Thursday 18 December 2014

शांति के लिए शहर ने गढी हैं त्याग की कई कई मिसालें

हालात संभालते देर नहीं लगती यहां
शांति और सौहार्द की मिशाल है शहर
उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) सतरहवीं सदी के इस शहर ने कौमी एकता, शांति और सौहार्द के लिए, आपसी भाइचारे और गंगा जमुनी तहजीब की खातिर कई कई मिसालें गत तीन सौ सालों में गढी हैं। यहां का समाज जितना सहनशील और उदार रहा है उसका दूसरा उदाहरण शायद ही कहीं मिलेगा। ‘काले-मंगलवार’ को जितना अमंगल कार्य किया गया, उतना किसी दूसरे शहर में हुआ होता तो न जाने क्या क्या और कितना खो जाना पडता- समाज को। गंगा जमुनी संस्कृति को कितना नुकसान पहुंचता कहना मुश्किल है। मगर दाउदनगर की मिट्टी में कुछ खास है जो स्थिति को संभलते देर नहीं लगती। शरारती तत्वों या असामाजिक तत्वों ने कई बार माहौल बिगाडने का प्रयास विगत में किया है मगर मामला भी आसानी से सुलझा लिया गया है। ‘दैनिक जागरण’ ने शांति के ऐसे ही ज्ञात प्रयासों के सकारात्मक पहलुओं घटनाओं को आपके सामने लाने का एक छोटा प्रयास किया है।

शांति के लिए जब कर दिया कब्र भी दफन
अमीन के पद से सेवानिवृत मो.फहीमुद्दीन बताते हैं कि करीब दस साल पूर्व मियां मुहल्ला कब्रिस्तान की घेराबन्दी के वक्त यहां तनाव उपजा था। बीच कब्रिस्तान से आम रास्ता तब रहा था क्योंकि घेराबंदी नहीं थी। इसी को लेकर बवाल हुआ कि आम रास्ता छोडकर घेराबंदी की जाए। तब तय हुआ कि अस्ताना की तरफ छ: फीट रास्ता छोडकर घेराबंदी की गई। फिर एक समस्या आ पडी। चाहरदीवारी के बीच एक कब्र आ गया। वह भी सैयद अहमद खान बहादूर का जो नगर पंचायत के दूसरे अध्यक्ष रहे थे। उन्हें अंग्रेजों ने खान बहादूर का खिताब दिया था। बताया कि जब सोन में हुल्लड आया था तो उन्होंने शहर को बचाने के लिए अपने लोगों के साथ इमामबाडा के पास जा कर बांध बनाया और शहर को बचाया। तब यह खिताब दिया। इनके वंशजों से सहमति ले कर कब्र को दफन कर दिया गया। उसी के एक हिस्से पर चाहरदीवारी का निर्माण कर दिया गया और दूसरा हिस्सा रास्ता में समा गया।
दूसरी घटना बताया कि पचकठवा देवी स्थान और कब्रीस्तान के बीच संभवत: 2009 में विवाद उत्पन्न हुआ। कनीज फातमा के नाम 32 डीस्मिल जमीन थी। इसी के एक हिस्से में देवी मन्दिर का निर्माण हुआ था। अन्य हिस्से में अगजा जलाया जाने लगा। शांति के लिए जमीन को बांट दिया गया। मामला शांत हो गया।
रंग से उपजे तनाव पर उडेला पानी
 55 वर्षीय मुख्य पार्षद परमानंद प्रसाद ने बताया कि 90 के दशक में होली के वक्त रंग पडाने को लेकर शहर में तनाव पैदा हुआ। उसी दिन जुमा भी था। मछली बाजार की छत पर दोनों समुदाय के लोग जुटे। डा.शमशुल हक, परमानंद प्रसाद, मिनहाज नकीब, खुर्शीद खान, खुर्शीद गुलजार हाफिज खुर्शीद, सिद्धेश्वर प्रसाद, जगन्नाथ कांस्यकार, पूर्व चेयरमैन यमुना प्रसाद स्वर्णकार बैठे। कहा गया कि दंगाइयों या अपराधियों की कोई जात नहीं होती। जब रंग से परहेज है तो सडक पर मत निकलिए और यह भी कि जिनको परहेज है उनको रंग न लगाया जाए। अंत में हरा रंग का अबीर सबने एक दूसरे को लगाया और मामला समाप्त हो गया।

घर बचाने को तोडी गई मस्जिद की दिवार


 63 वर्षीय मिनहाज नकीब ने बताया कि चुडी बाजार स्थित मस्जिद की दीवार छेनी से काटी गई थी जब भुवन प्रसाद की दुकान बरसात मॆं चुने लगी। बताया कि जब मिट्टी की मस्जिद थी तो दुकान की लकडी उस पर थी। जब पका का बना तो लकडी हटा दी गई। लेकिन अगले बरसात में दुकान चुने लगा। तब उन्हें मिस्त्री ने बताया कि मस्जिद की दीवार में अगर एक से डेढ इंच छेद कर दी जाए तो समाधान हो जाएगा। चूंकि उन्होंने अपनी लकडी हटाया था तो गुड फेथ में काटने लगे नतीजा बवाल मच गया। वे नकीब के पिता सैयद मोहीउद्दीन के पास गए। उन्होंने लोगों को समझाया कि कानूनी तरीके से आप लकडी नहीं हटवा सकते थे, तब भुवन जी ने मदद की थी, अब उनको जरुरत है तो मदद मिलनी चाहिए। मन्दिर मस्जिद किसी का घर ढाहने के लिए नहीं होता। मामला सुलझ गया। करीब साठ साल पूर्व इस मामले में तब के कई लोग सक्रिय भुमिका में रहे।
तीन सौ साल की मोहब्बत को लग गई नजर

जो खोया है शहर ने नहीं होगी वापसी उसकी
हालात बिगाडने के कसूरवार को खोजिए
दोनों पक्ष वाले आग बुझाते दिखे
उपेन्द्र कश्यप
 सतरहवीं सदी के शहर के हालात किसने बिगाडे? कौन है कसूरवार? क्या जानबुझ कर तोडी गई प्रतिमा या बस यूं ही किसी शरारती तत्वों ने उसे तोड दिया? यह सोचे बगैर कि शहर की आबो हवा बिगड सकती है। कुछ लोग हैं जो कह रहे हैं कि शहर में ऐसे हालात तो तब भी नहीं थे जब बाबरी मस्जिद और राम मन्दिर आन्दोलन के समय स्थिति बिगडने के तमाम मौके उपलब्ध थे। तो फिर किसकी नजर लग गई शहर को? दोनों संप्रदाय के लोग आग बुझाते भी खूब दिखे। पुलिस सवालों का जबाब ढुंढेगी, जबाब मिल भी सकता है और नहीं भी। कसूरवार खोजने दीजिए सरकारी नुमाइन्दों को। लेकिन जरा सोचिए जो हुआ उससे क्या मिला? किसको मिला? मुझे नहीं दिखता कि कुछ किसी को मिला हो। लेकिन जो खो गया वह दिखता है। साफ साफ दिखता है। हमने मुहब्बत के पैगाम खो दिए जो तीन सदी से पूर्वजों ने साझा तौर पर तैयार किया था। सन 1660 से 1670 के बीच दाउद खां के बसाये इस शहर की आबो हवा में जो जहर ‘काले मंगलवार’ को घुला, उसे खत्म करने में अब दशकों लग जायेंगे। सांप्रदायिक उत्तेजना ने हमें इंसान से जानवर बना दिया और हम सिर्फ मुर्तियों और ताजिये को लेकर आपस में इतना उलझते चले गए कि प्रेम की जगह रिश्तों की उलझनें शेष बची रह गईं। सुबह करीब छ: बजे यह खबर फैली कि भुवन प्रसाद की दुकान के पास की हनुमान की प्रतिमा तोड दी गई है। प्रतिमा में चान्दी के आंख लगे थे जो गायब हो गए। भीड बढती गई। बिना वर्दी के थानाध्यक्ष पहुंच गए और फिर डीएसपी भी बिना वर्दी। तत्परता तो दिखी मगर पुलिस का रौब नहीं दिखा। कोई किसी की सुनने को तैयार नहीं। फिर खबर आयी कि बाजार के जिमुतवाहन भगवान का चौक भी तोडा गया है। इसके बाद तो जैसे आग फैल गई। अफवाह भी फैलाने की कोशिश होती रही। लोग जुटते गए और बलवा मचता रहा। पुलिस के सामने ही सब कुकर्म होता रहा और वह मूकदर्शक बनी रही। एसपी उपेन्द्र शर्मा ने कहा भी कि जब पढने के साधन नहीं थे, स्कूल कालेज नहीं थे, थानेदार बाइक से चलता था तब इतना उपद्रव नहीं होता था। आगे भी कुछ कहा, उसे छोडिये। लेकिन सोचिए कि क्या हम अब इंसान रह गए हैं क्या? क्या हमारी इंसानियत कटघरे में नहीं है? हम पढ लिख कर किस दिशा में जा रहे हैं? सोचिए और दंगे फसाद से दूर रहिए। इससे न किसी को कभी कुछ मिला है न मिलेगा।


