Wednesday 22 January 2020

लोहियावादी व कलाप्रेमी उमेश सिंह के जीवन में जितना झांकोगे, उतना सीखोगे


० उपेंद्र कश्यप ०
अब तक का इकलौता अखिल भारतीय लघु नाट्य प्रतियोगिता का किया था आयोजन

भगत सिंह से प्रभावित थे और स्वाभावतः क्रांतिकारी
उमेश्वरी सिंह नहीं रहे। उनकी पहचान बिहार सरकार में तीन बार मंत्री और दाउदनगर व ओबरा विधान सभा क्षेत्र से पांच बार विधायक रहे स्व.राम विलास सिंह के पुत्र के रूप में अधिक है। बीमारी के बाद दिल्ली में इलाज के दौरान 22 जनवरी 2020 को उनकी मृत्यु की सुबह आई सूचना से सदमा लगा। वे बमुश्किल 60 वर्ष के होंगे।
उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि। उनके पूरे जीवन के संदर्भ में एक ही बात कहूंगा कि आप उनकी जीवन शैली से सहमत हों, या असहमत हों, इतना तय है कि उनके कार्य-कलापों के बिना आप दाउदनगर का इतिहास अधूरा ही लिख सकते हैं। जिनके जीवन-पुस्तक में आप जितना डूबोगे, उतना सीखोगे। उनकी जिंदगी एक ऐसी किताब हैं, जिसमें से आप जैसा लेना चाहेंगे, जैसा होने लायक सामग्री चाहेंगे, वैसा ले सकेंगे। जीवन के हर संदर्भ में। एक ऐसी नामचीन हस्ती जिनकी हर गतिविधि कुछ न कुछ सीखाती है, सबक देती है। यह आप पर निर्भर है कि आप क्या लेना चाहते हैं?
वे लोहायावादी भी थे और भगत सिंह से काफी प्रभावित। क्रांतिकारी भी। उनके भाषण में ओज था। जोश था। खनक वाली आवाज थी। उनसे जुड़ी ढ़ेर सारी खट्टी-मीठी, सकारात्मक-नकारात्मक स्मृतियां मेरे मस्तिष्क में पैबस्त हैं। इनकी चर्चा फिर कभी, खासकर तब जब कोई पुस्तक लिखूंगा। फिलहाल सिर्फ सकारात्मक ही।

खैर, उमेश भाई की राजनीतिक-सामाजिक गतिविधियों से इतर एक और गतिविधि थी। कला-संस्कृति की गतिविधि। उन्होंने जो किया वह कोई नहीं कर सका। न सिर्फ दाउदनगर में बल्कि औरंगाबाद जिला में भी। उन्होंने अखिल भारतीय लघु नाट्य प्रतियोगिता का आयोजन 1992 में दाउदनगर प्रखंड कार्यालय परिसर में किया था।
लोहिया नाट्य एकेडमी के बैनर तले, जिसके अध्यक्ष उमेश सिंह थे। शिक्षक दिनु प्रसाद उपाध्यक्ष एवं निर्देशक थे। शहर के नन्हे मुन्हे कलाकार के रूप में चर्चित वरिष्ठ रंगकर्मी भाई ब्रजेश कुमार, मुनमुन प्रसाद, द्वारिका प्रसाद एवं उनके मित्र बीरेंद्र सिन्हा जैसे कई लोग तब उनके साथ थे-इस कला संस्कृति के महोत्सव में। मील का पत्थर बन गया यह आयोजन अब तक इकलौता ही रहा। जिस शहर में संस्कृति के बीज मिट्टी के कण-कण में है, वहां उस जैसा आयोजन दूसरा न हो सका। यह और बात है कि कुछ अनुचित कारणों को लेकर उसकी चर्चा भी होती है। इस आयोजन में आगरा, सुल्तानगंज झारखंड, कुल्टी, धनबाद, मुगलसराय, आसनसोल, डेहरी, अवधेश प्रभास गया, कोलकाता, आरा, छपरा के मयूर कला केंद्र, कालीदास रंगालय पटना की ख्यात नाट्य टीम आई थी। एक सप्ताह तक यह सांस्कृतिक महोत्सव चला था। शहर में रंग यात्रा भी निकला था। लोग भौंचक थे। ऐसा आयोजन यहां पहली बार हुआ था। शायद नकारात्मक कारणों की चर्चा ने उनका मन खट्टा कर दिया होगा और उन्होंने आगे ऐसा आयोजन नहीं किया।

