Saturday 31 October 2015

बीफ मुद्दे पर यह हंगामा क्यों है बरपा ?


एक विनम्र निवेदन है। इसे पढें, विचार करें और तब कोई टिप्पणी करें। कि क्या मेरी चिंता जायज नहीं है।
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बीफ मुद्दे पर खुद को रोकने का प्रयास जब असफल हो गया तो भाई लिख रहा हूं। लिखना क्या, कहिए कुछ जो सवाल मुझे मथ रहा है, बेचैन कर रहा है, वह आपके समक्ष रख रहा हूं। जितना आपको लिखने-बोलने की आजादी है उतना मुझे भी है। यह इस कारण कह रहा हूं कि एक बार बीफ के मुद्दे पर मैंने लिखा था तो विधर्मियों ने नहीं बल्कि अपनों ने अधिक नाकारात्मक टिप्पणी की थी।

बीफ ने हंगामा मचा रखा है। पूरे देश में और खास कर बिहार के चुनाव में लगता है दूसरा कोई मुद्दा है ही नहीं। मुस्लिम देशों में सुअर के मांस पर रोक है। इस कारण सवाल उठाया जा रहा है कि भारत में गोवंश के मांस पर प्रतिबन्ध होना चाहिए। सवाल उनके भी सही हैं कि यह तय करना न्यायोचित नहीं है कि कौन क्या खायेगा, या क्या नहीं खायेगा? भारत की परिस्थिति अलग है। यहां गाय को माता माना जाता है। ठीक वैसी ही स्थिति है कि हम गंगा को माता मानते हुए प्रणाम करते हैं और उसमें घर का कचडा डालने से परहेज नहीं करते। गाय को अगर माता वास्तव में मानते हैं तो सवाल है कि कसाइयों को गाय बेचता कौन है? कितने मुस्लिम गाया पालन करते हैं? हम ही किसी से गाय तब बेचते हैं जब वह बिसुख जाती है, बुढी हो जाती है। हम तब यह जानते हैं कि जिससे बेच रहे हैं वह फिर इस अनुपयोगी गाय का क्या करेगा? हम मानें या न मानें यह सत्य है कि गाय बेचने वाला यह जानता है कि इस बेकार हो गये गाय के साथ उसका क्रेता क्या करने वाला है। जब इस समाज में मां और पिता बुढे हो जाने पर बच्चों द्वारा पीडित किए जाते हैं, सताये जाते हैं, अनाथालयों में छोड दिये जाते हैं, अंजान ट्रेन या स्टेशन पर छोड दिये जाते हैं, प्रताडना से तंग माँ-बाप आत्महत्या कर लेते हैं तो फिर बेकार हो गयी गाय को माता कह कर उसकी सेवा कौन करेगा? यह कडवा सत्य है। आप मानें या न मानें। जब गो हत्या प्रतिबन्धित हो जायेगा तो सडकों पर कुत्ते की मौत मरती “गाय-माता” देखी जायेंगी। क्योंकि कोई खरीदार नहीं मिलेगा और कोई बेकार गाय का रखवाला नहीं होगा। गो-पालक कंगाल होते जायेंगे। कोई गो-पालन करना नहीं चाहेगा क्योंकि बुढी गाय भी बेचकर कुछ पैसे हासिल कर नया गाय खरीदने का विकल्प समाप्त हो जायेगा। गाय भी अभिजन हो जायेगी, क्योंकि बेकार बुढी गाय को रख कर खिलाने वाले सिर्फ अभिजन ही होंगे। जिनके घरों में नोटों के तकिये होंगे।


सवाल यह भी कि तब उस ब्राह्मण व्यवस्था का क्या होगा जो सदियों से चली आ रही है। बुढी हो या बेकार गाय, उसका मरना तो तय ही है। जब गाय घर में खूंटे पर मरेगी तो प्रायश्चित कैसे होगा? कौन हाथ में पगहा लेकर गुंग बनकर दर-दर भीख मांगेगा? जब ऐसा नहीं कोई करेगा तो नया बवाल करने का हथकंडा अपना लिया जा सकता है। सामाजिक टकराव की नयी परिस्थिति पैदा होगी या की जायेगी।

और अंत में--------

राजद के नेता प्रो.रघुवंश सिंह ने जो कहा था वह 200 फीसद सही कहा था। इस पर बौद्धिक विचार की दरकार थी किंतु वोट की चिंता और राजनीति ने इसे झुठा बता दिया। इस मुद्दे पर बहस करनी हो तो काफी कुछ सप्रमाण लिखा जा सकता है। फिलहाल इतना ही।        

Friday 30 October 2015

महागठबन्धन की जीत और एनडीए की हार के संकेत


उपेन्द्र कश्यप
बिहार में महागठबन्धन जीत रहा है और एनडीए हार रहा है। यह संकेत मिल रहा है। मेरे पत्रकार मित्रों (जिन्होंने कई जिलों में न्यूज कवरेज किया) की मानें तो संकेत एनडीए के लिए शुभ नहीं है। इसकी कई वजहें हैं। 18.10.2015 को पटना में विज्ञापनों से नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की तस्वीर भाजपा ने छापनी बंद कर दी है। इससे तो यही संकेत माना जा रहा है कि एनडीए मोदी को हार के कलंक से बचाने की कोशिश कर रही है।