Monday 3 November 2014

कांस्यकार समाज भी रखता था ताजिया


कांस्यकार समाज भी रखता था ताजिया

बाबा जी के ताजिये में ‘बाबा’ नहीं
उपेन्द्र कश्यप, संवाद सहयोगी, दाउदनगर (औरंगाबाद) सतरहवीं सदी में दाउद खां के बसाए शहर में सांप्रदायिक सौहार्द की कई मिसालें हैं। मोहर्रम में ताजिया रखने की परंपरा यहां अनूठी रही है। हिन्दु धर्मावलंबी कांस्यकार समाज भी कभी ताजिया रखता था। माना जाता है कि मुगल काल में जब तुगलक के फरमान से भारत में ताजियागिरी का प्रारंभ हुआ तो सरकारी आदेश के जरिए चुनिन्दा संस्थाओं को ताजिया रखने को मजबूर किया गया। इसी सिलसिले में यहां भी तब के हिन्दु समाज ने ताजिया रखना प्रारंभ किया होगा। यह बात मो.कयुम आजाद भी मानते हैं। हुकूमत का आदेश था और कई समृद्ध जातियों के प्रधान रखा करते थे। मिनहाज नकीब ने बताया कि कसेरा टोली का ताजिया शहर में रखे जाने वाले तमाम ताजियों में सबसे बडा, आकर्षक और सुन्दर रहता था। दोनों के अनुसार करीब तीन दशक पूर्व तक कांस्यकार समाज ने पीतल का ताजिया रखा था। अन्य स्थानों पर भी जो ताजिये हिन्दु-मुस्लिम रखते थे वे छोटे छोटे हुआ करते थे। शहर मे6 अभी चार लाइसेंसी ताजिया रखे जाते हैं। तुफानी, मीर साहब, बाबा जी और मनुजान नाम से। बाबा जी अब बस नाम भर रह गया है। इसमें ‘बाबा जी’ यानी ब्राहमण या तब का अग्रणी तबका अब कहीं नहीं है। बता दें कि यहां कई ब्राह्मण परिवार जमींदार रहे हैं। इस पूरे सन्दर्भ में अभी व्यापक शोध की जरुरत हैं। बाबा जी का यह ताजिया हमदर्द दवाखाना मैदान में रखा जाता है। लाइसेंसी मो.फिरोज आलम रंगरेज ने बताया कि मुहर्रम का जुलूस मोहर्रम पांच यानी 30 नवंबर से निकलता है। इसी दिन मिट्टी लाने कर्बला जाते हैं। मोहर्रम दस एवं ग्यारह को मनुजान से मिलकर ताजिया जुलूस निकाला जाता है। बताया कि पहले कांस्यकार समाज द्वारा कसेरा टोली में रखा जाने वाले ताजिए के साथ ही इनका जुलूस निकलता था। फिरोज ने बताया कि जगदीश पुर में अभी भी कांस्यकार समाज ताजिया रखता है। .


Monday 6 October 2014

154 साल पुराना है दाउदनगर की जिउतिया संस्कृति


154 साल पुराना है दाउदनगर की जिउतिया संस्कृति

उपेन्द्र कश्यप, औरंगाबाद ( जिउतिया संस्कृति पर सिर्फ इस संवाददाता ने ही शोध किया है। सबसे पहले जब ‘न्यूज ब्रेक’ ने साल 2000 में इस लोक संस्कृति पर चार पृष्ठ रंगीन सामग्री दिया तब बिहार जाना। कई इलेक्ट्रोनिक मीडिया वाले आये। एएनआई के जरिये विश्व कई देशों में इसका प्रसारण हुआ।)

बिहार के विभाजन के बाद छउ नृत्य झारखंड की प्रतिनिधि संस्कृति बन गई। बिहार अब भी किसी लोक संस्कृति को यह दर्जा नहीं दे सका है। उसे छठ संस्कृति में ही यह क्षमता दिखती है। मगर सिर्फ बहुजनों की इस लोक संस्कृति में वह क्षमता है। एक लोक गीत बताता है कि यह कब से यहां प्रचलन में है। किसी भी लोक संस्कृति का प्रारंभ किन लोगों ने कब किया यह ज्ञात शायद ही होता है। मगर जिउतिया संस्कृति के मामले में ऐसा ही है। “ आश्विन अन्धरिया दूज रहे, संबत 1917 के साल रे जिउतिया। जिउतिया जे रोपे ले हरिचरण, तुलसी, दमडी, जुगुल, रंगलाल रे जिउतिया। अरे धनs भाग रे जिउतिया..।“ स्पष्ट बताता है कि पांच लोगों ने इसका प्रारंभ किया था। कारण प्लेग की महामारी को शांत करने की तत्कालीन समाज की चेष्टा थी। इसमें कामयाबी भी मिली। लेकिन तब एक महीना तक जो जागरण हुआ वह निरंतरता प्राप्त कर संस्कृति बन गई। बाद में यह नौ दिन और अब मात्र तीन दिवसीय संस्कृति में सिमट गया। यह हर साल आश्विन कृष्णपक्ष अष्ठमी को मनाया जाता है। यहां लकडी या पीतल के बने डमरुनूमा ओखली रखा जाता है। हिन्दी पट्टी में इस तरह सामूहिक जुटान पूजा के लिए कहीं नहीं होता। यहां शहर में बने जीमूतवाहन के मात्र चार चौको (जिउतिया चौक) पर ही तमाम व्रति महिलायें पूजा करती हैं। इस संस्कृति में फोकलोट अर्थात लोकयान के सभी चार तत्व यथा लोक साहित्य, लोक कला, लोक विज्ञान और लोक व्यवहार प्रचुरता में उपलब्ध हैं। तीन दिन तक होने वाली प्रस्तुतियों में इसे देखा जा सकता है। इसे बिहार की प्रतिनिधि संस्कृति बनाने के लिए जब नीतिश कुमार मुख्यमंत्री थे तो सरकार को ज्ञापन सौंपा गया था। सरकार बहुजनों की इस लोक संस्कृति के उत्थान के लिए कुछ भी नहीं कर रही है। सिर्फ प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। लोक अपने तंत्र (सरकार) से कुछ नहीं लेती। न सुरक्षा मांगती है न साधन। न तनाव देती है न बवाल। लोग अपने में मस्त रहते हैं, मस्ती करते हैं और दूसरों को इतना मस्त कर देते हैं कि –‘धन भाग रे जिउतिया, तोरा अइले जियरा नेहाल रे जिउतिया, जे अइले मन हुलसइले, नौ दिन कइले बेहाल, रे जिउतिया..” और जब पर्व खत्म होने को होता है तो लोग विरह की वेदना महसूस करते हैं-“ देखे अइली जिउतिया, फटे लागल छतिया, नैना ढरे नदिया समान। जाने तोहे बिन घाय्ल हूं पागल समान....”।                                         