स्व.सुदेश सिंह मुखिया हत्याकांड में जब उन्होंने अक्टूबर 2012 में न्यायालय में समर्पण किया तो बतौर पत्रकार सिर्फ मुझे व्यवहार न्यायालय में बुलाया। कुछ बातचीत हुई। उनकी समस्या थी, मेरा सुझाव। इसके बाद उनकी पत्नी का प्रेस बयान अखबार में छपा। मेरे और उनके बीच तल्ख संबन्ध की चर्चा आम रही है। यह तल्खी/ मतभेद 1995 के विधानसभा चुनास के वक्त एक अखबार के लिए बतौर मंत्री पुत्र उनका साक्षात्कार लेने को लेकर उभरा था। खैर, हम दोनों के उम्र बढ़ने के साथ परिपक्वता और समझ ने ऐसी परिस्थिति निर्मित की कि शायद संबन्ध मधुर हो गए। जब जेल से बाहर निकले तो मुझसे मिलने चावल बाजार मेरे प्रतिष्ठान पर आए। पिछली मुलाकात जिउतिया के आयोजन में वार्ड पार्षद रहे भाई रवींद्र प्रसाद गुप्ता जी के आवास पर पूर्व मुख्य पार्षद रहे भाई परमानंद प्रसाद के साथ हुई। उसके बाद आज सुबह उनसे जुड़ी दुखद सूचना सोशल मीडिया से मिली। भगवान उनकी आत्मा को शांति और परिजनों को दुख सहने की शक्ति दे।
श्रद्धाभाव सहित...
उपेंद्र कश्यप
लेखक- पत्रकार।

Friday 10 January 2020

स्कूली बच्चों के बस को धक्का देने की रिपोर्टिंग को ले पत्रकार को धमकी



स्कूल संचालक ने दी जान मारने और बर्बाद करने की धमकी
आंचलिक पत्रकारिता हमेशा कठीन रही है, आगे भी नहीं बदलेगी स्थिति
० उपेंद्र कश्यप ०
इंडिया टीवी से जुड़े और अपना न्यू पोर्टल एमा टाइम्स चलाने वाले जिले के वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शी श्रीवास्तव को एक स्कूल संचालक ने धमकी दी है। जान से मारने और बोरिया-बिस्तर बांधने की धमकी, वह भी जिलाधिकारी के स्टोनो कक्ष में, सात जनवरी 2020 को। उन्होंने एसपी को पत्र लिखकर घटना का ब्योरा दिया है। बताया है कि उन्होंने 03 सितंबर को एक खबर चलाई थी। बताया-दिखाया था कि, स्कूल के बच्चे कैसे स्कूल बस को धक्का भीषण गर्मी में दे रहे हैं। संबंधित स्कूल को अपनी बुनियादी सुविधा पर ध्यान देते हुए दिखाई/ बतायी गयी समस्या का अंत करना चाहिए था, ताकि घटना की पुनरावृति न हो और दूसरे स्कूल भी ऐसा करने को प्रेरित हों। लेकिन ऐसा न कर उलटे अब पत्रकार को ही धमकी दे रहे हैं। अपनी दौलत और संबंधों की धौंस दिखा रहे हैं। पीड़ित पत्रकार ने अपनी स्थिति बताते हुए मूल अधिकारों की सुरक्षा एवं संरक्षा हेतू आवश्यक कदम उठाने की मांग की है। क्या उम्मीद की जानी चाहिए कि औरंगाबाद एसपी गंभीरता से इसे संज्ञान में लेंगे? 

