Monday 17 September 2018

सवर्णवादी मीडिया बनाम निकम्मी बहुजनवादी सोच

"मीडिया दर्शन" में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित अग्रलेख-17.09.2018
*उपेंद्र कश्यप*
संदर्भ-सच में बहुजनों को अपनी मीडिया की जरुरत है।

संजीव चंदन (संपादक-स्त्रीकाल) ने अपने एक पोस्ट में आरक्षण पर ईटीवी बिहार पर हुई बहस का हवाला देते हुए अंत में टिप्पणी की है-'सच में बहुजनों को अपनी मीडिया की जरुरत है।'इससे असहमत होने की कोइ वजह नहीं दिखती किन्तु सवाल कई हैं, जो उठने चाहिए। सवाल से भागने से समाज का वैचारिक विकास नहीं हो सकता। राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए भी यह आवश्यक है कि समाज के भीतर जो सवाल हैं, शंकाएं है, उस पर बहस होनी चाहिए। तभी सही मायने में समाज का विकास संभव हो सकेगा। क्या वास्तव में ऐसी जरुरत हैयह जरूरत क्या अभी पैदा हुई हैजरूरत पुरी करने से बहुजनों को किसने रोक रखा हैक्या बहुजन अपना मीडिया हाउस चलाने में सक्षम हैंकहीं ऐसा तो नहीं कि अपनी अक्षमता छुपाने के लिए सवर्णवादी मीडियाब्राह्मणवादी मीडिया का रोना रोते हैं- बहुजनविचार करिये- क्या दुसरे को गलियाने या कोसने से किसी की कोई समस्या का समाधान हुआ हैसवालों का जवाब स्वयं में तलाशिये-बहुजनों! इस शब्द में आप लेखनी की सुविधा के लिए पिछड़ाअति पिछड़ादलितमहादलित या एक शब्द में कहें तो गैर सवर्णों को जोड़ कर पढ़ें/ समझें। वैसे अपनी सुविधा के लिए इसे अवर्ण भी संबोधित कर सकते हैं। खैर!
अपनी बात एक किस्सा से शुरू करता हूँ-बिहार में एक जिला है-औरंगाबाद। यहाँ अपना अस्पताल चलाने वाले एक प्रख्यात चिकित्सक ने मुझसे व्यक्तिगत बात-चीत में कहा-हमारे मित्र सोच रहे हैं, एक अपना मीडिया हाउस खडा करने को। डॉक्टर साहब सक्षम हैं, उनकी मित्रमंडली लंबी चौड़ी है। फिर दुबारा कभी कोइ चर्चा नहीं। क्यों? क्योंकि शौक है, आवश्यकता महसूस होती है, लेकिन नहीं है तो त्याग, जज्बा, समर्पण और सबसे बड़ी बात व्यावसायिक लाभ-हानि का खतरा मोल लेने का साहस। और बहुजनों, जब तक आप यह सब हासिल नहीं कर लेंगे तब तक अपना मीडिया हाउस तो छोडिये, मीडिया का अंग भी नहीं बन सकते। की-पोस्ट पर तो बिराजने से रहे। अब तो हालात यह हैं कि अखबार में जगह पाने की इच्छा रखने वाले रोज जगह न पा सकने के कारण मीडिया को गलियाते हैं, किन्तु उनका सामूहिक संस्कार ऐसा है कि वे बहुजन पत्रकारों के माध्यम से भी जगह नहीं प्राप्त कर पाते। बहुजनों को नेताओं के बयान से अधिक नुकसान है। जब आप जानते हैं, मानते हैं कि-मीडिया सवर्णवादी है, तो सवाल है कि क्या गलियाने से अगला आपको जगह देगा? क्या आपको कोइ गाली देगा तो उसे तवज्जो देंगे? कतई नहीं। मीडिया में जगह चाहिए तो उसके चरित्र को समझना ही होगा। यह कतई संभव नहीं कि बिना मीडिया हाउस का चरित्र समझे, उसकी कार्यशैली जाने बगैर आपको वहां जगह मिल जाए।
