Wednesday 10 February 2016

रामनरेश सिंह : संघर्ष, जेल यात्रा और सजा


अंग्रेजों ने रखा था 5000 का इनाम
रामनरेश सिंह की 104 वीं जयंती पर विशेष
उपेन्द्र कश्यप
आज गुरुवार को रामनरेश सिंह की 104 वीं जयंती है। वे स्वतंत्रा संघर्ष में कई बार जेल गये थे। चार महीने की उन्हें सजा भी काटनी पडी थी। उनके जीवन की सघर्ष, जेल यात्रायें और सजा पहचान हैं। उनका जन्म अनुमण्डल के गोह प्रखण्ड के बुधई ग्राम में 11 फरवरी 
1912 को हुआ था। 23 फरवरी 1978 को लम्बी बीमारी के कारण इनका निधन पीएमसीएच पटना में हुआ था। प्राथमिक शिक्षा गोह और माध्यमिक शिक्षा राजकीय हाई स्कूलटेकारी से प्राप्त किया था।
उतकर्ष के अनुसार 1930 में नमक आंदोलन में इन्हें गिरफ्तार करके 4 महीने की सजा दी गई थी। यह उनके स्वतंत्रता-संघर्ष में जेल जाने की शुरूआत थी। गोलमेज सम्मेलन की असफलता के बाद तत्कालीन गवर्नर विलिंगटन ने गाँधी-इरविन समझौते को तोड़ना शुरू किया। विरोध करने पर क्रुरता-पूर्वक दमन अंग्रेजों ने किया। इसका विरोध करने पर उन्हें गिरफ्तार किया गया। 1934 में फुलवारी शरीफ जेल में रखे गए। बाहर आये तो बद्रीनारायण सिंह को सहयोग करते हुए चैरम आश्रम की स्थापना 1936 में की। 1942 में इनके क्रांतिकारी भाषण से प्रभावित उग्र भीड़ गोरी सरकार के खिलाफ नारे लगाती हुई स्थानीय गर्ल्स स्कूल के निकट आबकारी गोदाम पर हमला कर दी और शिफ्टन उच्च विद्यालय (अब अषोक इंटर स्कूल) में तोड़-फोड़ की। ओबरा पोस्ट आफिस जला दिया गया। हिंसक घटनाओं को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने इन पर 5000 रू. का इनाम रख दिया। वे गिरफ्तार कर लिए गए लेकिन जल्द ही अंग्रेज पदाधिकारी मिस्टर आईक की गलती का फायदा उठाते हुए जेल से भाग निकले। आंदोलनकारियों को गुप्त रूप से नेतृत्व प्रदान करते रहे। 1943 में इन्हे आल इण्डिया डिफेन्स एक्ट नजरबंदी कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया और गया के सेंट्रल जेल में 14 नं. सेल में रखे गए। जेल में रहते हुए इन्होनें कई महापुरूषों की जीवनियां पढ़ीं और अपनी अधूरी पड़ी शिक्षा को पूरा किया। जेल से भागने के जुर्म में तथा गुप्त रूप से नेतृत्व प्रदान करने के कारण इस बार इनपर कई मुकदमे लाद दिए गए थे। फल यह हुआ कि आजादी के बाद ही ये जेल से रिहा हो सके।

        आजाद भारत में बने स्वास्थ्य मंत्री

 जब देश आजाद हुआ तो राम नरेश सिंह को इलाके की जनता ने बिहार विधान सभा का सदस्य बनाया और तत्कालीन राज्य सरकार ने उन्हें मंत्री बनाया। 1952 के पहले आम चुनाव में ये सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर दाउदनगर विधानसभा क्षेत्र से चुन लिए गए। इन्हीं के प्रयास से दाउदनगर-गया और दाउदनगर-पटना सड़क के पक्कीकरण का काम 1957 में शुरू हो सका था। दाउदनगर राश्ट्रीय उच्च विद्यालय तथा राश्ट्रीय मध्य विद्यालय की स्थापना कराकर इन्होंने क्षेत्र में शिक्षा के विकास को गति प्रादान की। 1967 में पुनः दाउदनगर से ही प्रजा सोषलिस्ट पार्टी के टिकट पर विधायक निर्वाचित हुए और महामाया बाबू के मुख्यमंत्रित्व काल में स्वास्थ्य राज्यमंत्री बने। बता दें कि तब ओबरा विधान सभा क्षेत्र नहीं था। दाउदनगर और हसपुरा प्रखंड मिलकर दाउदनगर विधान सभा क्षेत्र था। दाउदनगर मेन रोड स्थित नगरपालिका मार्केट में वे रहा करते थे और यहीं इनका कार्यालय भी रहा। स्वतंत्रता संग्राम में तथा दाउदनगर के नव-निर्माण में इनका योगदान अविस्मरणीय है।