प्रियदर्शी ने दो पेज का पत्र इस सन्दर्भ में मुख्य सचिव-बिहार सरकार, प्रधान सचिव गृह विभाग, पुलिस महानिदेशक, अपर पुलिस महानिदेशक विशेष शाखा, पूर्व सांसद एवं पूर्व राज्यपाल निखिल कुमार, सांसद महाबली सिंह, जिले के सभी विधायक, सभी राजनीतिक दल के पदाधिकारी, जिले में कार्यरत सभी एनजीओ के अलावा सभी मीडिया हाउस को भेजा है। अब इतने के बावजूद कोइ कारर्वाई नहीं होती है और पत्रकार को खतरा होता है तो हर आदमी का व्यवस्था से भरोसा उठ जाना लाजिमी होगा। भरोसा बचाए रखने के लिए आवश्यक है आरोपित के खिलाफ कारर्वाई हो। अन्यथा कोइ भी कल किसी भी पत्रकार को धमकी देने से बजा नहीं आयेगा।  

जिले में ही नहीं कहीं भी, आंचलिक पत्रकारिता हमेशा कठीन रही है और आगे स्थिति बदल जायेगी, ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती। जिले में अखबार जलाने, पत्रकार को अपने अनुकूल बनाने के लिए दबाव बनाने हेतू मुकदमों में फंसाने, प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया में मामला ले जाने की कोशिश होते रही है। मुझ पर तो बजाप्ता भीड़ को उकसा कर हमला कराया गया था। आगे भी ऐसा होते रहेगा। स्वयं मुझे, उपेंद्र कश्यप को जब दाउदनगर में दैनिक जागरण के रिपोर्टर थे, ऐसी दुश्वारियां झेलने को मिली हैं। मुझे तो एक कोंग्रेसी नेता ने एक ही खबर को लेकर अंगरेजी और हिन्दी दोनों में नोटिस भेजा था। मैंने उनसे तब कहा था, आपको उर्दू जानने वाला अवकील भी रख लेना चाहिए और उर्दू में भी एक नोटिस भेजना चाहिए। एक महाविद्यालय के सचिव ने बिना खबर का जिक्र किये ही, बिना उसका कतरन लगाए ही वकालतन नोटिस भेजा था। उनकी उम्र देखकर उनसे खा कि क्या यह सब करते हैं? उन्होंने कहा जब एक बार शिकायत कर दी तो वापस नहीं लेंगे। मैंने प्रत्युत्तर दिया-मैं जवाब नहीं देता, और आपके नोटिस का भी जवाब नहीं दूंगा, जहां जाना है जाइए। आपकी उम्र देखकर आपकी इज्जत किया तो आप ऐंठने लगे। वे शांत हो गए। बरमेश्वर मुखिया मियांपुर नरसंहार (16 जून2001) से पूर्व दाउदनगर के इलाके में भ्रमण किये थे। उसके बाद नरसंहार हुआ और प्रशासनिक-राजनीतिक सन्दर्भ में इस पर मैंने एक स्टोरी की थी। जिले के तीन दिग्गज नेता मेरे खिलाफ खड़े हो गए। दो ने वकालतन नोटिस भेजा, एक तब गया स्थित अखबार के ऑफिस में ही खंडन छपवाने बैठ गए, वे खंडन छपवाने में सफल रहे थे। एक नेता जी सिर्फ इसलिए खिलाफ में थे कि उनको मेरी लेखनी में किसी और के शामिल होने का संदेह था, जिसे वे पसंद नहीं करते थे। तब उन्होंने खबर को गलत नहीं बताया था। बस पूछ रहे थे-फलां लिखा है कि आप? इतनी सटीक जानकारी किसने दी? एक व्यंग्य लेख “बात-बे-बात” के लिए अखबार के ऑफिस से लेकर प्रेस कोंसिल ऑफ़ इंडिया तक खूब भाग दौड़ की गयी थी। मुझे अखबार ने न हटाया न नोटिस दिया। इससे ताकत मिलती है। खुल कर लिखने की प्रेरणा मिलती है। समाज का कल्याण होता है। खैर...

