Friday 21 August 2020

अंछा में क्लास प्रेशर पॉलिटिक्स का प्रयोग तो नहीं


कल्चर जोड़ता है जबकि पॉलिटिक्स बांटता है

बच्चों की लड़ाई को दिया जातीय संघर्ष का रूप

कुछ माह बाद विधान सभा का होना है चुनाव

उसके बाद पंचायत चुनाव की शुरू होगी तैयारी

उपेंद्र कश्यप । दाउदनगर (औरंगाबाद)

अंछा में कहीं क्लास प्रेशर पॉलिटिक्स का प्रयोग तो नहीं हो रहा है?  सिर्फ कुछ महीने बाद विधानसभा का चुनाव है, जिसे लेकर राजनीतिक माहौल तैयार हो रहा है। इसके तुरंत बाद ग्राम पंचायतों के चुनाव होना है। इस कारण राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषकों का यह मानना है कि संभव है बच्चों के बीच के मामूली बात विवाद को इस ऊंचाई तक पहुंचा देना कि जातीय संघर्ष और गुटबाजी की स्थिति बन जाए, संभव है यह क्लास प्रेशर पॉलिटिक्स का परिणाम हो। गांव की बसावट और डेमोग्रेफ़ी जानने वालों का कहना है कि एक जाति विशेष के लोगों का घर जहां समाप्त होता है वहां से आगे कई जातियों के बसावट का इलाका प्रारंभ होता है। तनाव पूर्व में भी रहा है। एक अधिकारी का मानना है कि कल्चर लोगों को मिलाता है। आपसी मतभेदों को दूर करता है, लेकिन जहां पॉलिटिक्स का प्रवेश होता है वहां मिलने जुलने की संस्कृति खत्म होती है और विभाजक रेखा खींची जाने लगती है। महत्वपूर्ण है कि आयोजित नाच कार्यक्रम में किसी जाति-वर्ग के प्रवेश पर रोक नहीं थी। क्लास और कास्ट प्रेशर की पॉलिटिक्स करने वालों के लिए जातियों का समूह खड़ा करना राजनीतिक लाभ देता है। जो जाति और वोट की राजनीति करते हैं उनको जातीय गुट को अपने हिसाब से इस्तेमाल या डील करने में सुविधा होती है। ऐसे लोग अपने लाभ के हिसाब से भीड़ को अपने पाले में ले लेते हैं। ऐसा हर तरह के जातीय गुटों-समूहों के साथ राजनीति करने वाले करते हैं। ऐसी घटनाओं से वोट और समर्थन का लाभ मिलता है। तो क्या अंछा जाति और वर्ग की राजनीति करने वालों की प्रयोग भूमि बन गई है? महत्वपूर्ण है कि यहाँ जातीय संघर्ष नई बात नहीं है। वोट को लेकर भी संघर्ष रहा है। आज अंछा जिस मुहाने पर खड़ा है वहां जाति और वर्ग भेद का विभाजन साफ साफ दिखता है। गांव में तनाव बना हुआ है। यह तनाव कब समाप्त होगा अभी कुछ भी कहने की स्थिति में कोई नहीं है, न पुलिस प्रशासन, न ग्रामीण। दो खेमों में मानसिक तौर पर विभाजित इस गांव में भौगोलिक तौर पर भी विभाजक रेखा साफ साफ दिखती है। आने वाला दिन अंछा के लिए कैसा होगा, कुछ भी कहा नहीं जा सकता। हालांकि सभी पक्ष यह चाहेंगे कि जो हुआ वह अब  आगे ना बढ़े और गांव में शांति बनी रहे। सबका भला इसी में है। गाँव में घटना के बाद कुछ लोग ही उतावले दिखे, अन्यथा दोनों पक्षों के प्रौढ़ और वृद्ध सिर्फ शान्ति ही चाहते हैं।

Tuesday 4 August 2020

जब गुलाम था भारत तो देवकुंड में चलता था संस्कृत विद्यालय

संस्कृत दिवस पर विशेष रिपोर्ट : दैनिक जागरण विशेष

    • 1943 तक चला था यह संस्कृत विद्यालय

विद्यालय के प्रारंभ होने की तिथि ज्ञात नहीं

बिहारोत्कल संस्कृत समिति पटना से था संबद्ध

उपेंद्र कश्यप । दाउदनगर (औरंगाबाद)

