Wednesday 17 September 2014

जिउतिया को प्रतिनिधि संस्कृति बनाने की जरूरत


जिउतिया को प्रतिनिधि संस्कृति बनाने की जरूरत

जिउतिया को प्रतिनिधि संस्कृति बनाने की जरूरत
संवाद सहयोगी, दाउदनगर (औरंगाबाद) : बिहार के विभाजन के बाद छउ नृत्य झारखंड की प्रतिनिधि संस्कृति बन गई है। अपना प्रदेश अभी इसकी रिक्ति को छठ पूजा की संस्कृति में तलाश रहा है। मगर छठ पूरे प्रदेश में और प्राय हिंदी पट्टी में मनाया जाता है, जबकि जिउतिया लोक उत्सव सिर्फ यहीं है। जिसमें लोकयान के सभी चार तत्व-लोककला, लोक साहित्य, लोक विज्ञान और लोक व्यवहार प्रचुर मात्रा में हैं। यह बहुजनों का उत्सव है शायद इसीलिए सरकारों की दृष्टि इस पर नहीं पड़ती। विवेकानंद ग्रूप आफ स्कूल के निदेशक डा. शभूशरण सिंह कहते हैं कि वर्तमान समाज में बच्चे बुजुर्ग माता पिता की सेवा नहीं करते। भावनाओं का संप्रेषण और विस्तार आवश्यक है। यह पर्व पुत्रों की दीर्घायु की कामना करने वाली माताओं द्वारा किया जाता है। इसलिए यह देश के स्तर पर यह संदेश दे सकता है इसलिए इसको प्रतिनिधि संस्कृति बनाना चाहिए। भगवान प्रसाद शिवनाथ प्रसाद बीएड कालेज के सचिव डा. प्रकाश चंद्रा ने कहा कि राज्य सरकार अगर थोड़ी सी मदद कर दे, निधि उपलब्ध कराए और उसके नुमाइंदे उपस्थित होकर इसका अवलोकन करें तो यह लोक उत्सव राज्य की लोक संस्कृति बन सकती है। नगर पंचायत के मुख्य पार्षद परमानंद प्रसाद ने कहा कि राज्य सरकार में कला संस्कृति मंत्री भी लोक कलाकार हैं। उन्हें आकर देखना चाहिए और इसके संवर्धन के लिए बीस लाख रुपये सालाना देने का प्रावधान करें तो इस संस्कृति को चरमोत्कर्ष दिया जा सकता है। सामाजिक कार्यकर्ता कन्हैया सिंह सिसौदिया, जदयू नेता अभय चंद्रवंशी और भाजपा प्रखंड अध्यक्ष अश्रि्वनी तिवारी ने सरकार से माग की कि तीन दिनों तक सिमट गई इस पौने दो सौ साल से जीवंतता से चली आ रही लोक संस्कृति के उत्थान के लिए वह ठोस कदम उठाए जिला या अनुमंडल प्रशासन के सहयोग के बिना यह संस्कृति अपनी जीवंतता बनाए हुए है। इसके संवर्धन के लिए सिर्फ थोडे़ सहयोग की जरूरत है। अगर दस बीस लाख रुपये जो किसी भी सरकार के लिए एकदम न्यूनतम राशि होती है यहा खर्च किया जाये तो लोक कलाकारों को बड़ा मंच मिल सकता है। विस्तार के साथ गुणवत्तापूर्ण बदलाव लाया जा सकता है।

Tuesday 16 September 2014

“दाउदनगर के जिउतिया सारे नाम हई गे साजन”



 मंगलवार को जिउत्पुत्रिका व्रत है। इसकी पूरी तैयारी कर ली गई है। यहां इसे नौ दिवसीय उत्सव के रुप में मनाया जाता है। इसके लिए शहर में बने सभी चार चौकों को सजाया गया है। वस्तुत: इन चौकों पर भगवान जिमूतवाहन का प्रतिक ओखली रखा जाता है। इसी की पूजा सभी व्रति महिलायें सामूहिक रुप से करती हैं। लोक पर्व जीवन को उल्लासित करते है, आनंदित करते है और संस्कारित भी करते है। इनसे जीवन या समाज की एकरसता दूर होती है और नयी उर्जा का संचार होता है। सामुहिकता की भावना मजबूत होती है तथा सामाजिक संगठन के रूप में हम अपने को अभिव्यक्त करते है। लोक पर्व में विविधता होती है और विशिष्टता भी। लोक-पर्व से किसी देश, किसी प्रांत, किसी क्षेत्र, किसी शहर, किसी गांव का विशेष पहचान बनती है। कार्निवाल-पर्वदुनिया के कई देशों में मनाया जाता है, किंतु जर्मनी के कोलोन शहर का कार्निवाल अपनी विशेष पहचान रखता है और विश्व में प्रसिद्ध है। इसी तरह जिउतिया-पर्व भी भारत के विभिन्न प्रांतों में मनाया जाता है, किंतु दाउदनगर शहर में जिउतिया मनाने का विषिश्ट ढंग है जो काफी मशहुर है। यहां इसे नकल-पर्व के रूप में बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। इसे देखने के लिए झारखंड से और उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर तक से लोग सपरिवार आते है। यही कारण है कि यह अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान रखता है।

हम सभी जानते है कि जिउतिया-पर्व (जीवित-पुत्रिका व्रत) आश्विन मास (सितम्बर-अक्टुबर) में कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है। इसका विशेष वर्णन भविष्य पुराणमें मिलता है। इस पर्व में माता अपने पुत्र के चिरंजिवी होनी की कामना करती है। इसलिए जब कोई पुत्र किसी बड़े संकट से बच जाता है तो लोग कहते है - खैर मनाओ कि तुम्हारी मां जिउतिया की थी, सो तुम बच गए।यह पर्व तीन दिनों का होता है - एक दिन नहाय-खाय यानी सप्तमी (सोमवार) को माताएं स्नान करके खाना खाती है, अष्टमी को उपवास रखकर शाम में पूजा करती हैं और नवमी को सुबह में उपवास तोड़कर पारणकर लेती हैं। इस बार नवमी तिथि बुधवार को है। यहां की खासयित यह है कि यहां इस पर्व का आरम्भ अनन्त पूजाके दूसरे दिन से ही हो जाता है। जिउतिया में जीमूतवाहन भगवान की पूजा की जाती है। पूजा करने के लिए दाउदनगर में चार चैक बने हुए हैं - पुराना शहर चौक, कसेरा टोली चौक, पटवा टोली चौक और बाजार चौक। इन चारों चैकों पर जीमूतवाहन भगवान स्थापित हैं।

