Saturday 21 November 2015

भाकपा माले का वोट तो बढा किंतु...


फोटो-राजाराम सिंह और चुनाव चिन्ह
करीब साढे चार हजार अधिक मिला मत
उपेन्द्र कश्यप
 बिहार विधान सभा चुनाव में भाकपा माले के प्रत्याशी पूर्व विधायक को 22801 मत मिला। गत विधान सभा चुनाव 2010 में उन्हें मात्र 18463 मत मिला था। अर्थात गत की अपेक्षा 4338 मत अधिक मिला। इस लिहाज से प्रदर्शन को बेहतर कहा जा सकता है किंति इसके बावजूद खराब बात यह रही कि उनका जमानत नहीं बच सका। दो बार पूर्व विधायक रहने के बाद ऐसी स्थिति में आना खुद और पार्टी की सेहत के लिए बेहतर नहीं माना जा सकता है। इस अधिक मत आने की भी खास वजह है। इसमें पार्टी के प्रति जनता के विस्वास से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका राजद प्रत्याशी बीरेन्द्र कुमार सिन्हा और रालोसपा प्रत्याशी चंद्रभुषण वर्मा के विरोधियों की मानी गयी है। मुकाबले में भाकपा माले और सोम प्रकाश को भी बताये जाने के कारण मत की संख्या बढी है। वैसे इस पर राजाराम सिंह ने कहा कि यह मत कई बार राजनीतिक माहौल से घटता-बढता है। एनडीए सरकार के खिलाफ गुस्सा और महागठबन्धन के कारण भी मत बढा है। पूरे बिहार में वामपंथ के प्रति जनता की उम्मीद बढी है। कहा कि माले का बेसिक जनाधार भी है। महत्वपूर्ण है कि पूरे परिदृष्य में माले का जनाधार लगातार घटता जा रहा है। 2015 इसके उलट एक उम्मीद जगा गयी है।


सर्वाधिक 48 हजार मत 1995 में
सबसे कम 2010 में 18463 मत

भाकपा माले ने मत का चरमोत्कर्ष भी देखा है। 1990 के विधान सभा चुनाव में आईएपीएफ (तब माले भूमिगत पार्टी थी) के बैनर तले जब राजाराम सिंह चुनाव लडने उतरे तो उन्हें 29048 मत मिला था। यह दौर बिहार में सामंतवाद के खिलाफ समाजवाद का झंडा बुलन्द होने का था। सामाजिक परिवर्तन का दौर था और पहली बार पिछडे लालु यादव को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने तक पहुंच गया था। बाद में स्थानीय असंतोष ने 1995 में माले को 48089 मत दे कर विजेता बना दिया। अपार मत से विजय। यह स्थानीय लहर थी जद प्रत्याशी राम बिलास सिंह को हराने के लिए। 2000 में मत घट गया, मिला- 37650 मत तब भी जीत मिली। 2005 फरवरी में उन्हें 34700, अक्टूबर 2005 में 24023 मत और फिर 2010 के चुनाव में 18463 मत मिला। लगातार घटते मत के बीच ताजा प्रदर्शन ने माले की उम्मीद जगा दी है।


Sunday 15 November 2015

एनडीए के अध्यक्षों को घर में मिली मात


सिर्फ भाजपा अध्यक्ष की बची लाज
महागठबन्धन का हर अध्यक्ष “जीता”

उपेन्द्र कश्यप
एनडीए के घटक दलों लोजपा, रालोसपा और हम के प्रखंड अध्यक्षों के पंचायतों में एनडीए प्रत्याशी को हार का सामना करना पडा है। दूसरी तरफ महागठबन्धन के घटक राजद और कांग्रेस प्रखंड अध्यक्षों के पंचायत में राजद प्रत्याशी की जीत हुई है। समीकरण जातियों की बहुलता और रालोसपा प्रखंड अध्यक्ष संजीव कुमार के संसा में सर्वाधिक 1624 मत से हार मिली। यहां उसे 794 मिला तो राजद को 2428 मत। हम के प्रखंड अध्यक्ष संजय पासवान के पंचायत बेलवां में 982 मत मिला तो हार 740 मत से हुई। राजद को यहां 1722 मत मिले हैं। लोजपा प्रखंड अध्यक्ष केदार यादव और भाजपा जिलाध्यक्ष सुबोध शर्मा के पंचायत गोरडीहां में 1600 से हार मिली है। यहां एनडीए को 767 तो राजद को 2367 मत मिला है। इन तीन प्रखंड अध्यक्षों की पोल खूल गयी तो वहीं भाजपा प्रखंड अध्यक्ष अश्विनी तिवारी के पंचायत अरई में वे 685 मत से जीत मिली। भाजपा को 1286 और राजद को 601 मत यहां मिला है। दूसरी तरफ राजद प्रखंड अध्यक्ष देवेन्द्र सिंह के घर में महागठबन्धन को 1510 मत की बढत मिली है। रालोसपा को करमा में 632 तो राजद को 2150 मत मिला है। कांग्रेस प्रखंड अध्यक्ष राजेश्वर सिंह के अंछा में भी 353 से बढत मिली है। जदयू का कोई प्रखंड अध्यक्ष ही नहीं था। इस पद से इस्तीफा दे चुके बीस सूत्री अध्यक्ष जीतेन्द्र नारायण सिंह के पंचायत मनार में महागठबन्धन को 608 मत की बढत मिली है। यहां एनडीए को 823 तो राजद को 1431 मत मिला है। हालांकि पार्टी ने उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया था।  

