रयास करिये। सफलता अवश्य मिलेगी।

भारत रत्न मिले आनन्द कुमार को-प्रमोद चंद्रवंशी
जदयू नेता और विजन के 10 वें वार्षिकोत्सव पर यहां आनन्द कुमार को लाने वाले प्रमोद चंद्रवंशी ने मांग की कि आनंद कुमार को भारत सरकार भारत रत्न की उपाधि दी। कहा कि कई ऐसे लोगों को भारत रत्न मिला है जिनकी पहचान जिला और राज्य स्तर तक ही सीमित है, जबकि आनन्द कुमार की पहचान वैश्विक है। इन्होंने जो योगदान समाज के लिए दिया है वह सम्मान का हकदार है। प्रमोद सिंह चंद्रवंशी ने कहा कि आनन्द कुमार ने देश नहीं विश्व में बिहार की प्रतिष्ठा स्थापित करने का काम किया है। कहा कि बच्चों में प्रतिभा की कमी नहीं है, उसे प्रेरित करने, सही मार्गदर्शन देने की जरूरत है। बच्चे स्वयं मील का पत्थर रख देंगे। विजन अपने संकल्प लगा रहे, हम सब साथ हैं। अभी तकनीकी ज्ञान जिनके पास नहीं है, वह अज्ञानी माना जाता है।कहा कि एमएलए एमपी बनना चुनाव लड़ने का मकसद नहीं है। जनता ने जो प्यार दिया है, वह महत्वपूर्ण है। हम विकास का कार्य करते रहेंगे, और यह कर रहे हैं। करते रहेंगे।

समय बदल रहा है, राजा का बेटा नहीं, हकदार ही राजा बनेगा-रहमान
रहमान थर्टी के संचालक उबैदुल रहमान ने कहा कि कुछ लोग नहीं चाहते कि गरीब पढ़े। उनकी कोशिश है। छोटे भाई का पैर टूटा, लेकिन हौसला नहीं टूटा। जो लोग गरीब को पढ़ने देना नहीं चाहते वे सफल नहीं होंगे, जब तक आनन्द कुमार जैसे लोग हैं। इनके संघर्ष और योगदान पर फ़िल्म बन रही है। जुलाई में रिलीज होने वाली है फ़िल्म- सुपर थर्टी। कहा- समय बदलने वाला है, अब राजा का बेटा राजा नहीं होगा, राजा वही बनेगा जो इसका हकदार होगा, यह डायलॉग चर्चित होगा। आवाम की जुबान पर होगा।फ़िल्म इतिहास लिखने वाली होने जा रही है। मालूम हो कि रहमान सऊदी अरब में बिहार फाउंडेशन के अधिकारी रहे हैं। उन्होंने 2010 में आनन्द कुमार को वहां बिहार दिवस के अवसर पर बतौर मुख्य अतिथि बुलाया था। सुपर थर्टी से प्रभावित था जब आनंद कुमार से प्रभावित हुआ तो बिहार आ गए और रहमान 30 शुरू किया। कहा कि वे सिर्फ बच्चों का चयन करते हैं, आनंद पढ़ाते हैं। अपने बच्चों की तरह। मुस्लिम समाज के लिए जो त्याग और योगदान आनन्द कुमार का है वह काबिले तारीफ है। श्री रहमान ने कहा कि बिहार और भारत के बाहर बिहार की एक पहचान बन गए हैं आंनद कुमार। बुद्ध और अन्य की तरह ही।

सिकंदर बना विजन चैंपियन का सिकंदर:-

विजन द्वारा आयोजित विजन चैंपियन का विजेता सिकंदर आलम बना। उसे संस्थान के निदेशक अरविंद कुमार धीरज द्वारा हस्ताक्षरित 10000 रुपये का चेक आनंद कुमार द्वारा दिलाया गया। सिकंदर के पिता फिरोज आलम ऑटो और टेम्पू बनाने का काम करते हैं। माता वहीदा खातून गृहिणी हैं। ओबरा के द इंडियन कोचिंग सेंटर का छात्र है। भाई है जो पढ़ाई में हेल्प करता है और खुद भी पढ़ाई करता है। सपना, सपना है इसका  आईएएस बनना। प्रति दिन 5 से 6 घंटे की पढ़ाई करता है। सफलता का श्रेय भाई को देता है। कार्यक्रम में कंप्यूटर पर सुरेंद्र कुमार मेहता, मेराज अख्तर और अभिमन्यू भारती ने सहयोग किया। व्यवस्था में राहुल कुमार, उदय कुमार, अमन कुमार, संजय किशोर, शंकर, वंदना, अमिता, माधुरी, सतेंद्र, बिजय, बिनय, गिरी ने अहम भूमिका निभाई। सांस्कृतिक कार्यक्रम में गोविंदा ने सहयोग किया और कला प्रभा संगम द्वारा खूबसूरत प्रस्तुति दी गई।