बर्तन बनाने का काम करती है कांस्यकार जाति



जिउतिया संस्कृति का संवाहक है समाज
लोक साहित्य इस समाज को देता है श्रेय

 संवत 1917 में जिउतिया संस्कृति से जुडी जाति कांस्यकार का पुश्तैनी धंधा है बर्तन बनाना। शहर में पीतल, कांसा, फुल के बर्तन प्राय: हर कसेरा परिवार में कभी बनता था। सतरहवीं सदी में ही दाउद खां ने इन्हें यहां बसाया था। बमभोला कांस्यकार को पता नहीं कहां से आये। बताते हैं खानदानी हैं, जब से दाउदनगर है तब से यहां कांस्यकार है। मूल की तलाश अभी जारी है। इस जाति के कारण ही यहां का बर्तन उद्योग देश में कभी प्रतिष्ठा पाता था। भारत चीन युद्ध के समय यहां का बर्तन सैनिकों को आपूर्ति की गई थी। यहां बडा मिल हनुमान मंदिर के पीछे हुआ करता था। अब यह धंधा सिमट गया है। चंद घरों तक। लोग दूसरे व्यवसाय से जुडते चले गये। इस समाज का कसेरा टोली में बने जीमूतवाहन भगवान के चौक पर एकाधिकाअर है। यहां मूंह से गर्म लौह पिंड को पकडने, हाथों से दपदपाते लाल जंजीर को दूहने जैसी खतरनाक प्रस्तुति की जाती है। जो अन्यत्र नहीं दिखता। यहां लौंडा नाच अभी भी होता है। उसकी परंपरा बन गई है। शादी और बारात के साथ शव यात्रा भी निकाली जाती है। 

जिउतिया संस्कृति का जन्मदाता है तांती समाज



भगवान शंकर के आंसू से जन्मी है यह जाति
सतरहवीं सदी में दाउद खां ने लाया था यहां
तिरहुत से आया है तांती
तांत से बना है तांती शब्द

उपेन्द्र कश्यप
 यहां के नौ दिवसीय लोकउत्सव जिउतिया का प्रारंभ और उसके लिए समर्पित जाति पटवा या तांती समाज खानाबदोश जाति की तरह भी काम करती है। एक बडी आबादी राज्य से बाहर खानाबदोश की जिंदगी जीती है। काम की तलाश में उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश के इलाकों में बडी आबादी काम करती है। साल में कई बार सभी लोग यहां आवश्यक रुप से आते हैं। बैशाख के महीने में शादी के लिए, सावन में घर की देवी या देवता की पूजाई के लिए और कार्तिक में दीपावली में घर की सफाई-सरंगाई के लिए, तब छठ तक यह मजदूर वर्ग यहां ठहरता है। यह समाज वस्तुत: यहां तिरहुत से आया था। दाउद खां जब सतरहवीं सदी में दाउदनगर शहर को बसा रहे थे तो तिरहुत से रेशम बुनने में माहिर जाति तांती को यहां बुलाकर बसाया था। तब इनकी संख्या बमुश्किल दस रही होगी। इसी कारण सब एक दूसरे के रिश्तेदार हैं। ऐसा बुजुर्ग कलाकार बेसलाल प्रसाद तांती और रामजी प्रसाद ने बताया। तथ्य है कि यह समाज महर्षि गौतम के तिरहुत से ही जुडा हुआ है। जब दाउदनगर में यह जाति आई तब भागलपुर से रेशम का कोआ मंगाकर यहां लूम चलाये जाते थे। यह जाति बुनकर जाति रही है। दाउदनगर में भी इनका मुख्य पेशा लुम चलाना ही था। गमछी, चादर, कंबल बनाना या रेशम के कपडे बनाना परंपरागत पेशा था। जब बुनकरी का काम खत्म होने को हुआ तो यह समाज दूसरे धंधे की तलाश में गया। एस.गोपाल और हेतूकर झा की संयुक्त पुष्तक ‘पीपुल आफ इंडियन’ के बिहार अध्याय के सोलहवें पाठ में इस जाति के बारे में कुछ जानकारी दर्ज है। पृष्ठ 914 से 916 के बीच दर्ज जानकारी के अनुसार इस जाति का मुख्य पेशा लुम चलाना है। तांती शब्द की रचना तांत से हुई और यह जाति भगवान शंकर के आंसू से उत्पन्न हुई है। इस पुष्तक के अनुसार इस जाति में अंध विश्वास है। जीव जंतु, पौधे के प्रति विश्वास रखता है। अंतरजातीय विवाह का चलन है। आज भी ऐसा करने पर बवाल नहीं होता। शंभु कुमार कहते हैं कि इसी शहर में कई उदाहाण मिल जायेंगे। पुष्तक बताता है कि आधुनिक शिक्षा के अभाव के बावजूद भी यह समाज सफल है। विकिपिडिया के अनुसार उत्तर प्रदेश के तंतवा जाति के समकक्ष है तांती, जो देवरिया, गोरखपुर, भोजपुर क्षेत्र, छपरा, सिवान और आरा क्षेत्र में है। जितिया संस्कृति का जन्मदाता है। यानी कम से कम संवत 1917 से पूर्व यहां आई है। 

Monday 15 September 2014

जिउतियाः जैसा हमने देखा-सुजित चौधरी

जिउतियाः जैसा हमने देखा
उत्कर्ष 2012 में मेरे आग्रह पर डा.राय के नाती सुजित चौधरी ने यहा आलेख लिखा था। वे रहते हैं बेंगलुरु में। जिउतिया के अवसर पर इसे साझा कर रहा हूं आपसे।