Saturday 6 February 2016

व्यवस्था में गडबडी की वजह दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली

खेल मैदान तो हैं खिलाडी ही गायब हैं
उपेन्द्र कश्यप
दैनिक जागरण के अभियान आठवीं घंटी के तहत यश ई स्कूल में (06.2.2016) आयोजित परिचर्चा का उद्घाटन पुलिस इंस्पेक्टर विन्ध्याचल प्रसाद, थानाध्यक्ष पंकज कुमार, डा.अजय कुमार, डा.विनोद शर्मा, राजद, भाजपा और जदयु के प्रखंड अध्यक्षों ने सामूहिक रुप से किया। परिचर्चा का संचालन उपेन्द्र कश्यप ने किया। मनोज मुस्कान ने स्वागत गान से सभी अतिथियों का स्वागत किया। परिचर्चा में एक बात स्पष्टत: समने आयी कि आठवीं घंटी अति आवश्यक है किंतु समस्या की मूल जड व्यवस्थागत दोष है।
सरकारें नहीं चाहती कि व्यवस्था बदले और सबको एक समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले। जब सरकारें दृढता से यह तय कर लेंगी कि स्कूलों में खेल का आयोजन आवश्यक है तो फिर इसे लागू करने में कोई समस्या नहीं होगी। शिक्षकों की गुणवत्ता पर सवाल उठना स्वाभाविक है किंतु यह मामुली समस्या है, क्योंकि आज भी काबिल शिक्षकों की संख्या काफी है। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। बुनियादी सुविधाओं की कमी है किंतु जितनी है उसकी उपयोगिता भे न के बराबर है। इसकी वजह है। हाई स्कूलों में दो-दो सेट जीम के उपकरण कई वर्ष से बिना इस्तेमाल किए जंग खा रहे हैं। कारण स्पष्ट है कि स्कूल में बच्चे नहीं हैं। यह संवाददाता जब हाई स्कूलों में प्रधानाध्यापकों को परिचर्चा के लिए आमंत्रित करने अचानक पहुंचा तो बालिका इंटर स्कूल में ही छात्राओं की भीड दिखी। तीन स्कूलों में उपस्थित शिक्षक धूप सेंकते देखे गये। वजह साफ है। शिक्षक उपस्थित हैं किंतु उनके पास काम नहीं है। बच्चे गायब हैं। खेल मैदान हि तो सुना पडा हुआ है। खेल उपकरण बेकार हो रहे हैं। इस समस्या की मूल वजह है कोचिंग की व्यवस्था। जब तक कोचिंग सुबह 9 बजे तक चलते थे स्कूलों में भीड रहती थी अब जब कि वे दिन भर हलते हैं स्कूलों से बच्चे गायब हैं। तब कोचिंग शाम को भी चलते थे। बच्चे तब ट्युशन के रुप में कोचिंग का इस्तेमाल करते थे। इस अभियान से बहस शुरु हुई है। इसे विस्तार देने की अपेक्षा आम प्रबुद्धजनों ने व्यक्त की है। लार्यक्रम को सफल बनाने में अवधेश पांडेय, अनुज रामचन्द्र पांडेय, आदित्य राज जैकी, डा.राजन, मनु, श्री निवास शर्मा ने सहयोग किया।  


प्लेफुल मुड में हो काम-प्रो.अवधेश कुमार सिंह
अंग्रेजी के प्रधायापक प्रो.अवधेश कुमार सिंह ने कहा कि प्लेफुल मुड में काम करने का मामहुल बनाना होगा। अवसर मिलेहा तो बच्चे खेलेंगे। नकारात्मक सोच नहीं रखना होगा। ऐसा माहौल बनायें कि आंतरिक और बाह्य व्यक्तित्व निखारने का अवसर प्राप्त करने के लिए खेल खेलने को हर कोई तैयार हो। सबसे बडे खिलाडी श्री कृष्णा थे। खेल खेल में ही कालिया नाग को नाथ लिया था। दरअसल में श्री कृष्ण उतने अच्छे खिलाडी थे कि उनके खेल से सम्मोहित होकर नाग उनके पीछे चल दिया। उन्होंने एक कविता का अंश सुनाया- मेरे बचपन को मत छीनो, तुम अपने द्वारा बनये नीड में मत रखो, हम अपना नीड खुद बना लेंगे। कह अकि हमें ही क्रांति लानी होगी। इसके लिए प्रतिक्षा नहीं की जा सकती।

