Friday 24 April 2020

रिश्तों का प्रेम ही सुख, बाकी निराधार राजमहलों या वैभव से नहीं मिलता सुख


(संदर्भ-महाभारत में जयद्रथ बनाम द्रौपदी संवाद से आज तक)
सुख क्या है
क्या राजभवन, ऐश्वर्य, वैभव, संपदा से सुख का कोई नाता है
क्या सब कुछ भौतिक रूप में उपलब्ध होने पर भी उसके भोगने का अधिकार रखने वाले को सुख मिलता है?
इसमें एक और शब्द जोड़ दें-शांति। भोग के लिए उपलब्ध तमाम तरह के भौतिक संसाधनों के बावजूद क्या सुख-शांति व्यक्ति या परिवार को मिल सकता है?
इन प्रश्नों में उलझ गया हूँ। द्रौपदी का जब (बीआर कृत महाभारत में) जयद्रथ हरण करता है तो वह उसे समझाता है कि तुम्हारे पास अब राजभवन नहीं, दास, दासी नहीं रहे। तुम दुखी हो। द्रौपदी कहती है-सुख राजभवन या कुटी से नहीं मिलता।
क्या वाकई ऐसा है
मेरी समझ में नहीं। शायद आपके लिए मायने जो भी हो। दर्जनों उदाहरण आपके आस पास हैं जिसमें आप देखेंगे कि सबकुछ उपलब्ध होने के बावजूद सुख नसीब नहीं होता। व्यक्ति या परिवार सुख की तलाश में कठीन श्रम और यात्रा करता है। करता रहता है जीवन पर्यंत। फिर भी उसे यह नसीब नहीं होता। 
वास्तव में, द्रौपदी ने जो कहा था, वह हमेशा का सत्य है। तब भी था, अब भी है और कल को भी यही सत्य यही रहेगा कि सुख-शांति का संबन्ध भौतिक संसाधनों की उपलब्धता से नहीं है। कुछ हद
तक ही यह संभव हो पाता है, किन्तु अधिकांश समय या मामलों में यह भौतिक संसाधन मात्र सुख ही दे पाता है।
जबकि सुख-शांति मानसिक स्थिति है। इसी कारण सुख-शांति भावनाओं से अधिक करीबी से जुड़ा है। यह वास्तव में भावनाओं से संबंधित स्थिति है। आप खूब ऐश्वर्य, वैभव प्राप्त कर लिए हैं, बड़े-बड़े
भवनों में रह रहे हैं, दुनिया की हर सुविधा उपलब्ध है लेकिन तब भी यह निश्चित नहीं है कि आपको सुख शांति मिल ही जाए। इसकी वजह है व्यक्ति चाहे जितनी ऊंचाई प्राप्त कर ले, उसे सुख के लिए हर हाल में प्रेम ही चाहिए। रिश्तों में मिठास भरने वाला हो प्रेम, अन्यथा सुख-शांति नहीं मिल सकता।
कल्पना करिए स्वयं में, यदि जन्म देने वाली मां, पालनकर्ता पिता, जिसके साथ खेले-पले-बढ़े उन भाई-बहनों से, मित्र-सखाओं से, गुरु से, पत्नी से आपको प्रेम न मिले तो फिर सुख है क्या? खूब आपके पास धन-वैभव-ऐश्वर्य है, बड़े महल हैं, हर भौतिक सुख-सुविधा-संसाधन उपलब्ध है, क्या सुख मिलेगा जब रिश्तों का प्रेम न मिले? हां, प्रेम। प्रेम ही जीवन है। चाहे किसी का हो।

प्रेम, जो जीवन को नीरस बनने से रोकता है, दुखी होने से बचाता है, निराश होने से रोकता है। थकने से रोकता है। ऊर्जान्वित करता है प्रेम। प्रेम मानसिक थकान को दूर करता है। घर को स्वर्ग बनाता है प्रेम, संसाधन नहीं। रिश्तों में मिठास न हो तो क्या विश्राम के लिए आवश्यक रात्रि और क्या श्रम के लिए आवश्यक दिन। सब बेकार।
न विश्राम में शांति और सुख की प्राप्ति होगी, और न ही श्रम के लिए एकाग्रता, शक्ति और उत्साह मिलेगा। ऐसे फिर कैसे आप कोई काम कर सकते हैं। न काम करने में शांति या सुख, न काम का सुख प्राप्त होगा। इसलिए कि रिश्तों में यदि प्रेम नहीं मिल रहा तो व्यक्ति किसी काम का नहीं रह जाता है। 

