Friday 12 September 2014

पटना के उइया रे सूइया, गया के हइ दरजिया इयार

                   पटना के उइया रे सूइया, गया के हइ दरजिया इयार

           दूर देसे नोकरिया सइयाँ जइहे, लइहें बाजूबंद

बडे सरस हैं जिउतिया के गीत

उपेन्द्र कश्यप,
 जिउतिया के गीत बडे सरस हैं। इसमें स्थानीय इतिहास, भूगोल और विशेषताओं को भी प्रयाप्त जगह मिली है। साहित्य इस्द लोकोत्सव के बारे में बहुत कुछ बता देता है। झूमर में गाते हैं- -दाऊदनगर के जिउतिया सरनाम हई गे साजनदाऊदनगर के जिउतिया जीव के साथ हई गे साजन! कहाँ के दिवाली, कहाँ के दशहरा गे साजन, कहवाँ के जिउतिया कइले नाम हई गे साजन
दाऊदनगर..दिल्ली के दिवाली, कलकता के दशहरा गे साजन, दाऊदनगर के जिउतिया कइले नाम हई गे साजन, दाऊदनगर के .....    
झूमर में विविधाता होती है, रंगीनी होती है और मधुरता भी-
-दूर देसे नोकरिया के रे जइहें के जइहें हाजीपुर, के जइहें पटना, के रे जइहें, दूर देसे नोकरिया के रे जइहें
बाबा जइहें हाजीपुर, भइया जइहें पटना, सइयाँ जइहें, दूर देसे नोकरिया सइयाँ जइहे, के लइहें बाजूबंद, के लइहें कंगना, के रे लइहें, छतिया दरपनवा के रे लइहें, बाबा लइहें बाजूबंद, भइया लइहें कंगना, सइयाँ लइहें, छतिया दरपनवा सइयाँ लइहें।
यहां का परवर काफी मशहूर है। तब भी था और हाजीपूर तक की मंडियों में इसे बेचने यहां के लोग जाते थे। तब पटना नहर में स्टीमर की यात्रा होती थी। देखिये-- ए राजा जी परवर बेचे जायम हाजीपुर
परवर बेच के पायल गढ़ायम, पायल हम पहिरम जरूर, ए राजाजी परवर बेचे जायम हाजीपुर
  एक रंगीन मिजाज का झूमर देखिये। तब भी समाज किस तरह खूला हुआ था जब प्रेम की बातें भी खूब होती थी। -नैना बिदुल हे कहवाँ से आवेला इयार, कहवाँ से आवेला बारि बियहुआ, बारि बियहुआ
नैना बिदुल हे कहवाँ से आवेला इयार, पूरबा से आवेला बारि बियहुआ, बारि बियहुआ, नैना बिदुल हे पछिमा से आवेला इयार, श्यामसून्दर बनिया के जा (बेटी), हई रे मनीजरवा, एहि परि गंगा, ओहि पारे जमुना, के मोरा घइला अलगा, हई रे मनीजरवा, घोड़वा चढ़ल आवे राजाजी के बेटवा, ओहि मोरा घइला अलगा, हई रे मनीजरवा,क हवाँ के उइया रे सूइया, कहवाँ के दरजिया इयार, पटना के उइया रे सूइया
गया के हइ दरजिया इयार। अइसन चोलिया सीलिहें दरजिया, दूनो मोरवा करे गोहार, पटना के उइया रे सूइया, गया के हइ दरजिया इयार।

चढने लगा है शहर पर जिउतिया का रंग
 जिउतिया लोक उत्सव का रंग गाढा होने लगा है। शहर में बने जीमूतवाहन भगवान के चार चौकों पर स्थानीय लोक गायक ढोलक की थाप पर झुमर और लावनी गा गा कर आनंदित हो रहे हैं। हालांकि यह चिंता की बात है कि टोलियों की संख्या कम होती जा रही है। इसकी वजह भी है। सामाजिक आर्थिक परिवेश में परिवर्तन ने इसकी धारा को कुंद किया है। समाज का तथाकथित भद्रजन या कहें इलिट तबका इसका व्यवसायिक दोहन तो करता है, खूब माल भी कमाता है मगर इसके संवर्धन या संरक्षण के लिए कुछ नहीं करता। यह राष्ट्रीय चरित्र बन गया है। इसका असर इस संस्कृति पर भी पडता है। स्वाभाविक है जब इस अर्थयुग में दो जून की रोटी का जुगाड ही प्राथमिकता हो तो टोलियां सिमटेगी ही। भारतीय समाज जन्मना उत्सव में विश्वास रखने वाला है सो कमोबेश लोक संस्कृति की जीवंतता बनी रहती है। भले ही दायरा और आयाम सिकुडता जा रहा हो।  झूमर के बोल, ढोलक की थाप पर चकडदम्मा गाती टोलियां बडा रोचक और सरस लगती है। अगर लोक गायन में थोडी भी रुचि है तो शायद ही आप इसे छोड कर हटें। चंद लोग हैं जिनकी बदौलत जिउतिया के लोक साहित्य को जीवन मिला हुआ है। पुराना शहर में रामजी सोनी, इमली तल में साहेब दयाल चौधरी, बेसलाल प्रसाद तांती, रामचन्द्र प्रसाद तांती, धनेशवर प्रसाद कसेरा टोली में भोला पेंटर जैसे लोग इस साहित्य को जिंदा रखे हुए हैं।


जातीय पहचान से जुडी है चौकें
शहर में जिउतिया के सभी चार चौकें जातीय पहचान से जुडी हुई हैं। सबसे पुराना इमली तल पटवा टोली में है। इससे तांती समाज की पहचान जुडी हुई है। इसई तरह कसेरा टोली चौक से कसेरा जाति की। यहां आयोजक भी यही जातियां हैउं और संरक्षक भी। इसी तरह पुरानी शहर चौक जो पुराना सोनारपट्टी है से इस जाति के लोग जुडे हैं। बाजार चौक व्यवसायिक गतिविधियों का अड्डा है सो इससे वैश्य समाज जुडा हुआ है। पुराना शहर और बाजार चौक से दूसरी जातियों की भी सहभागिता है। दोनों जगह आयोजन में मिश्रित जातियां शामिल हैं।


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