दाउदनगर में काफी धुम-धाम से मनाया जाता है जिउतिया। जिसमंे सभी लोग धर्मसम्प्रदायजाति और आर्थिक वर्ग से उपर उठकर सम्मिलित होते हैं। जितिया वास्तव में जिमुतवाहन का पर्व है जो उत्तर और पूर्व भारत में मनाया जाता है। दाउदनगर के जितिया का अनोखा पक्ष है की यहां के बच्चे और युवा नक्कल’ बनते हैं। नक्कल मतलब भेश बदलना और पूरे षहर में नक्कल बनकर घूमना। नक्कल बनना उनके लिए अनिवार्य होता है जिनका जन्म जिमुतवाहन के आषीर्वाद से हुआ हो। मगर जितिया में (मैं अपने बचपन यानि कम से कम तीस साल/पहले की बात बोल रहा हूं) षहर के काफी लोग नक्कल  बनते थे और जहां देखिये नक्कल ही नक्कल। आपने गोवा के कार्निवाल के बारे में सुना होगाकुछ वैसा ही। नक्कल की उत्पति में कोई जनजातीय परम्परा नहीं हैक्योंकि दाउदनगर में कोई जन जाति नहीं है। जितिया के समय सामाजिक बंधन ढीले हो जाते हैे औरसामाजिक सांस्कृतिक वर्जनाएं नही रहती। कोई किसी से भी मजाक कर सकता है या किसी का भी मजाक/ माखौल उड़ा सकता है। सब मान्य है। नक्कल के विशय पारंपरिक और सामयिक मुद्दांे से लिए जाते हैं यहां तक कि स्थानीय मुद्दे भी। पुरूश स्त्री रूप धारण करते हैं। जैसे मछली बेचने वाली या बाई स्कोप दिखाने वाली। कोई नट बनता है तो उसका साथी नट्टिन। कोई सूल्ताना डाकू बनता है तो कोई लैला की खोज में भटकता मजनू। कोई जोगी बनता तो कोई भिखारी। सड़कों बाजारो में घुमते ये नक्कल दाउदनगर के कुछ संभ्रांत लोगों की बैठक पर भी जाते हैंजहां उन्हें बख्ष्षीष मिलती है।इन नक्कालों में डिल्ला काफी मषहुर था। वह एक गोरा चिट्टा नवजवान था और पेषे से मछलीमार था। वह स्त्री रूप धारण करता और लोग समझते कि वाकई वह एक औरत है। सुल्ताना डाकु एक बहुचर्चित पात्र था। एक नक्कल सुल्ताना डाकू बनता और एक उसका साथी प्रधान सिंह। मुझे याद है - मेरे नाना डाॅक्टर और सभी नक्कल हमारे बैठक में जरूर आते थे। हाँ एक चीजसभी नक्कल खासकर बड़ी उम्र के षौकियाऔर अनुभवी नक्कल षराब जरूर पीते थे। नाना देषी षराब में कुछ मिलवाते थे जिससे उसका रंग पारदर्षी से बदलकर लाल हो जाता था। यह षराब नक्कलों के लिए हमारे बैठक में आने का एक खास आकर्शण था जो घर के नौकर बैठक से लगे छोटे कमरे में नक्कलों को पिलाते थे। मजनू जंजीरों में बंधा और फटे कपड़े पहने आता और जमीन पर अपना सर पटकता और गाता- लैला लैला पूकारूं मैं वन मेंमेरी लैला बसी है मेरे मन में।’ इसी तरह सुल्ताना डाकू आता और उसके आने का संकेत था कई बम बिस्फोट। फिर वह आता और अपने प्रधान से पूछता, ‘प्रधान जीयह डाक्टर कैसा आदमी है?’ प्रधान कहता- यह डाक्टर गरीबों का खून चुसता है और इसी से काफी दौलत कमाई है।’ सुल्ताना अपनी बन्दूक की नोंक पर मेरे नाना जी की तरफ उठाता और कहता डाक्टर अपने खजाने की चाभी दे दे नहीं तो तेरी लाष बिछा दुंगा।’ मैं बिल्कुल डरा नाना के पीछे खड़ा रहता और सोचता कि सचमुच यह नाना को मार देगा क्या इसके बाद सुल्ताना और प्रधान मेरे नाना के पैर छु प्रणाम करते और पास वाले कमरे में रंगीन षराब पीने चले जाते। ऐसा होता था दाउदनगर का जितिया। अब दस दिनों का यह आयोजन तीन चार दिनों में सिमट गया है। हाँ स्त्रियां अन्तिम दिन ओखली कि पूजा बिना किसी समस्या से कर सकें इसके लिए मुहल्ले के नक्कल लाल परी और काला परी बनकर उनके साथ रहते हैं। अब तो सुना है कि टीवी वाले भी इसका प्रसारण करते है।                                                                                                                    

