Sunday 23 September 2018

दाउदनगर वालों, तुमसे तुम्हारे पूर्वज मांग रहे हैं- प्रतिदान

दाउदनगर को गढ़ने वालों जागो●
तुम्हारे पुरखों ने शहर की ख़ास संस्कृति गढ़ी है● सामूहिक संस्कार गढ़ा है● प्रारंभ जितना कठीन होता है, उतना अंत नहीं● 156 वर्ष लगे सरकार के सहयोग लेने में, उसे कोई तुरंत खत्म करता है, तो शहर बनाने वालों की पराजय है● जय हमेशा उनकी होती है जो अगुआ होते हैं● पिछलगुओं का, लीक पर चलने वालों का इतिहास नहीं लिखा जाता●
        ■दाउदनगर जिउतिया लोकोत्सव के लिए है आंदोलन की आवश्यकता।■
जिउतिया डॉक्युमेंट्री में इतिहास बताते

यदि संबत 1917 से ही आगाज मानें तो यहां जिउतिया का ख़ास स्वरूप 158 साल से है। 156 वें वर्ष (2016 में) इसे एक उपलब्धि मिली और मेरी पहल, तत्कालीन चेयरमैन परमानंद प्रसाद, उप चेयरमैन कौशलेंद्र सिंह और ईओ विपिन बिहारी सिंह ने नप में आयोजन कराया था। यह उस यात्रा का प्रारंभ विंदू था, जिसे राजकीय दर्जा हासिल करना है।निस यात्रा को गर्भ में ही (प्रथम वर्ष में) मार देने वाले एसडीएम हैं, और अब दुसरे वर्ष जब इसको पुनः प्रारंभ किया जा सकता है, तो  शहर के जन प्रतिनिधि मार रहे हैं।

आयोजन नहीं कराने के पक्ष में मेरी समझ से कोई तर्क नहीं गढ़ा जा सकता है। अब न कराने वाले जो भी कहें, उनको खुल कर अपनी बात रखनी चाहिए। कारण बताना चाहिए। प्रायः वार्ड पार्षद, उनके प्रतिनिधि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर हैं। उनको सार्वजनिक बात रखनी चाहिए।

लोक कलाकारों को सामने आना चाहिए। बोर्ड और ईओ आपकी नहीं सुन रहे हैं, तो एकजुट होइए। सभी मिलकर एक ज्ञापन दीजिये, जैसा कि एक कलाकार ने मुझे बताया है कि ज्ञापन की तैयारी है। कलाकारों को पूर्व चेयरमैन परमानन्द प्रसाद और वीसी कौशलेंद्र सिंह को पकड़ना चाहिए। उनसे नेतृत्व करने को कहिये। हालांकि अच्छा होता वे दोनों खुद नेतृत्व के लिए आगे आएं। कौशलेंद्र जी परमानन्द जी की अनुपस्थिति (बोर्ड) के बावजूद दो की ताकत खुद रखते हैं। कई वार्ड पार्षद हैं जो चाहते होंगे कि आयोजन हो, वे भी साथ आ सकते हैं।

शहर को आयोजन न होने से कितना नुकसान होगा, इसकी कल्पना नहीं कर सकता कोइ भी वह व्यक्ति जिसे संस्कृति की समझ नहीं है।
मुझे लगता है कुछ गिने चुने लोग हैं जो हो सकता है चाहते हों कि आयोजन न हो। इसकी वजह उनकी "प्रभुवादी सोच" है। उनको लगता होगा कि यह उत्सव समाज के निचले तबके का है, इलीट वर्ग का नहीं है। जो जातियां इस समारोह में भागीदार हैं, जिन्होंने अपने पूर्वजों के इस धरोहर को पृथ्वी के एक कोने में सुरक्षित बचा कर रखा है, वही वर्ग नप बोर्ड में प्रभावशाली संख्या में है। शहर उनका है, शहर की संस्कृति उनकी है, शहर का संस्कार उन्होंने गढ़ा है।

