Monday 15 September 2014

जिउतिया पर विशेष सामग्री : उत्कर्ष 2012 में प्रकाशित

जिउतिया पर विशेष सामग्री रू उत्कर्ष 2012 में प्रकाशित 
प्रोण्शिवपूजन प्रसाद का यह आलेख मेरे संपादन में प्रकाशित्र हुई थी। 

लोक पर्व जीवन को उल्लासित करते है, आनंदित करते है और संस्कारित भी करते है। इनसे जीवन या ़समाज की एकरसता दूर होती है और नयी उर्जा का संचार होता है। सामुहिकता की भावना मजबूत होती है तथा सामाजिक संगठन के रूप में हम अपने को अभिव्यक्त करते है।
        लोक पर्व में विविधता होती है और विषिश्टता भी। लोक-पर्व से किसी देष, किसी प्रांत, किसी क्षेत्र, किसी षहर, किसी गांव का विषेश पहचान बनती है। ‘कार्निवाल-पर्व’ दुनिया के कई देषो में मनाया जाता है, किंतु जर्मनी के कोलोन षहर का कार्निवाल अपनी विषेश पहचान रखता है और विष्व में प्रसिद्ध है। होली-पर्व भारत के विभिन्न राज्यों में मनाया जाता है, किंतु उत्तर प्रदेष के ‘मथुरा की होली’ दुनिया में प्रसिद्ध है। इसे देखने के लिए बड़ी संख्या में विदेषी पर्यटक प्रतिवर्श मथुरा पहंुचते है। इसी तरह जिउतिया-पर्व भी भारत के विभिन्न प्रांतों में मनाया जाता है, किंतु बिहार राज्य के दाउदनगर षहर में जिउतिया मनाने का विषिश्ट ढंग है जो काफी मषहुर है। यहां इसे नकल-पर्व के रूप में बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। इसे देखने के लिए झारखंड से और उत्तर प्रदेष के मिर्जापुर तक से लोग सपरिवार आते है। यही कारण है कि बिहार राज्य के औरंगाबाद जिले का यह अनुमण्डलीय षहर दाउदनगर अपनी विषिश्ट सांस्कृतिक पहचान रखता है।
हम सभी जानते है कि जिउतिया-पर्व (जीवित-पुत्रिका व्रत) आष्विन मास (सितम्बर-अक्टुबर) में कृश्ण पक्ष की अश्टमी को मनाया जाता है। इसका विषेश वर्णन ‘भविश्य पुराण’ में मिलता है। इस पर्व में माता अपने पुत्र के चिरंजिवी होनी की कामना करती है। इसलिए जब कोई पुत्र किसी बड़े संकट से बच जाता है तो लोग कहते है - ‘खैर मनाओ कि तुम्हारी मां ने जिउयिा की थी, सो तुम बच गए।’ यह पर्व तीन दिनों का होता है - एक दिन नहाय-खाय यानी सप्तमी को माताएं स्नान करके खाना खाती है, अश्टमी कोउपवास रखकर षाम में पूजा करती हैं और नवमी को सुबह में उपवास तोड़कर ‘पारण’ कर लेती हैं। दाउदनगर की खासयित यह है कियहां इस पर्व का आरम्भ ‘अनन्त पूजा’ के दूसरे दिन से ही हो जाता है यानि आठ-नौ रोज पहले से।
जिउतिया में जीमूतवाहन भगवान की पूजा की जाती है। पूजा करने के लिए दाउदनगर में चार चौक बने हुए हैं - पुराना षहर चौक, कसेरा टोली चौक, पटवा टोली चौक और बाजार चौक। इन चारों चौकों पर जीमूतवाहन भगवान स्थापित हैं। अनन्त पूजा के दूसरे दिन षाम में डमरू के आकार का लकड़ी या पीतल धातु का बना बड़ा-सा ओखल चारांे चौंको पर रखकर जिउतिया पर्व का विधिवत आरम्भ कर दिया जाता है। इस दिन से प्रतिदिन षाम को अंधेरा होते ही चौक के पास पुरूश और बच्चे जमा होते हैं और ढोलक की थाप पर तालियां बजा-बजाकर झुमर गाते हैं। इसे ‘चकड़दम्मा’ कहा जाता है। चौक की परिक्रमा करते हुए नाचते-झुमते हुए झुमर गाने का आनंद ही कुछ और होता है। पूरा वातावरण संगीतमय हो जाता है। झुमर गीतों में विविधता होती है, रंगीनी होती है और मधुरता भी।