दाउदनगर का जिउतिया : उतकर्ष-2012

दाउदनगर का जिउतिया : उतकर्ष-2012

लोक पर्व जीवन को उल्लासित करते है, आनंदित करते है और संस्कारित भी करते है। इनसे जीवन या ़समाज की एकरसता दूर होती है और नयी उर्जा का संचार होता है। सामुहिकता की भावना मजबूत होती है तथा सामाजिक संगठन के रूप में हम अपने को अभिव्यक्त करते है।
                लोक पर्व में विविधता होती है और विषिश्टता भी। लोक-पर्व से किसी देष, किसी प्रांत, किसी क्षेत्र, किसी षहर, किसी गांव का विषेश पहचान बनती है। कार्निवाल-पर्वदुनिया के कई देषो में मनाया जाता है, किंतु जर्मनी के कोलोन षहर का कार्निवाल अपनी विषेश पहचान रखता है और विष्व में प्रसिद्ध है। होली-पर्व भारत के विभिन्न राज्यों में मनाया जाता है, किंतु उत्तर प्रदेष के मथुरा की होलीदुनिया में प्रसिद्ध है। इसे देखने के लिए बड़ी संख्या में विदेषी पर्यटक प्रतिवर्श मथुरा पहंुचते है। इसी तरह जिउतिया-पर्व भी भारत के विभिन्न प्रांतों में मनाया जाता है, किंतु बिहार राज्य के दाउदनगर षहर में जिउतिया मनाने का विषिश्ट ढंग है जो काफी मषहुर है। यहां इसे नकल-पर्व के रूप में बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। इसे देखने के लिए झारखंड से और उत्तर प्रदेष के मिर्जापुर तक से लोग सपरिवार आते है। यही कारण है कि बिहार राज्य के औरंगाबाद जिले का यह अनुमण्डलीय षहर दाउदनगर अपनी विषिश्ट सांस्कृतिक पहचान रखता है।
हम सभी जानते है कि जिउतिया-पर्व (जीवित-पुत्रिका व्रत) आष्विन मास (सितम्बर-अक्टुबर) में कृश्ण पक्ष की अश्टमी को मनाया जाता है। इसका विषेश वर्णन भविश्य पुराणमें मिलता है। इस पर्व में माता अपने पुत्र के चिरंजिवी होनी की कामना करती है। इसलिए जब कोई पुत्र किसी बड़े संकट से बच जाता है तो लोग कहते है - खैर मनाओ कि तुम्हारी मां ने जिउयिा की थी, सो तुम बच गए।यह पर्व तीन दिनों का होता है - एक दिन नहाय-खाय यानी सप्तमी को माताएं स्नान करके खाना खाती है, अश्टमी कोउपवास रखकर षाम में पूजा करती हैं और नवमी को सुबह में उपवास तोड़कर पारणकर लेती हैं। दाउदनगर की खासयित यह है कियहां इस पर्व का आरम्भ अनन्त पूजाके दूसरे दिन से ही हो जाता है यानि आठ-नौ रोज पहले से।
जिउतिया में जीमूतवाहन भगवान की पूजा की जाती है। पूजा करने के लिए दाउदनगर में चार चैक बने हुए हैं - पुराना षहर चैक, कसेरा टोली चैक, पटवा टोली चैक और बाजार चैक। इन चारों चैकों पर जीमूतवाहन भगवान स्थापित हैं। अनन्त पूजा के दूसरे दिन षाम में डमरू के आकार का लकड़ी या पीतल धातु का बना बड़ा-सा ओखल चारांे चैंको पर रखकर जिउतिया पर्व का विधिवत आरम्भ कर दिया जाता है। इस दिन से प्रतिदिन षाम को अंधेरा होते ही चैक के पास पुरूश और बच्चे जमा होते हैं और ढोलक की थाप पर तालियां बजा-बजाकर झुमर गाते हैं। इसे चकड़दम्माकहा जाता है। चैक की परिक्रमा करते हुए नाचते-झुमते हुए झुमर गाने का आनंद ही कुछ और होता है। पूरा वातावरण संगीतमय हो जाता है। झुमर गीतों में विविधता होती है, रंगीनी होती है और मधुरता भी।
जिउतिया-पर्व के अवसर पर दाउदनगर षहर हफ्ता दस दिनों तक हंसी-मजाक, व्यंग्य-विनोद, गीत-संगीत, नृत्य-नाच, रहस्य-रोमांच और साहसिक कारनामे करने-दिखाने में लिप्त रहता है। कारण है कि यहां जिउतिया यानि जीवित-पुत्रिका व्रत को बड़े ही धूम-धाम और रंगारंग रूप में मनाया जाता है। नकल बनने के लिए बच्चे, युवा, अधेड़, बुढ़े सभी उम्र के पुरूशों में होड़ लगी रहती है। नकल बनने वाले कलाकार साहसिक कारनामे (मुड़िकटवा, डाकिनी, चाकुधारी, तलवारधारी, त्रिषुलधारी, लालदेव-कालादेव आदि) दिखलाते हंै। विषेश बात यह है कि नकल के माध्यम से समसामयिक घटनाओं और सामाजिक कुरीतियों पर करारा व्यंग्य-प्रहार किया जाता है। नकल बनकर सरकारी तंत्र की जमकर पोल खोली जाती है - कोई नेता बनकर जनता को सब्जबाग दिखाता है, कोई डाक्टर बनकर मरीजों का षोशण करता है, कोई पुलिस बनकर अपराधियों से मिली भगत पेष करता है, कोई न्यायाधीष बनकर अंधा-कानून को उजागर करता है आदि-इत्यादि। इस पर्व को इतने बहुरंगी ढंग से पूरे ताम-झाम के साथ भारत में और कहीं नहीं मनाया जाता। नकलों के बारे में विस्तार से उत्कर्श-एकमे लिख चुका हूँ, इसलिए यहां दुहराना उचित नहीं।
दाउदनगर में जिउतिया-पर्व मनाने की परम्परा सदियों पुरानी है। कहा जाता है कि बहुत पहले यहां यह पर्व एक महीने तक मनाया जाता था। इसके इतिहास में जाने पर पता चलता है कि अंग्रेजों के षासन-काल में दाउदनगर में एक बार भयानक प्लेग फैला था। प्लेग से लोग मर रहे थे। बचाव का कोई उपाय नही था। उसी दरम्यान ओझा-गुनियों की एकमण्डली इधर से गुजर रही थी। उनलोंगों ने दाउदनगर की दुर्दषा देखी तो रूक गए और यहां के लोगांे से कहा कि हम गुण से प्लेग को भगा देंगे। दाउदनगर के लोग तो परेषान थे ही। इनके पास कोई दूसरा उपाय नही था, सो यहां के लोगों ने ओझा-गुनिया को ठहराया और उनके कहे अनुसार अनुश्ठान करने लगे। गुनिया लोगों ने बम्मा देवीकी स्थापना कर तांत्रिक अनुश्ठान करने षुरू किए। वे लोग ढोल-मंजीरा बजाते हुए पचरा गाते और दिन-रात पूरे दाउदनगर के चक्कर लगाते। गुनिया लोगों ने कहा कि एक माह तक यहां के लोगों को दिन-रात बारी-बारी से जागते रहना होगा और ढोल-मंजीरा बजाते रहना होगा। इस तरह जागे रहने के लिए गुनिया लोगों ने ही कुछ खेल-तमाषे षुरू किए और साहसिक कारनामे (जीभ में त्रिषुल घूसा लेना, बाहों में चाकू घोंप लेना, सिर में, कमर में तलवार आर-पार कर लेना आदि) दिखाने लगे। वे लोग कई तरह के गीत भी गाते, जिनमें झूमर और लावनी काफी प्रसिद्ध है। इसी रतजगा के बीच जिउतिया पर्व भी आ गया। स्वभावतः एक महीने तक जागने की और कई तरह से मनोरंजन करने की परंपरा जिउतिया पर्व के साथ जुड़ गई। धीरे-धीरे समय बीतने के साथ एक महीने का यह आयोजन कम होकर नौ-दस दिनोंका रह गया। जिउतिया की प्राचीनता और परंपरा को बतलाने वाला एक झूमर-गीत यहां इस प्रकार गाया जाता है -