Saturday 14 November 2015

एनडीए प्रत्याशी को अपने घर में मिली हार


एनडीए के तमाम नेता अपने पंचायत में हारे
सिर्फ अरई और महावर में ही मिली जीत
उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) ग्रामीण इलाके से एनडीए के पांव उखड गये हैं। प्रखंड से 15 में सिर्फ दो अरई और महावर पंचायत में ही एनडीए के प्रत्याशी को बढत मिल सकी जबकि अन्य 13 में उसे हार का सामना करना पडा। एनडीए के लिए काम कर रहे नेताओं की स्थिति स्पष्ट हो गयी है। खुद प्रत्याशी चंद्रभुषण वर्मा अपने पंचायत तरार में 162 मत से हार गये। यहां एनडीए को 1209 और राजद को 1373 मत मिला। दूसरी ओर अपने अंकोढा पंचायत में महागठबन्धन प्रत्याशी बीरेन्द्र कुमार सिन्हा 712 मत से जीते। उन्हें 1618 और एनडीए को 906 मत मिला। इस पंचायत में भाजपा के वरिष्ठ नेता जगन्नाथ शर्मा का घर नीमा में है। लोजपा नेता महेन्द्र पासवान और भाजपा पंचायत अध्यक्ष अनुप मनोहर के महावर में इन्हें 934 और राजद को 518 मत मिला। रालोसपा से टिकट की दौड में शामिल सत्येन्द्र कुशवाहा के अंछा पंचायत में 353 से हार मिली। कुल 893 मत मिला जबकि राजद को 1248 मत। सम्राट युवा मंच चला रहे रालोसपा नेता संजय मेहता के चौरी में पार्टी 225 से हारी। उसे 1440 और राजद को 1663 मत मिला। शमशेर नगर से जदयू नेता ब्रजकिशोर शर्मा बीस सूत्री अध्यक्ष रहे हैं। यहां रालोसपा को 1686 और राजद को 2211 मत मिला। बढत रही 525 मत। भाजपा पंचायत अध्यक्ष बब्लु शर्मा का घर भी शमशेर नगर ही है। भाजपा प्रवक्ता विनोद शर्मा और रालोसपा के टिकटार्थी विकास कुमार के पंचायत कनाप में 573 से पार्टी हारी। यहां उसे 1268 तो राजद को 1863 मत मिला है। भाजपा नेता और पूर्व प्रमुख राजेन्द्र पासवान के तरारी में 455 से हार मिली। रालोसपा को 1468 और राजद को 1923 मत मिला है। भाजपा के कर्णधार कहे जाने वाले राममनोहर पांडेय और रवीन्द्र शर्मा के सिन्दुआर में 392 से पार्टी हारी। रालोसपा को 927 तो राजद को 1319 मत मिला।    


     



राजद बनाम भाजपा की दूरी घटी


शहर में हैं चार सहायक समेत 31 बूथ
एनडीए को 6337 तो राजद को 4902 मत
उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) राजद बनाम भाजपा की दूरी शहर में घट रही है। इस बार विधान सभा चुनाव ने यह साफ कर दिया है। शहर में पुराना शहर स्थित एक नंबर बूथ से लेकर राष्ट्रीय इंटर स्कूल भखरुआं में बूथ संख्या 26 और 27 तक के बूथ हैं। इसमें चार सहायक बूथ मिलाकर कुल 31 होते हैं। इन बूथों पर प्राय: भाजपा और राजद (एनडीए बनाम महाग़ठबन्धन) के बीच पूर्व में काफी अंतर रहा है। गत विधान सभा चुनाव 2010 में राजद प्रत्याशी को जदयू के प्रत्याशी से करीब 6000 कम मत मिला था। तब जदयू भाजपा के साथ थी। इस बार शहर में यह अंतर मात्र 1435 मत का रह गया है। एनडीए के घटक रालोसपा प्रत्याशी चंद्रभुषण वर्मा को 6337 मत और राजद प्रत्याशी बीरेन्द्र कुमार सिन्हा को 4902 मत मिला है। तब राजद को करीब दो हजार मत ही मिल सके थे। इसकी वजह कई हो सकते हैं, किंतु दो प्रमुख वजह माना जा रहा है। प्रथम भाजपा या कहें एनडीए प्रत्याशी चन्द्रभुषण वर्मा के प्रति उदासीनता और दूसरा नीतीश कुमार के विकास से संतोष और अधिक की अपेक्षा। भाजपा का प्रत्याशी न होना और न ही बडे कद का सक्रिय नेता होना भी भाजपा की कमजोर कडी है। इस मतदान प्रवृति का एक पक्ष यह भी हो सकता है कि शहर में भाजपा का गढ होने का मिथक टूट सकता है।

संगठन बनाम समीकरण का फर्क

दाउदनगर (औरंगाबाद) एनडीए बनाम महागठबन्धन के बीच दूरी कम होने की वजह राजनीतिक दल से जुडे लोग राजनीतिक समीकरण और संगठन का फर्क मानते हैं। भाजपा प्रखंड अध्यक्ष अश्विनी तिवारी का कहना है कि एनडीए कार्यकर्ता तो सक्रिय रहे किंतु समर्थक और मतदाता शिथिल रहे। राजद प्रत्याशी बीरेन्द्र कुमार सिन्हा का शहर से सटे बसे बगवान बिगहा का निवासी होना और शहर में कई लोगों से उनका व्यक्तिगत लगाव होना भी एक कारण था। रालोसपा प्रत्याशी चंद्रभुषण वर्मा के साथ उनके संगठन का न होना और इस पार्टी के शहर में रहने वाले राज्य स्तरीय नेता राजीव कुमार उर्फ बबलु का चुनाव लडना भी एक कारण रहा। दूसरी तरफ जदयू के किसान प्रकोष्ठ के प्रदेश उपाध्यक्ष अभय चंद्रवंशी का कहना है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का विकास और राज्य अतिपिछडा आयोग के सदस्य प्रमोद सिंह चंद्रवंशी की लगातार सक्रियता, विकास के किए गये कार्य और लोगों का उनमें विश्वास इस फर्क की प्रमुख वजह बनी। राजद प्रखंड अध्यक्ष देवेन्द्र सिंह का कहना है कि समीकरण का हर मतदाता आक्रामक अन्दाज में मत दिया और प्रत्याशी का शहर से व्यक्तिगत संबन्ध, लगाव ने भी भूमिका निभाया है। कहा कि विधायक ने भी कहा है कि शहर में समर्थन मिला है, इसी कारण शहर में विजय जुलूस भी नहीं निकाला गया।     


दोनों प्रखंडों से जीता महागठबन्धन

दाउदनगर (औरंगाबाद) ओबरा विधान सभा क्षेत्र में दो प्रखंड हैं- दाउदनगर और ओबरा। इस बार के चुनाव में दोनों प्रखंडों से महागठबन्धन को अधिक मत मिला है। फाइनल रिजल्ट सीट से प्राप्त जानकारी के अनुसार दाउदनगर प्रखंड में एनडीए को 22354 मत मिला तो महागठबंधन को 29337 मत मिला। 6983 मत अधिक। ओबरा में एनडीए को 22292 मत मिला तो महागठबन्धन को 26705 मत। कुल 4413 मत अधिक। महागठबन्धन की जीत 11396 मत से हुई है। इस आंकडे में पोस्टल बैलेट की संख्या भी शामिल है। राजद प्रखंड अध्यक्ष देवेन्द्र सिंह ने कहा कि इस जीत में दोनों प्रखंडों ने अपनी भूमिका निभाया है। सभी जनता को इसके लिए आभार व्यक्त किया। 