एक समान शिक्षा व्यवस्था आवश्यक- परमानंद प्रसाद
नगर पंचायत के मुख्य पार्षद पूर्व व्याख्याता परमानंद प्रसाद ने कह कि समस्या एक समान शिक्षा प्रणाली नहीं होने के कारण है। सभी अधिकारी, चिकित्सक सरकारी सेवकों की संतानें नीजि स्कूलों में पढते हैं। इसी कारण वयव्स्था खराब हुई है। जब हम पढते थे और सभी के बच्चे एक साथ पढते थे तो ऐसी समस्या नहीं थी। शिक्षा विभगा ही ऐसा है जो बिन अकाम कराये ही अपने कर्मियों को पैसे देता है। शिक्षा नीति में सुधार आवश्यक है।कहा कि हमको आपस में लडाया जा रहा है। जो पढाना है उसकी जानकारी तो शिक्षक को होती ही नहीं है। हमने ऐसे शिक्षक का योगदान कराया है जो “योगदान” और अपना नाम- “सुशील” ता सही नहीं लिख सका। अधिकारी जानते हुए ऐसा करने के लिए विवश हैं, क्योंकि कानून और सरकार के नियम ही ऐसे हैं। दोष व्यवस्थापरक है। कुछ भी कर लीजिए बदलाव संभव नहीं है। जब तज कि व्यवस्था नहीं बदलेगी। सबके बच्चे एक साथ पढने की व्यवस्था के बिना सुधार संभव नहीं। ऐस हो तो आरक्षण व्यवस्था की आवश्यक्ता ही नहीं होगी। शिक्षा जगत भारत वासियों को खेल खिला रहा है। उसका मकसद है – गरीब न पढे, न खेले, जहां है बस वहीं रहे।

जो हैं खेल की बदौलत हैं- थानाध्यक्ष
थानाध्यक्ष पंकज कुमार ने कहा कि जो हैं वह खेल की बदौलत ही हैं। जब पढते थे तो जो बच्चे खेलते थे वे फिजिकल पास हो जाते थे और जो नहीं खेलते थे वे कमरे में बैठकर शतरंज खेलते थे और एक इंच कम चौडी छाती होने के कारण छंट जाते थे। एक बार दो अभ्यर्थी का अंक समान हो गया। ऐसे में एक ने अपना खेल प्रमाण पत्र दिया और उसको नौकरी मिल गयी। ऐसा नहीं है कि खेल से रोजगार के अवसर नहीं मिलते। अपने बच्चों को खेल के प्रति जागरुक करन अहोगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सही कहा है कि जितना पसीना बहाओगे उतना निरोग रहोगे। ब्लड प्रेशर, शुगर जैसी बीमारियां टहलने से नहीं होती। शहर के आयोजक सामने आयें जितना संभव होगा खेल के आयोजन में पुलिस अपना सहयोग देगी।

बिना खेल मैदान स्कूल नहीं-पुलिस इंस्पेक्टर
पुलिस इंस्पेक्टर विन्ध्याचल प्रसाद ने कहा कि पहले जब भी स्कूल बनाने की बात होती थी तब यह तय किया जाता था कि बिना खेल मैदान के स्कूल नहीं हो। हर गांव में खेल की घंटी अवश्य बजती थी। हमारे विभाग में कहा जाता है कि एक साल का प्रशिक्षण जीवन भर काम आत है क्योंकि नौकरी में आगे चल कर सुबह सैर करने, व्यायाम करने और शारीरिक परिश्रम करने का वक्त नहीं मिलता है। कहा कि हर व्यक्ति को खेल में दिलचस्पी रखनी चाहिए। इससे शरीर की मासपेशियों और रक्तवाहिनियों को संबल मिलता है।