धना भाग (धन्य भाग्य) रे, हाय रे धना भाग रे जिउतिया
तोरा अइले जियरा नेहाल
अरे जिउतिया जे अइले मन हुलसइले
नौ दिन कइले बेहाल रे जिउतिया
तोरा अइले जियरा नेहाल
धना भाग रे ....
आसिन अन्हरिया अउ दूजे रहे संवत्
उन्नइस-सौ सतरह के साल रे जिउतिया
तोरा अइले जियरा नेहाल
धना भाग रे ......इस झूमर-गीत में दो बातें कही गई है - पहली कि जिउतिया-पर्व नौ दिनों तक मनाया जाता है और दूसरी की इसका आरंभ संवत् 1917 (18600) में हुआ। जाहिर है प्लेग वाली घटना इनसे पहले की है। इससे दाउदनगर में जिउतिया-पर्व मनाने की प्राचीनता का पता चलता है।
गीत-संगीत भी दाउदनगर के जिउतिया का सषक्त और समृद्ध पक्ष है। विषेश बात यह है कि जिउतिया के अवसर पर यहां के पुरूश लोग झूमर-गीत गाते हैं और लावनी-गीत भी प्रस्तुत करते हैं। लावनी गाने की परम्परा बिहार में सिर्फ दाउदनगर में ही जिउतिया के अवसर पर देखने-सुनने को मिलता है। दाउदनगर में लावनी गीत गाने की परम्परा का आरम्भ ओझा-गुनियों ने किया था। प्लेग भगाने वाले ओझा-गुनिया महाराश्ट्र के रहने वाले थे। इसलिए उन्होनें जिस देवी का दाउदनगर में स्थापना कर पूजा की, उसका नाम बम्भा देवीरखा। ध्यान देने की बात है कि महाराश्ट्र में मुम्बा देवीकी काफी महिमा है। मुम्बा देवीऔर बम्मा देवीनामों में काफी समानता है। यह भी संभव है कि गुनिया लोगों ने मुम्बा देवीकी ही स्थापना की हो, जिसे दाउदनगर के लोग बम्मा देवीकहने लगे। महाराश्ट्र में लावनी गाने की समृद्ध परम्परा है। इसलिए गुनिया लोगो नें दाउदनगर में भी लावनी-गीत प्रस्तुत किए। वही लावनी गाने की परम्परा दाऊदनगर में आज भी जीवित है। लवनी-गीत प्रस्तुत करने के लिए पाँच-छः लोगों की मण्डली रहती है, जो खंजड़ी, जोड़ी और गिल्ली-डंडा बजाते हुए लावनी प्रस्तुत करती है। यहां गाये जाने वाले एक लावनी-गीत में-कृष्ण भगवान द्वारा नारी-वेष में चूड़ी बेचने का बड़ा ही श्रृंगारिक वर्णन किया गया है। गीत इस प्रकार है -
श्री कृष्ण नंदन जी को नंदन मनिहारिन को भेष किया, गये ब्रज में आप कृष्ण जी,जा सखियन को मोह लिया।
किए हुए सिंगार कृष्ण जी बने सुदर्षन में आला, कानों में है कर्नफूल उपर है झुम्मक वाला, खुब चमकता हार गले कंचन, कंठी, मोहर माला, किए षीष पर रोड़ी कृष्ण
 जी उपर षोभे तीर काला जड़ी जडावल जेवर पहन
खुब तरह सिंगार किया गए, ब्रज में ......
रतन जड़ित के ओढ़नी ओढ़े और जरद की है नारी, सुर्ख रंग के घाघरा पहिने चोलिया है बुटेदारी, चन्द्रबदन मृगनैनी अंचल चाल चली है, मतवारी, जादूगरी कृष्णजी ऐसी मोह ब्रज के नर-नारी बदला रूप ऐसे कृष्ण जी कोई नहीं पहचान किया, गए ब्रज में .....
लिये षीष पर चूड़ी कृष्ण जी घर-घर करते है फेरी, सभी जगह पर कहते फिरते कोई चूड़ियां ले ले मेरी। लाल, सब्ज, जरद, बैगनी सभी रंग की है चूड़ी, सब सखिया मिल लगी बताने कहो दाम तुम भरपूरी तरह-तरह के चुड़ी कृष्णजी सब सखियन को पहना दिया गए ब्रज में ......
एक और लावनी-गीत में अंग्रेज सरकार द्वारा बड़ी नहर खुदवाने की चर्चा की गई है -
परजा के पालन करने को नहर को खुदवाया है
मषहुर है नहर ये लम्बी अंगरेजों का लाया है
पहले तो दूरबीन लगाकर सर्व राह को देख लिया
दूसरे में कम्पास लगार बेलदारो नें चास किया
हरिद्वार से नक्षा लाकर नहर खोदना षुरू किया
जगह-जगह पर साहबों ने ठेकेदारों को ठेका दिया
देखों-देखो चैड़ी नहर खोदन करने आया है
मषहूर है नहर ...........
सोलह फुट गहरा करवाया बावन फुट चैड़ाई है।
पटरी उपर वृक्ष लगाया सुन्दर अति सोहाई है।
नहर से नहरी जो निकली, नहरी से जो पैन भाया, पैनों से जो निकली नाली वही जल खेतों में गया। तीन कोस पर लख दो तरफा पुलों से पटवाया है
मषहूर है नहर ........
एक लावनी ऐसा भी है, जिसमें सामाजिक विषेषताओं पर करारा प्रहार किया गया है। इस लावनी गीत में समाज में उंची जाति और नीची जाति के भेद-भाव को उजागर किया गया है। गीत की पंक्तियां इस प्रकार है -
जो देखा मतलब के साथी कलजुग का है यही करम, कर के बात को लगे पलटने छुट गया है दीन-धरम।
जब से कलजुग अमल किया है सबको किया है हाल-बेहाल
पंडित लाल भी हुए जहां में चलने लगे है चाल-कुचाल, बड़े षास्त्र न पढ़े पढ़ावे झूठे लगे बजाने गाल, राजा दण्ड लेते परजन से इसी से पड़ता काल काल डुकाल कच्छ ढील हो गई क्षत्रिन को करने लगे है बुरा करम, कह के बात को ......
नीच डांट के कहै उंच से तुममें तो कुछ दम नहीं
जुबां संभालो बैठे रहो कुछ हम भी तुमसे कम नहीं, नारी पुरूष को मार निकाले जेठ से करती षरम नहीं, कहता है रघुवर प्रसाद अब कलजुग में षुभ करम नहीं, सत्य बात न बोले मुख से बेटा को नहीं जरा षरम, कह के बात को .......
दाउदनगर में अब लावनी गाने वाले कम बचे हैं। इसलिए इस गीत विद्या को यहां विकसित और समृद्ध करने की आवष्यकता है। लावनी प्रतियोगिताआयोजित करके यह काम किया जा सकता है।