Tuesday 14 April 2020

ओबरा के पूर्व विधायक बीरेंद्र प्रसाद सिंह को विनम्र शब्द-श्रद्धांजलि


जमींदार होकर भी सादगी के प्रतिमूर्ति बने रहे बीरेंद्र प्रसाद सिंह
(उनकी राजनीतिक यात्रा, स्वभाव, विचार और....)
०उपेंद्र कश्यप०
जमींदार होते हुए, सामन्ती ठाठ से दूर, सादगी, इमानदारी के प्रतिमूर्ति रहे पूर्व विधायक बीरेंद्र प्रसाद सिंह नहीं रहे। उन्होंने खुद को काजल की कोठरी में रहते हुए बेदाग़ रखा, राजनीतिक तिकड़बमबाजी से दूर रहे। मैं 1994, यानी उनके राजनीतिक अवसान के शुरू होने के बाद  पत्रकारिता में आया। कई बार उनसे मुलाकात भी राजनीतिक कार्यक्रम के दौरान है। किन्तु बिना बताये कोइ उनको पूर्व विधायक नहीं समझ सकता था, ऐसी कोइ ठसक उनमें नहीं दिखी कभी। वे हमेशा समाज और राजनीति को लेकर ही विमर्श करते, कभी व्यक्तिगत हित की बात नहीं करते थे। वे 1980 में ओबरा विधान सभा क्षेत्र से बतौर भाजपा नेता विधायक बने। अब तक बीते 40 साल में वे अकेले ऐसे नेता रहे, जो कमल खिला सके थे। 06 अप्रैल 1980 को भाजपा का गठन हुआ था, और तब हो रहे चुनाव में वे ओबरा से जीते। जब कमल को जनता में स्थापित करना था कि-कमल मतलब भाजपा। यह काम उन्होंने बखूबी किया। इसके बाद वे राजनीति में सफल नहीं हो सके और फिर भाजपा कभी सफल नहीं हो सकी-ओबरा में। अब तो उसके हाथ से यह सीट भी चली गयी है-करीब दो दशक से। उनकी जीत कोइ तीर-तुक्का नहीं था। समाजवादियों के गढ़ में वामपंथ के लिए तो स्पेस होता है, किन्तु सीधे दक्षिणपंथ की जीत बहुत कुछ बता जाती है। यहाँ यह महत्वपूर्ण तथ्य भी देखें कि, तब राम मंदिर जैसा आन्दोलन दूर की कौड़ी था। यह आन्दोलन 1990 के बाद शुरू हुआ था। इसके बाद भाजपा इस ओबरा में कमजोर होती गयी। समाजवादियों की धरती, यह इसलिए कि 1951 के प्रथम चुनाव से लेकर लगातार समाजवादी नेता ही दाउदनगर अनुमंडल से जीतते रहे। एकाधिक अवसर पर कांग्रेसी। इनके अलावे वामपंथी-गोह से पांच बार और ओबरा से दो बार जीते। किन्तु अनुमंडल में भाजपा कहीं नहीं दिखी। पिछले चुनाव में वर्ष 2015 में गोह से भाजपा को जीत मनोज शर्मा ने दिलाया।
बीरेंद्र प्रसाद सिंह सबसे पहले 1972 में  दाऊदनगर विधान सभा क्षेत्र से (तब हसपुरा प्रखंड साथ था) जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़ कर हार गए थे। जबकि उनका पैत्रिक घर कोइलवां हसपुरा प्रखंड में है। इसके बाद परिसीमन हुआ तो ओबरा (साथ में दाउदनगर प्रखंड) और गोह (साथ में हसपुरा प्रखंड) नया क्षेत्र बना। 1977 में ओबरा विधानसभा क्षेत्र से लोकदल कोटा से तत्कालीन विधायक रामविलास सिंह (अब स्वर्गीय) को जनता पार्टी से टिकट मिला, जीते भी। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि राम बिलास सिंह समाजवादी से सीधे दक्षिणपंथी विचारधारा के साथ हो गए, क्योंकि टिकट का सवाल था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लागू आपातकाल (1975-1976) के बाद दक्षिणपंथी जनसंघ सहित भारत के प्रमुख राजनैतिक दलों का विलय कर के एक नए दल जनता पार्टी का गठन किया गया था। जनता पार्टी ने 1977 से 1980 तक भारत सरकार का नेतृत्व किया है। सरकार में रहते हुए आंतरिक मतभेदों के कारण जनता पार्टी 1980 में टूट गयी। भाजपा बनी, और इसी पार्टी ने 1980 के विधान सभा चुनाव में बीरेंद्र बाबू को टिकट दिया और वे तब निवर्तमान विधायक रामविलास सिंह को पराजित कर विधायक बने। उसके बाद के दो चुनाव 1985 और 1990 में वे रामविलास सिंह से ही पराजित हुए। बदले हालात में उन्होंने स्वयं को सिमटा लिया, संभव है राजनीतिक दुराचारों वाली परिस्थिति में वे स्वयं को ढाल न सके हों।

एक संक्षिप्त परिचय:-
नाम-वीरेंद्र प्रसाद सिंह। पिता-केशव प्रसाद सिंह। माता-सुदामा देवी। पितामह-गोपी प्रसाद सिंह। मूल पुरुष-बाबू गौड प्रसाद सिंह। जन्म भूमि-कोइलवां, प्रखंड-थाना-हसपुरा। औरंगाबाद, बिहार।  
पत्नी-शान्ति देवी। ससुर-भागवत बाबू- करपी पुराण, अरवल।
जन्म तिथि-01/02/1938, अध्ययन-जिला स्कूल गया। राजनीति में 1965 में आये।
पूर्वजों का आगमन-फैजाबाद जिला के सिमरहुता गाँव से 1670 ई. में यहाँ आये। इनके पूर्वज बाबू गौड़ प्रसाद सिंह यहाँ आये थे। इनके ही वंशज कोइलवा, कलेन, शेखपुरा, तिलकपुरा के जमींदार थे। दाऊद नगर से गोह तक और जाखिम से मेहंदीया तक जमींदारी का क्षेत्र था। 
मृत्यु तिथि-14/04/2020, दिन-मंगलवार की सुबह 04/15 बजे, स्थान- गया जिला मुख्यालय।
किरानी घाट गया में कोइलवां हाऊस नाम से विख्यात है उनका आवास।