इस संस्कृति को, संस्कार को बचाना और आगे बढाने का दायित्व भी उसी जमात के वंशजों और पीढ़ी का है। आप खुद नहीं जागेंगे, तो कोई आपको ना पसन्द करने वाला जगाने नहीं आयेगा। यह कतई संभव नहीं है, कि आप सोये रहिये और विरोधियों से अपेक्षा रखिये कि वे आपको नींद से झकझोरकर जगाने आएंगे। न ऐसा इतिहास में हुआ है, न वर्तमान में हो रहा है, और न ही भविष्य में होगा।

(आज कई फोन मैसेज आये। इसलिए लिख रहा हूँ। शहर को तुरंत आंदोलन की आवश्यकता है। आखिर क्यों नहीं नगर परिषद "दाउदनगर जिउतिया लोकोत्सव" का आयोजन कर रहा है?)

Friday 21 September 2018

दाउदनगर के सरकारी ताजिया में कहीं नहीं है सरकार


दाउदनगर में सरकारी ताजिया रखा जाता है। कब से और इसमें मुगलिया सरकार की भूमिका क्या रही थी, यह कोई नहीं जानता। यह शहर बिहार के प्रथम गवर्नर सूबेदार दाउद खा का बसाया हुआ है। सन 1662 से 1672 ई. तक शहर का निर्माण हुआ है। आम धारणा है कि दाउद खा ने बरादरी मुहल्ला में सरकारी खर्च पर ताजिया रखवाने की परंपरा प्रारंभ की थी, मगर हकीकत क्या है यह कहीं मजमून के रूप में दर्ज नहीं है। तारीख ए दाउदिया में इसका जिक्र नहीं आता है, जो स्वाभाविक तौर पर दाउद खा और दाउदनगर का इतिहास बताता है। बरादरी मुहल्ला दाउद खा किला के पश्चिम है। पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता है कि ताजिया का खर्च दाउद खा देते थे। हालाकि बाद के मुगलिया दौर में ही शासकों की कृपा रही है, सहयोग रहा है। नतीजा आम जनता ने इसे सरकारी ताजिया का तगमा दे दिया, जिसमें आजाद भारत की किसी सरकारी या स्थानीय प्रशासन की कोई भूमिका नहीं रही। बताया जाता है कि अन्य ताजियों की तरह ही इसका वजूद है, सिर्फ नाम का सरकारी है।

खत्म हो गई परंपरा
 सरकारी ताजिया से जुड़ी एक परंपरा सात-आठ वर्ष पहले खत्म कर दी गई। बताया जाता है कि मिनहाज नकीब के घर के पास तूफानी खलीफा और मोहन साव के घर के पास मीर साहब का गोला जमता था। इसी बीच सरकारी ताजिया किला की ओर से मर्सिया पढ़ते हुए आता और दोनों गोलों के बीच चिरता हुआ निकल जाता। कई दफा विवाद भी हुआ। इसे देखते हुए समाज के लोगों ने यह पुरानी परंपरा खत्म कर दी और आपसी विचार सहयोग से नई व्यवस्था लागू हुई कि देहाती क्षेत्र के ताजिया के साथ शहरी ताजिया से एक रोज पूर्व इसका पहलाम होता है।

न राजा न रानी रही, फकत एक कहानी रही

दाउदनगर के पौराणिक इतिहास से लेकर वर्तमान इतिहास तक के सफर पर एकदम संक्षिप्त आलेख।
11 मई 2013 को दैनिक जागरण में प्रकाशित। अचानक गूगल में यह शीर्षक टाइप किया तो यह आलेख मिल गया।