इस हार की आशंका की वजह क्या है?
यादव, मुस्लिम और कुर्मी मतों का अटूट ध्रुवीकरण। इसके जिम्मेदार अकेले अगर कोई है तो भाजपा के रणनीतिकार। महागठबन्धन अपने वजूद की लडाई में है। इसके सबसे बडे वोटर यादव हैं, जिनके लिए लालु प्रसाद यादव भगवान से कम नहीं हैं। बिहार में गरीबों को आवाज देने और सामंती व्यवस्था को काफी हद तक खत्म करने (1990-1995 के कार्यकाल में) के कारण गैर यादव पिछडों, अति पिछडों और दलितों, महादलितों में भी उनकी प्रतिष्ठा है। इस कारण मोदी को लालु को टारगेट करने से बचना चाहिए था। उनको नीतीश को टारग़ेट भी न कर के सिर्फ विकास और अपनी बात करनी चाहिए थी। व्यक्तिगत टिप्पणियों ने इन मतदाताओं को फेवीकोल की तरह चिपका दिया। इसके साथ ही सामंतवाद और सामंती क्षेत्रों में प्रभावित या कुंठित अन्य पिछडी और अति पिछडी जातियां भी महागठबन्धन के साथ चली गयीं। इससे इनका वोट एनडीए से अधिक होता दिख रहा है।

उपेन्द्र कुशवाहा का प्रभाव न्यूनतम होना भी एक प्रमुख कारण है।  इनकी जाति का वोट ट्रेंड दलगत नहीं घोर जातिवादी माना जा रहा है। जहां कुशवाहा प्रत्याशी जिस दल का था उसे मत दिया। महागठबन्धन के करीब तीन दर्जन सीट सिर्फ इसी कारण जीतता हुआ माना जा रहा है, क्योंकि वहां प्रत्याशी कुशवाहा है। बिहार में इसी प्रवृति के कारण कुशवाहा का कोई नेता नहीं उभर सका है। उपेन्द्र कुशवाहा प्रयोग के ही स्तर पर दफन न हो जायें इसका डर भी है। क्योंकि उनमें अपनी जाति का वोट ट्रांसफर कराने की क्षमता नहीं है। ऐसे में उनको भाजपा शायद ही अधिक तवज्जो देगी और महागठबन्धन उन्हें बडा नेता बना कर अपने पैर में कुल्हाडी मारने की आशंका पैदा करने से रहा।

भाजपा का मुकाबला भाजपा से ही।  कारण है पार्टी नेताओं का बेवकुफी भरा अनावश्यक बयानबाजी। बीफ और आरक्षण के अलावा शैतान जैसे बयान गलत सन्दर्भ में हों या न हों, किंतु महागठबन्धन के नेताओं ने अपने समर्थकों को अपने पक्ष में और एनडीए के खिलाफ समझाने में सफल रहे। एक यादव मित्र ने कहा- बताइये, देश के प्रधानमंत्री लालु जी को शैतान कह रहे हैं।

एनडीए के वोटर वोट नहीं देते।  एनडीए खासकर भाजपा के आधार मतदाता न तो आक्रामक वोटिंग करते हैं न ही व्यापक। ओबरा विधान सभा क्षेत्र को अगर आधार मानें तो यह मतदाता वर्ग 50 से 52 फीसद तक ही मतदान कर पाता है जबकि विपक्षी वोटरों ने 60 से 80 फीसद तक मतदान किया। एक सवर्ण भुमिहार युवक ने कहा कि उसके गांव में 1000 वोटर हैं उसमें से मात्र 80 उपस्थित थे जिन्होंने 500 वोट डाला। इसे गर्व है कि और क्या कर सकते थे। इसका दूसरा पक्ष है कि यह वर्ग उपस्थित न होकर 50 फीसद वोट पोल कर सका, जबकि महागठबन्धन का वोटर उपस्थित होकर इससे काफी अधिक मतदान कर सका है। यह “वोटर टर्न आउट” रिपोर्ट काफी प्रभाव परिणाम पर डालेगा। दूसरी बात एनडीए के घटक में मात्र लोजपा के नेता राम विलास पासवान ही अपनी जाति के थोक वोट शिफ्ट करा सके। रालोसपा का संगठन कुशवाहा जाति से बाहर नहीं है और हम अभी तो खडा ही हो रहा है। नतीजा चारों दलों के कार्यकर्ताओं में समंवय का अभाव दिखता है।  
अंत में...

ध्यान देने वाली बात है कि राजद सुप्रिमो लालु प्रसाद यादव जी सफेद कुर्ता नहीं पहन रहे इस चुनावी प्रचार अभियान में। रंगीन, चेक कुर्ते में ही दिख रहे हैं। कारण ? किसी ने सुझाया होगा कि इस टोटमे से बिहार फतह आसान और निश्चित होगा?

Wednesday 28 October 2015

श्रमण संस्कृति का वाहक दाउदनगर क्यों?