कौन थे भगवान जीमुतवाहन ?
दाउदनगर में जिस जीमूतवाहन की पूज बहुअजन करते हैं वास्तव में वे राजा थे। उनके पिता शालीवाहन हैं और माता शैब्या। सूर्यवंशीय राजा शालीवाहन ने ही शक संवत चलाया था। इसका प्रयोग आज भी ज्योतिष शास्त्री करते हैं। इस्वी सन के प्रथम शताब्दी में 78 वे वर्ष में वे राज सिंहासन पर बैठे थे। वे समुद्र तटीय संयुक्त प्रांत (उडीसा) के राजा थे। उसी समय उनके पुत्र जीमूतवाहन की पत्नी से भगवान जगन्नाथ जी एवं इनके वाहन गरुण से आशीर्वाद स्वरुप जीवित्पुत्रिका की उत्पत्ति हुई। इसी का धारण महिलायें अपने गले में करती हैं।

दो जातियों ने दे रखा है “संजीवनी”
औरंगाबाद (बिहार) के दाउदनगर में जिउतिया लोक संस्कृति को जीवंत बनाये रखने का श्रेय दो जातियों को जाता है। पटवा या तांती और कांस्यकार या कसेरा। हलवाई जाति के रामबाबू परिवार को भी इसका श्रेय देना होगा। साहित्य में जिन पांच नामों को इस संस्कृति की स्थापना का श्रेय दिया जाता है वे सभी कांस्यकार जाति के हैं। लेकिन यह समाज भी यह मानता है कि उनके पूर्वजों ने यह संस्कार पटवा समाज से ही सीखा था। इमली तल उनके कार्यक्रम को देखने के प्रतिफल स्वरुप इसे ‘रोपा’ गया। आज भी इन दो जातियों की ही भागीदारी होती है।



भगवान शंकर के आंसू से जन्मा तांती समाज
कौन और कहां से आया तांती समाज ?
तिरहुत से आया है तांती
तांत से बना है तांती शब्द
उपेन्द्र कश्यप, औरंगाबाद
 कथित तौर पर अपने पूर्वज की जमीन पर दावा करने के कारण प्रतिष्ठित अभिकर्ता बासदेव प्रसाद को जाति निकाला देकर चर्चा में आया तांती या पटवा समाज वस्तुत: यहां तिरहुत से आया था। दाउद खां जब सतरहवीं सदी में दाउदनगर शहर को बसा रहे थे तो तिरहुत से रेशम बुनने में माहिर जाति तांती को यहां बुलाकर बसाया था। तब इनकी संख्या बमुश्किल दस रही होगी। इसी कारण सब एक दूसरे के रिश्तेदार हैं। ऐसा बुजुर्ग कलाकार बेसलाल प्रसाद तांती और रामजी प्रसाद ने बताया। तथ्य है कि यह समाज महर्षि गौतम के तिरहुत से ही जुडा हुआ है। जब दाउदनगर में यह जाति आई तब भागलपुर से रेशम का कोआ मंगाकर यहां लूम चलाये जाते थे। यह जाति बुनकर जाति रही है। दाउदनगर में भी इनका मुख्य पेशा लुम चलाना ही था। गमछी, चादर, कंबल बनाना या रेशम के कपडे बनाना परंपरागत पेशा था। जब बुनकरी का काम खत्म होने को हुआ तो यह समाज दूसरे धन्धे की तलाश में गया। एस.गोपाल और हेतूकर झा की संयुक्त पुष्तक ‘पीपुल आफ इंडियन’ के बिहार अध्याय के सोलहवें पाठ में इस जाति के बारे में कुछ जानकारी दर्ज है। पृष्ठ 914 से 916 के बीच दर्ज जानकारी के अनुसार इस जाति का मुख्य पेशा लुम चलाना है। तांती शब्द की रचना तांत से हुई और यह जाति भगवान शंकर के आंसू से उत्पन्न हुई है। इस पुष्तक के अनुसार इस जाति में अंध विश्वास है। जीव जंतु, पौधे के प्रति विश्वास रखता है। अंतरजातीय विवाह का चलन है। आज भी ऐसा करने पर बवाल नहीं होता। शंभु कुमार कहते हैं कि इसी शहर में कई उदाहाण मिल जायेंगे। पुष्तक बताता है कि आधुनिक शिक्षा के अभाव के बावजूद भी यह समाज सफल है। विकिपिडिया के अनुसार उत्तर प्रदेश के तंतवा जाति के समकक्ष है तांती, जो देवरिया, गोरखपुर, भोजपुर क्षेत्र, छपरा, सिवान और आरा क्षेत्र में है। शनिवार को समाज की बैठक दूर्गा क्लब में हुई जहां दो संवाददाताओं की छपी खबर पर आपत्ति दर्ज कराई गई। एक ने तीसरे की सक्रियता के प्रभाव में आने की बात कही तो दूसरे ने कही सुनी बात पर लिखने की बात कहा। समाज को प्रकाशित कई तथाकथित तथ्यों पर आपत्ति है। यह जाति ही जितिया संस्कृति का जन्मदाता है। यानी कम से कम संवत 1917 से पूर्व यहां आई है न कि 100 सवा सौ साल पूर्व। शंभु कुमार का कहना है कि पटवा बनाम तांती का उलझन अस्पस्ट है इस कारण इस नाम पर समाज को आरोपित करना गलत है।


बहुजन परंपरा दाऊदनगर : स्‍वांग का शहर


  