राजनीतिक प्रदर्शन:-
ओबरा विधान सभा क्षेत्र में बीरेंद्र प्रसाद सिंह का चुनावी प्रदर्शन
वर्ष    विस क्षेत्र/संख्या     विजेता/उपविजेता  पार्टी          प्राप्त मत
1980 ओबरा-240   बीरेंद्र प्रसाद सिंह      भाजपा                  38855                                                             राम बिलास सिंह      जेएनपी (जेपी)        33451
1985 ओबरा-240   राम बिलास सिंह      एलकेडी                 28786
                           बीरेंद्र प्रसाद सिंह      भाजपा                  20924
1972  दाउदनगर-240  राम बिलास सिंह, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसओपी) 23935
                                  राम नरेश सिंह                   स्वतंत्र                    14449
(लॉक डाउन के कारण-मेरा पूरा आर्काइव मेरे पास अनुपलब्ध है, इस कारण 1972 का और अन्य डाटा नहीं दे सकता)

स्त्री तो सदियों से लॉक डाउन में ही रही है- सीमोन की पूण्यतिथि पर विशेष



(लॉक डाउन और स्त्री विमर्श)
०उपेंद्र कश्यप०
भला स्त्री कब लॉक डाउन में नहीं रही हैं? सदियों से स्त्री लॉक डाउन में ही रही है। घर की देहरी के अंदर। यही वजह होगी कि वर्ष 1949 में जब दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित पुस्तक सीमोन द बोऊवार ने लिखा तो उसे नाम दिया- 'द सेकेंड सेक्स'। यहां भी औरत दूसरे लिंग के रूप में है, प्रथम नहीं। स्त्री हर जगह घर की दहलीज से निकलने से रोकी गई है। सीमोन की पुण्यतिथि पर "मेरा रंग" में पढ़िये उपेंद्र कश्यप का लेख। लिंक करें क्लिक...