उस खबर का लिंक-https://m.jagran.com/lite/bihar/aurangabad-10382182.html

उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) : ''न राजा रहा, न रानी रही, फकत एक कहानी रही, लाल वो गोहर सब छोड़ गए, ताबूत सिर्फ उनकी निशानी रही।'' दाउदनगर के गौरवपूर्ण अतीत पर किसी शायर की यह पंक्ति सटीक बैठती है। सिलौटा बखौरा से दाउदनगर बनने की प्रक्रिया, फिर नगर पंचायत, अनुमंडल बनना और इस बीच कई बार गर्वानुभूति के अवसर का मिलना, हमारे अतीत के सुनहरे क्षण रहे हैं। पौराणिक 'कीकट प्रदेश' का पश्चिमी किनारे पर कलकल हजारों साल से बहते सोन नद के तट पर बसा दाउदनगर अपने हजारों साल के इतिहास में न जाने कितनी दफा, कितने झंझावत झेला होगा? कौन जानता है, इस दौर की आबादी, हमारे पूर्वजों को कैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ा होगा? इलाके के 'गजहंस' दसवीं सदी पूर्व से लेकर प्रागैतिहासिक काल तक की आबादी से हमें जोड़ते हैं। ऐतिहासिक काल में हमारी मौजूदगी के प्रमाण 322 ईसा पूर्व से लेकर 185 ईसा पूर्व तक रहे स्वर्णयुग - मौर्य काल से जोड़ते हैं, यह संकेत मनौरा में स्थापित बुद्ध प्रतिमा से जुड़ी 'मोर पहनाव प्रथा' से मिलता है क्योंकि मोर पंख मौर्य शासकों का वंश चिन्ह रहा है। छठी सदी में इसलामिक क्रांति से पूर्व हर्षव‌र्द्धन के काल में यहां बुद्ध प्रतिमा के स्थापित होने, हर्षपुरा (हसपुरा) के उपराजधानी (कवि वाणभट्ट के कारण) रहने, वाणभट्ट के पीरु निवासी होने की संभावनाएं हमें गर्व का अहसास कराते हैं। मुगलकालीन भारी में सिलौटा बखौरा को दाउदनगर के रूप में औरंगजेब के सिपहसालार दाउद खां ने विकसित किया। इस शहर की अपनी विशेषताएं हैं। तब दाउद खां ने बड़े करीने से शहर को बसाया था। शांति व्यवस्था का ख्याल रखा था। सामाजिक और जातीय समरसता पर उनका ध्यान था। जातीय नाम से इतने मुहल्ले और जातियों की (सतरहवीं सदी से बसी आबादी के संदर्भ में) एक अलग बोली है। ये दोनों खासियतें बताती है कि यहां बाहर से लाकर विभिन्न जातियों को तब बसाया गया था। जातियां चयन की गयी थी, सामाजिक, पारिवारिक और राजनीतिक प्रशासनिक जरूरतों के मद्देनजर। 'तारीख ए दाउदिया' का हिंदी संस्करण तो नहीं मिलता, हिंदी अनुवाद की कोशिश की जा रही है, इतिहास का यह पुस्तक उपलब्ध दस्तावेज है जिससे आवश्यक जानकारी मिल सकती है। जब 19 वीं सदी में शहरीकरण की कल्पना ग्रास रूट की आबादी नहीं कर पाती थी, सन 1885 में इसे नगरपालिका बनाया गया। नील कोठियां, अंग्रेजी हुकूमत की स्मृति शेष है। आजादी के संघर्ष में राजनीतिक पाठशाला (चौरम) रहा यह इलाका, जहां से समाजवादी विचारधार के ध्वजवाहक निकले। जिसमें संत पदारथ जैसे नेता पिछड़ी हुई आबादी तक शिक्षा की रौशनी पहुंचाने का कार्य किया। करीब 19 वर्ष के संघर्ष के बाद सन 1991 में अनुमंडल बना। अब सपना जिला बनने का है। जिला बनाओ संघर्ष समिति का गठन हुआ है। यह संघर्ष कब तक चलेगा? इतिहास की गर्वोक्ति के साथ वर्तमान संवारने के लिए यह अहम कार्य है। हमारा दुर्भाग्य है कि 'लीडर' नहीं पैदा कर पा रहे हैं। राजनीतिक नेतृत्व के मोर्चे पर हम कमजोर पड़ रहे हैं। मजबूत लीडर नहीं मिल रहा है। सोच बदलने की जरूरत है। याद आती है कि किसी कवि की पंक्ति 'हम अपनी परिधि में कैद हैं, लाचार हैं, इसलिए प्रतिमान के बिगड़े हुए आकार हैं। तुम न बांधो आज यहां पर ये कनात ए कागजी, मुश्किलों से जूझने को हम चलो तैयार हैं।' अंत में यह कि उठो ए नदीम कुछ करें दो जहां बदल डालें। जमीं को ताजा करें, आसमां बदल डालें।