जिउतिया पर विशेष सामग्री : उत्कर्ष 2012 में प्रकाशित

जिउतिया पर विशेष सामग्री रू उत्कर्ष 2012 में प्रकाशित 
प्रोण्शिवपूजन प्रसाद का यह आलेख मेरे संपादन में प्रकाशित्र हुई थी। 

लोक पर्व जीवन को उल्लासित करते है, आनंदित करते है और संस्कारित भी करते है। इनसे जीवन या ़समाज की एकरसता दूर होती है और नयी उर्जा का संचार होता है। सामुहिकता की भावना मजबूत होती है तथा सामाजिक संगठन के रूप में हम अपने को अभिव्यक्त करते है।
        लोक पर्व में विविधता होती है और विषिश्टता भी। लोक-पर्व से किसी देष, किसी प्रांत, किसी क्षेत्र, किसी षहर, किसी गांव का विषेश पहचान बनती है। ‘कार्निवाल-पर्व’ दुनिया के कई देषो में मनाया जाता है, किंतु जर्मनी के कोलोन षहर का कार्निवाल अपनी विषेश पहचान रखता है और विष्व में प्रसिद्ध है। होली-पर्व भारत के विभिन्न राज्यों में मनाया जाता है, किंतु उत्तर प्रदेष के ‘मथुरा की होली’ दुनिया में प्रसिद्ध है। इसे देखने के लिए बड़ी संख्या में विदेषी पर्यटक प्रतिवर्श मथुरा पहंुचते है। इसी तरह जिउतिया-पर्व भी भारत के विभिन्न प्रांतों में मनाया जाता है, किंतु बिहार राज्य के दाउदनगर षहर में जिउतिया मनाने का विषिश्ट ढंग है जो काफी मषहुर है। यहां इसे नकल-पर्व के रूप में बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। इसे देखने के लिए झारखंड से और उत्तर प्रदेष के मिर्जापुर तक से लोग सपरिवार आते है। यही कारण है कि बिहार राज्य के औरंगाबाद जिले का यह अनुमण्डलीय षहर दाउदनगर अपनी विषिश्ट सांस्कृतिक पहचान रखता है।
हम सभी जानते है कि जिउतिया-पर्व (जीवित-पुत्रिका व्रत) आष्विन मास (सितम्बर-अक्टुबर) में कृश्ण पक्ष की अश्टमी को मनाया जाता है। इसका विषेश वर्णन ‘भविश्य पुराण’ में मिलता है। इस पर्व में माता अपने पुत्र के चिरंजिवी होनी की कामना करती है। इसलिए जब कोई पुत्र किसी बड़े संकट से बच जाता है तो लोग कहते है - ‘खैर मनाओ कि तुम्हारी मां ने जिउयिा की थी, सो तुम बच गए।’ यह पर्व तीन दिनों का होता है - एक दिन नहाय-खाय यानी सप्तमी को माताएं स्नान करके खाना खाती है, अश्टमी कोउपवास रखकर षाम में पूजा करती हैं और नवमी को सुबह में उपवास तोड़कर ‘पारण’ कर लेती हैं। दाउदनगर की खासयित यह है कियहां इस पर्व का आरम्भ ‘अनन्त पूजा’ के दूसरे दिन से ही हो जाता है यानि आठ-नौ रोज पहले से।
जिउतिया में जीमूतवाहन भगवान की पूजा की जाती है। पूजा करने के लिए दाउदनगर में चार चौक बने हुए हैं - पुराना षहर चौक, कसेरा टोली चौक, पटवा टोली चौक और बाजार चौक। इन चारों चौकों पर जीमूतवाहन भगवान स्थापित हैं। अनन्त पूजा के दूसरे दिन षाम में डमरू के आकार का लकड़ी या पीतल धातु का बना बड़ा-सा ओखल चारांे चौंको पर रखकर जिउतिया पर्व का विधिवत आरम्भ कर दिया जाता है। इस दिन से प्रतिदिन षाम को अंधेरा होते ही चौक के पास पुरूश और बच्चे जमा होते हैं और ढोलक की थाप पर तालियां बजा-बजाकर झुमर गाते हैं। इसे ‘चकड़दम्मा’ कहा जाता है। चौक की परिक्रमा करते हुए नाचते-झुमते हुए झुमर गाने का आनंद ही कुछ और होता है। पूरा वातावरण संगीतमय हो जाता है। झुमर गीतों में विविधता होती है, रंगीनी होती है और मधुरता भी।
जिउतिया-पर्व के अवसर पर दाउदनगर षहर हफ्ता दस दिनों तक हंसी-मजाक, व्यंग्य-विनोद, गीत-संगीत, नृत्य-नाच, रहस्य-रोमांच और साहसिक कारनामे करने-दिखाने में लिप्त रहता है। कारण है कि यहां जिउतिया यानि जीवित-पुत्रिका व्रत को बड़े ही धूम-धाम और रंगारंग रूप में मनाया जाता है। नकल बनने के लिए बच्चे, युवा, अधेड़, बुढ़े सभी उम्र के पुरूशों में होड़ लगी रहती है। नकल बनने वाले कलाकार साहसिक कारनामे (मुड़िकटवा, डाकिनी, चाकुधारी, तलवारधारी, त्रिषुलधारी, लालदेव-कालादेव आदि) दिखलाते हैं। विषेश बात यह है कि नकल के माध्यम से समसामयिक घटनाओं और सामाजिक कुरीतियों पर करारा व्यंग्य-प्रहार किया जाता है। नकल बनकर सरकारी तंत्र की जमकर पोल खोली जाती है - कोई नेता बनकर जनता को सब्जबाग दिखाता है, कोई डाक्टर बनकर मरीजों का षोशण करता है, कोई पुलिस बनकर अपराधियों से मिली भगत पेष करता है, कोई न्यायाधीष बनकर अंधा-कानून को उजागर करता है आदि-इत्यादि। इस पर्व को इतने बहुरंगी ढंग से पूरे ताम-झाम के साथ भारत में और कहीं नहीं मनाया जाता। नकलों के बारे में विस्तार से ‘उत्कर्श-एक’ मे लिख चुका हूँ, इसलिए यहां दुहराना उचित नहीं।
दाउदनगर में जिउतिया-पर्व मनाने की परम्परा सदियों पुरानी है। कहा जाता है कि बहुत पहले यहां यह पर्व एक महीने तक मनाया जाता था। इसके इतिहास में जाने पर पता चलता है कि अंग्रेजों के षासन-काल में दाउदनगर में एक बार भयानक प्लेग फैला था। प्लेग से लोग मर रहे थे। बचाव का कोई उपाय नही था। उसी दरम्यान ओझा-गुनियों की एकमण्डली इधर से गुजर रही थी। उनलोंगों ने दाउदनगर की दुर्दषा देखी तो रूक गए और यहां के लोगांे से कहा कि हम गुण से प्लेग को भगा देंगे। दाउदनगर के लोग तो परेषान थे ही। इनके पास कोई दूसरा उपाय नही था, सो यहां के लोगों ने ओझा-गुनिया को ठहराया और उनके कहे अनुसार अनुश्ठान करने लगे। गुनिया लोगों ने ’बम्मा देवी‘ की स्थापना कर तांत्रिक अनुश्ठान करने षुरू किए। वे लोग ढोल-मंजीरा बजाते हुए पचरा गाते और दिन-रात पूरे दाउदनगर के चक्कर लगाते। गुनिया लोगों ने कहा कि एक माह तक यहां के लोगों को दिन-रात बारी-बारी से जागते रहना होगा और ढोल-मंजीरा बजाते रहना होगा। इस तरह जागे रहने के लिए गुनिया लोगों ने ही कुछ खेल-तमाषे षुरू किए और साहसिक कारनामे (जीभ में त्रिषुल घूसा लेना, बाहों में चाकू घोंप लेना, सिर में, कमर में तलवार आर-पार कर लेना आदि) दिखाने लगे। वे लोग कई तरह के गीत भी गाते, जिनमें झूमर और लावनी काफी प्रसिद्ध है। इसी रतजगा के बीच जिउतिया पर्व भी आ गया। स्वभावतः एक महीने तक जागने की और कई तरह से मनोरंजन करने की परंपरा जिउतिया पर्व के साथ जुड़ गई। धीरे-धीरे समय बीतने के साथ एक महीने का यह आयोजन कम होकर नौ-दस दिनोंका रह गया। जिउतिया की प्राचीनता और परंपरा को बतलाने वाला एक झूमर-गीत यहां इस प्रकार गाया जाता है -