संसाधन, प्रशिक्षक हैं, वातावरण, विद्यार्थी गायब-डा.अजय कुमार
बीपीएसपी बीएड कालेज के प्राचार्य डा.अजय कुमार ने कहा कि खेल विद्यालयीय कार्यक्रम का एक पक्ष है। यह समझना होगा। एक पाठ्यक्रम है दूसरा पाठ्य सहगामी क्रियायें। इनके लिए बुनियादी तौर पर चार बातें महत्वपूर्ण हैं। प्रथम संसाधन, दूसरा शारीरिक प्रशिक्षणकर्ता, तीसरा वातावरण और चतुर्थ है-खेलने वाला (विद्यार्थी)। स्थिति क्या है? संसाधन और शारीरिक प्रशिक्षणकर्ता प्राय: सरकारी स्कूलों में उपलब्ध हैं, किंतु वातावरण का अभाव है। खेलने वाला कोई नहीं है। वातावरण बनाने का काम अभिभावकों का है। उनके सहयोग के बिना यह संभव नहीं है। विद्यालयों में पाठ्यक्रम और सहगामी क्रियायें सीखने का अवसर मिलता है किंतु यह कोचिंग में संभव नहीं हो सकता। कहा कि बच्चों और अभिभावकों को प्रोत्साहित करने की आवश्यक्ता है। कहा कि अधिकारी सरकारी एजेंट होते हैं। वे वही करते हैं जो सरकार चाहती है। नेता, अधिकारी के बच्चे प्राइवेत स्कूल में पढते हैं, समस्या यहीं से शुरु हुई है। कहा कि शिक्षकों को दोष देना गलत है। 2 या 3 फीसद शिक्षक जिम्मेदार हो सकते हैं अधिकतर नहीं।     
  
नौकरी सरकार की, पढाई नहीं- उदय कुमार सिंह
शिक्षक सह केआरपी उदय कुमार सिंह साफ कहते हैं कि स्थिति खराब हुई है हम सरकार की नौकरी करते हैं, सब कोई चाहता है कि सरकारी नौकरी मिले, किंतु कोई भी अपने बच्चों को सरकारी शिक्षा नहीं दिलाना चाहता है। बच्चों को स्कूल में आठवीं घंटी तक ठहराव सुनिश्चित कराने की आवश्यक्ता प्रथम है। इसके बिना कुछ नहीं हो सकता। कहा कि हमारी सोच ऐसी बन गयी है कि तनाव और धनोपार्जन अच्छा लगता है। खेल-खेल में शिक्षा देने की अवधारणा बनानी है, शिक्षा में खेल नहीं। धर्म ग्रंथों के हवाले से कहा कि हम सब का जीवन ही खेल का परिणाम है। परमात्मा को खेल अच्छा लगता है। कह अकि कितने स्टेडुयम खेलए लायक हैं।?

हम शिक्षक भी दोषी हैं-डा.अशोक कुमार
प्रखंड साधन सेवी शिक्षक डा.अशोक कुमार ने कहा कि हमें इमानदारी से यह स्वीकार करना चाहिए कि सिर्फ बच्चे या अभिभावक ही नहीं शिक्षक भी जिम्मेदार हैं। बहुत तर्क-वितर्क होने के बाद आठवीं घंटी तय हुई थी, ताकि बच्चे तनावमुक्त होकर खेल सकें और मन हल्का कर घर जायें। बडी समस्या यह है कि बच्चे टिफिन के बाद स्कूल में टिकते ही नहीं। सुधार की व्यापक आवश्यक्ता है।

जन्म के साथ शुरु खेल अब खत्म- डा.विनोद शर्मा
पीएचसी के चिकित्सक डा.विनोड शर्मा का कहना है कि बच्चे के जन्म के साथ खेल शुरु हो जाता था। अब इस आवश्यक परंपरा को हमने खत्म कर दिया। बच्चे की उंगली पकड कर चलाते हैं, मिट्टी में खेलने से रिकते हैं। चलने के लिए एक से एक उपकरण देते हैं। हमारी पीढि में मिट्टी में खेलने को महत्वपूर्ण माना जाता था। इससे जिस क्षमता का विकास होता था वह अब की पीढि में नहीं हो रहा। इस कारण आज का युवा हाथ, कमर, पैर दर्द की शिकायत लेकर अस्पताल पहुंचता है। यह समस्या मिट्टी में नहीं खेलने की वजह से हुई। जागृति शुरु से होती थी जो अब नहीं होती। दोष अभिभावक का है। बच्चा स्कूल गया कि नहीं यह जानने स्कूल कोई अभिभावक नहीं जाता।


साथ खेलते और खाते हैं- रासबिहारी प्रसाद
नेवी से सेवानिवृत और कपडा मशीन के इंजीनियर रास बिहारी प्रसाद ने कहा कि सेना में साथ खेलने और साथ खाने की परंपरा है। इससे आदमी के बीच जाति, धर्म और समुदाय का भेद भाव खत्म हो जाता है। जब हम सेना में थे तो यह नहीं सोच सके कि सामने बैठा किस जाति और धर्म का है। तीनों सेनाओं के बीच आंतरिक खेल कूद प्रतियोगिता का आयोजन होने से काफी लाभ होता है। कहा कि इससे व्यक्तित्व में निखार आता है और साक्षात्कार का सामना सहजता से साहसपूर्ण करने का संबल मिलता है। आठवीं घंटी के लिए सातवीं तक पढाई आवश्यक है। प्रधानाध्यापकों को दृढ निश्चय करना होगा तभी इसमें सफलता मिलती है।    