                                                        ....................अपनी बात  


                         
   विश्व के बड़े भू-क्षेत्र का राष्ट्र एवं राज्यों का इतिहास लिखित है। किसी कस्बे का लिखित इतिहास शायद ही मिलता है। दाउदनगर थोड़ा भाग्यशाली है। मुगलकालीन शहर का इतिहास बताने के लिए इसके पास तारीख-ए-दाउदियाहै। अरबी, फारसी मिश्रित कठिन उर्दू में लिखी हुई।  इसके अनुवाद पर विगत तीन साल से काम कर रहा हूं। इस पुस्तक में मैंने इसी कारण तारीख-ए-दाउदियासे कुछ प्रसंग ही लिया है जिससे इतिहास के कुछ सन्दर्भ हासिल हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ विद्वानों ने भी भूगोल के इस हिस्से का अध्ययन किया है। मगध का इतिहास ही भारत का इतिहास है। इसी गौरवशाली मगध के पश्चिमी किनारे और शाहाबाद (रोहतास) के पूर्वी किनारे सोन के तट से सटा शहर दाउदनगर 23 वार्डों का नगर पंचायत है। इसके साथ ही भखरुआं जुड़ा हुआ है लेकिन शहरी क्षेत्र से फिलहाल बाहर ही है। शहर आक्षांश 25.03 डिग्री (उत्तर) और देशांतर 84.4 डिग्री (पूरब) में स्थित है। समुद्रतल से यह शहर 84 मीटर यानि 275 फुट की औसत उंचाई पर बसा हुआ है। टाईम जोन है- आईएसटी (यूटीसी़530)। राष्ट्रीय राजमार्ग 98 शहर से होकर गुजरता है। 2011 की जनगणना के अनुसार शहर की आबादी 52364 है। पुरुष की आबादी 52 फीसदी 27229 और महिला आबादी 48 प्रतिशत 25134 है। 71 प्रतिशत पुरुष साक्षरता और 61 प्रतिशत महिला साक्षरता के साथ 66 फीसदी  की औसत साक्षरता दर है। कुल  जनसंख्या के 18 फीसदी आबादी की उम्र छः वर्ष से कम है। यहां 86 प्रतिशत  हिन्दू और 14 प्रतिशत  मुस्लिम आबादी है।
मैं इसमें इत्तेफाक नहीं रखता कि सिलौटा बखौरा महाभारत काल में श्री कृष्ण के अग्रज बलराम (इनका एक नाम-बलदाउ है) के आगमन से दाउग्राम बन गया, जो कालांतर में दाउदनगर हो गया। कुछ लोगों ने इस नाम को ही प्रचलित बना देने की कोशिश जरुर की, मगर सफलता न तो मिलनी थी, न मिली। सच्चाई को झुठलाना असंभव है। मैं यही मानता हूं कि औरंगजेब के सिपहसालार दाउद खां ने इस शहर को बसाया था, इसलिए इसका नाम दाउदनगर है। पहले आपने उत्कर्ष (2007) और उत्कर्ष दो (2011) में मेरी कोशिश को देखा परखा है। पूरे अनुमण्डल क्षेत्र की कई नई एवं खोजपरक बातें सामने लाया था। उत्कर्ष 2007 में मैंने दाउदनगर का इतिहास और दाउद खां की जीवनी बताया था। इस बार भौगौलिक दायरा कम किया है मगर अध्ययन व्यापक और गहराईपूर्ण है।