जगेश्वर दयाल ने बनाया कमजोर को मजबूत


                फोटो-दैनिक जागरण में प्रकाशित मेरी खबर (14.11.2015)
’हिच्छन बिगहा के गांधी’ की संघर्ष गाथा
        कई आन्दोलनों में लिया था हिस्सा
दो साल जेल की काटी थी सजा
उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) आज पूरा देश जब जवाहर लाल नेहरू का जन्म दिन “बाल दिवस” के रुप में मना रहा है तो “हिच्छन बिगहा के गान्धी” को स्मरण करना भी प्रासंगिक है क्योंकि इस स्वतंत्रता सेनानी का जन्म दिवस भी 14 नवंबर ही है। जिन्हें इतिहास ने भूला दिया है। जी हां, जागेश्वर दयाल सिंह को यह संज्ञा पटना विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो.( डा.)रामबचन राय ने दिया है। इसी नाम से एक किताब लिख कर। जिसमें प्रमाणिक तथ्यों के आधार पर बताया गया है कि कैसे उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया, संघर्ष किया, समाज को जागरुक किया, अगडे-पिछडों की लडाई को मुकाम दिया। वे मानते थे कि समाज में शिक्षा का आभाव है और राजनीतिक प्रशिक्षण की जरुरत है। सन 14 नवम्बर 1889 में जन्मा यह “गांधी” समाज को जगाते-जगाते अंतत: 9 जनवरी 1995 को सो गया। सन 1952 में कौंग्रेस छोडकर कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ली, और 1957 में दाउदनगर से विधानसभा का चुनाव लडकर हार गए। सामाजिक कार्यों को गति देने के लिए ही उन्होंने “बिहार राज्य कमजोर जनता मंच” का गठन किया था। इसकी एक सभा दाउदनगर में 1980 में की गयी थी जिसकी अध्यक्षता खुद की और इसमें बतौर मुख्य अतिथि सोनपुर के तात्कालीन विधायक लालु प्रसाद यादव आए। इनकी बेटी रोहिणी की शादी जागेश्वरदयाल सिंह के पुत्र राव रणविजय सिंह के पुत्र समरेश के साथ 24 मई 2002 को हुई है। यहां के निवासी रवीन्द्र सिंह दो बार अरवल से विधायक बने।
संघर्ष का योद्धा 
सन 1821 से 1922 तक देश में महात्मा गान्धी के आह्वाहन पर असहयोग आन्दोलन चला। इस दरमयान वे औरंगाबाद गेट हाई स्कूल में पढते थे। सन 1919 में कक्षा का बहिस्कार किया, 12 स्वयंसेवकों का जत्था तैयार किया, और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लोगों को जगरुक करने लगे। गया कौंग्रेस पार्टी कार्यालय में उन्हे रख लिया गया। गया में शराब दूकानों की बन्दोबस्ती की खिलाफत में वे आगे रहे। 12 सत्यग्रहियों के जत्थे का उन्हें नायक बनाया गया। पुलिस ने मार मार कर शरीर लहूलुहान कर दिया। 5-6 दिन इलाज चला। उन्होंने गया कौंग्रेस कार्यालय में बाबा खलिल दास के सानिध्य में राजनीतिक करियर की शुरुआत की। आन्दोलन के लिए जब सूची बनाया जा रहा था, तब उन्होंने अपना नाम भी लिखाया और खूब ओजपूर्ण भाषण दिया, नतिजा पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। 2 माह की सज़ा हुई। औरंगाबाद ज़ेल से फुलवारी शरीफ ज़ेल ले जाने के क्रम में उन्होंने हर मौके पर जनता को सम्बोधित करते हुए आन्दोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया, हर बार पीटे गए, लेकिन झुके नहीं। फुलवारी शरीफ ज़ेल में उनकी मुलाकात स्वामी सहजानन्द सरस्वती और यदुनन्दन शर्मा से हुई।

Friday 13 November 2015

चकनाचूर हो गया सोम प्रकाश का जादू

फोटो- दैनिक जागरण में प्रकाशित खबर
काठ की हांडी दूबारा नहीं चढी
नवनेर मुठभेड समेत कई मामले पर कार्रवाई
उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) खाकी उतार कर खादी का चोला पहन और देश में स्वराज लाने को संकल्पित सोमप्रकाश का तिलस्म चकनाचूर हो गया। 2010 का हीरो पांच साल में कहीं नजर नहीं आया और जब चुनाव में नजर आये तो परिणाम ने कहीं का नहीं छोडा। अपनी पार्टी बनाकर राज्य में बडा बदलाव लाने की तमन्ना भी धाराशायी हो गयी। काठ की हांडी दूबारा नहीं चढती वाली कहावत चरितार्थ होने की चर्चा की जा रही है। ओबरा में थानेदार बन कर आये सोमप्रकाश विधानसभा क्षेत्र का जातीय समीकरण देख कर राजनीतिक महत्वाकांक्षा पाल बैठे। फिर थानेदारी कम और राजनीति अधिक करने लगे। नवनेर में नक्सली बनाम पुलिस मुठभेड हो या अन्य कई मामलों को लेकर उनके खिलाफ विभागीय कारर्वाई शुरु की गयी। शैक्षिक जागृति मंच के जरिये शिक्षा का अलख जगाने निकले। नक्सल क्षेत्र में स्कूल खोल कर ख्याति बटोरी। मीडिया का जमकर इस्तेमाल किया। जब स्थानांतरण कर दिया तो तत्कालीन विधायक सत्यनारायण सिंह ने अपने वोटरों में उत्साह जगाने के लिए “ईमानदारी बचाओ” आन्दोलन चलाया। काफी जन धन का इस्तेमाल किया गया। बाद में बख्तियारपुर के थानेदार रहते इस्तीफा देकर ओबरा चुनाव लडने आ गये। नामांकन खारिज न हो जाये इसके लिए पत्नी का भी नामांकन कराया। चुनाव हुआ तो 36815 मत लाकर भाजपा-जदयू की आन्धी में भी निर्दलीय जीत गये। बिहार में इमानदारी का डंका बजाया। अपनी इमानदारी की खबर बिहार के बाहर के अखबारों में प्रकशित करा अपनी छवि बेहतर बनाने की कोशिश की। इधर इनसे मात्र 800 मत से पराजित प्रमोद सिंह चंद्रवंशी ने न्यायालय में इनके खिलाफ मुकदमा किया कि इनका नामांकन ही अवैध है। सुप्रिम कोर्ट तक मामला गया और 2015 में चुनाव से कुछ समय पूर्व फैसला इनके पक्ष में गया। तब भी विधान सभा द्वारा इनकी सदस्यता बहाली की अधिसूचना जारी नहीं की जा सकी है। इस बार जब चुनाव लडे फिर भावुक चर्चा उठाया कि कानूनी लडाई के कारण काम करने का अवसर नहीं मिला। चार करोड प्रमोद सिंह चंद्रवंशी के कारण नहीं मिला तो विकास प्रभावित हुआ। जनता एक बार फिर झांसे में आने से रही और उसने महागठबन्धन के पक्ष में खुलकर मतदान किया। खाकी से खादी पहने सोम प्रकाश को मात्र दस हजार मत आ सका। जितना लाकर जीते थे उसका 1/3 से भी कम मत कुल 10031 मिला। जमानत तक नहीं बचा सके। इस हार की चर्चा तरह तरह से की जा रही है।



