Monday 15 September 2014

जिउतियाः जैसा हमने देखा-सुजित चौधरी

जिउतियाः जैसा हमने देखा
उत्कर्ष 2012 में मेरे आग्रह पर डा.राय के नाती सुजित चौधरी ने यहा आलेख लिखा था। वे रहते हैं बेंगलुरु में। जिउतिया के अवसर पर इसे साझा कर रहा हूं आपसे।

दाउदनगर में काफी धुम-धाम से मनाया जाता है जिउतिया। जिसमंे सभी लोग धर्मसम्प्रदायजाति और आर्थिक वर्ग से उपर उठकर सम्मिलित होते हैं। जितिया वास्तव में जिमुतवाहन का पर्व है जो उत्तर और पूर्व भारत में मनाया जाता है। दाउदनगर के जितिया का अनोखा पक्ष है की यहां के बच्चे और युवा नक्कल’ बनते हैं। नक्कल मतलब भेश बदलना और पूरे षहर में नक्कल बनकर घूमना। नक्कल बनना उनके लिए अनिवार्य होता है जिनका जन्म जिमुतवाहन के आषीर्वाद से हुआ हो। मगर जितिया में (मैं अपने बचपन यानि कम से कम तीस साल/पहले की बात बोल रहा हूं) षहर के काफी लोग नक्कल  बनते थे और जहां देखिये नक्कल ही नक्कल। आपने गोवा के कार्निवाल के बारे में सुना होगाकुछ वैसा ही। नक्कल की उत्पति में कोई जनजातीय परम्परा नहीं हैक्योंकि दाउदनगर में कोई जन जाति नहीं है। जितिया के समय सामाजिक बंधन ढीले हो जाते हैे औरसामाजिक सांस्कृतिक वर्जनाएं नही रहती। कोई किसी से भी मजाक कर सकता है या किसी का भी मजाक/ माखौल उड़ा सकता है। सब मान्य है। नक्कल के विशय पारंपरिक और सामयिक मुद्दांे से लिए जाते हैं यहां तक कि स्थानीय मुद्दे भी। पुरूश स्त्री रूप धारण करते हैं। जैसे मछली बेचने वाली या बाई स्कोप दिखाने वाली। कोई नट बनता है तो उसका साथी नट्टिन। कोई सूल्ताना डाकू बनता है तो कोई लैला की खोज में भटकता मजनू। कोई जोगी बनता तो कोई भिखारी। सड़कों बाजारो में घुमते ये नक्कल दाउदनगर के कुछ संभ्रांत लोगों की बैठक पर भी जाते हैंजहां उन्हें बख्ष्षीष मिलती है।इन नक्कालों में डिल्ला काफी मषहुर था। वह एक गोरा चिट्टा नवजवान था और पेषे से मछलीमार था। वह स्त्री रूप धारण करता और लोग समझते कि वाकई वह एक औरत है। सुल्ताना डाकु एक बहुचर्चित पात्र था। एक नक्कल सुल्ताना डाकू बनता और एक उसका साथी प्रधान सिंह। मुझे याद है - मेरे नाना डाॅक्टर और सभी नक्कल हमारे बैठक में जरूर आते थे। हाँ एक चीजसभी नक्कल खासकर बड़ी उम्र के षौकियाऔर अनुभवी नक्कल षराब जरूर पीते थे। नाना देषी षराब में कुछ मिलवाते थे जिससे उसका रंग पारदर्षी से बदलकर लाल हो जाता था। यह षराब नक्कलों के लिए हमारे बैठक में आने का एक खास आकर्शण था जो घर के नौकर बैठक से लगे छोटे कमरे में नक्कलों को पिलाते थे। मजनू जंजीरों में बंधा और फटे कपड़े पहने आता और जमीन पर अपना सर पटकता और गाता- लैला लैला पूकारूं मैं वन मेंमेरी लैला बसी है मेरे मन में।’ इसी तरह सुल्ताना डाकू आता और उसके आने का संकेत था कई बम बिस्फोट। फिर वह आता और अपने प्रधान से पूछता, ‘प्रधान जीयह डाक्टर कैसा आदमी है?’ प्रधान कहता- यह डाक्टर गरीबों का खून चुसता है और इसी से काफी दौलत कमाई है।’ सुल्ताना अपनी बन्दूक की नोंक पर मेरे नाना जी की तरफ उठाता और कहता डाक्टर अपने खजाने की चाभी दे दे नहीं तो तेरी लाष बिछा दुंगा।’ मैं बिल्कुल डरा नाना के पीछे खड़ा रहता और सोचता कि सचमुच यह नाना को मार देगा क्या इसके बाद सुल्ताना और प्रधान मेरे नाना के पैर छु प्रणाम करते और पास वाले कमरे में रंगीन षराब पीने चले जाते। ऐसा होता था दाउदनगर का जितिया। अब दस दिनों का यह आयोजन तीन चार दिनों में सिमट गया है। हाँ स्त्रियां अन्तिम दिन ओखली कि पूजा बिना किसी समस्या से कर सकें इसके लिए मुहल्ले के नक्कल लाल परी और काला परी बनकर उनके साथ रहते हैं। अब तो सुना है कि टीवी वाले भी इसका प्रसारण करते है।                                                                                                                    

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