Sunday 14 September 2014

समूह के जिम्मे सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा



कोई संरक्षण ‘जिउतिया संस्कृति’ को प्राप्त नहीं
154 साल से निरंतर प्रवाह बरकरार
उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) दु:ख के निराकरण की गर्ज से जन्मी “जिउतिया संस्कृति” का न कोई वाहक है न कोई संरक्षक। आम आदमी के सहयोग, समर्पण और सहभागिता से यह संस्कृति संवत 1917 से रग रग में प्रवाहित हो रही है। इस लोक संस्क़्रिति में फोकलोट (लोकयान) में सभी चार तत्व प्रचुरता से विद्यमान है। अपनी लोक कला है, लोक साहित्य, लोक व्यवहार है। वास्तव में झारखंड के अलग होने के बाद छउ नृत्य हमारा प्रतिनिधि संस्कृति नहीं रहा। सरकार छठ को पर्तिनिधि संस्कृति मानती है जबकि वह पुरे प्रदेश में होता है और किसी भी खास क्षेत्र या समुदाय तक सीमित नहीं है। जिउतिया का पर्व उत्तर भारत में प्राय: हर जगह मनाया जाता है मगर यह सिर्फ दाउदनगर में ही लोक संस्कृति बन सकी है। इसका प्रभाव समीपवर्ती तरार और ओबरा में भले दिखता है, मगर है यह दाउदनगर की विशिष्ट पहचान। ब्राजिल के कार्निवाल से इसकी तुलना होती है। आकर्षण और सम्मोहन की पराकाष्ठा आप देख सकते हैं जब यह नौ दिवसीय समारोह अपने अंतिम दो दिन चरमोत्कर्ष पर होता है। पुरा शहर भेष बदलो समारोह में तब्दिल दिखता है। अपुराणिक चरित्रों, राजंनेताओं, संविधान, समेत तमाम क्षेत्रों पर तिप्प्णी करते लोक कलाकार मिलेंगे। पटवा टोली और कसेरा टोली चौक मुख्य केन्द्र होते है। शहर में जिमुतवाहन भगवान के चार चौक बने हैं। मुख्यत: पटवा जिसे तांती भी कहा जाता है अर कसेरा जाति के लोगों के समर्पण भाव और परिश्रम की बदौलत यह संस्कृति जीवंत बनी हुई है अन्यथा कब का विलुप्त हो जाता। इसके गीत बडे सरस होते हैं। व्यंग्य मजेदार और चुटिले। शहर की बडी आबादी इसमें शामिल होती अहि और आश्चर्य कि हर बच्चा जो पहली बार अपनी सांस्कृतिक प्रस्तुति दे रहा होता है वह भी आपको प्रभावित करता है। इससे लगता है कि इस शहर की मिट्टी में कला का जादु बसता है।


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