Monday 9 November 2015

वोटों के बिखराव से हारा एनडीए


फोटो-विजेता बीरेन्द्र सिन्हा और पराजित चंद्रभुषण वर्मा
रालोसपा प्रत्याशी की हार की कई वजहें
 महागठबन्धन जीत गया और एनडीए हार गया। इसकी कई वजह है। महागठबन्धन का वोट एकजुट रहा जबकि एनडीए में बिखराव रहा। दैनिक जागरण में 14 अक्टूबर को “ बिखराव रोकने की चुनौती” शीर्षक खबर छापी थी। तभी बताया गया था कि दोनों प्रमुख गठबन्धनों को बिखराव रोकने की चुनौती है। महागठबंधन प्रत्याशी बीरेन्द्र कुमार सिन्हा इसमें कामयाब रहे। विधायक होते हुए सोमप्रकाश मात्र 10031 वोट पर सिमट गये। समाजवादी पार्टी के डा.निलम को मात्र 1798 वोट मिला। सोम प्रकाश के वोट में यादव मतदाता से अधिक अन्य जातियों का मत है जो काफी हद तक एनडीए को मिलता। दूसरी तरफ एनडीए प्रत्याशी चंद्रभुषण वर्मा बिखराव रोकने में सफल नहीं हो सके। इनके मतों का बिखराव सर्वाधिक रहा। भाकपा माले को मिला 22801 मत में सर्वाधिक स्वजातीय का है जिस पर रालोसपा प्रमुख और मंत्री उपेंद्र कुशवाहा का प्रभाव नहीं रहा। यदि यह वोटर एकजुट मतदान का संकेत भी दे देता तो एनडीए का वोट बढ जाता। इसके बाद अभिमन्यू शर्मा को मिला 3710 मत, अंजनी कुमार को मिला 794 मत, जिला पार्षद और स्वजातीय राजीव कुमार उर्फ बब्लु को मिला 1004 मत, बाजार निवासी शिव कुमार को मिला 719 मत, निर्दलीय रिचा सिंह को मिला 1866 वोट इनकी अनुपस्थिति में इसमें सर्वाधिक मत एनडीए को मिल सकता था। इस बिखराव ने हार की जमीन तैयार कर दी थी।

मैनेजमेंट का भी योगदान
दोनों गठबन्धनों के मैनेजमेंट में काफी फर्क था। एक तरफ उत्साहित कार्यकर्ताओं की टोली और गांव-गांव पहुंच कर नाराजगी दूर करने या अपेक्षा पूरी करने की व्यवस्था संभाले लोग थे, तो दूसरी तरफ इसका अभाव दिखा। एक तो देर से टिकट मिलना जिस कारण एनडीए प्रत्याशी के पास समय कम पड जाना। अनुभव की कमी। स्वाजातीय की खामोशी के साथ भाकपा माले के तरफ जाने की अधिक चर्चा। इसे दूर करना आसान था किंतु इस दिशा में प्रयास नहीं किया गया। मैनेजमेंट या कहें प्रत्याशी के प्रति जीत का जज्बा समर्पित भाव से रखने वाले सहयोगियों की कमी थी।

ध्रुवीकरण से जीत, भीतरघात से हार
 महागठबन्धन प्रत्यशी बीरेन्द्र कुमार सिन्हा ने अपनी जीत का श्रेय महागठबन्धन के प्रति रुझान और एकजुटता को बताया है। कहा कि अक अच्छा मुख्यमंत्री बनाने के लिए सबका समर्थन मिला। दूसरी तरफ एनडीए के प्रत्याशी चंद्रभुषण वर्मा का कहना है कि पराजय की वजह भीतरघात है। रालोसपा और भाजपा के कई सांगठनिक पदाधिकारी तक वोट भाकपा माले के लिए मांग रहे थे। भीतरघात के कारण ही हार हुई।

दक्षिणपंथ से प्रारंभ और मध्यमार्ग पर सफल


                         फोटो-निर्वाचित विधायक बीरेन्द्र कुमार सिन्हा परिवार के साथ
भाजपा से किया था राजनीति का प्रारंभ
मुखिया, पैक्स अध्यक्ष और अब बने विधायक
                                                        उपेन्द्र कश्यप
 ओबरा समाजवादियों की धरती रही है। कहा जा रहा है कि समाजवाद जीत गया। विधायक बने बीरेन्द्र कुमार सिन्हा का राजनीतिक कैरियर भाजपा से प्रारंभ हुआ था और जनता दल, जनता दल यू होते राजद (महागठबन्धन) से विधानसभा के सदन तक पहुंच गये। अर्थात दक्षिणपंथी राजनीति से प्रारंभ कर मध्यमार्ग अपनाकर समाजवाद का झंडाबरदार बन गये। सोमवार को उन्होंने बताया कि 1980 में भाजपा से विधायक बने बीरेन्द्र सिंह के साथ 1985 में राजनीति प्रारंभ किया। 1990 में तत्कालीन क्षेत्रीय विधायक और राज्य सरकार के कबीना मंत्री जनता दल (जद) के कद्दावर नेता रामबिलास सिंह के साथ जुड गये। जब जद टूटा और समता पार्टी (अब जदयू) का गठन 2000 में हुआ तो जहानाबाद के मुन्द्रिका सिंह यादव के साथ हो लिए। ओबरा से 2000 के चुनाव में प्रत्याशी के दावेदार बने। राज्य कमिटी से केन्द्रीय कमिटी में अकेले इनका नाम गया। टिकट नहीं मिला। 2005 में जदयू में थे। 2010 के विधान सभा चुनाव में बतौर निर्दलीय नामांकन किया किंतु नाम वापस ले लिया। इससे पहले 2003 में विधान परिषद का चुनाव लडे, किंतु हार गये। दिल में राजनीति का जज्बा और बडी राजनीतिक हैसियत प्राप्त करने की तमन्ना लगातार बनी रही। अब जाकर वर्ष 2015 में वे इतिहास लिखने में कामयाब रहे।