Wednesday 17 April 2019

दाऊ-द-नगर के 'द' में बहुत दम है, इसके बिना "दाऊ नगर" बेदम होगा

उपेंद्र कश्यप
सुन रहा नहीं, फेसबुक पर देख रहा हूँ। रामनवमी
के बाद अचानक से एक मुद्दा उछाला गया। दाऊदनगर का नाम बदलने वाला है। कोई इसे बलदाऊ से जोड़ रहा है। एक साध्वी आईं और नाम बदलने वाला भाव जगा गईं। एक पोस्ट में इसे मुंबई के माफिया डॉन रहे पाकिस्तान के शरण में जी रहे दाऊद इब्राहिम से इस करीब साढ़े तीन सौ साल पुराने शहर को जोड़ दिया। क्या तर्क और कुतर्क गढ़े और कहे जा रहे हैं।
अब पता नहीं कौन लोग इसे हवा दे रहे हैं, और कितने लोग नाम परिवर्तन के साथ हैं। मेरा किसी से व्यक्तिगत बातचीत इस मुद्दे पर नहीं हुई है। करीब डेढ़ बजे रात्रि में ट्रेन के बर्थ पर जब फेसबुक देखा तो जो अमूभूति हुई, वह बयान करना मुश्किल है। अपने 45 वर्ष की उम्र का 25 साल दाउदनगर में पत्रकारिता पर खर्च किया। मेरी पुस्तक-"श्रमण संस्कृति का वाहक-दाऊदनगर"- में दाऊदनगर के जन्मने से लेकर, विस्तारित होने, वर्तमान तक का तथ्यात्मक विवरण है। क्यों बसा दाउदनगर? किसने, कब और क्यों बसाया? किसके कहने पर किस खासियत या विवशता के कारण बसाया इस शहर को? बाद में किस किस ने इस कस्बे को नगर बनाया? वह भी क्यों और कब बनाया? क्या जरूरत तब महसूस की गई थी इसकी? बहुत सारे पन्ने इतिहास के दर्ज हैं, इस किताब में। और हां मेरा दावा है -300 साल पूर्व लिखी गई -तारीख-ए-दाऊदिया-से कई गुणा अधिक जानकारी दाउदनगर के बारे में इस पुस्तक में मैंने दी ही। 
मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि नाम परिवर्तन मुश्किल से अधिक कठिन है, और फिर निरर्थक भी। यह बिना मतलब का ऐसा पचड़ा वाला मुद्दा (यदि मुद्दा मानें तो, वरना यह है फालतू गॉसिप) है जो शहर को बहुत कुछ खोने पर विवश कर देगा। पहले ही दंगे के दंश में शहर बहुत कुछ खो चुका है। अब और खोने का मतलब है सदा के लिए आफत को आमंत्रित कर स्थापित करना। अभी ही हर धार्मिक आयोजन पर शहर की सांसें खाकी वालों के बूट और सूट में कैद कसमसाती हुई, घुटती हुई महसूस होती है। दाऊद खां के बसाए शहर को दाउदनगर ही नाम रहने देने में क्या नुकसान है, किसको नुकसान है भला?
और 'दाऊ-द-नगर' के एकदम मध्य की मात्रा 'द' हटा देने से विकास का कौन सा काम हो जाएगा, जो इस 'द' के कारण नहीं हो पा रहा है। इस द में दम है। इसे दमदार बनाइये तो पूरा दाउदनगर दमदार बन जायेगा, अन्यथा बिन 'द' वाला लूला-लंगड़ा दाऊ नगर में शांति-सौहार्द बनाये रखना मुश्किल होगा।
यह मुद्दा पहले भी उठाया गया था। इसका जिक्र मेरी पुस्तक्- "श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर" में है। जहां मैं खुलकर इस बात की हिमायत करता हूँ कि यह दाऊ नगर नहीं बल्कि दाउदनगर ही है। इसे दाउदनगर ही रहने दीजिये। वैसे मैं किसी को रोकने वाला कौन हूँ? बस लिखने की बीमारी है, इसलिए लिख रहा हूँ। मेरे लिखे को हर कोई नहीं पचा पाता है। यह भी बहुतों को नहीं पचेगा, यह जानता हूँ। हालांकि लिखे का आनन्द तभी है जब वह कुछ को पचे नहीं। अपच हो, ताकि कुछ नया लिखने की ऊर्जा मिलती रहे।
अब दाउदनगर की पत्रकारिता से मतलब नहीं रहा अन्यथा जहां लिखता था, वहां अवश्य इस मुद्दे को उठाता। लिखता, और जमकर लिखता। मेरा अब वहां न लिखना कुछ को अच्छा लगता है, और बहुतों को अखरता है।

जूता खाइए, टिकट पाइए, और फिर इसके बाद....