जब आप पत्रकारिता करेंगे तो स्वाभाविक है न्यूज मेकर तबका आपकी शिकायत करेगा। वह चापलूसी पसंद होता है। नेता और अधिकारी पत्रकार का इस्तेमाल करते हैं। अब एक नया वर्ग जुट गया है, जिसके बिना मीडिया का वजूद संकट में रहता है। एक पत्रकार क्या करे? वह आर्थिक रूप से कमजोर ही होता है। यह और बात है कि कोइ खानदानी पैसे वाला इस क्षेत्र में आ गया हो-नाम कमाने की गरज में, या बाद में कोइ एक्का-दूका पत्रकार अमीर की श्रेणी में आ गया हो। किन्तु सच यही है कि आंचलिक पत्रकारिता से 100 फीसदी पत्रकारों की दाल रोटी नहीं चलती। दूसरा व्यवसाय जिसके पास है वह कुछ हद तक कम समझौते करता है, या करने को मजबूर होता है। इसके बावजूद उसे धमकियों और धौंस से बराबर सामना करना पड़ता है। हद यह कि जब किसी मुफस्सिल का पत्रकार संकट में होता है तो उसके पक्ष में उसका बराबर इस्तेमाल करने वाला अधिकारी-नेता कोइ खड़ा नहीं होता है। जनता भी प्राय: मुंह फेर लेती है, जिसके लिए एक पत्रकार हमेशा जूझता रहता है। ऐसे मामलों में भी साथ होने न होने के पीछे जातिवाद प्रमुख कारक होता है।
शायद, इसीलिए किसी बड़े अज्ञात पत्रकार ने कहा था-पत्रकारिता: ना बेटे कभी नहीं।        


Wednesday 8 January 2020

26 जनवरी को होने वाला सांस्कृतिक प्रतियोगिता भी अब हुआ बन्द

एसडीएम अशोक कुमार सिंह के साथ उपेंद्र कश्यप

यहां के सासंस्कृतिक उत्थान में रही है इस आयोजन की भूमिका

पीढियां पूछेंगी-जब जोड़ नहीं सकते तो तोड़ क्यों रहे परंपरा

महिलाएं इसी आयोजन में जुटती थीं सर्वाधिक क्योंकि होता था सुरक्षा का भरोसा
उपेंद्र कश्यप
8 जनवरी 2020 को दाउदनगर के इतिहास में एक दुर्भाग्य तब जुड़ा जब पहली बार यहां आईएएस अधिकारी तनय सुल्तानिया एसडीएम के पद पर पदस्थापित हैं और अनुमण्डल की जनता को इनसे काफी उम्मीद थी। वे कुछ जोड़ तो न सके किन्तु उनके रहते हर वर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के अवसर पर आयोजित होने वाली सांस्कृतिक प्रतियोगिता का सिलसिला बन्द हो गया। इस दिन अनुमण्डल कार्यालय सभागार में हुई तैयारी बैठक में वे डीएम के आगमन के कारण अनुपस्थित थे। डीसीएलआर राहुल कुमार की अध्यक्षता में बैठक हुई और बहुत ठंढ होने को वजह बता कर अनुमण्डल प्रशासन द्वारा आयोजित होने वाली अनुमण्डल की सबसे बड़ी सांस्कृतिक प्रतियोगिता का आयोजन नहीं करने का निर्णय हो गया। 
मंच और दर्शक दीर्घा में उपस्थित तत्कालीन विधायक राजाराम सिंह, एसडीएम अखलाक अहमद, और एसडीपीओ ।
      अब देखते हैं, दिल्ली का आयोजन भी रद्द होगा क्या? वहां तो अधिक ठंढ पड़ती है और वहां आयोजन भी देश में सबसे पहले होता है, जबकि दाउदनगर में यह आयोजन अपराह्न में प्रारंभ होता है और शाम को समाप्त। ठंढ की जिन्हें चिंता ने दुबकने को मजबूर किया वे इसे दोपहर में आरंभ कर शाम ढलने से पहले समाप्त करने का सुझाव प्रशासन के सामने रख सकते थे। किंतु बात रखेगा कौन। धृतराष्ट्र की सभा में वीर बहादुरों की कमी नहीं थी, जब द्रौपदी चीर हरण हो रहा था। कमी थी रीढ़ वाले पुरुषों की। रीढ़विहीन लोग नहीं बोल सकते। यहां भी नहीं बोले तो आयोजन स्थगित किये जाने के लबादे ओढ़ कर बन्द कर दिया गया। जब आप कुछ जोड़ नहीं सकते, तो विचार करिये आपको तोड़ने (समाप्त करने) का नैतिक अधिकार कैसे प्राप्त है?
एक कार्यक्रम में उपस्थित भीड़ का दसवां हिस्सा