           छूट जायेगा मुखिया समेत कई पद
 विधायक बीरेन्द्र कुमार सिन्हा को अब कई पद छोडना पडेगा। उन्होंने बताया कि शपथ ग्रहण के बाद मुखिया पद से इस्तीफा देंगे। वे 2001 में अंकोढा पंचायत से मुखिया बने थे। 2006 में गांव के ही प्रत्याशी से हार गये। फिर 2011 में मुखिया बने और 2014 में पैक्स अध्यक्ष। बाद में पैक्स पद कानूनी कारणों से छिन गया था। 2011 से मुखिया संघ के प्रखंड अध्यक्ष और जिला संघ के महासचिव हैं। 2012 से राजद के किसान प्रकोष्ठ के जिलाध्यक्ष हैं। मुखिया पद से इस्तीफा देने के साथ ही संघ के पदों को भी छोडना पड सकता है।

                 छोटा परिवार सुखी परिवार
 विधायक बीरेन्द्र कुमार सिन्हा दाउदनगर शहर से सटे भगवान बिगहा के निवासी हैं। इनका जन्म 15 अगस्त 1968 को हुआ था। इनका गांव अंकोढा पंचायत का हिस्सा है। यहां करीब 1000 की आबादी रहती है। यदि इससे जुडे नारायण बिगहा और दशईं बिगहा की आबादी भी जोड दें तो यह संख्या करीब 2000 तक जायेगी। इनका परिवार छोटा और सुखी है। पत्नी देवंती देवी सिपहां मध्य विद्यालय में प्रभारी प्रधान शिक्षिका हैं। मात्र दो पुत्र हैं। बडा कुणाल प्रताप 2008 में बिहार राज्य माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की मेघा सूची में अव्वल रहा था। 2010 में इंटर में लडका के ग्रुप में जिला टापर रहा है। दूसरा बेटा तेज प्रताप 2012 में राज्य मेघा सूची में जिला टापर रहा।

किसी की नजर ना लग जाये तोहे--
                               फोटो- विधायक को माला पहनाते समर्थक
शांति-व्यवस्था बनाये रखना प्राथमिकता
                               दाउदनगर को जिला बनाने की करेंगे कोशिश
सोमवार को भगवान बिगहा गुलजार है। सुबह से पूर्वाहन समाप्त होने को है और नये निर्वाचित विधायक बीरेन्द्र कुमार सिंह जनता का अशीर्वाद निरंतर ले रहे हैं। लोग मुंह मिठा करने की कोशिश करते हैं तो बोलन अपड रहा है कि –अभी तक मुंह नहीं धो सके हैं। इतिहास की नई ईबारत लिखने के बाद की यह पहली सुबह है। पिराही बाग का रिजवान इस बीच पहुंचता है और उनको सफेद फुलों का माला पहनाता है। फिर केला और सेव का और उसके बाद जो माला निकाल तो सब चौंक गये। यह माला था लाल मिर्चाई और नींबू का। बोला किसी की नजर न लगे आपको इसलिए यह माला पहना रहे हैं। भीड लगातार कम-अधिक होती रही। इस बीच दैनिक जगरण के सवालों का जवाब देते हैं। कहा कि शहर में शांति व्यवस्था बनाये रखना उनकी पहली और सबसे बडी प्राथमिकता है। बोले कि दाउदनगर को जिला बनाने का प्रयास करेंगे। ग्रामीण यातायात दुरुस्त करना, शिक्षा और स्वास्थ्य को बेहतर बनाने क काम करेंगे। युवाओं का रोजगार दूर कैसे हो इसकी कोशिश की जायेगी। कह अकि प्राथमिकता के आधार पर अन्य कार्य किये जायेंगे।

विधायक समेत 16 की हुई जमानत जब्त

जमानत बचाने को चाहिए था 1/6 मत
पूर्व विधायक राजाराम सिंह की जब्त हुई जमानत

     विधायक रहते सोम प्रकाश की भी डूबी लुटिया

उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) ओबरा विधान सभा चुनाव के जंग में उतरे 18 में 16 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गयी। पूर्व में दो बार विधायक रहे भाकपा माले प्रत्याशी राजाराम सिंह हों या निवर्तमान विधायक सोमप्रकाश, दोनों की जमानत नहीं बच सकी। निर्वाची पदाधिकारी सह डीसीएलआर मनोज कुमार ने बताया कि किसी भी प्रत्याशी को अपनी जमानत बचाने के लिए आवश्यक है कि वह कुल मतदान का 1/6 मत प्राप्त करे। अर्थात 100000 मतदान हुआ है तो जमानत बचने के लिए 16667 मत चाहिए। ओबरा विधान सभा क्षेत्र में कुल 290791 में से 159825 ने मतदान किया। जमानत बचाने के लिए कुल 26637 मत चाहिए। जमानत बोलते हैं कि प्रत्याशी नामांकन के वक्त 10,000 रुपये सरकार को देना पडता है। अनुसूचित जाति को मात्र 5,000 देना होता है। जमानत बचाने में कामयाब रहने वालों को यह राशि वापस कर दी जाती है। प्राप्त विवरण के अनुसार विजेता बीरेन्द्र कुमार सिन्हा को 55574 (पोस्टल बैलेट-468) और चन्द्रभुषण वर्मा को 44378 (पोस्टल बैलेट-268) मत मिला है। भाकपा माले को मात्र 22739 मत और पोस्टल बैलेट का 62 मत मिला है। सोमप्रकाश को 10031 मत मिला है। जब इनकी ही लुटिया डूब गयी तो बाकी की क्या बिसात? अभिमन्यू शर्मा को 3710, बसपा के राम औतार चौधरी को 6541, अंजनी कुमार को 794, जुदागिर मिस्त्री को 622, निरज कुमार को 609, नीलम कुमारी को 1798, राजीव कुमार को 1004, शिव कुमार को 719, शैलेश कुमार चंद्रवंशी को 1686, अखिलेश शर्मा को 1487, रिचा सिंह को 1866, बृन्दा सिंह को 1828, रामराज यादव को 706 और बिनय कुमार को 942 मत मिला है। नोटा को भी 297 मत मिला है।  