आशीष कुमार अंशु के साथ संजीव चन्दन                 
बिहार के गया और औरंगाबाद के बीच औरंगाबाद के एक अनुमंडल, दाउदनगर, में मुख्यतः पिछड़ी जाति ‘कसारे’ और ‘पटवा’ की अधिकतम आबादी है। यहाँ कभी घर –घर में कांसे के बर्तन बनाने के लघु उद्योग थे, जो अब नष्ट हो गए हैं। लेकिन यह शहर आज भी अपनी एक सांस्कृतिक पहचान के साथ अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है - पिछड़ी जातियों के बाहुल्य के कारण इसे पिछड़ी जातियों के सांस्कृतिक उन्मेष का शहर कहा जा सकता है।                                          
दाउदनगर उन बहुजन कलाकारों का शहर है। दरअसल, यह पूरा शहर आश्विन मास की द्वितीया तिथि को  (प्रायः अक्तूबर में ) भांति –भांति के स्वांग रचता है, लावणी और झूमर गीत गाते हुए रात –रात भर झूमता है। इस छोटे से शहर में कलाकारों ने भांति –भांति की कलाएं साधी हैं। पानी पर घंटों सोये रहने की कला या जहरीले बिच्छुओं से डंक मरवाने का करतब। स्वांग रचाते हुए कोई छिन्न मस्तक हो सकता है तो कोई अपने हाथ पाँव को अलग करता हुए दिख सकता है। आश्विन मास की आयोजन की रातों में पूरे शहर में कई लोग अलग –अलग देवी –देवताओं की स्वांग में होते हैं तो कई लोग राजनीतिक व्यंग्य करते हुए अलग –अलग नक़ल –अवतारों में। कई लोग घंटों स्थिर मुद्रा में खड़े या बैठे होते हैं, पलक झपकाए बिना, कहीं बुद्ध बने तो कहीं कृष्ण या काली। हमलोगों को भी एक कलाकार, नंदकिशोर चौधरी ने पानी पर आधे घंटे बिना तैरे स्थिर सोकर दिखाया। चौधरी दाउदनगर के उन तीन कलाकारों में से हैं, जिन्होंने पानी पर स्थिर लेटने की इस कला को साधा है। वे कहते हैं कि एक बार उन्होंने एक डूबते बच्चे को बचाने के लिए नहर में छलांग लगाई तो ऐसा लगा कि पानी उन्हें दुलार रहा है। 
स्वांग रचने के उत्सव की शुरुआत का इतिहास वहां के गायकों के गीतों में दर्ज है, जो महाराष्ट्र के लोकगीत लावणी को मगही में गाते हुए अपने झूमर गीतों में वे व्यक्त करते हैं।  उनके गीतों के अनुसार संवत 1917 यानी १८६० इसवी में कभी इस इलाके में महामारी फैली थी। तब महाराष्ट्र से आये कुछ संतों ने दाउद नगर की सीमाओं पर ‘बम्मा देवी’ की स्थापना की और रात –रात भर जागते हुए महीने भर उपासना करवाई।  तब से यह उत्सव जीवित पुत्रिका व्रत ( जीतिया ) के रूम में मनाया जाने लगा। यानी पुत्र की आयु के लिए माताओं का व्रत। प्रसंगवश यह यह भी यह भी जान लेना रोचक होगा कि साहित्‍य अकादमी से पुरस्‍कृत हिंदी कवि ज्ञानेंद्रपति की एक चर्चित कविता ‘जीवित पत्रिका व्रत लिए हुए’ का शीर्षक इसी त्‍योहार के नाम से प्रेरित है। इस कविता में कवि ने उन छपास पीडित कवियों पर व्‍यंग्‍य किया है, जो साहित्यिक पत्रिकाओं को बेचकर संपादकों से अपना नेह-संबंध बनाते हैं।

बहरहाल, ‘बम्मा देवी’ महाराष्ट्र की ‘मुम्बा देवी’ का स्थानीय रूप हो सकती हैं। पेशे से शिक्षक और स्वांग कला में निपुण सत्येन्द्र कहते हैं, ‘संतों ने उपासना के बहाने स्थानीय नागरिकों को महामारी से लड़ने के लिए साफ़ सफाई और अन्य स्वास्थ्य विधियों को अपनाया होगा तथा रात–रात भर जागने के लिए मनोरंजन स्वरुप नक़ल, स्वांग की परंपरा डाली होगी, लावणी गववाया होगा, जिसे परंपरा के रूप में दाउद नगर ने जीवित रखा।’ ब्रिटिश कालीन गजेटियर के अनुसार १८६० के आस –पास  का समय विभिन्न महामारियों का समय है, जिससे लड़ने के लिए ब्रिटिश सरकार स्वास्थ्य सेवाओं की योजनायें बना रही थी, लागू कर रही थी।  

लावणी में सामाजिक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व की गाथाएं गाई जाती हैं, धार्मिक मिथों के अलावा। सोण नदी पर बने नहर का विशद वर्णन एक लावणी में दर्ज है कि कैसे अंग्रेजों ने जनता के पालन के लिए नहर खुदवाया, कि नहर की कितनी गहराई, चौड़ाई है और कैसे नहर के लिए अभियंताओं ने नक़्शे आदि बनवाये। कला को समर्पित इस शहर में सामुदायिक सौहार्द के कई उदहारण हैं। जीवित पुत्रिका व्रत उर्फ जीतिया के दौरान जहाँ शहर के मुसलमान भी स्वांग रचते हैं, झूमते गाते हैं, वहीँ मुसलमानों के त्योहारों में हिन्दू कलाकारों को भागीदारी बढ़–चढ़ कर होती है। जिन दिनों हमलोग दाउद नगर पहुंचे उन दिनों मुहर्रम के ताजिये का निर्माण हिन्दू कलाकार शिव कुमार के निर्देशन में हो रहा था। शहर के ८ से ९ ताजियों के खलीफ़ा शिव कुमार  की प्रशंसा करते हुए उन्हें सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल बताते हैं।
दाउदनगर के वासी इसे वाणभट्ट का भी शहर बताते हैं। कादम्बरी के रचनाकार वाणभट्ट को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘वाणभट्ट की आत्मकथा’ में नाट्य विधा में निपुण बताया है। द्विवेदी जी ने अपनी रचना का श्रेय मिस कैथराइन को दिया है, जो ७५ वर्ष की अवस्था में भी सोन क्षेत्र में घूम कर वाणभट्ट के सन्दर्भ में सामग्री जुटाती रही थीं। उस सामग्री को उन्होंने द्विवेदी जी को दिया था।  ब्राह्मणवादी व्यवस्था नाट्यकर्म को कभी प्रतिष्ठा नहीं देती रही है, लेकिन जनता के बीच लोकप्रियता के कारण उन्हें ‘भरत मुनि’ के नाट्य शास्त्र को पंचम वेड मानाना भी पडा था। 


स्वांग रचाता दाऊदनगर तो कई–कई वाणभट्टों का शहर प्रतीत होता है।  कला यहां के लोगों के लिए आय का साधन नहीं है, अलग-अलग पेशों से जुड़े दाउद नगर वासी कला के संधान में लगे हैं, क्या डाक्टर, क्या इंजीनियर या प्राध्यापक, सब के सब स्वांग रचाने के पर्व में सोल्लास शामिल होते हैं।  नक़ल विधा में निपुण और पेशे से डाक्टर विजय कुमार कहते हैं, ‘केंद्र और राज्य सरकार को यहाँ की कला और कलाकारों को संरक्षण देना चाहिए.’ वे साथ ही जोड़ते हैं कि ‘कलाओं को समर्पित टी वी कार्यक्रमों के लिए दाउद नगर एक अलग से विषय हो सकता है।’
काश, उनकी इस मांग पर सरकार और मुख्‍यधारा के मीडियाकर्मी ध्‍यान देते।

युवा कहानीकार व पत्रकार संजीव चंदन स्‍त्रीकाल पत्रिका के संपादक हैं जबकि मासिक पत्रिका ‘सोपान’ के संवाददाता आशीष कुमार अंशु खोजी पत्रकारिता के लिए जाने जाते हैं।