एकर खेललके काम आया- शिवाधार शर्मा
राष्ट्रीय इंटर स्कूल के शारीरिक शिक्षक शिवाधार शर्मा ने कहा कि जब खेलने भागते थे तो पिता बोलते थे। जब फिजिकल टीचर में बहाली हो गयी तो मां से उन्होंने कहा कि -एकर खेललके काम आया। खेल के माध्यम से ही यहां तक पहुंचे हैं। कहा कि लडके भागे नहीं इसके लिए प्रयास करना होता है। समस्या यह भी है कि फुतबाल 90 मिनट का है तो क्रिकेट की कोई समय सीमा ही नहीं है। कैसे खेलाया जा सकता है जब कि घंटी की अवधी मात्र 35 मिनट ही है। इसके लिए सेक्शन बनाकर बच्चों को खेलवाना पडता है। कहा कि विद्यार्थियों के अभिभावकों को सुधारना होगा। पंचायत और नगर पंचायत स्तर पर प्रधानों को बैठक कर संवाद कायम करन अहोगा और जनता को समझाना होगा कि खेल का क्या लाभ है।

गान्धियन थाट की जरुरत- एसके राय
बालिका इंटर स्कूल के प्रधानाध्यापक एस.के.राय ने कहा कि गान्धियन थाट की जरुरत है। वे बताते थे कि चरखा चलाओ। इससे आंख और शरीर केन्द्रित होता था। बुद्धि का विकास होता था। उसके माध्यम से आर्थिक उपार्जन भी आगे चल कर होता था। कहा कि किंजर गार्डेन की खेल-खेल में सीखने की पद्धति बडी अच्छी है। इससे बच्चों का विकास होता है। दैनिक जागरण का यह प्रयास और पहल अच्छा है। खेल की घंटी आठवी ही नहीं बीच में भी रखना चाहिए। इससे पढने से उब गये बच्चों को मनोरंजन का अवसर मिलता अहि और बेहतर कर पाते हैं।

बच्चे आयें तो घंटी बजे- विजय शर्मा
पटेल इंटर स्कूल के प्रभारी प्रधानाध्यापक विजय शर्मा का कहना है कि जब स्कूल में बच्चे आयें तब तो खेल के लिए आठवीं घंटी बजे। दो चार बच्चे आते हैं। गुरुवार को तो मात्र 3 बच्चे आये थे। अब किसे पढायें या खेलायें? जब मिट्टी ही नहीं है तो कुम्हार घदा कैसे बनायेगा? फिजिकल टीचर हैं। कमा नहीं है। प्रार्थना में कदमताल, ताली बजाना सीखाते हैं। हमारे यहां बच्चे नवीं में आते हैं। पहले एनसीसी कैडेट होता था। अब नहीं होता है। उससे बच्चे बलिष्ठ बनते थे। बच्चे विद्यालय आयें यहां उनका सर्वांगिण अविकास होता है। उनके न आने से हम कुंठित होते हैं। प्रतिभा, गुणवत्ता, संसाधन, अवसर है किंतु बच्चे नहीं हैं। खेलने के कारण इन्हें बीएड में 4 अंक मिल अथा जिसका लाभ कैरियर बनाने में हुआ।

संसाधन नहीं मन की है कमी- श्रवण कुमार संत
अशोक इंटर स्कूल के प्रधानाध्यापक श्रवण कुमार संत ने कहा कि स्कूलों में प्रयाप्त जगह है। दो खेल मैदान है। दो-दो सेट जीम सामग्री है। फिजिकल टीचर हैं। बावजूद इसके खेल नहीं है। कौन खेलेगा। नामांकन 1500 है और उपस्थिति मात्र 15 की होती है। किसको और कैसे खेलाया जाये। कहा कि बच्चे स्कूल आने के बाद भागे नहीं, इसकी कोशिश करने  पडती है तब भी खिडकी से किताब बाहर कर भाग जाते हैं। कहा कि वास्तव में कमी मन की है। कह अकि शिक्षक कमजोर नहीं हैं, लेकिन छात्र आते नहीं हैं। जब 1996 में इस स्कूल में आया था तो चार-पांच घंटी रोज पढाना पदता था। आज कोई पढने नहीं आता है। कोई पूछने नहीं आता कि बच्चे क्यों नहीं आ रहे हैं। जब आर्थिक लाभ की बात होती है तब अभिभावक लडने आ जाते हैं कि क्यों नहीं लाभ देंगे, आपको क्या घर से देना है?

