Friday 21 September 2018

न राजा न रानी रही, फकत एक कहानी रही

दाउदनगर के पौराणिक इतिहास से लेकर वर्तमान इतिहास तक के सफर पर एकदम संक्षिप्त आलेख।
11 मई 2013 को दैनिक जागरण में प्रकाशित। अचानक गूगल में यह शीर्षक टाइप किया तो यह आलेख मिल गया।

उस खबर का लिंक-https://m.jagran.com/lite/bihar/aurangabad-10382182.html

उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) : ''न राजा रहा, न रानी रही, फकत एक कहानी रही, लाल वो गोहर सब छोड़ गए, ताबूत सिर्फ उनकी निशानी रही।'' दाउदनगर के गौरवपूर्ण अतीत पर किसी शायर की यह पंक्ति सटीक बैठती है। सिलौटा बखौरा से दाउदनगर बनने की प्रक्रिया, फिर नगर पंचायत, अनुमंडल बनना और इस बीच कई बार गर्वानुभूति के अवसर का मिलना, हमारे अतीत के सुनहरे क्षण रहे हैं। पौराणिक 'कीकट प्रदेश' का पश्चिमी किनारे पर कलकल हजारों साल से बहते सोन नद के तट पर बसा दाउदनगर अपने हजारों साल के इतिहास में न जाने कितनी दफा, कितने झंझावत झेला होगा? कौन जानता है, इस दौर की आबादी, हमारे पूर्वजों को कैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ा होगा? इलाके के 'गजहंस' दसवीं सदी पूर्व से लेकर प्रागैतिहासिक काल तक की आबादी से हमें जोड़ते हैं। ऐतिहासिक काल में हमारी मौजूदगी के प्रमाण 322 ईसा पूर्व से लेकर 185 ईसा पूर्व तक रहे स्वर्णयुग - मौर्य काल से जोड़ते हैं, यह संकेत मनौरा में स्थापित बुद्ध प्रतिमा से जुड़ी 'मोर पहनाव प्रथा' से मिलता है क्योंकि मोर पंख मौर्य शासकों का वंश चिन्ह रहा है। छठी सदी में इसलामिक क्रांति से पूर्व हर्षव‌र्द्धन के काल में यहां बुद्ध प्रतिमा के स्थापित होने, हर्षपुरा (हसपुरा) के उपराजधानी (कवि वाणभट्ट के कारण) रहने, वाणभट्ट के पीरु निवासी होने की संभावनाएं हमें गर्व का अहसास कराते हैं। मुगलकालीन भारी में सिलौटा बखौरा को दाउदनगर के रूप में औरंगजेब के सिपहसालार दाउद खां ने विकसित किया। इस शहर की अपनी विशेषताएं हैं। तब दाउद खां ने बड़े करीने से शहर को बसाया था। शांति व्यवस्था का ख्याल रखा था। सामाजिक और जातीय समरसता पर उनका ध्यान था। जातीय नाम से इतने मुहल्ले और जातियों की (सतरहवीं सदी से बसी आबादी के संदर्भ में) एक अलग बोली है। ये दोनों खासियतें बताती है कि यहां बाहर से लाकर विभिन्न जातियों को तब बसाया गया था। जातियां चयन की गयी थी, सामाजिक, पारिवारिक और राजनीतिक प्रशासनिक जरूरतों के मद्देनजर। 'तारीख ए दाउदिया' का हिंदी संस्करण तो नहीं मिलता, हिंदी अनुवाद की कोशिश की जा रही है, इतिहास का यह पुस्तक उपलब्ध दस्तावेज है जिससे आवश्यक जानकारी मिल सकती है। जब 19 वीं सदी में शहरीकरण की कल्पना ग्रास रूट की आबादी नहीं कर पाती थी, सन 1885 में इसे नगरपालिका बनाया गया। नील कोठियां, अंग्रेजी हुकूमत की स्मृति शेष है। आजादी के संघर्ष में राजनीतिक पाठशाला (चौरम) रहा यह इलाका, जहां से समाजवादी विचारधार के ध्वजवाहक निकले। जिसमें संत पदारथ जैसे नेता पिछड़ी हुई आबादी तक शिक्षा की रौशनी पहुंचाने का कार्य किया। करीब 19 वर्ष के संघर्ष के बाद सन 1991 में अनुमंडल बना। अब सपना जिला बनने का है। जिला बनाओ संघर्ष समिति का गठन हुआ है। यह संघर्ष कब तक चलेगा? इतिहास की गर्वोक्ति के साथ वर्तमान संवारने के लिए यह अहम कार्य है। हमारा दुर्भाग्य है कि 'लीडर' नहीं पैदा कर पा रहे हैं। राजनीतिक नेतृत्व के मोर्चे पर हम कमजोर पड़ रहे हैं। मजबूत लीडर नहीं मिल रहा है। सोच बदलने की जरूरत है। याद आती है कि किसी कवि की पंक्ति 'हम अपनी परिधि में कैद हैं, लाचार हैं, इसलिए प्रतिमान के बिगड़े हुए आकार हैं। तुम न बांधो आज यहां पर ये कनात ए कागजी, मुश्किलों से जूझने को हम चलो तैयार हैं।' अंत में यह कि उठो ए नदीम कुछ करें दो जहां बदल डालें। जमीं को ताजा करें, आसमां बदल डालें।

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