लॉक डाउन है। घरों में करीब 250 करोड़ आबादी बन्द है। स्त्री सन्दर्भ में देखें तो आधी आबादी उसकी है, तो इस लिहाज से करीब 125 करोड़ पुरुष वह पीड़ा पहली बार झेल रहे हैं, जिसे इतनी ही स्त्री आबादी सभ्यता के विकास के साथ से झेल रही है। विकसित या अविकसित या विकासशील देश हों, सब जगह स्त्री की त्रासदी, दुर्दशा प्रायः एक सी रही है। पितृ सत्तात्मक समाज ने उसे सदियों से लॉक डाउन कर रखा है। प्रश्न कर सकते हैं कि भला स्त्री कब लॉक डाउन में नहीं रही हैं? सदियों से स्त्री लॉक डाउन में ही रही है। घर की देहरी के अंदर। हर देश, काल, समाज में स्त्री देहरी के अंदर ही कैद रखी गई। उसे इस लॉक डाउन से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। फर्क पड़ा है उसे लॉक डाउन में रखने वाले पुरुष वर्ग को। वह बेचैन है, क्योंकि उसे बाजार, रंगीनियत, चकाचौंध, भाग दौड़, गप्प लड़ाना पसंद है। आनंद मिलता है उसे। पुरुष समाज को सिर्फ रात्रि-विश्राम भर ही लॉक डाउन पसन्द है। घर में रहना, वह भी स्त्री संपर्क और आनन्द के लिए, आवश्यक समझने के कारण। बच्चे तो तब भी क्षणिक ही सुखदायी समझ में आते हैं। शैक्षिक- आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के कारण अब हुआ यह है कि स्त्री राजनीतिक लाभ के लिए घर की देहरी लांघने लगी है। उसे भी ऐश्वर्य भोगने, सत्ता-सुख पाने के साथ स्वतंत्रता चाहिए, किन्तु अधिकतर मामले ऐसे ही हैं कि कानूनी-राजनीतिक विवशताओं के कारण वर्चस्वशाली पुरुष जमात स्त्री को आगे करता है। यहां भी औरत स्वतंत्र स्त्री नहीं बस माध्यम या साध्य भर होती है। आज भी अधिकतर समाजों, परिवारों में स्त्री को दोयम दर्जा प्राप्त है। शायद यही वजह रही है कि वर्ष 1949 में जब दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित व विस्तृत पुस्तक सीमोन द बोऊवार ने लिखा तो उसे नाम दिया-द सेकेंड सेक्स। यहां भी औरत दूसरे लिंग के रूप में है, प्रथम नहीं, जबकि स्त्री ही प्रजनन की शक्ति रखती है, जिसके बिना वंश या सृष्टि की कल्पना नहीं की जा सकती है। स्त्री हर जगह घर की दहलीज से निकलने से रोकी गई है, रोकी जाती है, अब भी। बिहार का उदाहरण लें तो स्कूली छात्राओं को जब यहां की नीतीश सरकार ने साइकिल दिया तो किशोरियों के प्रति घृणित पारंपरिक नजरिया बदला। इसके पीछे वजह यह थी कि लोभवश सबने साइकिल अपनी बेटियों के लिए लिया तो फिर साइकिल चलाती दूसरी किसी किशोरी को कोई कैसे गलियाये। कैसे उस पर फबती कसे, जबकि खुद उसके घर किशोरी साइकिल चलाने लगी। इसने देहरी से बाहर किशोरियों को निकाला। बिहार के संदर्भ में नारी सशक्तीकरण की इससे बड़ी योजना दूसरी नहीं थी। यह क्रांतिकारी बदलाव का आगाज था। और फिर त्रिस्तरीय पंचायत और निकाय चुनाव में आधी आबादी को आधा आरक्षण के सिद्धांत लागू होने से स्त्री घर की देहरी से बाहर निकली। यह सब पिछले दशक-डेढ़ दशक की घटना है। अन्यथा इसके पहले तो बस लॉक डाउन ही रहता था हर स्त्री के लिए। एक स्त्री सुबह (ब्रह्म मुहूर्त) में जगने के साथ कई हिस्सों में बंटनी शुरू होती है, और खटने का उसका सिलसिला शुरू होता है। दिन भर काम करने के साथ, सबको, हां सबको, सास-ससुर, पति, पुत्र, पुत्री समेत घर में उपलब्ध सभी बड़े-छोटे रक्तसंबंधियों को खुश रखने के साथ घर आने वाले अतिथियों का स्वागत की जिम्मेदारी भी उसी के जिम्मे है। इसके बावजूद उसे दिन भर असंतोष के कटु स्वर सुनने को मिलते हैं।
सदियों से औरत लॉक डाउन में क्यों है? आखिर जड़ कहां है? यह जड़ मानव सभ्यता के संस्कारों, धार्मिक-पारंपरिक मान्यताओं और सिद्धांतों में छुपा है। पहले मातृसत्तात्मक समाज था, जब स्त्री के ही नाम से वंश का नाम होता था, संपत्ति पर उसका अधिकार होता था। जब स्थिति बदली और पितृसत्तात्मक समाज हुआ तो, स्त्री की स्वतंत्रता क्षीण होती चली गयी। 
पुरुष की मानसिकता बर्चस्व वाली रही है। पितृसत्तात्मक समाज का नेतृत्व उसके हाथ में है, इसलिए उसने अपनी सुविधा के लिए स्त्री को लॉक डाउन में ही रखना श्रेयस्कर समझा / बताया है। भू-राजनैतिक स्थिति जो है, उसमें पश्चिम जगत को बहुत ही उदार मानसिकता, स्वतंत्र विचार वाला खुला समाज माना/ समझा/ बताया जाता है। लेकिन स्त्री उस समाज में भी लॉक डाउन में ही रही है।
112 वर्ष पूर्व 09 जनवरी 1908 को पेरिस के एक कैथोलिक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी सीमोन द बोउवार ने अपनी चर्चित पुस्तक "द सेकेंड सेक्स" में लिखा है-'स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि उसे बना दिया जाता है'। स्त्री के पूर्व और वर्तमान स्थिति का यही अंतिम सत्य है। 
मतलब साफ है। अपनी सुविधा के अनुकूल गढ़े माहौल में स्त्री को रखा जा सके, इसलिए स्त्री बना दी जाती है। उसे उसी तरह की शिक्षा-संस्कार-व्यवहार बताया-सीखाया जाता है। यह सदियों से है। पूरब में धार्मिक आख्यान हों या परंपरा, उसमें भी यह साफ दिखता है कि स्त्री घर की देहरी से बाहर न निकले, इसकी पूरी व्यवस्था की गई है। अरस्तू जैसा महान दार्शनिक औरत की परिभाषा इस कदर देता है-'औरत कुछ गुणवत्ताओं के कारण ही औरत बनती है। हमें स्त्री के स्वभाव से यह समझना चाहिए कि प्राकृतिक रूप में उसमें कुछ कमी है। वह एक प्रासंगिक जीव है। वह आदम की एक अतिरिक्त हड्डी से निर्मित है।' अरस्तू ने स्त्री को एक निष्क्रिय पदार्थ माना है और पुरुष को शक्ति, गति और जीवन। वहीं मनु संहिता भी स्त्री को एक निकृष्ट वस्तु माना है। जिसे बंधनों में रखने की बात कही गयी। रोमन कानून औरत को संरक्षण में रखने के लिए कहता है, ताकि उसकी मूढ़ता पर लगाम लगाई जा सके। कुरान शरीफ घोषणा करता है कि -'पुरुष औरत से उन गुणों के कारण श्रेष्ठ है, जो अल्लाह ने उसे उत्कृष्ट रूप से दिए हैं और अपनी श्रेष्ठता के कारण पुरुष औरत के लिए दहेज जुटा पाता है।' जिस गैर भारतीय संस्कृति को हम बहुत भाव देते हैं वहां स्त्री का हाल क्या है? औरतों को शैतान का खाला तक कहा गया है। टर्टयूलियन ने लिखा है-'औरत तुम शैतान का दरवाजा हो। जहां शैतान सीधा आक्रमण करने में हिचकता है, वहां वह औरत का सहारा लेकर पुरुष को मिट्टी में मिला देता है। यह तो औरत की गलती है, जिससे प्रभु के पुत्र को मरना पड़ा। तुम औरतों को हमेशा शोक संतप्त रहना होगा।' एक तो कोसते हैं दूसरे श्राप भी देते हैं, महान लोग। संत एम्ब्रोस तो प्रजनन की प्रक्रिया के लिए स्त्री को पापन बताता है। लिखा है-'आदम को पाप के रास्ते हव्वा ले जाती है, न कि हव्वा को आदम।' हद है स्त्री के प्रति पूर्वाग्रह।