Thursday 20 September 2018

राज्य की प्रतिनिधि संस्कृति बनाने की आवश्यकता


जिउतिया लोकोत्सव न्यूनतम 158 साल से मनाया जा रहा है। इसमें बिहार की प्रतिनिधि संस्कृति बनने की पूरी क्षमता है। सरकार संस्कृति को बढ़ावा देने की बात चाहे जितनी कर ले, वह बहुजनों के इस पुराने लोक उत्सव को भाव नहीं देती। जबकि वह इसे गंभीरता से ले तो इस संस्कृति को बहुत ऊंचाई दी जा सकती है। आश्रि्वन अंधरिया दूज रहे, संवत 1917 के साल रे जिउतिया। जिउतिया जे रोपे ले हरिचरण, तुलसी, दमड़ी, जुगुल, रंगलाल रे जिउतिया। अरे धन भाग रे जिउतिया.। स्पष्ट बताता है कि संवत 1917 यानी 1860 में पाच लोगों ने इसका प्रारंभ किया था। इतिहास के मुताबिक इससे पहले से यह आयोजन होता था, सिर्फ इमली तर मुहल्ला में। कारण प्लेग की महामारी को शात करने की तत्कालीन समाज की चेष्टा थी। इसमें कामयाबी भी मिली। लेकिन तब एक महीना तक जो जागरण हुआ वह निरंतरता प्राप्त कर संस्कृति बन गई। बाद में यह नौ दिन और अब मात्र तीन दिवसीय संस्कृति में सिमट गया। यह हर साल आश्रि्वन कृष्णपक्ष अष्टमी को मनाया जाता है। यहा लकड़ी या पीतल के बने डमरुनुमा ओखली रखा जाता है। हिंदी पट्टी में इस तरह सामूहिक जुटान पूजा के लिए कहीं नहीं होता। यहा शहर में बने जीमूतवाहन के मात्र चार चौको (जिउतिया चौक) पर ही तमाम व्रती महिलाएं पूजा करती हैं। इस संस्कृति में फोकलोट अर्थात लोकयान के सभी चार तत्व यथा लोक साहित्य, लोक कला, लोक विज्ञान और लोक व्यवहार प्रचुरता में उपलब्ध हैं। तीन दिन तक होने वाली प्रस्तुतियों में इसे देखा जा सकता है। इसे बिहार की प्रतिनिधि संस्कृति बनाने के लिए जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री थे तो सरकार को ज्ञापन सौंपा गया था। सरकार बहुजनों की इस लोक संस्कृति के उत्थान के लिए कुछ भी नहीं कर रही है। सिर्फ प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। लोक अपने तंत्र (सरकार) से कुछ नहीं लेती। न सुरक्षा मागती है न साधन। न तनाव देती है न बवाल। लोग अपने में मस्त रहते हैं, मस्ती करते हैं और दूसरों को इतना मस्त कर देते हैं कि धन भाग रे जिउतिया, तोरा अइले जियरा नेहाल रे जिउतिया, जे अइले मन हुलसइले, नौ दिन कइले बेहाल, रे जिउतिया.और जब पर्व खत्म होने को होता है तो लोग विरह की वेदना महसूस करते हैं। देखे अइली जिउतिया, फटे लागल छतिया, नैना ढरे नदिया समान। जाने तोहे बिन घायल हूं पागल समान..।


https://www.google.co.in/amp/s/m.jagran.com/lite/bihar/aurangabad-representatives-of-the-state-to-create-culture-12963811.html
30 सितंबर 2015 को जागरण में प्रकाशित मेरा लेख।

Monday 17 September 2018

कैलिफोर्निया के डाक्टर ने कहा मर्ज लाइलाज, मगर होमियोपैथ की गोलियों से ही कैंसर की जंग फतह