 1994 में जब मैंने पत्रकारिता प्रारंभ किया तो एक मिशन के साथ किया। मस्तिष्क के एक कोने में यह बात बैठ गई थी- जो रचता है वही बचता है।“  हर बार कुछ नया करने, नया खोजने को प्रेरित करता रहा। मूलरूप से दो क्षेत्रों में गहरे अनुसन्धान से मैंने पत्रकारिता की शुरुआत की। अद्भूत पर्व जिउतिया और दूसरा नक्सली गतिविधियां। इक्कीस साल की पत्रकारिता में मैंने क्षेत्रीय राजनीति के बाद सर्वाधिक खोजी खबरें इन्हीं दो विषयों पर लिखा है। पहली बार हथियारबंद दस्ता के बीच जाने का बेखौफ कार्य हो या जिउतिया को राज्यस्तरीय या राष्ट्रीय प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में महत्वपूर्ण स्थान दिलाने का काम। साल 1995 का जिउतिया मेरे लिए एक अवसर के रुप में सामने आया। मैं इसकी पूर्ण जानकारी के लिए कई सप्ताह पूर्व गलियों में बुजूर्गों के पास जानकारी लेने गया। यह देखा, यहां की पूरी संस्कृति ही श्रमण है यानि श्रमिकों की संस्कृति है। हर गली, मुहल्ले की हालत एक सी है। यहां की बसावट, उनका पेशा, उनकी जीवन शैली, उनके व्यवहार पूरी तरह श्रमिकों की है। यहां की आबादी मूल नहीं है। या तो सतरहवीं सदी में दाउद खां ने बुलाकर बसाया है या फिर रोजगार की तलाश में कहीं से आये और फिर यहीं के हो कर रह गए। जितनी जातियां, और जातियों के नाम पर मुहल्लों के नाम हैं, उतना शायद ही किसी दूसरे कस्बे में आपको मिलेगा। शहरी क्षेत्र में न्यूनतम 44 मुहल्ले हैं। उमरचक, पटेलनगर, शीतल बिगहा, गौ घाट, बुधन बिगहा, पिलछी, मौलाबाग, ब्लौक कालोनी, न्यू एरिया, अफीम कोठी, चुड़ी बाजार, कान्दु राम की गड़ही, पांडेय टोली, गड़ेरी टोली, अफीम कोठी, खत्री टोला, मल्लाह टोली, चमर टोली, पटवा टोली, दबगर टोली, ब्राहम्ण टोली, कुम्हार टोली, नाई टोली, लोहार टोली, महाबीर चबुतरा, थाना काॅलोनी, हास्पिटल काॅलोनी, यादव टोली, डोम टोली, कसाई मुहल्ला, नालबन्द टोली, कुर्मी टोला, दुसाध टोली, इमृत बिगहा, बुधु बिगहा, रामनगर, अनुप बिगहा, रामनगर, नोनिया बिगहा, माली टोला, जाट टोली, यादव टोली, ब्राह्मण टोली और बालु गंज। इन मुहल्लों में शामिल सभी जाति सूचक मुहल्ले पुरातन हैं। एक ही नाम के दो-दो, तीन-तीन मुहल्ले भी हैं। व्यक्ति के नाम सूचक और अन्य नाम नगरपालिका के विस्तार के साथ जुड़े इलाकों के नाम हैं। जिन जातियों का ज्ञान इन मुहल्ला नामों से होता है, उसके अलावा भी कई श्रमिक जातियां यहां रहती हैं। रंगरेज, डफाली, कुंजडा, अंसारी, मुकेरी, सुड़ी, सौंडिक, तेली, धुनिया, रोनियार, अग्रवाल समेत तमाम तरह की श्रमिक जातियां यहां हैं। सोनार पट्टी जैसे नाम तारीख-ए-दाउदिया में हैं, जो अब लापता हो गए। यहां श्रम करने वाली जातियों ने अपना समाज गढ़ा। अपनी साझा संस्कृति बनाई। इस लोक संस्कृति के मूल में है जिउतिया- दाउदनगर के जिउतिया जिउ (ह्दय) के साथ हई गे साजन। यह श्रम से उपजी हुई संस्कृति है। संस्कृति का दायरा संकुचित नहीं होता। उसमें नये विचारों और प्रवृतियों का समावेश होता रहता है। जिन संस्कृतियों में नये विचारों और नये समाज का प्रवेश निषेध हो या सबकी सहभागिता वर्जित हो, या उनका प्रवेश कठिन हो, वैसी संस्कृतियां जड़ बन जाती हैं। उनके खत्म होने का खतरा रहता है। जिउतिया की व्यापकता की कई मिसालें हैं। हिन्दु-मुस्लिम, उंच-नीच, बड़ा-छोटा, सवर्ण-अवर्ण की दूरी नहीं है। संस्कृतियों की शक्ति बड़ी होती है। यही वजह है कि वह अपने साथ सबको जोड़ लेती है। कभी जिउतिया देखिए-चकित रह जाइयेगा, इस शक्ति का दर्शन करके। पूरा शहर ही इस लोकोत्सव में भींगा-भींगा सा दिखता है। इसके प्रभाव से शहर का कोना-कोना, प्रभावित होता है। व्यक्ति-व्यक्ति इससे आत्मिक जुड़ाव का आनंद लेता है। खैर.. 
 इनमें से चुनिन्दा श्रमिक जातियों के आगमन, इनके पूर्वजों के आने का उद्देश्य, जिउतिया समारोह के जन्मने की कहानी सब श्रमिक संस्कृति का ही वाहक हैं। श्रमिकों की संस्कृति ही श्रमण संस्कृति है। इस देश समाज में सदियों से दो विचार परंपराएं चल रही हैं- एक श्रमण परंम्परा दूसरा अभिजन परम्ंपरा। शब्दकोष श्रमण का अर्थ बताते हैं- परिश्रमी, मेहनती। सन्यासी और अभिजन का अर्थ है चैतन्य, सभ्य। अभिजन चिंतन का मूल सूत्र है-शारीरिक श्रम से दूरी। शारीरिक श्रम से जो जितना दूर है उतना श्रेष्ठ है। इस विभाजन की झलक यहां की संस्कृति में भी देख सकते हैं। इसी सन्दर्भ में मैंने इस पुस्तक का नाम श्रमण संस्कृति का वाहक दाउदनगररखा है।  जिसे व्यापक सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए। 
आपको इस बार बतायेंगे 130 साल पूरा कर चूके नगरपालिका के सभी चेयरमैनों का इतिहास, उनका जीवन चरित्र, उनकी उपलब्धियां और राजनीति का उतार-चढ़ाव। इस पुस्तक के लिए जो आवश्यक तथ्य चाहिए वह दुर्भाग्यवश नगर पंचायत के पास उपलब्ध नहीं है। यथा 1885 से लेकर 1971 तक की जनगणना उपलब्ध नहीं है। क्षेत्रफल का ज्ञान चैहद्दी से आगे निकल कर रकबा में नहीं है। अचल संपत्ति का ब्योरा उपलब्ध नहीं है। आपको बतायेंगे 155 साल से अधिक पुरानी जिउतिया संस्कृति के विविध आयामों पर व्यापक शोध। भूगोल, समाज, अर्थ, जाति बसावट, निर्माण, प्रारंभ और वर्तमान के साथ संभावनाओं का अध्ययन। सामाजिक बदलाव की प्रवृतियों और जमीनी राजनीति की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों को भी रेखांकित कर रहा हूं। हां, याद रखिये तारीखें इतिहास नहीं होतीं। हो सकता है एकाधिक तारीखें गलत हों। लेकिन घटना, प्रवृति और विचार को इससे फर्क नहीं पडता।
और अंत में आभार .........
उन सभी सज्जनों का जिन्होंने इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए समय - समय पर परोक्ष या प्रत्यक्ष रुप से अपना सहयोग दिया। प्रेरणा और संबल दिया। गोपाल गंज सैनिक स्कूल में सहायक शिक्षक संजय कुमार शांडिल्य एवं अछुआ कालेज में हिन्दी के व्याख्याता प्रो.शिवपूजन प्रसाद ने किताब की रुप रेखा तैयार करने में ऐसा सहयोग किया कि जितना सोचा था उससे अधिक विस्तार पुस्तक के विषयों को मिला। हिन्दुस्तान कंस्ट्रकशन कंपनी के प्रोजेक्ट मैनेजर एम.श्री निवास राव ने हिन्दी भाषी न होते हुए भी जिउतिया का समारोह (2014) देखने के बाद मेरी योजना को सफल करने के लिए मुझे प्रेरित किया। इनकी उपस्थिति में ही पुस्तक लिखने की मैंने घोषणा पुरानी शहर चैक पर ज्ञानदीप पूजा समिति के मंच पर की थी। विवेकानंद मिशन स्कूल के निदेशक डा.शंभू शरण सिंह, भगवान प्रसाद शिवनाथ प्रसाद बीएड कालेज के सचिव डा.प्रकाशचन्द्रा, विद्या निकेतन के सीएमडी सुरेश कुमार गुप्ता, नवज्योति शिक्षा निकेतन के नीरज कुमार समेत कई मित्रों ने प्रोत्साहित किया। पुस्तक शुद्धता की मांग करती है। यह कठिन कार्य मेरे मित्र दुर्गा फोटो स्टेट के मुन्ना दूबे ने बखूबी किया। पुस्तक में मेरे समर्पित प्रयास के बावजूद कोई कमी दिखे तो अपने विचार, सुझाव मुझे अवश्य दें। और हां, मैने पूरी निष्ठा के साथ यह कोशिश अवश्य की है कि इतिहास लेखन के बावजूद किसी की भावना को ठेस न पहूंचे। यदि इसमें मैं कहीं चूक कर गया तो भूल के लिए क्षमाप्रार्थी हूं।                     
                                                      