यहां यह महत्वपूर्ण है कि प्रागैतिहासिक यायावर मानव समाज में शारीरिक कमजोरी के बावजूद औरत पुरुष की इतनी अधीनस्थ नहीं थी कि वह एक गुलाम कहलाये। आदिकाल में मातृसत्तात्मक समाज रहा है, यह ध्यान रखें। मातृसत्तात्मक समाज में वंश का नाम मां के नाम से चलता था। सामूहिक संपत्ति का स्वामित्व भी तब औरत के पास था। जिसकी रक्षा वह अपने सन्तानों के माध्यम से करती थी। ऋग्वेद की ऋचा गीतों में स्त्री की जो वंदना है, उसमें ह्रास ब्राह्मण युग के साथ हुआ। वेदकालीन औरत को जो सत्ता मिली थी, कुरान में उसकी स्थिति हीन बना दी गई। एंगेल्स ने कहा भी है कि- 'मातृसत्ता से पितृ सत्तात्मक समाज का अवतरण वास्तव में औरत जाति की सबसे बड़ी ऐतिहासिक हार थी।' अतीत देखें तो तमाम सभ्यताओं में देवी प्रधान रही है। बाद में इसे भी बदला पुरुष में और देव प्रधान होने लगे। मातृत्व की महानता को अपदस्थ किया गया, समय के साथ। यह कोई क्रांति या घटना नहीं थी। पुरुष अपने वैशिष्ट्य गुण के कारण खुद को श्रेष्ठ समझता रहा और साबित करता रहा। इस संघर्ष ने मातृ सत्ता व्यवस्था को अपदस्थ कर पितृ सत्ता में बदला। फ्रेजर ने एक जगह लिखा-'पुरुष देवता बनाता है, औरत उसकी पूजा करती है।' इसके आगे सीमोन लिखती हैं-'यह पुरुष ही था, जो निर्णय लेता था कि ईश्वर का चेहरा पुरुष का होगा या नारी का।'
स्त्री आज भी नहीं बदली। इसलिए कि पुरुष उसे बदलने नहीं देना चाहता। स्त्री को स्त्री बनाये रखने में पुरुष वर्ग अपना गौरव समझता है। इसलिए ही व्याभिचार में इज्जत स्त्री की जाती है, पुरुष की नहीं, भले ही दोष पुरुष का हो, अपराध पुरुष ने किया हो। यह मानसिकता जब तक खत्म नहीं होगी तब तक स्त्री लॉक डाउन में ही रहेगी। कोरोना से पहले और कोरोना संकट के बाद भी स्त्री की स्थिति नहीं बदलने वाली। 


14 अप्रैल 1986 को सीमोन द बोउवार की पुण्यतिथि है। इस आलेख के लगभग संदर्भ उनकी लिखी पुस्तक "द सेकेंड सेक्स" के प्रभा खेतान द्वारा किये गए हिंदी अनुवाद "स्त्री उपेक्षिता" से लिये गए हैं। बोउवार की इस पुस्तक के मुकाबिल दूसरे किसी लेखक की स्त्री केंद्रित पुस्तक कहीं नहीं टिकती।

MeraRanng  मेरा रंग एक वैकल्पिक मीडिया है जो महिलाओं से जुड़े मुद्दों और सोशल टैबू पर चल रही बहस में सक्रिय भागीदारी निभाता है। यह स्रियों के कार्यक्षेत्र, उपलब्धियों, उनके संघर्ष और उनकी अभिव्यक्ति को मंच देता है।

Friday 10 April 2020

कोरोना संकट : फ्री कंट्री है अमेरिका, आदेश नहीं मानते लोग, इस कारण बढ़ी दुर्दशा



कोरोना संक्रमित मरीज का इलाज करने वाले चिकित्सक ने कहा
अमेरिका के साउथ कैरोलिना प्रांत के एंडरसन के चिकित्सक से बातचीत
उपेंद्र कश्यप । डेहरी