 बड़े अस्पतालों से रिटर्न मरीजों की कहानी-उनकी ही ज़ुबानी
आम धारणा यही है कि होमियोपैथ की सफेद मीठी गोलियों और पारदर्शी लिक्विड पर एलोपैथ चिकित्सा पद्धति के त्वरित प्रभाव के मुकाबले लोग जल्दी भरोसा नहीं करते, क्योंकि एलोपैथ का प्रभाव तो तत्क्षण दिखता है जबकि होमियोपैथ धीरे-धीरे असर करता है। एलोपैथ की दुनिया में दवा और चिकित्सा पद्धति का व्यापक विस्तार है। जबकि हैनिमैन की होमियोपैथी में आम तौर एक ही तरह की दिखने वाली सफेद मीठी गोली और लिक्विड का ही मुख्य संसार होता है, जिससे सभी तरह की बीमारी के लिए हर दवा का रंग-रूप एक जैसा दिखता है। होमियोपैथी के जनक हैनिमैन की इस पद्धति में कई बीमारियों और कई असाध्य माना जाने वाले  रोगों का भी शर्तिया इलाज है। यह कहना है बिहार के औरंगाबाद जिला के दाउदनगर के मौलाबाग के चिकित्सक डा. मनोज कुमार का।
शिक्षक अनिल कुमार ने तो छोड़ दी थी जिंदगी पर भरोसा
बुकनापुर गांव निवासी शिक्षक अनिल कुमार को 2010 में कैंसर हो गया था। हालांकि तब एम्स ने क्लियर नहीं किया था अर्थात सौ फीसदी यह नहींबताया था कि मरीज को कैैंसर है, मगर उन्हें होने के लक्षण का संकेत मिला था। अनिल कुमार भेलौर के मशहूर अस्पताल सीएमसी गए तो वहां उन्हें ऑर्थराइटिस से ग्रस्त होना बताया गया। मर्ज वहां भी ठीक नहीं हुआ। फिर वे मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल गए, जहां पता चला कि मरीज को मल्टीपल माइलोमा है, जो एक तरह का ब्लड कैंसर ही है और इस मर्ज ने मरीज को चौथे स्टेज तक जकड़ रखा है, जो फिलहाल लाइलाज है। इस मर्ज के पूरी तरह कभी ठीक नहीं हो सकने की बात कैलिर्फोिर्नया में कार्यरत डा. नरसिम्हा ने भी कही थी और यह बताया था कि यह मर्ज पूरी तरह तो कभी ठीक नहीं हो सकता, मगर संयमित रह और अपने को स्वस्थ रखकर इस मर्ज से लंबे समय तक लड़ा जा सकता है। वह डा. मनोज कुमार की क्लिनिक में इलाज कराया। अब ठीक हैं।
कैैंसर से मुक्ति पा धनकेसरी देवी 85 की उम्र में भी फीट 
अनिल कुमार की माँ धनकेसरी देवी को 1998 में यूट्रस कैंसर हुआ था। तब 65 वर्ष की उम्र थी। पटना स्थित महावीर कैंसर संस्थान से धनकेसरी देवी का इलाज पांच सालों तक चला था। 85 साल की उम्र में वह डा. मनोज कुमार की क्लिनिक में बतौर कैैंसर की पहली मरीज आयी थीं। वह अब भी पूरी तरह स्वस्थ हैं और इस उम्र में खुद क्लिनिक पहुंचती हैं।
रीसते घाव से परेशान थे राहुल, अब बीएड कर जिंदगी संवारने की तैयारी