धना भाग (धन्य भाग्य) रे, हाय रे धना भाग रे जिउतिया
तोरा अइले जियरा नेहाल
अरे जिउतिया जे अइले मन हुलसइले
नौ दिन कइले बेहाल रे जिउतिया
तोरा अइले जियरा नेहाल
धना भाग रे ....
आसिन अन्हरिया अउ दूजे रहे संवत्
उन्नइस-सौ सतरह के साल रे जिउतिया
तोरा अइले जियरा नेहाल
धना भाग रे ......इस झूमर-गीत में दो बातें कही गई है - पहली कि जिउतिया-पर्व नौ दिनों तक मनाया जाता है और दूसरी की इसका आरंभ संवत् 1917 (1860 ई0) में हुआ। जाहिर है प्लेग वाली घटना इनसे पहले की है। इससे दाउदनगर में जिउतिया-पर्व मनाने की प्राचीनता का पता चलता है।
गीत-संगीत भी दाउदनगर के जिउतिया का सषक्त और समृद्ध पक्ष है। विषेश बात यह है कि जिउतिया के अवसर पर यहां के पुरूश लोग झूमर-गीत गाते हैं और लावनी-गीत भी प्रस्तुत करते हैं। लावनी गाने की परम्परा बिहार में सिर्फ दाउदनगर में ही जिउतिया के अवसर पर देखने-सुनने को मिलता है। दाउदनगर में लावनी गीत गाने की परम्परा का आरम्भ ओझा-गुनियों ने किया था। प्लेग भगाने वाले ओझा-गुनिया महाराश्ट्र के रहने वाले थे। इसलिए उन्होनें जिस देवी का दाउदनगर में स्थापना कर पूजा की, उसका नाम ‘बम्भा देवी’ रखा। ध्यान देने की बात है कि महाराश्ट्र में ‘मुम्बा देवी’ की काफी महिमा है। ‘मुम्बा देवी’ और ‘बम्मा देवी’ नामों में काफी समानता है। यह भी संभव है कि गुनिया लोगों ने ‘मुम्बा देवी’ की ही स्थापना की हो, जिसे दाउदनगर के लोग ‘बम्मा देवी’ कहने लगे। महाराश्ट्र में लावनी गाने की समृद्ध परम्परा है। इसलिए गुनिया लोगो नें दाउदनगर में भी लावनी-गीत प्रस्तुत किए। वही लावनी गाने की परम्परा दाऊदनगर में आज भी जीवित है। लवनी-गीत प्रस्तुत करने के लिए पाँच-छः लोगों की मण्डली रहती है, जो खंजड़ी, जोड़ी और गिल्ली-डंडा बजाते हुए लावनी प्रस्तुत करती है। यहां गाये जाने वाले एक लावनी-गीत में-कृष्ण भगवान द्वारा नारी-वेष में चूड़ी बेचने का बड़ा ही श्रृंगारिक वर्णन किया गया है। गीत इस प्रकार है -
श्री कृष्ण नंदन जी को नंदन मनिहारिन को भेष किया, गये ब्रज में आप कृष्ण जी,जा सखियन को मोह लिया।
किए हुए सिंगार कृष्ण जी बने सुदर्षन में आला, कानों में है कर्नफूल उपर है झुम्मक वाला, खुब चमकता हार गले कंचन, कंठी, मोहर माला, किए षीष पर रोड़ी कृष्ण
 जी उपर षोभे तीर काला जड़ी जडावल जेवर पहन
खुब तरह सिंगार किया गए, ब्रज में ......
रतन जड़ित के ओढ़नी ओढ़े और जरद की है नारी, सुर्ख रंग के घाघरा पहिने चोलिया है बुटेदारी, चन्द्रबदन मृगनैनी अंचल चाल चली है, मतवारी, जादूगरी कृष्णजी ऐसी मोह ब्रज के नर-नारी बदला रूप ऐसे कृष्ण जी कोई नहीं पहचान किया, गए ब्रज में .....
लिये षीष पर चूड़ी कृष्ण जी घर-घर करते है फेरी, सभी जगह पर कहते फिरते कोई चूड़ियां ले ले मेरी। लाल, सब्ज, जरद, बैगनी सभी रंग की है चूड़ी, सब सखिया मिल लगी बताने कहो दाम तुम भरपूरी तरह-तरह के चुड़ी कृष्णजी सब सखियन को पहना दिया गए ब्रज में ......
एक और लावनी-गीत में अंग्रेज सरकार द्वारा बड़ी नहर खुदवाने की चर्चा की गई है -
परजा के पालन करने को नहर को खुदवाया है
मषहुर है नहर ये लम्बी अंगरेजों का लाया है
पहले तो दूरबीन लगाकर सर्व राह को देख लिया
दूसरे में कम्पास लगार बेलदारो नें चास किया
हरिद्वार से नक्षा लाकर नहर खोदना षुरू किया
जगह-जगह पर साहबों ने ठेकेदारों को ठेका दिया
देखों-देखो चौड़ी नहर खोदन करने आया है
मषहूर है नहर ...........
सोलह फुट गहरा करवाया बावन फुट चौड़ाई है।
पटरी उपर वृक्ष लगाया सुन्दर अति सोहाई है।
नहर से नहरी जो निकली, नहरी से जो पैन भाया, पैनों से जो निकली नाली वही जल खेतों में गया। तीन कोस पर लख दो तरफा पुलों से पटवाया है
मषहूर है नहर ........
एक लावनी ऐसा भी है, जिसमें सामाजिक विषेषताओं पर करारा प्रहार किया गया है। इस लावनी गीत में समाज में उंची जाति और नीची जाति के भेद-भाव को उजागर किया गया है। गीत की पंक्तियां इस प्रकार है -
जो देखा मतलब के साथी कलजुग का है यही करम, कर के बात को लगे पलटने छुट गया है दीन-धरम।
जब से कलजुग अमल किया है सबको किया है हाल-बेहाल
पंडित लाल भी हुए जहां में चलने लगे है चाल-कुचाल, बड़े षास्त्र न पढ़े पढ़ावे झूठे लगे बजाने गाल, राजा दण्ड लेते परजन से इसी से पड़ता काल काल डुकाल कच्छ ढील हो गई क्षत्रिन को करने लगे है बुरा करम, कह के बात को ......
नीच डांट के कहै उंच से तुममें तो कुछ दम नहीं
जुबां संभालो बैठे रहो कुछ हम भी तुमसे कम नहीं, नारी पुरूष को मार निकाले जेठ से करती षरम नहीं, कहता है रघुवर प्रसाद अब कलजुग में षुभ करम नहीं, सत्य बात न बोले मुख से बेटा को नहीं जरा षरम, कह के बात को .......