अमेरिका संकट में है। चर्चा में है। कोरोना संकट से यहाँ काफी मौतें हो रही हैं। यह सुपर हलकान है। भारत जिन समस्याओं से जूझ रहा है, वैसी ही समस्या वहां है। अमेरिका में वहां के नागरिक बंदिशों को नहीं मानते हैं। यह बहुत ही खुली मानसिकता और स्वतन्त्र प्रवृति का देश है, इस कारण यहाँ कोरोना संक्रमण का विस्तार काफी हुआ। वहां साउथ कैरोलिना प्रांत के एंडरसन में बसे भारतीय अन मेड हेल्थ होस्पीटल में फैकल्टी, और डिवाइन होस्पिक के मेडिकल डायरेक्टर सह प्रशासक डॉक्टर संजीव कुमार ने बताया कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सरकारी आदेशों को मानने प्रति नागरिकों में बहुत उत्साह नहीं होता। वह किसी तरह के बंदिशों से संबंधित आदेश नहीं मानते। सभी राज्य स्वतंत्र हैं। केंद्र और राज्य की सरकारों के बीच संघर्ष चलता है। अमेरिका के न्यू यार्क, मिशीगन में संक्रमण काफी है। वाशिंगटन डीसी और कैलिफोर्निया जैसे इलाके काफी प्रभावित हैं। एंडरसन, साउथ कैरोलिना में संक्रमण का संकट कम है। इसी साउथ कैरोलिना के एंडरसन में मेडिकल सर्विस देने वाले डॉक्टर संजीव कुमार भारतीयों के लिए सलाह देते हैं कि सतर्क रहें और लोगों से संबंधित सरकार के तमाम आदेश और दिशानिर्देश को मानें। उन्होंने इस संवाददाता से बातचीत में कहा कि बाजार से कोई वस्तु खरीद कर प्लास्टिक पॉलिथीन में अगर लाते हैं, तो यह भी कम खतरनाक नहीं है। सामान लाइए लेकिन सतर्क रहिए। उसे सैनिटाइज करिए। 1 दिन कम से कम उसका इस्तेमाल करने से बचते हैं तो बहुत बढ़िया होगा। उन्होंने बताया कि वे खुद कोरोना पॉजिटिव मरीज का इलाज कर चुके हैं, और कर रहे हैं। जब मरीज का इलाज करते हुए तस्वीर की मनाग की तो उन्होंने बताया कि अमेरिका में हिपा लॉ है, इसके तहत किसी भी मरीज का इलाज करते हुए तस्वीर नहीं खींची जा सकती। यह गैर कानूनी है। ऐसा करने पर मेडिकल प्रतिष्ठान का लाइसेंस रद्द किया जा सकता है।

मास्क, सेनेटाईजर, ग्लब्स का अमेरिका में अभाव:-
डॉ.संजीव ने बताया कि भारत में लोग मास्क, सैनिटाइजर, ग्लब्स और अन्य उपकरण के लिए सरकार को दोष दे रहे हैं हकीकत यह है कि विश्व के किसी भी देश में आवश्यक सामग्री की उपलब्धता आवश्यकता के अनुपात में काफी कम है। खुद उनके पास सैनिटाइजर और मास्क की कमी हो गई है। उन्होंने कहा कि अमेरिका में मास्क एन-95 उपलब्ध नहीं है। यह इस महामारी में सबसे कारगर है। उन्होंने बताया कि कोई भी देश या किसी भी देश की सरकार ने ऐसी परिस्थिति की कामना नहीं की थी। पूरे विश्व में मेडिकल इमरजेंसी की स्थिति है। हर देश में आवश्यक सामग्री की उपलब्धता न्यूनतम है।
सतर्क और सावधान रहें:
उन्होंने बताया कि घर से बाहर बिना मास्क लगाए नहीं जाएं। बाहर में जब हैं तो अपने चेहरे पर हाथ न ले जाएं। घर में आने पर अपने हर सामान को सैनिटाइज करें। अपने पर्स, कलम, पहचान कार्ड, गाड़ी की चाबी जैसी तमाम चीजों को सैनिटाइज कर के ही घर में जाएँ।
वृद्ध से नहीं मिल सकते परिजन:-
अमेरिका में नर्सिंग होम का मतलब ओल्ड एज होम से है। वहां रहने वाले वृद्धों से परिवार के किसी भी सदस्य को मिलने की इजाजत अभी नहीं है। अमेरिका में भी लॉक डाउन है और सिनेमा हॉल, रेस्टोरेंट और तमाम गैरजरूरी संस्थान पूर्णत: बंद है। जरूरत की सामग्री मिल रही है। अमेरिका के लिए आने वाला 4 सप्ताह काफी महत्वपूर्ण होने वाला है।

भगाइला कोरोना गमछा लगाईके : मास्क नहीं रहिये गमछा लगाईके

गमछा कितना महत्वपूर्ण है, कभी पिछड़ा होने की पहचान से जुड़ा यह परिधान आज कोरोना के वैश्विक संकट में मास्क की जगह खास अस्त्र बन गया है। इस पर एक पठनीय आलेख:-