आज संस्कृत दिवस है। भारत में संस्कृत को देवभाषा माना जाता है। पौराणिक इतिहास, ज्ञान सब संस्कृत में ही लिपिबद्ध हैं। आज संस्कृत पढ़ने वालों की संख्या न्यूनतम है। जब भारत गुलाम था, तब यहाँ के देवकुंड में एक संस्कृत विद्यालय हुआ करता था। इसका प्रारंभ कब हुआ यह ज्ञात इतिहास में दर्ज नहीं है। हां, यह तय है कि वर्ष 1843 के बाद महंत रामेश्वर पुरी के समय यह शुरू हुआ था रामेश्वर पूरी 400 वर्षों के महंत परंपरा के इतिहास में सर्वाधिक 70 वर्ष तक वर्ष 1843 से 1913 तक देवकुंड के महंत रहे हैंवर्ष 1943 ईस्वी तक पटना के परशुरामपुर निवासी पंडित शिव शंकर मिश्र ने इस विद्यालय को किसी तरह जीवित रखा इस विद्यालय को बिहार उत्कल संस्कृत समिति पटना से संबद्धता मिली थी और शास्त्री तक की पढ़ाई होती थी मालुम हो कि बिहार उड़ीसा का हिस्सा रहा हैअकरौंजा निवासी पंडित विशेश्वर मिश्र (वृद्ध महाराज), करहरी निवासी शास्त्रार्थ महारथी नंदलाल शास्त्री, बांसाटांड निवासी महापंडित रघुनाथ मिश्र इस विद्यालय के प्रधान पंडित पद को अलंकृत किये थे। हठयोगी पंडित बालमुकुन्द मिश्र जब विद्यालय से बोर्ड की संस्कृत पाठशाला में चले गए तब कृष्णा दयालु पाठक ने विद्यालय संभाला। बिहारोत्कल संस्कृत समिति पटना से शास्त्री परीक्षा तक की स्वीकृति के बाद 1933 ई. से 1938 तक बासांटांड के मोहन शरण मिश्र ने इस विद्यालय को चंद्रशेखर संस्कृत विद्यालय के रूप में चलाया था। अब देवकुंड में विद्यालय के होने का कोइ प्रमाण जमीन पर नहीं मिलता। अगर विद्यालय आज तक जिंदा होता तो इलाके में संस्कृत की शिक्षा की स्थिति संभवत बिहार में सबसे मजबूत होती

 वर्ष 1969 से संस्कृत दिवस की शुरूआत

भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने 1969 से संस्कृत भाषा के विकास के लिए इस दिवस की शुरूआत की थी। तभी से पूरे देश में संस्कृत दिवस मनाने की परंपरा शुरू हुई थी। ये भी मान्यता है कि इसी दिन से प्राचीन भारत में नया शिक्षण सत्र शुरू होता था। गुरुकुल में छात्र इसी दिन से वेदों का अध्ययन शुरू करते थे, जो पौष माह की पूर्णिमा तक चलता था। पौष माह की पूर्णिमा से सावन की पूर्णिमा तक अध्ययन बंद रहता था। आज भी देश में जो गुरुकुल हैं, वहां सावन माह की पूर्णिमा से ही वेदों का अध्ययन शुरू होता है।

32 साल पहले रामशिला पूजन आन्दोलन में दाउदनगर था शामिल

राम मंदिर आन्दोलन में दाउदनगर का भी रहा है योगदान

जन सैलाब ऐसा कि आज तक न टूट सका भीड़ का रिकॉर्ड

  • उपेंद्र कश्यप । दाउदनगर (औरंगाबाद)