जूता खाइए, टिकट पाइए, और फिर इसके बाद....
(चुनावी चक्कलस और जन संवाद-3)
*उपेंद्र कश्यप*

बहुत शोर है। हर तरफ चर्चा एक बात की हो रही है कि आखिर नेतृत्व को क्या सूझता है, वह किस कारण से, किस आधार पर किसी को प्रत्याशी बनाता है? कोई तो आधार होगा? जनाधार वाले को ही जन प्रतिनिधि बनाये जाने की वकालत की जाती है। ऐसा नहीं हो तो फिर जनाधार हीन को भी जनाधार वाला नेता माना और बताया जाता है, भले ही वह किसी संयोग, दुर्योग, लहर या कोई बात (मुद्दा नहीं) क्लिक कर जाए और कोई प्रत्याशी जीत जाए। इधर की चुनावी चर्चाओं में एक सुर्खियां खूब प्रभावी बन/दिख रही है। एक प्रत्याशी का चुनाव (कहिए चयन) सुर्खियों में है। सवाल लोग उठा रहे हैं कि जब किसी व्यक्ति पर तीन-तीन स्थानों पर जूता/चप्पल चला हो, शरीर पर हालांकि नहीं, एकाधिक बार गवाह शीर्ष नेतृत्व हो, तो उसे आखिर प्रत्याशी क्यों बनाया गया? क्या जूता देखना भी प्रत्याशी बनाये जाने का आधार हो सकता है? जबकि इसे इसका सबूत माना जाता रहा है कि जनता विरोध में है। विरोध दर्ज कराने के लिए ही जनता हो या कोई, सामने वाले पर जूते/चप्पल उछालता है। फिर जब जूते उछाले जाने को टिकट देने का आधार पार्टियां बनाने लगेंगी तो जनता अपने विरोध के इस तरीके पर भी पश्चाताप करने लगेगी। क्योंकि जूते/चप्पल देखने वाला जब प्रत्याशी बन जायेगा तो यह तो विरोध से अधिक मशहूर बनाने वाली बात हो जाएगी न। चर्चा में यह सवाल सबको परेशान कर रहा है कि आखिर जूते खाने, टिकट लेकर हारने वाले को कोई दल प्रत्याशी क्यों बनाया? जनता में विरोध जारी है। एक जगह तो यह तक कहा गया कि अभी इन्सल्ट करेंगे, फिर बाद में वोट करेंगे। सवाल एक ने उठाया-इस भावना का ख्याल रखने में कहीं माहौल बिगड़ा तो क्या होगा? हार पक्की हो जाएगी, तो जीत के लिए हालात संभालना मुश्किल हो जाएगा। सबसे बड़ी बात लोग खुन्नस निकाल रहे हैं। संभव है अंत में सब एक हो जाएं। वैसे नेता जी पैसे खर्च करने से खुद को बचा रहे हैं। क्या वे यह मान रहे हैं कि जीत की राह मुश्किल से अधिक कठीन है? साथ वाले लोग भी इस राह को मुश्किल करेंगे, यह आशंका बलवती है, तो यह भी सच दिख रहा कि सामने मुकाबले में खड़े प्रत्याशी के साथ रहने वाले भी उसे हराने में विरोधी के साथ खड़े होने का संकेत दे रहे हैं, किन्तु चुपके-चुपके। बहरहाल, जूते उछालने वाला पत्रकार नौकरी से निकाला गया था, जबकि जूते उछालने वाले व्यक्ति (भीड़ का हिस्सा) के खिलाफ कुछ नहीं हुआ, उसकी तो पहचान तक नहीं हुई। अब देखिए चुनाव परिणाम कैसा आता है। साथ वाले लोग तो जीताने और हराने वाले खेमे में बंटे हुए हैं। हालांकि वक्त वक्त की बात है। वक्त पर संभव है सब एक हो जाएं। बताएंगे-जनता के और देश के हित में यही सही है।