संभवतः प्रशासन द्वारा आयोजन में व्यवस्था न संभाल पाना भी एक कारण रहा है इस फैसले के पीछे। यदि ऐसा है तो यह प्रशासन की विफलता है कि वह अपने द्वारा आयोजित कार्यक्रम की व्यवस्था सुदृढ नहीं रख सकता।
कहा जा रहा है कि यह आयोजन स्थगित हुआ है। बाद में किसी तिथि को आयोजन होगा। भाई साहब, ऐसा ही भरोसा 2018 में जिउतिया लोकोत्सव को लेकर दिया गया था, कि अगले बरस आयोजन होगा। 2019 में हुआ क्या? जोड़ना और प्रारंभ करना हमेशा कठीन होता है, स्थगित करना, बन्द करना और तोड़ना हमेशा आसान रहा है और आगे भी रहेगा। 
दाउदनगर के सांस्कृतिक उत्थान और परिष्कार से जुड़े आयोजन एक एक कर बन्द होते जा रहे हैं। 
ऐसा क्यों है, यह विचारणीय है। यह चुप्पी और उस पर भी सेलेक्टिव चुप्पी के कारण है। रीढ़विहीन बोलते नहीं हैं। मंच संचालन के लिए राजनीतिक पैरवी करवाने वाले भी चुप, उद्घाटन करने-कराने वाले नेता भी चुप। तो बोलेगा कौन? क्या कोई दल या नेता इस पर प्रेस वार्ता करेगा, एसडीएम से पुनर्विचार के लिए मिलेगा?
सरकारी मुलाजिम तो साहब के सामने बोलने से रहे। वे नौकरी कर रहे हैं, नौकरी करेंगे। वे दर्द नहीं लेंगे। दर्द तो दाउदनगर के समाज को लेना होगा। उनको यह दर्द लेना चाहिए जो तनय सुल्तानिया से अधिक अपेक्षा पाले बैठे थे। वे उनके पास जाएं, और प्रयास करें कि उन्हें इसके लिए तैयार करें कि अनुमण्डल का सबसे बड़ा सांस्कृतिक आयोजन रद्द न हो। वह हो और आईएएस साहब उसे नया आयाम और नई ऊंचाई दें। 
समाज चुप रहेगा, कल आयोजन नहीं होगा तो पीढियां वर्तमान पीढ़ी से सवाल करेंगी। वे पूछेंगी कि-जब तुमने कुछ जोड़ा नहीं तो तोड़ा क्यों? सासंस्कृतिक आयोजनों का सिलसिला क्यों बन्द किया?
जब अनुमण्डल 1991 में यह बना था, उसके कुछ साल बाद ही यहां दयानंद प्रसाद बतौर एसडीएम आये थे। उन्होंने इस सिलसिले का आगाज किया था। समाज को जोड़ने और निजी-सरकारी स्कूलों को एक मंच देने का सिलसिला। जिससे ही यहां का सांस्कृतिक उत्थान हुआ। ऐसा हुआ कि जब 26 जनवरी को औरंगाबाद से पटना जाने के क्रम में झांकियों के कारण सड़क पर बड़े अधिकारियों को रुकना पड़ा तो तत्कालीन एसडीएम अशोक कुमार सिंह को फोन कर कहा था कि ऐसी झांकी तो पटना में भी नहीं निकलती है। अद्भुत लग रहा है हालांकि जाम में फंसे हैं। महत्वपूर्ण है कि यह ऐसा आयोजन था जिसमें शहर की सर्वाधिक महिलाएं-छात्राएं प्रशासनिक भरोसे की वजह से जुटती थीं। अब उनके लिए कोई सुरक्षित कार्यक्रम नहीं बचा।
आज उस सद्प्रयासों पर विराम लग गया। 
शायद आईएएस तनय सुल्तानिया कोई पहल कर इस सांस्कृतिक परंपरा को लेकर आये व्यवधान को दूर कर आयोजन करा सकें।
    बस इतनी सी आरजू है, अपेक्षा है।