दाउदनगर के पुरानी शहर निवासी राहुल कुमार सीएमसी (भेलौर) से रिटर्न हुए थे। हसपुरा में हुई दुर्घटना में 03 मार्च 2015 को पैर घायल कर बैठे थे। एक साल भेलौर रहे। पैर में रड लगा हुआ था। जख्म ठीक नहीं हो रहा था। एक जख्म ठीक होता तो फिर उसकी जगह दूसरा जख्म बन जाता था। रीम (पीव) बहता रहता था। किसी का सहारा लेकर उन्हें उठना-बैठना पड़ता था। शहर के लोगों के चंदा सहयोग से 13-14 लाख रुपये खर्च हो चुका था। दो सालों से काफी परेशान थे। उनकी जानकारी होने पर डा. मनोज कुमार खुद उनके पास गए। उन्हें होमियोपैथ पर भरोसा नहीं था, मगर इनके पिता विजय चौरसिया को होमियोपैथ पर विश्वास था। डा. मनोज कुमार ने नि:शुल्क चिकित्सा किया। स्थिति बदली। अब वह स्वस्थ हो गए है, उनका मर्ज लगभग ठीक हो चला है। सिर्फ एक ही दवा का इलाज चला। ट्रीटमेंट शुरू होने के दो-तीन महीने बाद ही राहुल कुमार मानसिक तौर पर सहज हो गए। उनका मनोबल अब इतना बढ़ चुका है कि वह भगवान प्रसाद शिवनाथ प्रसाद बीएड कॉलेज (दाउदनगर) से बीएड कर रहे हैं।
प्रोस्टेट कैैंसर के मरीज श्याम कुमार अब स्वस्थ
विवेकानन्द मिशन विद्यालय समूह के शिक्षक श्याम कुमार को प्रोस्टेट कैैंसर होने की बात बतायी गयी थी। उन्होंने एलोपैथ इलाज से थक-हार जाने के बाद होमियोपैथ का इलाज शुरू कराया। एक साल से इलाजरत श्याम कुमार अब अपने को पूरी तरह स्वस्थ बताते हैं।
ब्लेडप्रेसर से पीडि़त थे ज्योतिषाचार्य 
ज्योतिषाचार्य तारणी कुमार इंद्रगुरु ने बताया कि ब्लेड प्रेसर से परेशान थे। मात्र एक खुराक में ठीक हो गए। हर्ष कुमार (विश्वम्भर बिगहा, दाउदनगर) को जन्म के बाद से ही परेशानी हो रही थी। इस बालक को निमोनिया हो गया था। लगातार 104-105 डिग्री फारेनहाइट बुखार रहता था। उसकी उम्र तीन साल है। पिछले दो साल से होमियोपैथ का इलाज चल रहा है। अब सब कुछ ठीक हो चुका है।
तीन साल की सुहानी जन्म से ही थी परेशानहाल  
मात्र तीन साल की है सुहानी कश्यप। औरंगाबाद, पटना और वाराणसी में भी इलाज कराया। स्वास्थय लाभ नहीं मिला। जन्म के समय से ही सामान्य शारीरिक विकास के अभाव में पैखाना-पेशाब नहीं हो पाता था। पेशाब बिना नली लगाए होता ही नहीं था। ऑपरेशन ही एकमात्र विकल्प बताया जा रहा था। हर्ट में छेद और डाउन सिंड्रोम की भी शिकायत थी। होमियोपैथ के इलाज के बाद अब स्वस्थ। पढ़ती भी है और बालसुलभ चंचलता भी उसमें आ चुकी है।
एथेलिट्स दयानंद शर्मा दूसरे को सहारा देने की हालत मेें
एथेलिट्स रहे सेवानिवृत्त नागरिक दयानंद शर्मा के दोनों पैरों में सूजन रहता था। तीन सालों तक इलाज कराने के बाद थक गए तो अंत में होमियोपैथ के इलाज में डॉक्टर मनोज कुमार के पास गए। एक साल में ठीक हो चुके दयानंद शर्मा कहते हैं कि अब तो किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं, दूसरे को सहारा देने के लिए तैयार हूं। शिक्षक मनीष कुमार संसा गांव के निवासी हैं। किडनी में स्टोन था, जो अब ठीक हो चुका है।