Saturday 7 November 2015

ओबरा में न्यूनतम 15 का जमानत होगा जब्त

जमानत बचाने को चाहिए 1/6 मत
 विधान सभा चुनाव के लिए रविवार (08.11.2015) परिणाम का दिन है। निर्वाची पदाधिकारी सह डीसीएलआर मनोज कुमार ने बताया कि किसी भी प्रत्याशी को अपनी जमानत बचाने के लिए आवश्यक है कि वह कुल मतदान का 1/6 मत प्राप्त करे। अर्थात 100000 मतदान हुआ है तो जमानत बचने के लिए 16667 मत चाहिए। ओबरा विधान सभा क्षेत्र में कुल 290791 में से 159845 ने मतदान किया। यह 54.97 फीसद है। इसमें 55.99 फीसद पुरुष कुल 87643 और 53.78 फीसद स्त्री कुल 72202 मतदाताओं ने मतदान किया है। यहां कुल 18 प्रत्याशी हैं। जमानत बचाने के लिए कुल 26641 मत चाहिए। अनुमान है कि प्रथम और दूसरे स्थन पर रहने वालों के अलावा मात्र शायद तीसरे स्थान पर आने वाले प्रत्याशी की जमानत बच सकती है। शेष 15 की जमानत रद्द होना निश्चित दिखता है। जब आप परिणाम देख रहे होंगे तो विजेता और उप विजेता को मिले मत से जान सकते हैं कि किसकी जमानत बची और किसकी नहीं। जमानत बोलते हैं कि प्रत्याशी नामांकन के वक्त 10,000 रुपये सरकार को देना पडता है। अनुसूचित जाति को मात्र 5,000 देना होता है। जमानत बचाने में कामयाब रहने वालों को यह राशि वापस कर दी जाती है। 

ओबरा की जनता का कौन बनेगा सिकन्दर?

                                फोटो-चन्द्रभुषण वर्मा और बीरेन्द्र सिन्हा 
दोनों गठबन्धनों की हैं कमजोर कडियां
जातीय समीकरण या आधार मुख्य कारक
उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) मुकाबले में खडी महागठबन्धन और एनडीए ने अपनी जीत का दावा करते हुए यह भी बताया है कि उन्हें ओबरा विधान सभा क्षेत्र में कितना वोट मिलने वाला है। दोनों मानते हैं कि हार-जीत का अंतर लगभग 10 हजार होगा। यह हार-जीत कैसे तय होगा? जातीय समीकरण ही इस चुनाव का मूलाधार है। दोनों पक्षों की कई कमजोर कडियां भी हैं। ये कडियां ही जीत-हार को तय करेंगी। एनडीए प्रत्याशी चंद्रभुषण वर्मा के खिलाफ जो कारक हैं उसमें एनसीपी से प्रत्याशी अभिमन्यू शर्मा, निर्दलीय ऋचा सिंह, समरस समाज पार्टी के राजीव कुमार उर्फ बब्लु और सर्वजन कल्याण पार्टी के अंजनी कुमार सिन्हा समेत कई अन्य प्रत्याशियों को मिला मत इनकी अनुपस्थिति में एनडीए को मिलता। इसके अलावा सोमप्रकाश सिंह ने भी एनडीए का वोट ही अधिक काटा है। इसके अलावा एनडीए वोटरों की सुस्ती जानलेवा साबित हो सकती है। आधार वोटरों में आक्रमकता नहीं थी। एक बार फिर यह स्पष्ट दिखा कि एनडीए के मतदाता वर्ग को बूथ तक ले जाने की चुनौती बनी हुई है। एनडीए के सभी घटकों के बीच आपसी सामंजस्य और चुनाव जीतने का आक्रामक जज्बा कभी नहीं दिखा। रालोसपा का आधार मतदाता खामोश रहा। खामोशी ऐसी कि बराबर यह सन्देह बना रहा कि यह मतदाता किसकी तरफ जा रहा है। भाकपा माले प्रत्याशी राजाराम सिंह की तरफ या रालोसपा की तरफ? दोनों पक्ष 60/40 का औसत अपने पक्ष में बताते रहे हैं। इसी तरह महागठबन्धन प्रत्याशी बीरेन्द्र सिन्हा को हराने के लिए कई लोग सक्रिय रहे। जिसमें राजद से जुडे उनके स्वजातीय नेता शामिल हैं। इनकी मंशा किस हद तक पूरी हुई, सवाल यह भी है। क्या लालु प्रसाद को देख कर वोट डालने वाले स्थानीय स्वजातीय नेता के कहने पर राजद छोड दूसरे को वोट किया, यह देखना दिलचस्प होगा।    

धीरे-धीरे खुलेंगी अंदरखाने की बातें
 आप जब खबर पढ रहे हैं तो ओबरा विधान सभा क्षेत्र का चुनाव परिणाम पर भी आपकी नजर बनी हुई है। रुझान के साथ-साथ मतदान से पूर्व और मतदान के दिन की राजनीतिक गतिविधियों पर भी आप नजर दौडा रहे होंगे। स्मृतियां उमड रही होंगी कि किसने क्या कहा था, क्या किया था? राजनीति में जो दिखता है हर बार वही नहीं होता। अन्दरखाने भी बहुत कुछ होता है। जो दिखता नहीं, या काफी कम लोग उसे देख पाते हैं। यह अन्दरखाने की बात भी अब धीरे-धीरे खुलने लगी है। किस किस ने क्या कहा था और कहे मुताबिक नहीं किया, या अपेक्षानुरुप नहीं किया, अब इसकी चर्चा होगी। यह चर्चा भी कितना असहिष्णु होता है या सहिष्णु यह वक्त बतायेगा।