Wednesday 17 September 2014

जिउतिया को प्रतिनिधि संस्कृति बनाने की जरूरत


जिउतिया को प्रतिनिधि संस्कृति बनाने की जरूरत

जिउतिया को प्रतिनिधि संस्कृति बनाने की जरूरत
संवाद सहयोगी, दाउदनगर (औरंगाबाद) : बिहार के विभाजन के बाद छउ नृत्य झारखंड की प्रतिनिधि संस्कृति बन गई है। अपना प्रदेश अभी इसकी रिक्ति को छठ पूजा की संस्कृति में तलाश रहा है। मगर छठ पूरे प्रदेश में और प्राय हिंदी पट्टी में मनाया जाता है, जबकि जिउतिया लोक उत्सव सिर्फ यहीं है। जिसमें लोकयान के सभी चार तत्व-लोककला, लोक साहित्य, लोक विज्ञान और लोक व्यवहार प्रचुर मात्रा में हैं। यह बहुजनों का उत्सव है शायद इसीलिए सरकारों की दृष्टि इस पर नहीं पड़ती। विवेकानंद ग्रूप आफ स्कूल के निदेशक डा. शभूशरण सिंह कहते हैं कि वर्तमान समाज में बच्चे बुजुर्ग माता पिता की सेवा नहीं करते। भावनाओं का संप्रेषण और विस्तार आवश्यक है। यह पर्व पुत्रों की दीर्घायु की कामना करने वाली माताओं द्वारा किया जाता है। इसलिए यह देश के स्तर पर यह संदेश दे सकता है इसलिए इसको प्रतिनिधि संस्कृति बनाना चाहिए। भगवान प्रसाद शिवनाथ प्रसाद बीएड कालेज के सचिव डा. प्रकाश चंद्रा ने कहा कि राज्य सरकार अगर थोड़ी सी मदद कर दे, निधि उपलब्ध कराए और उसके नुमाइंदे उपस्थित होकर इसका अवलोकन करें तो यह लोक उत्सव राज्य की लोक संस्कृति बन सकती है। नगर पंचायत के मुख्य पार्षद परमानंद प्रसाद ने कहा कि राज्य सरकार में कला संस्कृति मंत्री भी लोक कलाकार हैं। उन्हें आकर देखना चाहिए और इसके संवर्धन के लिए बीस लाख रुपये सालाना देने का प्रावधान करें तो इस संस्कृति को चरमोत्कर्ष दिया जा सकता है। सामाजिक कार्यकर्ता कन्हैया सिंह सिसौदिया, जदयू नेता अभय चंद्रवंशी और भाजपा प्रखंड अध्यक्ष अश्रि्वनी तिवारी ने सरकार से माग की कि तीन दिनों तक सिमट गई इस पौने दो सौ साल से जीवंतता से चली आ रही लोक संस्कृति के उत्थान के लिए वह ठोस कदम उठाए जिला या अनुमंडल प्रशासन के सहयोग के बिना यह संस्कृति अपनी जीवंतता बनाए हुए है। इसके संवर्धन के लिए सिर्फ थोडे़ सहयोग की जरूरत है। अगर दस बीस लाख रुपये जो किसी भी सरकार के लिए एकदम न्यूनतम राशि होती है यहा खर्च किया जाये तो लोक कलाकारों को बड़ा मंच मिल सकता है। विस्तार के साथ गुणवत्तापूर्ण बदलाव लाया जा सकता है।

Tuesday 16 September 2014

“दाउदनगर के जिउतिया सारे नाम हई गे साजन”



 मंगलवार को जिउत्पुत्रिका व्रत है। इसकी पूरी तैयारी कर ली गई है। यहां इसे नौ दिवसीय उत्सव के रुप में मनाया जाता है। इसके लिए शहर में बने सभी चार चौकों को सजाया गया है। वस्तुत: इन चौकों पर भगवान जिमूतवाहन का प्रतिक ओखली रखा जाता है। इसी की पूजा सभी व्रति महिलायें सामूहिक रुप से करती हैं। लोक पर्व जीवन को उल्लासित करते है, आनंदित करते है और संस्कारित भी करते है। इनसे जीवन या समाज की एकरसता दूर होती है और नयी उर्जा का संचार होता है। सामुहिकता की भावना मजबूत होती है तथा सामाजिक संगठन के रूप में हम अपने को अभिव्यक्त करते है। लोक पर्व में विविधता होती है और विशिष्टता भी। लोक-पर्व से किसी देश, किसी प्रांत, किसी क्षेत्र, किसी शहर, किसी गांव का विशेष पहचान बनती है। कार्निवाल-पर्वदुनिया के कई देशों में मनाया जाता है, किंतु जर्मनी के कोलोन शहर का कार्निवाल अपनी विशेष पहचान रखता है और विश्व में प्रसिद्ध है। इसी तरह जिउतिया-पर्व भी भारत के विभिन्न प्रांतों में मनाया जाता है, किंतु दाउदनगर शहर में जिउतिया मनाने का विषिश्ट ढंग है जो काफी मशहुर है। यहां इसे नकल-पर्व के रूप में बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। इसे देखने के लिए झारखंड से और उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर तक से लोग सपरिवार आते है। यही कारण है कि यह अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान रखता है।

हम सभी जानते है कि जिउतिया-पर्व (जीवित-पुत्रिका व्रत) आश्विन मास (सितम्बर-अक्टुबर) में कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है। इसका विशेष वर्णन भविष्य पुराणमें मिलता है। इस पर्व में माता अपने पुत्र के चिरंजिवी होनी की कामना करती है। इसलिए जब कोई पुत्र किसी बड़े संकट से बच जाता है तो लोग कहते है - खैर मनाओ कि तुम्हारी मां जिउतिया की थी, सो तुम बच गए।यह पर्व तीन दिनों का होता है - एक दिन नहाय-खाय यानी सप्तमी (सोमवार) को माताएं स्नान करके खाना खाती है, अष्टमी को उपवास रखकर शाम में पूजा करती हैं और नवमी को सुबह में उपवास तोड़कर पारणकर लेती हैं। इस बार नवमी तिथि बुधवार को है। यहां की खासयित यह है कि यहां इस पर्व का आरम्भ अनन्त पूजाके दूसरे दिन से ही हो जाता है। जिउतिया में जीमूतवाहन भगवान की पूजा की जाती है। पूजा करने के लिए दाउदनगर में चार चैक बने हुए हैं - पुराना शहर चौक, कसेरा टोली चौक, पटवा टोली चौक और बाजार चौक। इन चारों चैकों पर जीमूतवाहन भगवान स्थापित हैं।

बर्तन बनाने का काम करती है कांस्यकार जाति



जिउतिया संस्कृति का संवाहक है समाज
लोक साहित्य इस समाज को देता है श्रेय

 संवत 1917 में जिउतिया संस्कृति से जुडी जाति कांस्यकार का पुश्तैनी धंधा है बर्तन बनाना। शहर में पीतल, कांसा, फुल के बर्तन प्राय: हर कसेरा परिवार में कभी बनता था। सतरहवीं सदी में ही दाउद खां ने इन्हें यहां बसाया था। बमभोला कांस्यकार को पता नहीं कहां से आये। बताते हैं खानदानी हैं, जब से दाउदनगर है तब से यहां कांस्यकार है। मूल की तलाश अभी जारी है। इस जाति के कारण ही यहां का बर्तन उद्योग देश में कभी प्रतिष्ठा पाता था। भारत चीन युद्ध के समय यहां का बर्तन सैनिकों को आपूर्ति की गई थी। यहां बडा मिल हनुमान मंदिर के पीछे हुआ करता था। अब यह धंधा सिमट गया है। चंद घरों तक। लोग दूसरे व्यवसाय से जुडते चले गये। इस समाज का कसेरा टोली में बने जीमूतवाहन भगवान के चौक पर एकाधिकाअर है। यहां मूंह से गर्म लौह पिंड को पकडने, हाथों से दपदपाते लाल जंजीर को दूहने जैसी खतरनाक प्रस्तुति की जाती है। जो अन्यत्र नहीं दिखता। यहां लौंडा नाच अभी भी होता है। उसकी परंपरा बन गई है। शादी और बारात के साथ शव यात्रा भी निकाली जाती है। 

जिउतिया संस्कृति का जन्मदाता है तांती समाज



भगवान शंकर के आंसू से जन्मी है यह जाति
सतरहवीं सदी में दाउद खां ने लाया था यहां
तिरहुत से आया है तांती
तांत से बना है तांती शब्द