सवर्णवादी मीडिया बनाम निकम्मी बहुजनवादी सोच

"मीडिया दर्शन" में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित अग्रलेख-17.09.2018
*उपेंद्र कश्यप*
संदर्भ-सच में बहुजनों को अपनी मीडिया की जरुरत है।

संजीव चंदन (संपादक-स्त्रीकाल) ने अपने एक पोस्ट में आरक्षण पर ईटीवी बिहार पर हुई बहस का हवाला देते हुए अंत में टिप्पणी की है-'सच में बहुजनों को अपनी मीडिया की जरुरत है।'इससे असहमत होने की कोइ वजह नहीं दिखती किन्तु सवाल कई हैं, जो उठने चाहिए। सवाल से भागने से समाज का वैचारिक विकास नहीं हो सकता। राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए भी यह आवश्यक है कि समाज के भीतर जो सवाल हैं, शंकाएं है, उस पर बहस होनी चाहिए। तभी सही मायने में समाज का विकास संभव हो सकेगा। क्या वास्तव में ऐसी जरुरत हैयह जरूरत क्या अभी पैदा हुई हैजरूरत पुरी करने से बहुजनों को किसने रोक रखा हैक्या बहुजन अपना मीडिया हाउस चलाने में सक्षम हैंकहीं ऐसा तो नहीं कि अपनी अक्षमता छुपाने के लिए सवर्णवादी मीडियाब्राह्मणवादी मीडिया का रोना रोते हैं- बहुजनविचार करिये- क्या दुसरे को गलियाने या कोसने से किसी की कोई समस्या का समाधान हुआ हैसवालों का जवाब स्वयं में तलाशिये-बहुजनों! इस शब्द में आप लेखनी की सुविधा के लिए पिछड़ाअति पिछड़ादलितमहादलित या एक शब्द में कहें तो गैर सवर्णों को जोड़ कर पढ़ें/ समझें। वैसे अपनी सुविधा के लिए इसे अवर्ण भी संबोधित कर सकते हैं। खैर!
अपनी बात एक किस्सा से शुरू करता हूँ-बिहार में एक जिला है-औरंगाबाद। यहाँ अपना अस्पताल चलाने वाले एक प्रख्यात चिकित्सक ने मुझसे व्यक्तिगत बात-चीत में कहा-हमारे मित्र सोच रहे हैं, एक अपना मीडिया हाउस खडा करने को। डॉक्टर साहब सक्षम हैं, उनकी मित्रमंडली लंबी चौड़ी है। फिर दुबारा कभी कोइ चर्चा नहीं। क्यों? क्योंकि शौक है, आवश्यकता महसूस होती है, लेकिन नहीं है तो त्याग, जज्बा, समर्पण और सबसे बड़ी बात व्यावसायिक लाभ-हानि का खतरा मोल लेने का साहस। और बहुजनों, जब तक आप यह सब हासिल नहीं कर लेंगे तब तक अपना मीडिया हाउस तो छोडिये, मीडिया का अंग भी नहीं बन सकते। की-पोस्ट पर तो बिराजने से रहे। अब तो हालात यह हैं कि अखबार में जगह पाने की इच्छा रखने वाले रोज जगह न पा सकने के कारण मीडिया को गलियाते हैं, किन्तु उनका सामूहिक संस्कार ऐसा है कि वे बहुजन पत्रकारों के माध्यम से भी जगह नहीं प्राप्त कर पाते। बहुजनों को नेताओं के बयान से अधिक नुकसान है। जब आप जानते हैं, मानते हैं कि-मीडिया सवर्णवादी है, तो सवाल है कि क्या गलियाने से अगला आपको जगह देगा? क्या आपको कोइ गाली देगा तो उसे तवज्जो देंगे? कतई नहीं। मीडिया में जगह चाहिए तो उसके चरित्र को समझना ही होगा। यह कतई संभव नहीं कि बिना मीडिया हाउस का चरित्र समझे, उसकी कार्यशैली जाने बगैर आपको वहां जगह मिल जाए।