वास्तव में बहुजनों ने निक्कमेपन को अपना रखा है। टैग लाइन है-“हम कुछ करेंगे नहीं, दूसरे करने वालों को गाली देंगे।“ मीडिया कवरेज के आकांक्षी लोगों ने तय कर रखा है कि सम्मान भी नहीं देंगे, सम्मान को रिश्वत का नाम देंगे और खबर में पत्रकार बनाए रखेंगे। यह होने वाला नहीं है। हर बहुजन न लालू प्रसाद है, न कांशी राम है, न मुलायम सिंह, न मायावती है, न नितीश कुमार है, न सुशील मोदी, न रामबिलास पासवान है, कि आप तमाचा जड़ेंगे, भगायेंगे, लतियायेंगे और मीडिया वाले आपके पीछे खुशामदी में दौड़ेंगे। जो नाम आपने उपर पढ़ा, वे सब दोषी हैं। आज के वर्तमान हालात के लिए। सब कोइ अपना मीडिया हाउस खडा करने में सक्षम थे। करीब पिछले तीन दशक से ये सब सत्तासीन हैं। चाहते तो कई मीडिया हाउस खड़े कर देते, लेकिन नहीं, ‘अपना काम बनता-भांड में जाए जनता’-को अपनाते रहे। ये लोग अपना हित साधने के लिए काम करते रहे, समाज के व्यापक हित के लिए नहीं। उस समाज का कोइ महत्त्व नहीं जिसका अपना साहित्य नहीं है। आपसी विश्वास की कमी है। अपना मीडिया हो तो समाज को जागरुक करना आसान है, समझाना, संबल देना, प्रोत्साहित करना, सही मार्ग दर्शन देना सहज है। और उपरोक्त नेताओं की समस्या यही है कि, यदि उनकी जनता जागरुक होगी तो उनके लिए सत्ता गहना मुश्किल होगी। किसी ने व्यापक वर्गहित की न तो चिंता की न ही चिंतन किया। क्या इन नेताओं ने “बहुजन मीडिया” खड़ी करने की कोशिश की? आप खड़ा करते, और सवर्ण, सामंती, ब्राह्मणवादी तत्व आपको रोकते तो आपकी गालियाँ, आपका विरोध समझ में आता।
आज कई सेक्टर ऐसे हैं, जहां अघोषित नियम मुताबिक़ सिर्फ सवर्ण हैं, उनका ही चलता है। तमाम की-पोस्ट पर वही हैं, जैसा कि अपनी शोध पुस्तक में फ़ॉरवर्ड प्रेस के संपादक प्रमोद रंजन ने पटना के मीडिया हाउसों का सर्वेक्षण कर जातीय स्थिति बताया था। बहुजनों को भी चाहिए कि वे इस क्षेत्र में आयें, लेकिन इसके लिए छोटे पैमाने से शुरुआत तो भले हुई है, किन्तु प्रभावकारी सफलता तभी संभव है जब करोड़ों की लागत से बहुजन मीडिया हाउसेस खड़े हो सकेंगे। प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया हाउस तक। यह यात्रा कठीन नहीं होगी, बशर्ते कि शुरू तो हो। अभी तो हम वहीं लटके पड़े हैं जहां से आन्दोलन शुरू किये गए थे।  
बहुजन समुदाय तो थोड़ा ही मिलने पर अपनों के खिलाफ सक्रीय होता है। क्योंकि वह खुद को दबा-कुचला समझता है, कुंठित मन का है, और उसमें दबाने-कुचलने वालों के खिलाफ खडा होने का साहस नहीं होता, इसलिए वह अपनो के खिलाफ कलम घिसता है, पैर खींचता है, उलझा हुआ है। कैसे भला आप सवर्णवादी/सामन्तवादी मीडिया से मुकाबला कर सकेंगे? पहले अवर्ण अपने और गैर की पहचान करना तो सीखे। वह न जातिहित जानता है, न वर्ग हित। दूसरी बात यह भी है कि अवर्णों में जो सबल तबका है वह खुद जातिवादी है, घोर जातिवादी। वह सवर्णों की तरह ही व्यापक अवर्णों को सहज स्वीकार्य नहीं हो रहा अब। क्यों? क्योंकि वह भी नव सामन्ती मानसिकता का अहो गया है। जो जहां है, अपने से कमजोर को दबाने, हड़पने में लगा है। चाहे वह पारंपरिक सामन्ती हो या नए धनार्जित नव्साम्न्ती हों। इस मुद्दे पर वैचारिक अभियान चलाने की जरुरत है। दूसरे को अपना हित साधने से रोक नहीं सकते। और ऐसा करना उचित भी नहीं है। अपना हित साधनकिन्तु तात्कालिक ही राजनीति से तो कर सकते हैं किन्तु समाज का हित बिना साहित्य के नहीं हो सकता। बिना मीडिया के नहीं हो सकता। यह आज की आवश्यकता है।

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