जिउतिया-पर्व के अवसर पर दाउदनगर षहर हफ्ता दस दिनों तक हंसी-मजाक, व्यंग्य-विनोद, गीत-संगीत, नृत्य-नाच, रहस्य-रोमांच और साहसिक कारनामे करने-दिखाने में लिप्त रहता है। कारण है कि यहां जिउतिया यानि जीवित-पुत्रिका व्रत को बड़े ही धूम-धाम और रंगारंग रूप में मनाया जाता है। नकल बनने के लिए बच्चे, युवा, अधेड़, बुढ़े सभी उम्र के पुरूशों में होड़ लगी रहती है। नकल बनने वाले कलाकार साहसिक कारनामे (मुड़िकटवा, डाकिनी, चाकुधारी, तलवारधारी, त्रिषुलधारी, लालदेव-कालादेव आदि) दिखलाते हैं। विषेश बात यह है कि नकल के माध्यम से समसामयिक घटनाओं और सामाजिक कुरीतियों पर करारा व्यंग्य-प्रहार किया जाता है। नकल बनकर सरकारी तंत्र की जमकर पोल खोली जाती है - कोई नेता बनकर जनता को सब्जबाग दिखाता है, कोई डाक्टर बनकर मरीजों का षोशण करता है, कोई पुलिस बनकर अपराधियों से मिली भगत पेष करता है, कोई न्यायाधीष बनकर अंधा-कानून को उजागर करता है आदि-इत्यादि। इस पर्व को इतने बहुरंगी ढंग से पूरे ताम-झाम के साथ भारत में और कहीं नहीं मनाया जाता। नकलों के बारे में विस्तार से ‘उत्कर्श-एक’ मे लिख चुका हूँ, इसलिए यहां दुहराना उचित नहीं।
दाउदनगर में जिउतिया-पर्व मनाने की परम्परा सदियों पुरानी है। कहा जाता है कि बहुत पहले यहां यह पर्व एक महीने तक मनाया जाता था। इसके इतिहास में जाने पर पता चलता है कि अंग्रेजों के षासन-काल में दाउदनगर में एक बार भयानक प्लेग फैला था। प्लेग से लोग मर रहे थे। बचाव का कोई उपाय नही था। उसी दरम्यान ओझा-गुनियों की एकमण्डली इधर से गुजर रही थी। उनलोंगों ने दाउदनगर की दुर्दषा देखी तो रूक गए और यहां के लोगांे से कहा कि हम गुण से प्लेग को भगा देंगे। दाउदनगर के लोग तो परेषान थे ही। इनके पास कोई दूसरा उपाय नही था, सो यहां के लोगों ने ओझा-गुनिया को ठहराया और उनके कहे अनुसार अनुश्ठान करने लगे। गुनिया लोगों ने ’बम्मा देवी‘ की स्थापना कर तांत्रिक अनुश्ठान करने षुरू किए। वे लोग ढोल-मंजीरा बजाते हुए पचरा गाते और दिन-रात पूरे दाउदनगर के चक्कर लगाते। गुनिया लोगों ने कहा कि एक माह तक यहां के लोगों को दिन-रात बारी-बारी से जागते रहना होगा और ढोल-मंजीरा बजाते रहना होगा। इस तरह जागे रहने के लिए गुनिया लोगों ने ही कुछ खेल-तमाषे षुरू किए और साहसिक कारनामे (जीभ में त्रिषुल घूसा लेना, बाहों में चाकू घोंप लेना, सिर में, कमर में तलवार आर-पार कर लेना आदि) दिखाने लगे। वे लोग कई तरह के गीत भी गाते, जिनमें झूमर और लावनी काफी प्रसिद्ध है। इसी रतजगा के बीच जिउतिया पर्व भी आ गया। स्वभावतः एक महीने तक जागने की और कई तरह से मनोरंजन करने की परंपरा जिउतिया पर्व के साथ जुड़ गई। धीरे-धीरे समय बीतने के साथ एक महीने का यह आयोजन कम होकर नौ-दस दिनोंका रह गया। जिउतिया की प्राचीनता और परंपरा को बतलाने वाला एक झूमर-गीत यहां इस प्रकार गाया जाता है -
धना भाग (धन्य भाग्य) रे, हाय रे धना भाग रे जिउतिया
तोरा अइले जियरा नेहाल
अरे जिउतिया जे अइले मन हुलसइले
नौ दिन कइले बेहाल रे जिउतिया
तोरा अइले जियरा नेहाल
धना भाग रे ....