उपेन्द्र कश्यप
 यहां के नौ दिवसीय लोकउत्सव जिउतिया का प्रारंभ और उसके लिए समर्पित जाति पटवा या तांती समाज खानाबदोश जाति की तरह भी काम करती है। एक बडी आबादी राज्य से बाहर खानाबदोश की जिंदगी जीती है। काम की तलाश में उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश के इलाकों में बडी आबादी काम करती है। साल में कई बार सभी लोग यहां आवश्यक रुप से आते हैं। बैशाख के महीने में शादी के लिए, सावन में घर की देवी या देवता की पूजाई के लिए और कार्तिक में दीपावली में घर की सफाई-सरंगाई के लिए, तब छठ तक यह मजदूर वर्ग यहां ठहरता है। यह समाज वस्तुत: यहां तिरहुत से आया था। दाउद खां जब सतरहवीं सदी में दाउदनगर शहर को बसा रहे थे तो तिरहुत से रेशम बुनने में माहिर जाति तांती को यहां बुलाकर बसाया था। तब इनकी संख्या बमुश्किल दस रही होगी। इसी कारण सब एक दूसरे के रिश्तेदार हैं। ऐसा बुजुर्ग कलाकार बेसलाल प्रसाद तांती और रामजी प्रसाद ने बताया। तथ्य है कि यह समाज महर्षि गौतम के तिरहुत से ही जुडा हुआ है। जब दाउदनगर में यह जाति आई तब भागलपुर से रेशम का कोआ मंगाकर यहां लूम चलाये जाते थे। यह जाति बुनकर जाति रही है। दाउदनगर में भी इनका मुख्य पेशा लुम चलाना ही था। गमछी, चादर, कंबल बनाना या रेशम के कपडे बनाना परंपरागत पेशा था। जब बुनकरी का काम खत्म होने को हुआ तो यह समाज दूसरे धंधे की तलाश में गया। एस.गोपाल और हेतूकर झा की संयुक्त पुष्तक ‘पीपुल आफ इंडियन’ के बिहार अध्याय के सोलहवें पाठ में इस जाति के बारे में कुछ जानकारी दर्ज है। पृष्ठ 914 से 916 के बीच दर्ज जानकारी के अनुसार इस जाति का मुख्य पेशा लुम चलाना है। तांती शब्द की रचना तांत से हुई और यह जाति भगवान शंकर के आंसू से उत्पन्न हुई है। इस पुष्तक के अनुसार इस जाति में अंध विश्वास है। जीव जंतु, पौधे के प्रति विश्वास रखता है। अंतरजातीय विवाह का चलन है। आज भी ऐसा करने पर बवाल नहीं होता। शंभु कुमार कहते हैं कि इसी शहर में कई उदाहाण मिल जायेंगे। पुष्तक बताता है कि आधुनिक शिक्षा के अभाव के बावजूद भी यह समाज सफल है। विकिपिडिया के अनुसार उत्तर प्रदेश के तंतवा जाति के समकक्ष है तांती, जो देवरिया, गोरखपुर, भोजपुर क्षेत्र, छपरा, सिवान और आरा क्षेत्र में है। जितिया संस्कृति का जन्मदाता है। यानी कम से कम संवत 1917 से पूर्व यहां आई है। 

Monday 15 September 2014

जिउतियाः जैसा हमने देखा-सुजित चौधरी

जिउतियाः जैसा हमने देखा
उत्कर्ष 2012 में मेरे आग्रह पर डा.राय के नाती सुजित चौधरी ने यहा आलेख लिखा था। वे रहते हैं बेंगलुरु में। जिउतिया के अवसर पर इसे साझा कर रहा हूं आपसे।

दाउदनगर में काफी धुम-धाम से मनाया जाता है जिउतिया। जिसमंे सभी लोग धर्मसम्प्रदायजाति और आर्थिक वर्ग से उपर उठकर सम्मिलित होते हैं। जितिया वास्तव में जिमुतवाहन का पर्व है जो उत्तर और पूर्व भारत में मनाया जाता है। दाउदनगर के जितिया का अनोखा पक्ष है की यहां के बच्चे और युवा नक्कल’ बनते हैं। नक्कल मतलब भेश बदलना और पूरे षहर में नक्कल बनकर घूमना। नक्कल बनना उनके लिए अनिवार्य होता है जिनका जन्म जिमुतवाहन के आषीर्वाद से हुआ हो। मगर जितिया में (मैं अपने बचपन यानि कम से कम तीस साल/पहले की बात बोल रहा हूं) षहर के काफी लोग नक्कल  बनते थे और जहां देखिये नक्कल ही नक्कल। आपने गोवा के कार्निवाल के बारे में सुना होगाकुछ वैसा ही। नक्कल की उत्पति में कोई जनजातीय परम्परा नहीं हैक्योंकि दाउदनगर में कोई जन जाति नहीं है। जितिया के समय सामाजिक बंधन ढीले हो जाते हैे औरसामाजिक सांस्कृतिक वर्जनाएं नही रहती। कोई किसी से भी मजाक कर सकता है या किसी का भी मजाक/ माखौल उड़ा सकता है। सब मान्य है। नक्कल के विशय पारंपरिक और सामयिक मुद्दांे से लिए जाते हैं यहां तक कि स्थानीय मुद्दे भी। पुरूश स्त्री रूप धारण करते हैं। जैसे मछली बेचने वाली या बाई स्कोप दिखाने वाली। कोई नट बनता है तो उसका साथी नट्टिन। कोई सूल्ताना डाकू बनता है तो कोई लैला की खोज में भटकता मजनू। कोई जोगी बनता तो कोई भिखारी। सड़कों बाजारो में घुमते ये नक्कल दाउदनगर के कुछ संभ्रांत लोगों की बैठक पर भी जाते हैंजहां उन्हें बख्ष्षीष मिलती है।इन नक्कालों में डिल्ला काफी मषहुर था। वह एक गोरा चिट्टा नवजवान था और पेषे से मछलीमार था। वह स्त्री रूप धारण करता और लोग समझते कि वाकई वह एक औरत है। सुल्ताना डाकु एक बहुचर्चित पात्र था। एक नक्कल सुल्ताना डाकू बनता और एक उसका साथी प्रधान सिंह। मुझे याद है - मेरे नाना डाॅक्टर और सभी नक्कल हमारे बैठक में जरूर आते थे। हाँ एक चीजसभी नक्कल खासकर बड़ी उम्र के षौकियाऔर अनुभवी नक्कल षराब जरूर पीते थे। नाना देषी षराब में कुछ मिलवाते थे जिससे उसका रंग पारदर्षी से बदलकर लाल हो जाता था। यह षराब नक्कलों के लिए हमारे बैठक में आने का एक खास आकर्शण था जो घर के नौकर बैठक से लगे छोटे कमरे में नक्कलों को पिलाते थे। मजनू जंजीरों में बंधा और फटे कपड़े पहने आता और जमीन पर अपना सर पटकता और गाता- लैला लैला पूकारूं मैं वन मेंमेरी लैला बसी है मेरे मन में।’ इसी तरह सुल्ताना डाकू आता और उसके आने का संकेत था कई बम बिस्फोट। फिर वह आता और अपने प्रधान से पूछता, ‘प्रधान जीयह डाक्टर कैसा आदमी है?’ प्रधान कहता- यह डाक्टर गरीबों का खून चुसता है और इसी से काफी दौलत कमाई है।’ सुल्ताना अपनी बन्दूक की नोंक पर मेरे नाना जी की तरफ उठाता और कहता डाक्टर अपने खजाने की चाभी दे दे नहीं तो तेरी लाष बिछा दुंगा।’ मैं बिल्कुल डरा नाना के पीछे खड़ा रहता और सोचता कि सचमुच यह नाना को मार देगा क्या इसके बाद सुल्ताना और प्रधान मेरे नाना के पैर छु प्रणाम करते और पास वाले कमरे में रंगीन षराब पीने चले जाते। ऐसा होता था दाउदनगर का जितिया। अब दस दिनों का यह आयोजन तीन चार दिनों में सिमट गया है। हाँ स्त्रियां अन्तिम दिन ओखली कि पूजा बिना किसी समस्या से कर सकें इसके लिए मुहल्ले के नक्कल लाल परी और काला परी बनकर उनके साथ रहते हैं। अब तो सुना है कि टीवी वाले भी इसका प्रसारण करते है।                                                                                                                    

