Wednesday 17 April 2019

जूता खाइए, टिकट पाइए, और फिर इसके बाद....

जूता खाइए, टिकट पाइए, और फिर इसके बाद....
(चुनावी चक्कलस और जन संवाद-3)
*उपेंद्र कश्यप*

बहुत शोर है। हर तरफ चर्चा एक बात की हो रही है कि आखिर नेतृत्व को क्या सूझता है, वह किस कारण से, किस आधार पर किसी को प्रत्याशी बनाता है? कोई तो आधार होगा? जनाधार वाले को ही जन प्रतिनिधि बनाये जाने की वकालत की जाती है। ऐसा नहीं हो तो फिर जनाधार हीन को भी जनाधार वाला नेता माना और बताया जाता है, भले ही वह किसी संयोग, दुर्योग, लहर या कोई बात (मुद्दा नहीं) क्लिक कर जाए और कोई प्रत्याशी जीत जाए। इधर की चुनावी चर्चाओं में एक सुर्खियां खूब प्रभावी बन/दिख रही है। एक प्रत्याशी का चुनाव (कहिए चयन) सुर्खियों में है। सवाल लोग उठा रहे हैं कि जब किसी व्यक्ति पर तीन-तीन स्थानों पर जूता/चप्पल चला हो, शरीर पर हालांकि नहीं, एकाधिक बार गवाह शीर्ष नेतृत्व हो, तो उसे आखिर प्रत्याशी क्यों बनाया गया? क्या जूता देखना भी प्रत्याशी बनाये जाने का आधार हो सकता है? जबकि इसे इसका सबूत माना जाता रहा है कि जनता विरोध में है। विरोध दर्ज कराने के लिए ही जनता हो या कोई, सामने वाले पर जूते/चप्पल उछालता है। फिर जब जूते उछाले जाने को टिकट देने का आधार पार्टियां बनाने लगेंगी तो जनता अपने विरोध के इस तरीके पर भी पश्चाताप करने लगेगी। क्योंकि जूते/चप्पल देखने वाला जब प्रत्याशी बन जायेगा तो यह तो विरोध से अधिक मशहूर बनाने वाली बात हो जाएगी न। चर्चा में यह सवाल सबको परेशान कर रहा है कि आखिर जूते खाने, टिकट लेकर हारने वाले को कोई दल प्रत्याशी क्यों बनाया? जनता में विरोध जारी है। एक जगह तो यह तक कहा गया कि अभी इन्सल्ट करेंगे, फिर बाद में वोट करेंगे। सवाल एक ने उठाया-इस भावना का ख्याल रखने में कहीं माहौल बिगड़ा तो क्या होगा? हार पक्की हो जाएगी, तो जीत के लिए हालात संभालना मुश्किल हो जाएगा। सबसे बड़ी बात लोग खुन्नस निकाल रहे हैं। संभव है अंत में सब एक हो जाएं। वैसे नेता जी पैसे खर्च करने से खुद को बचा रहे हैं। क्या वे यह मान रहे हैं कि जीत की राह मुश्किल से अधिक कठीन है? साथ वाले लोग भी इस राह को मुश्किल करेंगे, यह आशंका बलवती है, तो यह भी सच दिख रहा कि सामने मुकाबले में खड़े प्रत्याशी के साथ रहने वाले भी उसे हराने में विरोधी के साथ खड़े होने का संकेत दे रहे हैं, किन्तु चुपके-चुपके। बहरहाल, जूते उछालने वाला पत्रकार नौकरी से निकाला गया था, जबकि जूते उछालने वाले व्यक्ति (भीड़ का हिस्सा) के खिलाफ कुछ नहीं हुआ, उसकी तो पहचान तक नहीं हुई। अब देखिए चुनाव परिणाम कैसा आता है। साथ वाले लोग तो जीताने और हराने वाले खेमे में बंटे हुए हैं। हालांकि वक्त वक्त की बात है। वक्त पर संभव है सब एक हो जाएं। बताएंगे-जनता के और देश के हित में यही सही है।

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