गमछा एक पारंपरिक पतली, मोटे सूती का तौलिया है। जो अक्सर भारत, बांग्लादेश और साथ ही दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया के विभिन्न हिस्सों में मिलता है। इसका उपयोग नहाने के बाद या पसीने को पोंछकर शरीर को सुखाने के लिए किया जाता है। यह अक्सर सिर्फ कंधे के एक तरफ रखा जाता है। लेकिन बिहार में इसका इस्तेमाल इतना भर नहीं होता। यह बहुपयोगी परिधान है। बिहारियों के मान-सम्मान-पहचान से जुड़ा हुआ एक वस्त्र, जिसे गमछी भी कहा जाता है। जब किसी का मान-सम्मान बढाना हो तो यह अंग वस्त्र कहलाता है। गत वर्ष गमछा सुर्खियों में नकारात्मक कारणों से आया था। तब कहा गया-"भारत कितना बदल गया है, फटा हुआ जींस पहनकर आप कहीं भी जा सकते हैं, और गमछा लेकर आप कहीं भी नहीं जा सकते।" इसके बाद एक अभियान बिहारियों ने चलाया और गमछा का सम्मान बढ़ता गया।
कहते हैं-सब दिन न होत एक समान। दिशा और दशा सबकी बदलती है। गमछा का भी बदल गया है। बिहारियों की आन-बान-शान से जुड़ा, जीवन के दैनिक गतिविधियों से जुड़े गमछे के अच्छे दिन आ गये। भाग्य ने करवट लिया और उसकी दशा बदल गयी। उसका मान बढ़ गया। 
दरअसल कोरोना का वायरस विश्व की कई परंपराओं, धारणाओं, मान्यताओं और व्यवस्थाओं को बदल देने की स्थिति में है। गमछा भला इससे कैसे बचा रह सकता है। बिना बिहारियों के योगदान का भारत कैसे किसी संकट के वक्त रह सकता है। हम तो हमेशा दिशा देने वाले, और दशा बदल देने वाले रहे हैं। इस बार भी उस गमछा ने प्रतिष्ठा हासिल की, देश-दुनिया को कोरोना से लड़ने का एक अस्त्र दिया, जिसे अभी कुछ माह पहले ही हिकारत की नजर से देखा/बताया जा रहा था। ध्यान रहे बीते कई महीने से विश्व समुदाय मास्क के अभाव से परेशान है। ऐसे में इसे कोरोना से बचाव का अस्त्र बनाना/बताना गमछा वर्ग का मान बढ़ाता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 10 अप्रैल को अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी के भाजपा नेताओं से बात करते हुए कहा कि मास्क नहीं गमछा बांधिए। पीएम मोदी ने वाराणसी जिला अध्यक्ष से कहा कि ज्यादा खर्च करने की जरूरत नहीं है। आप लोग अपने गमछा से ही मुंह बांधकर निकलिए। इस दौरान पीएम ने कहा कि मास्क पहनना ही जरूरी नहीं है। बिना वजह खर्च के चक्कर में न पड़ें। पीएम की सलाह पर जिला अध्यक्ष ने वाराणसी में लोगों के बीच गमछा भी बांटने की योजना बनाई है।
अब समझिए! गमछा कितना महत्वपूर्ण वस्त्र है, जो आज एक ऐसे अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, जिससे एक अज्ञात शत्रु कोरोना वायरस से बचने में कारगर माना जा रहा है। इसकी इस ताकत को अब पहचाना गया, जबकि बिहारी सदियों से इसका इस्तेमाल करते हैं। धूल-धूप, ठंड से बचने के लिए, लू-लहर, बूंदा-बांदी से बचने के लिए इसका इस्तेमाल हम करते रहे हैं। कपड़ा बदलने के वक्त, सर्दी, खांसी, बुखार के वक्त, कभी नाक-मुंह ढंकने के लिए तो कभी पट्टी बना लेने के लिए इस्तेमाल। कभी गमछा बिछा कर ट्रेन-बस स्टैंड-पार्क-खुले स्थान में सो लेने के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं तो कभी यात्रा में खाद्य सामग्री ले चलने के लिए, सत्तू-आटा तक हम तो गमछा में सान लेते हैं, बर्तन न होने की स्थिति में। प्रेमाभिव्यक्ति के लिए कभी गमछा बिछा लेते हैं, तो नफरत होने पर किसी को टांग लेने के लिए भी इस्तेमाल कर लेते हैं। कभी उसे रस्सी बना लेते हैं तो कभी तरल को छानने के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं। गमछा पुराण बहुत बड़ा है। गमछा आज सबकी जरूरत बन गया है। जीवन बचाने के लिए। मास्क की जगह अब गमछा अस्त्र से लोग स्वयं को बचा रहे हैं। गमछा अंग वस्त्र तो पहले से था अब अस्त्र भी बन गया है।
स्वयं प्राधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गमछा को जो सम्मान बख्शा है, उससे गमछा का महत्व अब बिहार से आगे राष्ट्रीय हो गया है। क्या कल को यह वैश्विक अस्त्र भी बनेगा-कोरोना से बचाव के लिए मास्क के बदले? प्रतीक्षा करिये। अब तय है कि अब गमछा लेकर आप कहीं जा सकते हैं, कोई रोकने का साहस कतई नहीं करेगा।
जय गमछा, जय बिहारी।

उपेंद्र कश्यप
10.04.2020

Wednesday 1 April 2020

कोरोना का साइड इफेक्ट : आत्महत्या हमेशा कायरता है

पुरुषार्थ है संकट से निकलना
संकट आया है तो तय है टलेगा
  1. अपनों का जीवन मुश्किल में
  2.  डालना समाधान नहीं
  3. सरकारी सेवकों को छोड़ 
  4. प्राय: सभी को आर्थिक समस्या