अपने बारे में --------------
नाम- उपेन्द्र कश्यप पिता- श्री मदन गोपाल प्रसाद
माँ- स्व. विद्या देवी
पत्नी- रेखा कश्यप
जन्म- रोहतास जिला के दारानगर गांव में 07.08.1974 को।

मेरा जन्म दारानगर गांव में हुआ और वहां प्राथमिक और मिडिल स्कूल की शिक्षा लेने के बाद औरंगाबाद के दाउदनगर मैं 03 मार्च 1991 को (होली) में आया। इस बीच दाल- रोटी के लिए जीवन का संघर्ष निरंतर तीखा होता चला गया। झारखंड का भवनाथपुर, पलामु का गढवा, भोजपुर का डुमरांव, रोहतास का नासरीगंज कर्मभूमि बना। शिक्षक से लेकर छायाकार तक का काम किया। जब गढवा छायाकार का काम सीख रहा था तब वहां प्रेस फोटोग्राफर फोटो बनवाने आया-जाया करते थे। इससे अखबारों के प्रति आकर्षण बढा। दो खबरों के बीच गैप का नहीं होना चैंकाता था। इसने पत्रकारिता का बीजारोपण मन के किसी अज्ञात से कोने में कर दिया था। नासरीगंज स्टूडियो से सीधे जब 1991 में दाउदनगर आया तो फोटोग्राफी मुख्य पेशा बना। मन को प्रभावित या विचलित करने वाली घटनाओं पर यदा दृकदा लिखना प्रारंभ किया। गोपालगंज सैनिक स्कूल में संप्रति सहायक शिक्षक संजय शांडिल्य के माध्यम से डेहरी के वरिष्ठ पत्रकार और संपादक श्री कृष्ण किसलय से संपर्क हुआ। उनके द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक सोनमाटीमे लिखने लगा किंतु यह पत्रकारिता नहीं विशुद्ध साहित्यिक कर्म था। सन 1994 में डाल्टनगंज से जब राष्ट्रीय नवीन मेलका प्रकाशन प्रारंभ हुआ तो श्री कृष्ण किसलय ने मुझे पत्रकारिता करने का अवसर दिया। फिर इसके बाद पीछे मुडकर नहीं देखा। यहां के तत्कालीन स्थानीय पत्रकार मित्र प्रोत्साहित करने से परहेज करते। विचलित करने की कोशिशें की गयी। मैं मौन होकर पत्रकारिता में रोजाना नये सोपान बनाने लगा। तब आज, हिन्दुस्तान, आर्यावर्त, प्रभात खबर जैसे प्रमुख दैनिक समाचार पत्र के अतिरिक्त आउटलुक, बहुभाषी नई दुनिया एवं अक्षर भारत, सिनियर इंडिया, प्रथम प्रवक्ता, न्यूज ब्रेक, न्यू निर्वाण टुडे, पहचान जैसी कई पत्र-पत्रिकाओं में सम-सामयिक घटनाओं और नक्सलवाद पर लिखता रहा। पत्रिकाओं की लेखनी ने मुझे संतुष्ट किया और परिपक्वता के साथ मांझा भी। पत्रकारिता से असंतुष्ट बने कई व्यक्तियों ने परेशान करने का हर दांव खेला, मगर..., अब जो हैं सो आपके सामने हैं।
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संप्रति- अनुमंडल संवाददाता, दैनिक जागरण, दाउदनगर      
जिला संवाददाता, फारवर्ड प्रेस (द्विभाषी मासिक)
संपर्क- विद्या सदन, वार्ड संख्या-02, पुराना शहर, दाउदनगर (औरंगाबाद)
संपर्क संख्या- 9931852301, 7870790532
ईमेल- upendrakashyapdnr@gmail-com    upendrakashyap@rediffmail-com
मेरा ब्लाग- nayautkarsh-blogspot-com  (जिस पर दाउदनगर की ऐतिहासिक, राजनीतिक, सामाजिक,

सांस्कृतिक महत्व पर मेरे समय-समय पर लिखे हुए आलेख मिलेंगे) 