आसिन अन्हरिया अउ दूजे रहे संवत्
उन्नइस-सौ सतरह के साल रे जिउतिया
तोरा अइले जियरा नेहाल
धना भाग रे ......इस झूमर-गीत में दो बातें कही गई है - पहली कि जिउतिया-पर्व नौ दिनों तक मनाया जाता है और दूसरी की इसका आरंभ संवत् 1917 (1860 ई0) में हुआ। जाहिर है प्लेग वाली घटना इनसे पहले की है। इससे दाउदनगर में जिउतिया-पर्व मनाने की प्राचीनता का पता चलता है।
गीत-संगीत भी दाउदनगर के जिउतिया का सषक्त और समृद्ध पक्ष है। विषेश बात यह है कि जिउतिया के अवसर पर यहां के पुरूश लोग झूमर-गीत गाते हैं और लावनी-गीत भी प्रस्तुत करते हैं। लावनी गाने की परम्परा बिहार में सिर्फ दाउदनगर में ही जिउतिया के अवसर पर देखने-सुनने को मिलता है। दाउदनगर में लावनी गीत गाने की परम्परा का आरम्भ ओझा-गुनियों ने किया था। प्लेग भगाने वाले ओझा-गुनिया महाराश्ट्र के रहने वाले थे। इसलिए उन्होनें जिस देवी का दाउदनगर में स्थापना कर पूजा की, उसका नाम ‘बम्भा देवी’ रखा। ध्यान देने की बात है कि महाराश्ट्र में ‘मुम्बा देवी’ की काफी महिमा है। ‘मुम्बा देवी’ और ‘बम्मा देवी’ नामों में काफी समानता है। यह भी संभव है कि गुनिया लोगों ने ‘मुम्बा देवी’ की ही स्थापना की हो, जिसे दाउदनगर के लोग ‘बम्मा देवी’ कहने लगे। महाराश्ट्र में लावनी गाने की समृद्ध परम्परा है। इसलिए गुनिया लोगो नें दाउदनगर में भी लावनी-गीत प्रस्तुत किए। वही लावनी गाने की परम्परा दाऊदनगर में आज भी जीवित है। लवनी-गीत प्रस्तुत करने के लिए पाँच-छः लोगों की मण्डली रहती है, जो खंजड़ी, जोड़ी और गिल्ली-डंडा बजाते हुए लावनी प्रस्तुत करती है। यहां गाये जाने वाले एक लावनी-गीत में-कृष्ण भगवान द्वारा नारी-वेष में चूड़ी बेचने का बड़ा ही श्रृंगारिक वर्णन किया गया है। गीत इस प्रकार है -
श्री कृष्ण नंदन जी को नंदन मनिहारिन को भेष किया, गये ब्रज में आप कृष्ण जी,जा सखियन को मोह लिया।
किए हुए सिंगार कृष्ण जी बने सुदर्षन में आला, कानों में है कर्नफूल उपर है झुम्मक वाला, खुब चमकता हार गले कंचन, कंठी, मोहर माला, किए षीष पर रोड़ी कृष्ण
 जी उपर षोभे तीर काला जड़ी जडावल जेवर पहन
खुब तरह सिंगार किया गए, ब्रज में ......