पढ़िए एक विचारोत्तेजक आलेख:- 
० उपेंद्र कश्यप ०
सोशल मीडिया पर लाचार, कमजोर लोगों द्वारा आत्म हत्या किए जाने की सूचनाएं खूब पोस्ट हो रही हैं। इसे कोरोना संकट से उबरने के उपाय के लिए लागू लॉक डाउन का साइड इफेक्ट बताया जा रहा है। इसने विचलित कर दिया। कुछ प्रश्न मन को व्यथित कर रहे हैं। क्या आत्महत्या करने वालों से सहानुभूति होनी चाहिए? आत्महत्या करने वाला चाहे कलक्टर हो या क्लर्क, मजदूर, उसे मैं व्यक्तिगत तौर पर कायर ही मानता हूँ। यूरोपीय देश में पत्रकारिता करने वाले एक सीनियर पत्रकार के पोस्ट पर इस मुद्दे पर चर्चा भी हुई। इसके बाद यह लंबा लिखने को प्रेरित हो गया, अब यह कितना अकिसी को पसंद आयेगा, समर्थन मिलेगा या विरोध इसकी चिंता नहीं है।
नौकरी छूट जाने के डर से, छूट जाने से, आय शून्य हो जाने से आत्म हत्या। यह उचित नहीं है। निश्चित रूप से कायर ही ऐसा कर सकता है। पैरवी पर, जातीय आधार पर, संयोगवश काम मिल जाने वाले ऐसा कर सकते हैं, क्योंकि ऐसे लोग न कर्मठ होते हैं, न ही आत्मविश्वासी, न आत्म स्वाभिमानी। ऐसे लोग कायर होते हैं। हां, थोड़ी सहानुभूति उनसे मेरी रहती है जो जाहिल हैं। पढ़े लिखे, अच्छे पगार वाली नौकरी करने वाले, अच्छा आय वाला रोजगार करने वाले यदि आत्महत्या करते हैं, तो यह सिर्फ कायरता है, और कुछ नहीं।
        
जरा सोचिए, एक परिवार का जिम्मेदार, कमाऊ व्यक्ति आत्म हत्या कर ले तो उस परिवार के बाकी सदस्य का जीवन तो जीते हुए भी नरक में धकेल गया अगला। परिवार के सदस्यों को कितना मुश्किल होगा, होता है। खास कर स्त्री सदस्य, बच्चे और वृद्ध को। भोगवादी और आर्थिक युग में वैधब्य, यतीम होना सबसे बड़ा संकट है। यह कुछ दिन भोजन न मिलने, बढ़िया कपड़ा, खाना न मिलने से अधिक बड़ी समस्या है। 
यह भी विचार करिये, जो और जैसा जी रहा होता है आदमी, उसमें कटौती आर्थिक संकट से हो जाती है। ऐसे में निराश हो कर आत्म हत्या का रास्ता अख्तियार करना, कतई उचित नहीं है।
आज वैश्विक महामारी कोरोना से कौन प्रभावित नहीं है? सिर्फ सरकारी सेवक, जिनके पगार पर कोई फर्क नहीं पड़ना है, और प्राइवेट सेक्टर में कुछ बड़ी कंपनियों के स्टाफ, जिनको पगार मिलेगा, उसके अलावा शब्जी, किराना, दूध और दवा बेचने वालों के अलावा जितने भी लोग हैं, जो कमाते खाते हैं, सबको इस दौर में नुकसान हो रहा है, और अभी अनिश्चित काल तक हानी होगी। किसी को करोड़ों, किसी को लाखों, किसी को हजारों, किसी को सैकड़ों रुपये की क्षति। बहुतों का रोजगार जाएगा, रोजगार रहेगा कि नहीं, यह अनिश्चित है, व्यवसाय अनिश्चित है तो घाटा होना तय है। ऐसी बड़ी आबादी क्या करे? कुछ भी करके, खर्च कम करके, दूसरे विकल्प ढूंढ कर जिया जा सकता है। लोग जी रहे हैं। का कही लोग, के फेर में मत पड़िये। कोई आपका हमवार नहीं हो सकता, कोई आपकी पीड़ा नहीं कम कर सकता, कोई आपकी मदद नहीं कर सकता, रास्ता खुद तलाशना है। संकट और अभाव का यह दौर भी खत्म होगा। इसलिए, कभी भी आत्महत्या की न सोचें। पुरुसार्थ इसी में है कि संकट में खुद को कैसे बचाये रखा जाए और इससे कैसे उबरा जाए। कायरों की कोई मदद नहीं करता। यह ध्यान रखिये, ईश्चर भी नहीं, यदि आप मानते हैं तो।
आत्म हत्या करना समाधान नहीं समस्या पैदा करना है। उनके लिए जिनको आप सबसे अधिक चाहते हैं, जिनके लिए जीते हैं, जिनके लिए श्रम किये थे, उन सबको आत्महत्या करना मुसीबत में डालना है। वह मनुष्य कदाचित नहीं जो संकट में पलायन कर जाए। संकट से जूझना, उससे बाहर निकल कर फिर से नयी दुनिया बसाना, आशा रखना ही पुरुषार्थ है।