दांव पर लाखों नगदी और साख
एक विधान सभा क्षेत्र से चुनाव कोई एक ही जीतेगा और बाकी सब हारेंगे, यह तय है। ओबरा विधान सभा क्षेत्र से कुल 18 और गोह विधान सभा क्षेत्र से 21 प्रत्याशी खडे हैं। सबकी किस्मत का बंद ताला आज खुल रहा है। इन कुल 39 प्रत्याशियों के खर्च हुए लाखों नगदी और व्यक्तिगत साख दांव पर लगा हुआ है। इनके इतर भी इनके समर्थक और कार्यकर्ता नगदी का दांव लगा चुके हैं। प्राप्त सूचना के अनुसार राजद और रालोसपा के दो नेताओं के बीच ओबरा के परिणाम को लेकर एक लाख रुपये की शर्त लगी है। ऐसे कई लोग दीपावली का जुआ खेल रहे हैं। इस चुनाव में गोह ऐर ओबरा के कई नेताओं की व्यक्तिगत साख भी दांव पर लगी है। ये वे लोग हैं जो वोट के ठेकेदार बनते हैं। धारा के अनुकुल तो वोट दिलाने में ये कथित स्वयंभू ठेकेदार सफल हो जाते हैं किंतु धारा के विपरित ऐसा करना मुश्किल होता है, प्राय: नामुमकिन। चुनाव बाद इनकी भी पोल खुल जायेगी, जब विश्लेषण बूथवार होगा। तब स्पष्ट पता चल जायेगा कि कौन कितना सफल हो सका है?

देखे हैं हमने तीखे संघर्ष के दो अध्याय


100 और 1000 से कम अंतर की दो जीत
                    उपेन्द्र कश्यप
पूरा बिहार दुविधा में है। कौन जीतेगा, कौन हारेगा, किसकी सरकार बनेगी? यह सवाल राज्य में और प्राय: हर विधान सभा क्षेत्र में लोगों को परेशान कर रहा है। मान जा रहा है कि इस बार कांटे की टक्कर है। दोनों गठबन्धन, महागठबन्धन और एनडीए में किसी की सरकार बन सकती है। यह विचार जनता में भी है और एक्जिट पोल में भी। दुविधा इसी कारण है। ओबरा विधान सभा क्षेत्र में भी इन्हीं दो के बीच कांटे की टक्कर मान अजा रहा है। यहां दो जीत-हार दिलचस्प रहे हैं। चुनाव परिणाम अप्रत्याशित रहा है। परिणाम ने सबको चौंकाया था। इतिहास में दर्ज दोनों चुनाव परिणाम को याद करना दिलचस्प होगा।

रामनरेश सिंह से 23 वोट से हारे रामबिलास सिंह
                  फोटो- स्व.रामनरेश सिंह और स्व.रामबिलास सिंह 
साल 1967 का बिहार विधान सभा चुनाव दाउदनगर विधान सभा क्षेत्र के लिए सबसे दिलचस्प रहा है। जी हां, दाउदनगर विधानसभा क्षेत्र। तब यही क्षेत्र था, जिसके साथ हसपुरा प्रखंड जुडा हुआ था। ओबरा और बारुण को मिलाकर अलग विधान सभा क्षेत्र ओबरा के नाम से था। इस चुनाव में एक तरफ थे राम नरेश सिंह। सोशकिस्ट पार्टी के प्रत्याशी के रुप में। तब इनकी काफी ख्याति थी। 1952 में इसी पार्टी और क्षेत्र से उन्होंने पहली जीत दर्ज की थी। गोह प्रखंड के बुधई निवासी थे। इनका रुतबा था। राजनीतिक कद काफी उंचा हो गया था। सुभाषचन्द्र बोस को चौरम में लाने का श्रेय इन्हें भी जाता है। हालांकि अगला दो चुनाव वे इंका प्रत्याशियों से हारते रहे। बावजूद इसके उनके कद के सामने रामबिलास सिंह कहीं नहीं टिक रहे थे। इनका पहला चुनाव था। वे सन्युक्त सोशलिष्ट पार्टी के प्रत्याशी बने। दोनों के बीच कांटे की टक्कर हुई। तब भी यही चर्चा थी कि कौन जीतेगा? जब परिणाम घोषित हुआ तो राम नरेश सिंह मात्र 23 वोट से जीते। खुद राम बिलास बाबू ने इस संवाददाता से कहा था कि उनकी हार 23 वोट से हुई थी। राम नरेश सिंह जीतकर सरकार में स्वास्थ्य मंत्री बने। अगले दो चुनाव 1969 और 1972 में राम बिलास सिंह ने उन्हें पराजित किया और फिर उनका राजनीतिक जीवन का अंत हो गया।

सोम प्रकाश 803 वोट से जीते
                  फोटो- सोमप्रकाश सिंह और प्रमोद सिंह चंद्रवंशी

साल 2010 का चुनव सबको याद होगा क्योंकि यह गत चुनाव की ही घटना है। तब विधायक सत्यनारायण सिंह राजद से प्रत्याशी थे। सरकार का नेतृत्व कर रहे जदयू ने प्रमोद सिंह चंद्रवंशी को प्रत्याशी बनाया। मुकाबला इन्हीं दो के बीच माना जा रहा था। चुनाव परिणाम जब आया तो सब चौंक गये। लालु प्रसाद को छोडकर उनका आधार वोट निर्दलीय किंतु स्वजातीय के साथ सिफ्ट कर गया और परिणामत: राजद 16851 वोट लाकर चौथे स्थान पर सिमट गया। सोम प्रकाश 36815 वोट के साथ जीत गये और एनडीए प्रत्याशी प्रमोद सिंह चंद्रवंशी 36012 वोट लाकर मात्र 803 वोट से हार गये। अपने वोटरों को सक्रिय रखने के लिए सत्यनारायण सिंह ने ओबरा के थानेदार सोम प्रकाश सिंह के तबादला के बाद ईमानदारी बचाओ का नारा देते हुए आन्दोलन किया था और यह घटना उनके लिए आत्मघाती साबित हुआ। सोम प्रकाश की राजनीतिक महत्वाकान्क्षा ने निर्दलीय प्रत्याशी बना दिया। मुकाबले का तीसरा कोण भाकपा माले के राजा राम सिंह को माना जा रहा था। वे इस स्थान पर 184461 वोट के साथ बने रहे।

Tuesday 3 November 2015

अंतर्राष्ट्रीय साजिश के शिकार हैं बुद्धिजीवी

अंतर्राष्ट्रीय साजिश के शिकार हैं बुद्धिजीवी
बहुमत की मदहोशी में गलत करती है सरकार

प्रचार के लिए बेहतर माध्यम “मोदी-विरोध”

सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता पर बोली जनता
 देश में असिहुष्णता मुद्दा बना हुआ है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी बोलना पडा तो बोले कि 1984 के दोषी इस मुद्दे पर न बोलें। जनता इसे कई नजरिये से देखती है। रजनीश कुमार ने कहा कि जब-जब देश को मजबूत नेतृत्व मिला है इस तरह की अंतर्राष्ट्रीय साजिश हुई है। स्व. इंदिरा गाँधी के शासन को लें। नरेंद्र मोदी के रूप में देश को ईमानदार एवं मजबूत नेतृत्व प्राप्त हुआ है तो अंतर्राष्ट्रीय शक्तियाँ फिर से सक्रिय हैं जिसके साजिश का मोहरा ये तथाकथित बुद्धिजीवी बन रहे हैं। ये सब जाने-अनजाने अपने देश को अस्थिर एवं कमजोर करने के लिए सुनियोजित अंतर्राष्ट्रीय साजिश का हिस्सा बन रहे हैं। संजय तेजस्वी ने कहा कि  मोदी से नफरत करने वाले ही ऐसा कर रहे हैं। उनकी ऐसी मानसिकता बन गई है की गुजरात दंगा का आरोपी सबको साफ करवा रहा है। वे इसके पहले हुए सभी घटनाओं को भूल गए है। संजय गुप्ता बोले विरोध की यह अजीब राजनीति है जिसमें बिना वजह सरकार को पक्ष बनाया जा रहा है। साहित्यकार संजय कुमार शांडिल्य बोले विरोध तो आदमी भृकुटी में बल देकर भी करता है। सत्ता का प्रतिपक्ष आज सक्षम नहीं है। सरकारें बहुमत की मदहोशी में प्राय: गलत राह लग जाती हैं। मीडिया की अपनी सीमाएँ हैं। लोकतंत्र में सरकारों को निरंकुश नहीं छोड़ा जा सकता है। जनता के हित में अगर कोई आवाज उठती है तो उसे उसी रूप में देखे जाने की जरूरत है। आंदोलन लोकतंत्र का प्राण तत्व है। इससे किसी को तकलीफ क्यों होना चाहिए? समर्थन और विरोध की आवाजों का लोकतंत्र में अपनी अहमीयत है। आर्य अमर केशरी  कहते हैं कि चाणक्य ने भी कहा था की जब समाज के बिद्वान लोग और अपराधी प्रवृति के लोग असंतुस्ट होने लगे तब यह प्रसन्ता पूर्वक मन लेना चाहिये की राजा की ब्यवस्था बहुत बढ़िया ढंग से काम कर रही। बस हम वही मानते हैं। अरुण कुमार बोले  पुरुस्कार लौटाने वालों में बहुत सारे ने लोकसभा चुनाव में मोदी के खिलाफ चुनाव प्रचार में भाग लिया था। लोग पुरुस्कार लौटा रहे है पर पुरुस्कार के साथ जो राशि मिली थी वो नहीं लौटा रहे है ये कैसा बिरोध? प्रफ्फुलचन्द्र सिंह ने कहा कि देश के प्रत्येक नागरिक की अपनी जिम्मेदारी है| चिंता और आशंका तब गहरी हो जाती हैं जब नाराजगी का कारण कहीं स्पष्ट न हो और माहौल ख़राब हो गया देश का मात्र राग अलापा जाय| सतीष पाठक कहते हैं कि सब सस्ती लोकप्रियता पाने का ठोंग है। रंजीत कुमार गुप्ता ने कहा कि सम्मान लौटाने वालों को देश की चिन्ता नहीं है वे लोग देश को शर्मसार कर रहे हैं। धीरज भारद्वाज बोले कि प्रचलित होने का सबसे आसान तरीका मोदी जी का विरोध कर खबरों के माध्यम से अपना नाम कमाना है।


सम्मान लौटाने वाले देशभक्त नहीं-डा.शंभु

राजनीति अधिक, संवेदनशीलता कम-डा.प्रकाशचन्द्रा
सहिष्णुता बनाम असिष्णुता या सुविधा की राजनीति
 देश उबल रहा है। कथित असहिष्णुता के खिलाफ देश तथाकथित बुद्धिजीवी, साहित्यकार, फिल्मकार और वैज्ञानिक अपना सम्मान वापस कर रहे हैं। क्या वास्त्व में सम्मन लौटाने वाले सही हैं या यह सुविधा की राजनीति और साजिश है। इस पर विवेकानंद मिशन स्कूल के निदेशक डा.शंभुशरण सिंह ने स्पष्ट कहा कि सम्मान लौटाने वाले देशभक्त कतई नहीं हैं। यह तमाशा है। सम्मान ने उनकी लेखनी और प्रतिष्ठा को जन जन तक पहुंचाया। क्या प्राप्त प्रतिष्ठा वे लौटा सकते हैं? कहा कि ऐसा करने में उनकी पीढियां गुजर जायेंगी। कह अकि देश ने हाल में जो प्रतिष्ठा विश्व में अर्जित की है उस पर कालिख पोतने का काम किया जा रहा है। भगवान प्रसाद शिवनाथ प्रसाद बीएड कालेज के निदेशक डा.प्रकाशचन्द्रा ने कहा कि इअसमें राजनीति अधिक और सवेनशीलता कम है। सरकार को नीचा दिखाने की कोशिश है यह। कहा कि अगर संवेदनशीलता होती तो पहले भी कई घटनायें मानवता के खिलाफ हुई हैं, तब किसी ने क्यों नहीं सम्मन लौटाया? कहा कि तसलीमा के समय कहां थे साहित्यकार? सम्मान लौटाने वालों की नियत पर प्रश्नचिन्ह उठता है। धर्मवीर फिल्म एंड टीवी प्रोडक्शन के निदेशक सह प्रोड्युसर धर्मवीर भारती ने कहा कि 1984 का दंगा सिक्खों और सरकार के बीच हुआ था। तसलीमा को देश से निकाल दिया गया, उसके खिलाफ पांच फतवे जारी हुए तब कहां थे फिल्मकार? गोपाल बाबू अलंकार ज्वेलर्स के राजेन्द्र प्रसाद सर्राफ ने कहा कि इससे माहौल बिगडेगा, बनेगा कतई नहीं। सम्मन लौटाने का कोई मतलब नहीं है। ऐसे बुद्धिजीवियों को देश और वैश्विक स्तर पर सोचना चाहिए।