Monday 26 October 2015

जागरुकता अभियान के बावजूद नहीं पडा बडा फर्क


शहर के वोटरों में भी उत्साह की कमी
कई बूथों पर हुआ बंफर मतदान
उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) निर्वाचन आयोग के निर्देश पर मतदान प्रतिशत बढाने की गरज से स्वीप कार्यक्रम चलाया गया। जिन बूथों पर गत लोक सभा चुनाव 2014 में मतदान प्रतिशत कम था उस इलाके पर फोकस किया गया। नुक्कड नाटक के अलावा भी कई तरीके से जागरुकता अभियान चलाया गया। बच्चों को भी इसके लिए इस्तेमाल किया गया। वोटर टर्न आउट रिपोर्ट को देखें तो इस तरह के अभियानों का कोई बडा फर्क नहीं दिखता। किसी बूथ पर मतदान प्रतिशत बढा है तो किसी पर कम हुआ है। शहर में 04 सहायक मतदान केन्द्रों समेत कुल 31 बूथ हैं। इन पर हुए मतदान का प्रतिशत बहुत उत्साहजनक नहीं माना जा सकता है।
गत लोक सभा चुनाव में हाता मध्य विद्यालय स्थित दक्षिणी भाग बूथ संख्या 01 पर 38.55 फीसद मतदान हुआ था, उस पर इस बार 39.86 फीसद मतदान हुआ है। इसी तरह कादरी मध्य विद्यालय पश्चिमी भाग बूथ संख्या 07 पर 52.57 फीसद के मुकाबले कम मात्र 46.39 फीसद मतदान हुआ। कन्या मध्य विद्यालय बूथ 09 पर 42.20 के मुकाबले 47.96 और बूथ 10 पर 48.99 के मुकाबले 48.84 फीसद मतदान हुआ। नगरपालिका कार्यालय भवन उत्तरी भाग बूथ 12 पर 41.64 के मुकाबले 39.92 और बूथ 13 पर 35.85 के मुकाबले 36.92 फीसद मतदान हुआ है। राजकीय प्राथमिक विद्यालय पटवा टोली दक्षिणी भाग बूथ 17 पर 37.03 के मुकाबले 35.75 फीसद, महिला महाविद्यालय बूथ 18 पर 33.13 के मुकाबले 38.32 और पतवा टोली पंचायत घर बूथ 19 पर 36.59 के मुकाबले 33.69 फीसद मतदान हुआ है। नगरपालिका मध्य विद्यालय संख्या दोबूथ 20 पर बंफर वोटिंग हुई। यहां 32.63 के मुकाबले 55.74 फीसद मतदान हुआ। बाल विकास परियोजना पदाधिकारी का कार्यालय बूथ 25 पर 41.07 के मुकाबले 50.67 फीसद और राष्ट्रीय उच्च विद्यालय दक्षिणी भाग बूथ 26 पर 42.35 के मुकाबले 44.60 फीसद मतदान हुआ है।


19 बूथों पर 70 फीसद से अधिक मतदान
कुल 82 बूथों पर हुआ 60 फीसद मतदान
उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) बिहार विधान सभा चुनाव में ओबरा क्षेत्र में 54.97 फीसद मतदान हुआ है। कुल 290791 में से 159845 ने मतदान किया। यह 54.97 फीसद है। इसमें 55.99 फीसद पुरुष कुल 87643 और 53.78 फीसद स्त्री कुल 72202 मतदाताओं ने मतदान किया है। इसमें महत्वपूर्ण यह है कि 82 बूथों पर 60 फीसद से अधिक मतदान हुआ है। इसमें 19 बूथ ऐसे हैं जहां मतदान का प्रतिशत 70 से अधिक है। यह विडंबना ही है कि पढा लिखा समाज माने जाने वाले शहर में मात्र एक बूथ 05-ए मदरसा इस्लामिया पुराना शहर रहा जहां 60.82 फीसद मतदन हुआ है। अन्य बूथों पर 60 फीसद से कम ही मतदान हुआ है। जिन मतदान केन्द्रों पर 70 या इससे अधिक फीसद मतदान हुआ है वे इस प्रकार हैं- बूथ- 28 उत्क्रमित मध्य विद्यालय हिच्छन बिगहा में 71.13, बूथ- 64-प्रा.वि.झौरी बिगहा में 79.63, म.वि.जमुआंव बूथ 66 पर 70.22, उ.म.वि.सोनी बूथ 88 पर 71.36, प्रा.वि.उचकुंधा बूथ 91 पर 71.86, उ.म.वि.पसवां बूथ 103 पर 70.54, प्रा.वि.कर्माखुर्द बूथ 107 पर 76.02, प्रा.वि.दौलतपुर बूथ 116 पर 74.52, प्रा.वि.बुकनापुर बूथ 119 पर 71.07, म.वि.एकौनी बूथ 122 पर 76.18, उ.म.वि.खैरा बूथ 126 पर 73.35,उ.म.वि.हसनपुरा बूथ 148 पर 77.87 फीसद, सामुदायिक भवन सागरपुर बूथ 192 पर 71.82 फीसद, प्रा.वि.लहसा बूथ 201 पर 76.32, प्रा.वि.अब्दुलपुर बूथ 202 पर 71.09, प्रा.वि.गम्हारी बूथ 204 पर 72.96, प्रा.वि.गजना बूथ 236 पर 71.91, उ.म.वि.गंज बूथ 239 पर 78.53 और आंगनबाडी केन्द्र जियादीपुर बूथ 247 पर 70.75 फीसद मतदान हुआ है। अन्य 63 बूथों पर 60 से 70 फीसद तक मतदान हुआ है।  