सबका ध्येय है सिर्फ धन- रौशन सिन्हा
खेल आयोजन में रुचि रखने वाले रौशन कुमार सिन्हा ने कहा कि खेलों की जगह क्यों स्कूलों से गायब है यह सोचने की विषय वस्तु है। किम्मेदार हन सभी और सरकार भी है। समस्या किसी एक की देन नहीं है। अभिभावक दबाव बनाते हैं कि पढो, और सिर्फ पढो। वास्तव में हम सबका बस एक ही ध्येय बन गया है पैसा पैसा और पैसे कमाना। लेकिन हम यह विचार करें कि पैसे कमाने के लिए शरीर तो स्वस्थ होना चाहिए। यह बिना खेल के कैसे होगा। जब हम खेलेंगे तो स्वस्थ रहेंगे और जब स्वस्थ रहेंगे तो कमायेगे बिना थके हारे। जब खेलेंगे तो फिर कमायेंगे भी, क्योंकि खेल में भी अब पैसे कमाने का अवसर खूब है। यहां कार्यक्रम सुसुप्त हो गया था, उसे जाग्रत करने के लिए आवश्यक है कि खेल हो। जब एसएचओ शैलेश चौहान थे तब वे व्यक्तिगत तौर पर रुचि लेते थे और खेल की गतिविधि को जिन्दा बनाये रखे हुए थे। कहा कि देश के विकास में खेल की भूमिका महत्वपूर्ण है।   


खेल का अवसर देने का लें संकल्प-नीरज कुमार
नीरज कुमार गुप्ता ने कहा कि हमें खेलने का अवसर मिला किंतु नई पीढि को यह अवसर नहीं मिल रहा है। हमें संकल्प लेना चाहिए कि आने वाली पीढि को यह अवसर मुहैया कराया जा सके। बच्चों को और अभिभावकों को खेल के लिए प्रेरित करना होगा। खेल का अवसर मिलेगा तो विकास होगा। अब कहीं खेल नहीं दिखता।

सातवीं ही नहीं तो आठवीं कैसे - शशि कुमार सिंह
कादरी उच्च विद्यालय के शशि कुमार सिंह का कहना है कि खेल को समय कोई नहीं देना चाहता है। अभिभावक नहीं चाहते कि बच्चे खेल में समय बर्बाद करें। जब ऐसी सोच है तो हम क्या कर सकते हैं। आठवी घंटी कैसे होगी जब सातवीं घंटी ही नहीं होती। बच्चे तो टिफिन के बाद स्कूल में रुकते ही नहीं हैं। जिनकी रुचि खेल मे6 होती है उनको टिफिन में ही खेलने का अवसर दे दिया जाता है। राजनीति और फिल्म उद्द्योग में ही आर्थिक स्थिति सुदृढ दिखती है। हालांकि खेल में जो आगे निकल गया वह सबको पछाड देता है। खेल में दिया गया समय भविषय में काम आने वाला होता है। खेल न होने के कारण समाज एक दूसरे से कत रहा है। खेल हो तो कई तरह की सामाजिक बुराई खत्म की जा सकती है।

हड्डी और नस होता मजबूत- गुप्तेश्वर प्रसाद
अशोक इंटर स्कूल के फिजिकल टीचर गुप्तेश्वर प्रसाद ने कहा कि खेल कभी भी हो सकता है, जरुरी नहीं कि घंटी आठवीं ही हो। इससे हड्डी और रक्तवाहिनी मजबूत होती है। पढाई के क्रम में ध्यान केन्द्रित, ध्यान विचलन और ध्यान विभाजन की तीन अवस्था होती है। 40 मिनट की घंटी होती है। इसमें ध्यान भटकता है। ध्यान दूसरे विढय पर चला जाता है। ऐसी स्थिति में छात्र दोनों तरफ से चला जाता है। न पढ पाता है न खेल पाता है। इसलिए बीच की घंटी में खेल होना चाहिए।