वास्तव में बहुजनों ने निक्कमेपन को अपना रखा है। टैग लाइन है-“हम कुछ करेंगे नहीं, दूसरे करने वालों को गाली देंगे।“ मीडिया कवरेज के आकांक्षी लोगों ने तय कर रखा है कि सम्मान भी नहीं देंगे, सम्मान को रिश्वत का नाम देंगे और खबर में पत्रकार बनाए रखेंगे। यह होने वाला नहीं है। हर बहुजन न लालू प्रसाद है, न कांशी राम है, न मुलायम सिंह, न मायावती है, न नितीश कुमार है, न सुशील मोदी, न रामबिलास पासवान है, कि आप तमाचा जड़ेंगे, भगायेंगे, लतियायेंगे और मीडिया वाले आपके पीछे खुशामदी में दौड़ेंगे। जो नाम आपने उपर पढ़ा, वे सब दोषी हैं। आज के वर्तमान हालात के लिए। सब कोइ अपना मीडिया हाउस खडा करने में सक्षम थे। करीब पिछले तीन दशक से ये सब सत्तासीन हैं। चाहते तो कई मीडिया हाउस खड़े कर देते, लेकिन नहीं, ‘अपना काम बनता-भांड में जाए जनता’-को अपनाते रहे। ये लोग अपना हित साधने के लिए काम करते रहे, समाज के व्यापक हित के लिए नहीं। उस समाज का कोइ महत्त्व नहीं जिसका अपना साहित्य नहीं है। आपसी विश्वास की कमी है। अपना मीडिया हो तो समाज को जागरुक करना आसान है, समझाना, संबल देना, प्रोत्साहित करना, सही मार्ग दर्शन देना सहज है। और उपरोक्त नेताओं की समस्या यही है कि, यदि उनकी जनता जागरुक होगी तो उनके लिए सत्ता गहना मुश्किल होगी। किसी ने व्यापक वर्गहित की न तो चिंता की न ही चिंतन किया। क्या इन नेताओं ने “बहुजन मीडिया” खड़ी करने की कोशिश की? आप खड़ा करते, और सवर्ण, सामंती, ब्राह्मणवादी तत्व आपको रोकते तो आपकी गालियाँ, आपका विरोध समझ में आता।
आज कई सेक्टर ऐसे हैं, जहां अघोषित नियम मुताबिक़ सिर्फ सवर्ण हैं, उनका ही चलता है। तमाम की-पोस्ट पर वही हैं, जैसा कि अपनी शोध पुस्तक में फ़ॉरवर्ड प्रेस के संपादक प्रमोद रंजन ने पटना के मीडिया हाउसों का सर्वेक्षण कर जातीय स्थिति बताया था। बहुजनों को भी चाहिए कि वे इस क्षेत्र में आयें, लेकिन इसके लिए छोटे पैमाने से शुरुआत तो भले हुई है, किन्तु प्रभावकारी सफलता तभी संभव है जब करोड़ों की लागत से बहुजन मीडिया हाउसेस खड़े हो सकेंगे। प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया हाउस तक। यह यात्रा कठीन नहीं होगी, बशर्ते कि शुरू तो हो। अभी तो हम वहीं लटके पड़े हैं जहां से आन्दोलन शुरू किये गए थे।  
बहुजन समुदाय तो थोड़ा ही मिलने पर अपनों के खिलाफ सक्रीय होता है। क्योंकि वह खुद को दबा-कुचला समझता है, कुंठित मन का है, और उसमें दबाने-कुचलने वालों के खिलाफ खडा होने का साहस नहीं होता, इसलिए वह अपनो के खिलाफ कलम घिसता है, पैर खींचता है, उलझा हुआ है। कैसे भला आप सवर्णवादी/सामन्तवादी मीडिया से मुकाबला कर सकेंगे? पहले अवर्ण अपने और गैर की पहचान करना तो सीखे। वह न जातिहित जानता है, न वर्ग हित। दूसरी बात यह भी है कि अवर्णों में जो सबल तबका है वह खुद जातिवादी है, घोर जातिवादी। वह सवर्णों की तरह ही व्यापक अवर्णों को सहज स्वीकार्य नहीं हो रहा अब। क्यों? क्योंकि वह भी नव सामन्ती मानसिकता का अहो गया है। जो जहां है, अपने से कमजोर को दबाने, हड़पने में लगा है। चाहे वह पारंपरिक सामन्ती हो या नए धनार्जित नव्साम्न्ती हों। इस मुद्दे पर वैचारिक अभियान चलाने की जरुरत है। दूसरे को अपना हित साधने से रोक नहीं सकते। और ऐसा करना उचित भी नहीं है। अपना हित साधनकिन्तु तात्कालिक ही राजनीति से तो कर सकते हैं किन्तु समाज का हित बिना साहित्य के नहीं हो सकता। बिना मीडिया के नहीं हो सकता। यह आज की आवश्यकता है।