थर्ड जेंडर ने नहीं किया मतदान
दाउदनगर (औरंगाबाद) मतदाता जागरुकता अभियान चलाने के बावजूद एक ऐसी भी आबादी रही जिसने एक भी वोट नहीं डाला। ओबरा विधान सभा क्षेत्र में कुल 10 थर्ड जेंडर यानी तृतीय लिंग के मतदाता हैं। इसमें से दो शहर में हैं। आश्चर्य कि किसी ने भी मतदान नहीं किया। अब इसके कई कारण हो सकते हैं। अनुपस्थिति, जागरुकता का अभाव या बूथ तक पहुंचने का संकोच। यह विवेचना का विषय है।  


मतदान प्रवृति का कर रहे आकलन
दावा सबके अपने –अपने
संवाद सहयोगी, दाउदनगर (औरंगाबाद) मतदान का प्रतिशत इस बार बढा है। 19 बूथों पर 70 फीसद या इससे अधिक और 63 बूथ ऐसे हैं जहां 60 से 70 फीसद मतदान हुआ है। इस प्रवृति का आकलन दोनों गठबन्धन अपने अनुसार कर रहे हैं। सबके दावे अपने अनुकुल हैं। माना जा रहा है कि मतदान की प्रवृति महागठबन्धन के पक्ष में जा सकती है। इसका आधार वोटर आक्रामक रहा। जितना बन सका उतना अधिकाधिक मतदान करने की कोशिश किया। दूसरी तरफ माना जा रहा है कि एनडीए का आधार वोटर सुस्त रहा। उसमें आक्रमता नहीं दिखी। इस कारण इसकी स्थिति कमजोर मानी जा रही है। परिणाम इस बात पर अधिक निर्भर हो गया है कि दोनों प्रमुख प्रत्याशियों राजद और रालोसपा के आधार वोटों की चाल कैसी रही है? कितनी आक्रमता और कितनी सुस्ती रही है? किसका कितना वोट अन्य प्रत्याशियों ने अपने पाले में लाने में सफलता हासिल की है। राजद प्रखंड अध्यक्ष देवेन्द्र सिंह ने कहा कि 35 ऐसे बूथ हैं जहां उनके लोगों ने 500 से अधिक मतदान किया है। दावा है कि सिर्फ इनके आधार बूथों पर 70 से 80 फीसद तक मतदान हुआ है। दूसरी तरफ भाजपा प्रखंड अध्यक्ष अश्विनी तिवारी का तर्क है कि उनके वोटरों ने 500 से अधिक मतदान कर भी 50-60 फीसद का प्रतिशत हासिल कर सके हैं तो वहीं महागठबन्धन के बूथों पर 300 मतदान हुआ और प्रतिशत 70 से 80 तक पहुंच गया। इनका दावा है कि इनकी स्थिति मजबूत है।   

   

Saturday 17 October 2015

जनता की तरफ से जीत की घोषणा नहीं !



अटकलबाजियों में नेता कार्यकर्ता व्यस्त
सबके हैं अपने–अपने दावे मगर शंका भी
उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) ओबरा विधान सभा क्षेत्र के लिए मतदाताओं ने अपना ब्रह्मास्त्र ईवीएम में कैद कर दिया है। अब अटकलबाजियों का दौर प्रारंभ हो गया है। प्रमुखत: चार प्रत्याशियों और उनके समर्थकों की ओर से जीत का दावा किया जा रहा है। जोड-घटाव जातीय ध्रुवीकरण और जातीय आधार मतों के विभाजन से जुडी प्राप्त सूचनाओं को लेकर किया जा रहा है। अनुमान किया जा रहा है कि किस जाति का वोट किसको मिला? मिला तो कितना- कितना किस- किस को मिला? जीत-हार की निर्भरता इसी जातीय आधार पर टिकी हुई है। यही बता जाता है कि चुनाव का मुद्दा, अगर था भी तो फिर क्या था? इस उधेडबुन के कारण ही लडाई में बाजी कौन मार रहा है यह स्पष्ट नहीं कहा जा सकता है। 1995 और 2000 के विधान सभा चुनाव के दिन ही जनता की ओर से घोषणा कर दी गयी थी कि आईपीएफ की जीत तय है। हुआ भी ऐसा ही, राजाराम सिंह जीत गये। 2005 के फरवरी और अक्टूबर में भी जनता आश्वस्त हो गयी थी कि राजद की जीत की अत्यधिक संभावना है। हुआ भी ऐसा ही और सत्यनारायण सिंह जीत गये। 2010 के चुनाव में जदयू की जीत और राजद की हार तय दिख रही थी और मामुली अंतर से सोम प्रकाश निर्दलीय जीते। हालांकि इनके समर्थकों ने तब खुद को सबसे अधिक राजनीतिक जानकार और विश्लेषक बताते हुए जीत का दावा किया था। 2015 का वोट डाल दिया गया है, कौन जीत सकता है इसको लेकर जनता आश्वस्त नहीं है। मामला चूंकि एकतरफा नहीं है। संघर्ष के कोण कई हैं और तीखेपन के साथ।   
यह स्पष्ट है कि जब जनता जीत को ले साफ बात कहती है तो हार-जीत का अंतर अधिक होता है और जब दुविधाग्रस्त होती है तो यह फासला कम होता है। प्रतिक्षा करनी होगी 08 नवंबर की जब मतगणना बाद अधिकृत परिणाम घोषित होगा।


  



Friday 16 October 2015

जरा मेरी भी सुनो, लोकतंत्र के रहनुमाओं

विकलांगों की पीडा की है अलग कहानी
नि:शक्तों ने दबाया ईवीएम का “नोटा”