दाउदनगर में अब लावनी गाने वाले कम बचे हैं। इसलिए इस गीत विद्या को यहां विकसित और समृद्ध करने की आवष्यकता है। ‘लावनी प्रतियोगिता’ आयोजित करके यह काम किया जा सकता है।

Sunday 14 September 2014

पुत्रों को देखना चाहिये माता का यह कष्ट


‘खैर मनाव माई जिउतिया कैले हलवअ’

आज नहाय खाय पर विशेष
मातायें करती है पुत्र की दीर्घायू की कामना
 जब भी कोई बेटा किसी हादसे का शिकार होकर भी सही सलामत बच जाता है तो लोग कहते हैं- खैर मनाव माई जिउतिया पूजी थीं। दरअसल में यहां जीमूतवाहन भगवान की पूजा बडे पैमाने पर होती है। चार चौकों पर सामूहिक तौर पर। इस तरह अन्यत्र कहीं न तो पूजा की प्रथा है न ही लोक उत्सव की परंपरा। गृहणी रेणु सिसौदिया और राज्य में सम्मानित मुखिया रहीं किरण यादवेन्दु ने बताया कि इस पर्व में कठोर तपस्या करनी होती है। दिन भर निर्जला उपवास फिर सुबह पारण। सोमवार को व्रत है और मंगलवार को व्रति महिलायें पारण करेंगी। करीब चौबीस घंटे से अधिक की कठोर तपस्या। किरण बताती हैं कि हसपुरा तक से महिलायें दाउदनगर जा कर जिउतिया का व्रत करती है। कई ऐसे हैं जो माता ही इसी कारण बनीं। रेणु की मानें तो शहर में दूर दराज से आकर कई मन्नतें मांगती हैं और फिर पूरी होने पर चान्दी सोने की ओखली दान कर जाती हैं। दोनों ने इस प्रश्न पर कि फिर पुत्र माता-पिता को कष्ट क्यों देते हैं? बोलीं- पुत्रों को अपनी अपनी माता का यह कष्ट भी आज से लेकर कल तक का देखना चाहिये। महसूस करना चाहिये। तभी वे समझेंगे कि माता कितना कष्ट कर बच्चे की दीर्घायू होने की कामना करती हैं। और यही पुत्र जब बडा होता है तो माता पिता को बोझ समझने लगता है। कितनी तकलिफ होती है जन्म से लेकर पालन-पोषण तक जब यह बच्चे महसूस करने लगेंगें तो फिर वे माता पिता को कष्ट नहीं देंगे। कहा कि इस पर्व का यही सन्देश है। हर युवा के लिए।