दाउदनगर का जिउतिया : उतकर्ष-2012

दाउदनगर का जिउतिया : उतकर्ष-2012

लोक पर्व जीवन को उल्लासित करते है, आनंदित करते है और संस्कारित भी करते है। इनसे जीवन या ़समाज की एकरसता दूर होती है और नयी उर्जा का संचार होता है। सामुहिकता की भावना मजबूत होती है तथा सामाजिक संगठन के रूप में हम अपने को अभिव्यक्त करते है।
                लोक पर्व में विविधता होती है और विषिश्टता भी। लोक-पर्व से किसी देष, किसी प्रांत, किसी क्षेत्र, किसी षहर, किसी गांव का विषेश पहचान बनती है। कार्निवाल-पर्वदुनिया के कई देषो में मनाया जाता है, किंतु जर्मनी के कोलोन षहर का कार्निवाल अपनी विषेश पहचान रखता है और विष्व में प्रसिद्ध है। होली-पर्व भारत के विभिन्न राज्यों में मनाया जाता है, किंतु उत्तर प्रदेष के मथुरा की होलीदुनिया में प्रसिद्ध है। इसे देखने के लिए बड़ी संख्या में विदेषी पर्यटक प्रतिवर्श मथुरा पहंुचते है। इसी तरह जिउतिया-पर्व भी भारत के विभिन्न प्रांतों में मनाया जाता है, किंतु बिहार राज्य के दाउदनगर षहर में जिउतिया मनाने का विषिश्ट ढंग है जो काफी मषहुर है। यहां इसे नकल-पर्व के रूप में बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। इसे देखने के लिए झारखंड से और उत्तर प्रदेष के मिर्जापुर तक से लोग सपरिवार आते है। यही कारण है कि बिहार राज्य के औरंगाबाद जिले का यह अनुमण्डलीय षहर दाउदनगर अपनी विषिश्ट सांस्कृतिक पहचान रखता है।
हम सभी जानते है कि जिउतिया-पर्व (जीवित-पुत्रिका व्रत) आष्विन मास (सितम्बर-अक्टुबर) में कृश्ण पक्ष की अश्टमी को मनाया जाता है। इसका विषेश वर्णन भविश्य पुराणमें मिलता है। इस पर्व में माता अपने पुत्र के चिरंजिवी होनी की कामना करती है। इसलिए जब कोई पुत्र किसी बड़े संकट से बच जाता है तो लोग कहते है - खैर मनाओ कि तुम्हारी मां ने जिउयिा की थी, सो तुम बच गए।यह पर्व तीन दिनों का होता है - एक दिन नहाय-खाय यानी सप्तमी को माताएं स्नान करके खाना खाती है, अश्टमी कोउपवास रखकर षाम में पूजा करती हैं और नवमी को सुबह में उपवास तोड़कर पारणकर लेती हैं। दाउदनगर की खासयित यह है कियहां इस पर्व का आरम्भ अनन्त पूजाके दूसरे दिन से ही हो जाता है यानि आठ-नौ रोज पहले से।
जिउतिया में जीमूतवाहन भगवान की पूजा की जाती है। पूजा करने के लिए दाउदनगर में चार चैक बने हुए हैं - पुराना षहर चैक, कसेरा टोली चैक, पटवा टोली चैक और बाजार चैक। इन चारों चैकों पर जीमूतवाहन भगवान स्थापित हैं। अनन्त पूजा के दूसरे दिन षाम में डमरू के आकार का लकड़ी या पीतल धातु का बना बड़ा-सा ओखल चारांे चैंको पर रखकर जिउतिया पर्व का विधिवत आरम्भ कर दिया जाता है। इस दिन से प्रतिदिन षाम को अंधेरा होते ही चैक के पास पुरूश और बच्चे जमा होते हैं और ढोलक की थाप पर तालियां बजा-बजाकर झुमर गाते हैं। इसे चकड़दम्माकहा जाता है। चैक की परिक्रमा करते हुए नाचते-झुमते हुए झुमर गाने का आनंद ही कुछ और होता है। पूरा वातावरण संगीतमय हो जाता है। झुमर गीतों में विविधता होती है, रंगीनी होती है और मधुरता भी।
जिउतिया-पर्व के अवसर पर दाउदनगर षहर हफ्ता दस दिनों तक हंसी-मजाक, व्यंग्य-विनोद, गीत-संगीत, नृत्य-नाच, रहस्य-रोमांच और साहसिक कारनामे करने-दिखाने में लिप्त रहता है। कारण है कि यहां जिउतिया यानि जीवित-पुत्रिका व्रत को बड़े ही धूम-धाम और रंगारंग रूप में मनाया जाता है। नकल बनने के लिए बच्चे, युवा, अधेड़, बुढ़े सभी उम्र के पुरूशों में होड़ लगी रहती है। नकल बनने वाले कलाकार साहसिक कारनामे (मुड़िकटवा, डाकिनी, चाकुधारी, तलवारधारी, त्रिषुलधारी, लालदेव-कालादेव आदि) दिखलाते हंै। विषेश बात यह है कि नकल के माध्यम से समसामयिक घटनाओं और सामाजिक कुरीतियों पर करारा व्यंग्य-प्रहार किया जाता है। नकल बनकर सरकारी तंत्र की जमकर पोल खोली जाती है - कोई नेता बनकर जनता को सब्जबाग दिखाता है, कोई डाक्टर बनकर मरीजों का षोशण करता है, कोई पुलिस बनकर अपराधियों से मिली भगत पेष करता है, कोई न्यायाधीष बनकर अंधा-कानून को उजागर करता है आदि-इत्यादि। इस पर्व को इतने बहुरंगी ढंग से पूरे ताम-झाम के साथ भारत में और कहीं नहीं मनाया जाता। नकलों के बारे में विस्तार से उत्कर्श-एकमे लिख चुका हूँ, इसलिए यहां दुहराना उचित नहीं।
दाउदनगर में जिउतिया-पर्व मनाने की परम्परा सदियों पुरानी है। कहा जाता है कि बहुत पहले यहां यह पर्व एक महीने तक मनाया जाता था। इसके इतिहास में जाने पर पता चलता है कि अंग्रेजों के षासन-काल में दाउदनगर में एक बार भयानक प्लेग फैला था। प्लेग से लोग मर रहे थे। बचाव का कोई उपाय नही था। उसी दरम्यान ओझा-गुनियों की एकमण्डली इधर से गुजर रही थी। उनलोंगों ने दाउदनगर की दुर्दषा देखी तो रूक गए और यहां के लोगांे से कहा कि हम गुण से प्लेग को भगा देंगे। दाउदनगर के लोग तो परेषान थे ही। इनके पास कोई दूसरा उपाय नही था, सो यहां के लोगों ने ओझा-गुनिया को ठहराया और उनके कहे अनुसार अनुश्ठान करने लगे। गुनिया लोगों ने बम्मा देवीकी स्थापना कर तांत्रिक अनुश्ठान करने षुरू किए। वे लोग ढोल-मंजीरा बजाते हुए पचरा गाते और दिन-रात पूरे दाउदनगर के चक्कर लगाते। गुनिया लोगों ने कहा कि एक माह तक यहां के लोगों को दिन-रात बारी-बारी से जागते रहना होगा और ढोल-मंजीरा बजाते रहना होगा। इस तरह जागे रहने के लिए गुनिया लोगों ने ही कुछ खेल-तमाषे षुरू किए और साहसिक कारनामे (जीभ में त्रिषुल घूसा लेना, बाहों में चाकू घोंप लेना, सिर में, कमर में तलवार आर-पार कर लेना आदि) दिखाने लगे। वे लोग कई तरह के गीत भी गाते, जिनमें झूमर और लावनी काफी प्रसिद्ध है। इसी रतजगा के बीच जिउतिया पर्व भी आ गया। स्वभावतः एक महीने तक जागने की और कई तरह से मनोरंजन करने की परंपरा जिउतिया पर्व के साथ जुड़ गई। धीरे-धीरे समय बीतने के साथ एक महीने का यह आयोजन कम होकर नौ-दस दिनोंका रह गया। जिउतिया की प्राचीनता और परंपरा को बतलाने वाला एक झूमर-गीत यहां इस प्रकार गाया जाता है -