                           फोटो-फैयाजुल हक और राजेन्द्र प्रसाद

उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) पिराही बाग के 50 वर्षीय फैयाजुल हक उर्फ गुल्लु मियां ने मदरसा इस्लामियां में मतदान केन्द्र संख्या-05 पर अपना मतदान किया। उनके चेहरे पर पूर्व की तरह उत्साह का भाव नहीं है। वे लाचार हैं, सीधे अपने पांव के सहारे नहीं चल सकते। बैशाखी का सहारा लेना पड रहा है। पांव के अंतिम पोर तक अभी संवेदनाशीलता नहीं पहुंच सकी है। गत 17 मई को उनको गोली का शिकार बनना पडा था। सांप्रदायिक दंगे की चपेट में वे अपना जीवन तो बचा सके किंतु फिलहाल अपाहिज का ही जीवन जी रहे हैं। खैरियत पूछा तो बोले- सरकार ने गोलियों के शिकार सभी घायलों का इलाज अपने खर्च पर कराने की घोषणा की थी, कहां कराया? सब पैसा रख लिया होगा। उनकी यह पीडा है। ऐसे तमाम लोग निराश हैं, जो शारीरिक तौर पर नि:शक्त हैं। राजकीय मिडिल स्कूल संख्या- 02 पर मिले राजेन्द्र प्रसाद। घर से बैशाखी के सहारे पैदल ही आ गये हैं। बोले- हम्लोग की क्या काबिलियत है बाबू। तो फिर वोट क्यों दिया? बोले- अपना अधिकार है कैसे छोड दें? बात तो वाजिब है किंतु निराशा में भी यह एक उम्मीद जगाती है। इन्होंने कहा कि किसी की सरकार बने उससे उम्मीद क्या करें? नि:शक्त एक्युप्रेशर चिकित्सक विकास मिश्रा ने बताया कि उनके बूथों पर प्राय: सभी नि:शक्तों ने नोटा का इस्तेमाल किया है। पूर्व में ही विकलांग संघ ने घोषणा की थी कि किसी दल ने चूंकि अपने घोषणा पत्र में उनकी चिंता व्यक्त नहीं किया है इस कारण किसी को भी मतदान नहीं करना है। इसी कारण नोटा का इस्तेमाल किया गया है।

पहली बार मोबाईल पोर मोनेटरिंग
संवाद सहयोगी, दाउदनगर (औरंगाबाद) बूथों पर इस बार मतदाताओं की तस्वीर भी खींची गयी। सभी मतदान केन्द्रों पर यह व्यवस्था निर्वाचन आयोग के फैसले के तहत की गयी। मोबाईल पोर मोनेटरिंग के लिए शिक्षकों को लगाया गया। उनका काम रहा कि जिस मतदाता की तस्वीर धुन्धली है, या गलत है उसकी तस्वीर खींच कर आयोग को एक निर्धारित मोबाईल नंबर पर भेजना। उर्दू प्राथमिक स्कूल पर मिले भोला प्रजापति ने यह जानकारी दी।

सबको नहीं मिली मतदाता परची
दाउदनगर (औरंगाबाद) बूथ लेबल आफिसर (बीएलओ) ने सबको मतदाता परची नहीं पहुंचाया, जैसा कि दावा किया गया है। प्राय: सभी बूथों पर लोग अपने नाम की परची खोजते रहे। मतदान केन्द्र संख्या 09 एवं 10 कन्या मिडिल स्कूल पर मिले राजन प्रसाद ने बताया किइस कारण मतदाताओं को बूथ से लौट जाना पड रहा है। इसी कारण वापस लौट रहे दुलारचंद साव ने बताया कि उनके पास परची नहीं है। जा रहे हैं लाने, तभी एक व्यक्ति उन्हें इसके लिए बाहर लेकर चला गया। चौंकाने वाली बात यह दिखी कि राजनीतिक दल के कार्यकर्ता इस बार इस मुदे पर सक्रिय और उत्साहित नहीं दिखे।

पुराने मतदाता सूची से परेशानी
दाउदनगर (औरंगाबाद) भाजपा प्रखंड अध्यक्ष अश्विनी तिवारी ने कहा कि अरई में बूथ संख्या 40 पर मतदाता सूची पुराना वाला भेज दिया गया। इसमें कई नये बने मतदाताओं के नाम ही शामिल नहीं है। कई पुरुषों के बदले महिलाओं के फोटो लगे हुए हैं, जबकि इन्हें सुधारा गया था।


लोकतंत्र में वृद्धों ने भी निभाई अपनी भुमिका
फोटो- यशोदा देवी और गुलाम नवी

संवाद सहयोगी, दाउदनगर (औरंगाबाद) लोकतंत्र के इस महापर्व में वृद्धों ने भी बढ चढ कर हिस्सा लिया। नगरपालिका मिडिल स्कूल संख्या-01 पर स्थित मतदाअ केन्द्र संख्या -11 पर वोट देने यशोदा देवी आयीं। वे करीब 90 साल की हैं। उन्हें उनके पुत्र सुरेश कुमार गुप्ता और पोता आनन्द प्रकाश समेत कई लोग दूसरी एवं तीसरी पीढि के लोग सहारा देकर बूथ तक ले गये। इसी तरह नगरपालिका कार्यालय में स्थित बूथ पर मिले 85 वर्षीय गुलाम नवी। लोग अपने अपने उपलब्ध साधनों और संसाधनों से बूथ तक पहुंचे और मतदान किया। लोकतन्त्र को जिन्दा बचाये रखने में ऐसे बडे बुजुर्गों का योगदान महत्वपूर्ण है।