आज रामजन्म भूमि मंदिर निर्माण के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब भूमि पूजन कर रहे हैं तो दाउदनगर भी इस आन्दोलन में स्वयं के सम्मिलित होने के कारण गौरव का बोध कर रहा है। इस शहर ने भी मंदिर आन्दोलन में अपना योगदान दिया है और लोग उसे याद कर आज अभिभूत हो रहे हैं। वर्ष 1988 में राम शिला पूजन आन्दोलन के वक्त यहाँ भी शिला पूजन हुआ था। अयोध्या से यहाँ राम लिखी हुई शिलाएं आयी थीं। उसे गाँव-गाँव, मोहल्ले-मोहल्ले वितरित की गयी थी। मान सम्मान के साथ शिला जहां गयी, वहां 24 घंटे का अखंड कीर्तन हुआ। फिर उसे सम्मान के साथ दाउदनगर लाया गया और तब उसे अयोध्या भेजा गया। इस आन्दोलन में जो जन सैलाब उमड़ा था, वह एक रिकोर्ड है और वह अभी तक नहीं टूटी है जबकि जनसंख्या इस बीच ढ़ाई गुनी से अधिक हो गयी है। जो लोग उस आन्दोलन में शामिल थे, वे गौरव का बोध कर रहे हैं। दिली इच्छा है कि भूमि पूजन में शामिल होते किन्तु कोरोना काल के कारण जो स्थिति बनी है उस कारण आज अफसोस मात्र रह गया है। मंदिर बंटे देखना सबको सुखद लग रहा है। मंदिर निर्माण के बाद उसके दर्शन के आकांक्षी सभी हैं।

             186 शिला हुई थी वितरित-सुनील केशरी

तब विश्व हिन्दू परिषद के संयोजक रहे सुनील केशरी ने बताया कि 186 शिला वितरित की गयी थी। बाबा बिहारी दास संघत में। देहात का पहले, दूसरे दिन शहर की शिला इकठा की गयी। दो दिन वितरण और दो दिन इकट्ठा करने में लगा था। सवा सवा रुपया हर घर से इकट्ठा किया गया था। 80 से 90 तोरण द्वार शहर में बनाये गए थे। शहर का भगवाकरण कर दिया गया था। कसेरा टोली में बर्तन से तोरण द्वार बना था। सीआरपीएफ़ तैनात था सुरक्षा के लिए। पंचायत स्तरीय झांकी प्रतियोगिता हुई। मखराअंछा से कई झांकिया आई थीं। एक माह यह पूरा प्रकरण चला था। रमेश प्रसाद कोषाध्यक्ष थे।

  •  गड़बड़ी न हो थी इसकी जिम्मेदारी-नरेंद्र देव

तब जुलुस के सुरक्षा प्रमुख थे कुमार नरेंद्र देव। बताया कि कुछ गड़बड़ी न हो इसकी जिम्मेदारी उनके साथ तब बजरंग दल के अध्यक्ष राजाराम प्रसाद को दी गयी थी। यमुना प्रसाद ईंट को सुरक्षित रखवाते थे। सीमेंट से बने सभी ईंट पर राम राम लिखा हुआ था। ईंट जगदीश काँस्यकार के आवास पर रखा जाता था। यहां से जिला गया, फिर वहां से अयोध्या गया। ई.शम्भू जी, गोपाल सोनीगोपाल गुप्तागोपाल प्रसाद शिक्षक सुरक्षा टीम में शमिल थे। गांव से जुलूस आया। हर गांव वाला अपने गांव का नाम लिखा बैनर रखता था।

  •  चौकस प्रशासन का था भय-सुरेश कुमार

आरएसएस के मुख्य शिक्षक रहे सुरेश गुप्ता ने बताया ईंट मध्य रात्रि के बाद आया था। प्रशासन चौकस था कि कहां रखा जाएगा। विहिप और संघ के कहने पर अपनी निगरानी में रखवाया। पुलिसिया रौब जबरदस्त था। कोई सामने आने को तैयार नहीं था। तय तिथि पर गांव से लोग जुटे। कार्यक्रम का अध्यक्ष विजय सिंह मुखिया एवं राम चन्द्र प्रसाद उर्फ़ फेकू साव को पूजा मंत्री बनाया गया था। ताकि कोइ बोले नहीं। 

  •  शांति का लोहा माना प्रशासन-राजाराम

तब बजरंगदल के अध्यक्ष थे राजाराम प्रसाद। बताया कि वैसा जुलूस आज तक नहीं हुआ। वह भी शांतिपूर्वक। 50 हजार की भीड़ रही होगी। पुलिस प्रशासन ने भी लोहा मान लिया। भीड़ नहीं जनाब रेलाऔर वह भी उत्तेजना के बावजूद पूरी तरह शांतिपूर्वक। सबको खाने के लिए घर घर से पांच आदमी का भोजन मांगा गया थाताकि गांव से आये लोगों को दिया जा सके। इसके लिए घर-घर पोलोथिन वितरित किया गया था। भोजन बांटने की व्यवस्था गर्ल्स है स्कूल में थी। रोज समीक्षा बैठक सरस्वती विद्या मंदिर में होती थी।