एमडीएम तक रुकते हैं बच्चे-रवीन्द्र नाथ टैगोर
ठाकुर मध्य विद्यालय के प्रभारी रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा कि बच्चे स्कूल में टिकते ही नहीं हैं। बस मध्याह्न भोजन योजना खाने तक बच्चे स्कूल में टिकते हैं। खाना खाया और स्कूल से रफ्फु चक्कर। ऐसे में कैसे बच्चों को पढाया या खेलाया जाता सकता है। विद्यालयों में समस्या ठहराव की है। कहा कि जब शरीर स्वस्थ होगा तभी मन स्वस्थ होगा। खेल-कूद और सांस्कृतिक कार्यक्रम आठवीं घंटी में होते हैं। इससे दिमाग रिफ्रेस हो जाता है। बच्चे अच्छे नागरिक बन सकते हैं।



शिक्षक छात्र संबन्ध खराब- देवेन्द्र सिंह
राजद प्रखंड अध्यक्ष देवेन्द्र सिंह कहते हैं कि समस्या दो तरफा है। छात्र-शिक्षक का संबन्ध 1990 से पूर्व की तरह का नहीं रहा। खराब हुआ है। अनुशासन खत्म हुआ है। सम्मान का भव समाप्त हुआ है। शिक्षक बच्चे से और बच्चा शिक्षक से खैनी मांग कर खाता है। दोनों देर से स्कूल पहुंचते हैं। कोचिंग की व्यवस्था भी जिम्मेदार है। हमें अपने नैतिक कर्तब्य को समझना होगा।

लठैत हो गये हैं अभिभावक- अश्विनी तिवारी
भाजपा प्रखंड अध्यक्ष अश्विनी तिवारी का कहना है कि अभिभाव्क लठैत की भूमिका में आ गये हैं। बच्चे को जब हमारे जमाने में शिक्षक पीटते थे तो अभिभावक कहते थे कि बिना गलती के शिक्षक थोडे पीटे होंगे। अब वे लाठी लेकर स्कूल पहुंच जाते हैं। ऐसे में कैसे अनुशासन रहेगा। शिक्षक अभिभावक मिलकर रास्ता निकालें। शहर से देहात तक प्रयास करने से सफलता अवश्य मिलेगी।

सामाजिक कार्यकर्ता करें पहल-रामानंद चंद्रवंशी
जद यू प्रखंड अध्यक्ष रामानंद चंद्रवंशी ने कहा कि सामाजिक कार्यकर्ताओं को पहल करनी होगी। शिक्षकों और अभिंभावकों की एक साथ बैठक आयोजित कर संवाद कायम करन अहोगा, तब एक रास्ता निकल सकता है। यह गंभीर मुद्दा है कि शिक्षक हैं, किंतु बच्चे गायब हैं। सरकार को चाहिए कि खेल की घंटी गांव से शहर तक के स्कूलों में अनिवार्य बनाये।

अब व्यवस्था बदल गयी- राजेश्वर सिंह
कांग्रेस प्रखंड अध्यक्ष राजेश्वर सिंह ने कहा कि अब पहले वाली बात नहीं रही। धारणायें बदल गयीं। हमारे वक्त में स्कूलों में एनसीसी कैडेट हुआ करता था। खेल के लिए हमारी टीम डाल्टनगंज तक जाती थी। खेल की प्रतियोगिताओं में सेना के अधिकारी तक शामिल होते थे। इससे शरीर को ही नहीं बल्कि मस्तिष्क को भी लाभ होता था।

मिट्टी में खेल आवश्यक- किशोरी मोहन मिश्रा
सेवा निवृत शिक्षक किशोरी मोहन मिश्रा ने कहा कि मिट्टी में खेल आवश्यक होना चाहिए। हम ऐसे ही खेल कर बडे हुए और स्वस्थ तन्दुरुस्त बने रहे। देह मजबूत होता है। खेल के क्रम में चोट लगती है किंतु स्वास्थ्य ठीक रहने के कारन कुछ नहीं होता है।


जुनून जगे तो मिले सफलता- शंभु कुमार
शिक्षक शंभु कुमार ने कहा कि अंतराअत्मा के जाग्रत होने से ही समस्या का समाधान होगा। जो व्यक्ति कुछ भी करने का जुनून पैदा कर लेगा वह कर लेगा। जब हम आत्मा से चाह लें तो राह निकल जाता है। स्कूलों का अनुशासन खत्म हो गय। बच्चों का दोष नहीं है। वे पढते हैं चाहे वह नीजि स्कूल ही जाते हों। वहां कैसे वे पढते है और अनुशासित भी रहते है? यह विचारणीय है। शिक्षा व्यव्स्था मे6 बदलाव से गडबडी हुई है।
  प्रायोजकों की है कमी- अजीत सिंह
यहां डे-नाइट क्रिकेट टुर्नामेंट का आयोजन करने वाली संस्था आरएसओडी के अध्यक्ष अजीत कुमार सिंह ने कहा कि खेल के आयोजनों के लिए सबसे बडी समस्या प्रायोजकों को लेकर आती है। शहर में जब भी आयोजन किया जाता है, इसकी कमी शिद्दत से महसूस की जाती है। कई शिक्षण संस्थान और व्यवसायिक प्रतिष्ठान सहयोग करते हैं किंतु इसके लिए सबसे बडा नाम भगवान प्रसाद शिवनाथ प्रसाद बीएड कालेज के सचिव डा.प्रकाशचन्द्रा का ही है। खेल से सामाजिक एकजुटता के साथ साथ शारीरिक और मानसिक मजबूती मिलती है।