रतन जड़ित के ओढ़नी ओढ़े और जरद की है नारी, सुर्ख रंग के घाघरा पहिने चोलिया है बुटेदारी, चन्द्रबदन मृगनैनी अंचल चाल चली है, मतवारी, जादूगरी कृष्णजी ऐसी मोह ब्रज के नर-नारी बदला रूप ऐसे कृष्ण जी कोई नहीं पहचान किया, गए ब्रज में .....
लिये षीष पर चूड़ी कृष्ण जी घर-घर करते है फेरी, सभी जगह पर कहते फिरते कोई चूड़ियां ले ले मेरी। लाल, सब्ज, जरद, बैगनी सभी रंग की है चूड़ी, सब सखिया मिल लगी बताने कहो दाम तुम भरपूरी तरह-तरह के चुड़ी कृष्णजी सब सखियन को पहना दिया गए ब्रज में ......
एक और लावनी-गीत में अंग्रेज सरकार द्वारा बड़ी नहर खुदवाने की चर्चा की गई है -
परजा के पालन करने को नहर को खुदवाया है
मषहुर है नहर ये लम्बी अंगरेजों का लाया है
पहले तो दूरबीन लगाकर सर्व राह को देख लिया
दूसरे में कम्पास लगार बेलदारो नें चास किया
हरिद्वार से नक्षा लाकर नहर खोदना षुरू किया
जगह-जगह पर साहबों ने ठेकेदारों को ठेका दिया
देखों-देखो चौड़ी नहर खोदन करने आया है
मषहूर है नहर ...........
सोलह फुट गहरा करवाया बावन फुट चौड़ाई है।
पटरी उपर वृक्ष लगाया सुन्दर अति सोहाई है।
नहर से नहरी जो निकली, नहरी से जो पैन भाया, पैनों से जो निकली नाली वही जल खेतों में गया। तीन कोस पर लख दो तरफा पुलों से पटवाया है
मषहूर है नहर ........
एक लावनी ऐसा भी है, जिसमें सामाजिक विषेषताओं पर करारा प्रहार किया गया है। इस लावनी गीत में समाज में उंची जाति और नीची जाति के भेद-भाव को उजागर किया गया है। गीत की पंक्तियां इस प्रकार है -
जो देखा मतलब के साथी कलजुग का है यही करम, कर के बात को लगे पलटने छुट गया है दीन-धरम।
जब से कलजुग अमल किया है सबको किया है हाल-बेहाल
पंडित लाल भी हुए जहां में चलने लगे है चाल-कुचाल, बड़े षास्त्र न पढ़े पढ़ावे झूठे लगे बजाने गाल, राजा दण्ड लेते परजन से इसी से पड़ता काल काल डुकाल कच्छ ढील हो गई क्षत्रिन को करने लगे है बुरा करम, कह के बात को ......
नीच डांट के कहै उंच से तुममें तो कुछ दम नहीं
जुबां संभालो बैठे रहो कुछ हम भी तुमसे कम नहीं, नारी पुरूष को मार निकाले जेठ से करती षरम नहीं, कहता है रघुवर प्रसाद अब कलजुग में षुभ करम नहीं, सत्य बात न बोले मुख से बेटा को नहीं जरा षरम, कह के बात को .......

दाउदनगर में अब लावनी गाने वाले कम बचे हैं। इसलिए इस गीत विद्या को यहां विकसित और समृद्ध करने की आवष्यकता है। ‘लावनी प्रतियोगिता’ आयोजित करके यह काम किया जा सकता है।

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