धना भाग (धन्य भाग्य) रे, हाय रे धना भाग रे जिउतिया
तोरा अइले जियरा नेहाल
अरे जिउतिया जे अइले मन हुलसइले
नौ दिन कइले बेहाल रे जिउतिया
तोरा अइले जियरा नेहाल
धना भाग रे ....
आसिन अन्हरिया अउ दूजे रहे संवत्
उन्नइस-सौ सतरह के साल रे जिउतिया
तोरा अइले जियरा नेहाल
धना भाग रे ......इस झूमर-गीत में दो बातें कही गई है - पहली कि जिउतिया-पर्व नौ दिनों तक मनाया जाता है और दूसरी की इसका आरंभ संवत् 1917 (18600) में हुआ। जाहिर है प्लेग वाली घटना इनसे पहले की है। इससे दाउदनगर में जिउतिया-पर्व मनाने की प्राचीनता का पता चलता है।
गीत-संगीत भी दाउदनगर के जिउतिया का सषक्त और समृद्ध पक्ष है। विषेश बात यह है कि जिउतिया के अवसर पर यहां के पुरूश लोग झूमर-गीत गाते हैं और लावनी-गीत भी प्रस्तुत करते हैं। लावनी गाने की परम्परा बिहार में सिर्फ दाउदनगर में ही जिउतिया के अवसर पर देखने-सुनने को मिलता है। दाउदनगर में लावनी गीत गाने की परम्परा का आरम्भ ओझा-गुनियों ने किया था। प्लेग भगाने वाले ओझा-गुनिया महाराश्ट्र के रहने वाले थे। इसलिए उन्होनें जिस देवी का दाउदनगर में स्थापना कर पूजा की, उसका नाम बम्भा देवीरखा। ध्यान देने की बात है कि महाराश्ट्र में मुम्बा देवीकी काफी महिमा है। मुम्बा देवीऔर बम्मा देवीनामों में काफी समानता है। यह भी संभव है कि गुनिया लोगों ने मुम्बा देवीकी ही स्थापना की हो, जिसे दाउदनगर के लोग बम्मा देवीकहने लगे। महाराश्ट्र में लावनी गाने की समृद्ध परम्परा है। इसलिए गुनिया लोगो नें दाउदनगर में भी लावनी-गीत प्रस्तुत किए। वही लावनी गाने की परम्परा दाऊदनगर में आज भी जीवित है। लवनी-गीत प्रस्तुत करने के लिए पाँच-छः लोगों की मण्डली रहती है, जो खंजड़ी, जोड़ी और गिल्ली-डंडा बजाते हुए लावनी प्रस्तुत करती है। यहां गाये जाने वाले एक लावनी-गीत में-कृष्ण भगवान द्वारा नारी-वेष में चूड़ी बेचने का बड़ा ही श्रृंगारिक वर्णन किया गया है। गीत इस प्रकार है -
श्री कृष्ण नंदन जी को नंदन मनिहारिन को भेष किया, गये ब्रज में आप कृष्ण जी,जा सखियन को मोह लिया।
किए हुए सिंगार कृष्ण जी बने सुदर्षन में आला, कानों में है कर्नफूल उपर है झुम्मक वाला, खुब चमकता हार गले कंचन, कंठी, मोहर माला, किए षीष पर रोड़ी कृष्ण
 जी उपर षोभे तीर काला जड़ी जडावल जेवर पहन
खुब तरह सिंगार किया गए, ब्रज में ......
रतन जड़ित के ओढ़नी ओढ़े और जरद की है नारी, सुर्ख रंग के घाघरा पहिने चोलिया है बुटेदारी, चन्द्रबदन मृगनैनी अंचल चाल चली है, मतवारी, जादूगरी कृष्णजी ऐसी मोह ब्रज के नर-नारी बदला रूप ऐसे कृष्ण जी कोई नहीं पहचान किया, गए ब्रज में .....
लिये षीष पर चूड़ी कृष्ण जी घर-घर करते है फेरी, सभी जगह पर कहते फिरते कोई चूड़ियां ले ले मेरी। लाल, सब्ज, जरद, बैगनी सभी रंग की है चूड़ी, सब सखिया मिल लगी बताने कहो दाम तुम भरपूरी तरह-तरह के चुड़ी कृष्णजी सब सखियन को पहना दिया गए ब्रज में ......
एक और लावनी-गीत में अंग्रेज सरकार द्वारा बड़ी नहर खुदवाने की चर्चा की गई है -
परजा के पालन करने को नहर को खुदवाया है
मषहुर है नहर ये लम्बी अंगरेजों का लाया है
पहले तो दूरबीन लगाकर सर्व राह को देख लिया
दूसरे में कम्पास लगार बेलदारो नें चास किया
हरिद्वार से नक्षा लाकर नहर खोदना षुरू किया
जगह-जगह पर साहबों ने ठेकेदारों को ठेका दिया
देखों-देखो चैड़ी नहर खोदन करने आया है
मषहूर है नहर ...........
सोलह फुट गहरा करवाया बावन फुट चैड़ाई है।
पटरी उपर वृक्ष लगाया सुन्दर अति सोहाई है।
नहर से नहरी जो निकली, नहरी से जो पैन भाया, पैनों से जो निकली नाली वही जल खेतों में गया। तीन कोस पर लख दो तरफा पुलों से पटवाया है
मषहूर है नहर ........
एक लावनी ऐसा भी है, जिसमें सामाजिक विषेषताओं पर करारा प्रहार किया गया है। इस लावनी गीत में समाज में उंची जाति और नीची जाति के भेद-भाव को उजागर किया गया है। गीत की पंक्तियां इस प्रकार है -
जो देखा मतलब के साथी कलजुग का है यही करम, कर के बात को लगे पलटने छुट गया है दीन-धरम।
जब से कलजुग अमल किया है सबको किया है हाल-बेहाल
पंडित लाल भी हुए जहां में चलने लगे है चाल-कुचाल, बड़े षास्त्र न पढ़े पढ़ावे झूठे लगे बजाने गाल, राजा दण्ड लेते परजन से इसी से पड़ता काल काल डुकाल कच्छ ढील हो गई क्षत्रिन को करने लगे है बुरा करम, कह के बात को ......
नीच डांट के कहै उंच से तुममें तो कुछ दम नहीं
जुबां संभालो बैठे रहो कुछ हम भी तुमसे कम नहीं, नारी पुरूष को मार निकाले जेठ से करती षरम नहीं, कहता है रघुवर प्रसाद अब कलजुग में षुभ करम नहीं, सत्य बात न बोले मुख से बेटा को नहीं जरा षरम, कह के बात को .......
दाउदनगर में अब लावनी गाने वाले कम बचे हैं। इसलिए इस गीत विद्या को यहां विकसित और समृद्ध करने की आवष्यकता है। लावनी प्रतियोगिताआयोजित करके यह काम किया जा सकता है।