पहल होगी तो प्रारंभ भी होगा-चिंटु मिश्रा
सुधाकर मिश्रा चैरिटेबल ट्र्स्ट के सदस्य चिंटु मिश्रा ने कहा कि पहल होगी तभी प्रारंभ भी होगा। दैनिक जागरण की यह पहल सराहनीय है। सभी शिक्षकों से आग्रह होगा कि स्कूलों में आठवीं घंटी अवश्य हो। जब छात्र जीवन में पढते-पढते बोर हो जाते थे तब खेल से ही उर्जा का संचार होता था। खेलने की घंटी बजते ही शरीर में स्फुर्ति और उर्जा का संचार हो जाता है। कहा कि गलती सब की है। हमारी भी और शिक्षकों के साथ व्यवस्था की भी, किंतु पहल से ही कोई रास्ता निकलने की उम्मीद जगती है।
पढने की उर्जा भी खेल से- प्रफ्फुलचन्द्र सिंह
बिहार-झारखंड के लिए राज्य स्तरीय क्रिकेट खेल चुके प्रफ्फुलचन्द्र सिंह का मानना है कि यह भ्रम है कि खेल से सिर्फ खिलाडी बलवान और मानसिक रुप से स्वस्थ होता है। इससे बहुत अधिक मिलता है। इससे रोजगार भी प्राप्त होता है। सबकी प्रतिभा और क्षमता सामने आती है। पढने के लिए जो दस घंटे का वक्त चाहिए होता है उसके लिए उर्जा भी खेल से ही प्राप्त होती है। जो बच्चे खेलते नहीं है, उनमें आवश्यक उर्जा का अभाव होता है। नतीजा वे पूरी तन्मयता से पढ भी नहीं पाते हैं। घरेलु उपचार खेल से अधिक किसी क्षेत्र से सीखने को नहीं मिल सकता। कहा कि खाली समय में बच्चे नकारात्मकता की ओर अधिक आकर्षित होते हैं। खेल में शामिल होने से वे सकारात्मक होते हैं और अपनी उर्जा और विवेक बुद्धि का सही दिशा में इस्तेमाल करते है। दबाव झेलने, एक दूसरे से व्यवहार बनाने की कला सीखते हैं। बुनियादी सुविधा का अभाव है, खेल मैदान नहीं बचे हैं, जो हैं वो खराब है और वहां चोटिल होने की संभावना अधिक होती है।

नौकरी भी खेल से ही मिली-मनोज
एथलेटिक्स के खिलाडी मनोज कुमार ने कहा कि अशोक इंटर स्कूल में खेल कर ही नौकरी हासिल किया। यदि व्यक्ति को खेल में रुचि के साथ समर्पण की भावना होगी तो वह आगे बढ जायेगा। तब आठवीं और सातवीं में खेल किया करता था। भाइचारा और सौहार्द तो बढता ही है, हमने नौकरी भी इसी खेल की बदौलत हासिल किया। जिला और राज्य स्तर पर खेलने में बहुत परेशानी हुई। यह तो होगी ही और सबको परेशानी झेलनी पडती है। आयोजन हो खूब हो तो अच्छा माहौल बनेगा और बच्चों को सफलता मिलनी तय है।


खेल घंटी होना आवश्यक- अजय पांडेय
स्वामी विवेकानन्द राष्ट्रीय युवा मंच के अजय पांडेय ने कहा कि हमारे लिए खेल का अच्छा मौका मिला है। हमारी पीढि को अब यह मुश्किल का सामना है। दबाव रहता है कि बस पढो, पढो और पढने में लगे रहो। जबकि खेल में अपनी उर्जा और स्फुर्ति दिखाने का अवसर मिलता है। आठवी घंटी को खेल घंटी आवश्यक बनाया जाये और खेलना अनिवार्य हो।