Saturday 16 July 2022

बिहार में उग्रवाद का क्या था मूल कारण

(नक्सल आंदोलन के बिहार में जन्म, विस्तार, प्रभाव, परिणाम और ख़ात्मे की पूरी यात्रा का विश्लेषण)

० उपेंद्र कश्यप ०

 लेखक- 'आंचलिक पत्रकारिता के तीन दशक

(श्रम, संघर्ष, अपेक्षा और परिवर्तन)'

और-"श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर" 


नक्सल आंदोलन बंगाल की देन थी। बंगाल के नक्सलबाड़ी से खेतिहर मजदूरों का, श्रमिकों का जो भू-पतियों और सत्ता के खिलाफ आक्रोश पनपा और एकजुट होकर जो आंदोलन शुरू हुआ था वह नक्सलबाड़ी आंदोलन के नाम से जाना गया। भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के नेता चारु मजूमदार और कानू सान्याल ने जो सशत्र विद्रोह 1967 में शुरू किया था, वही नक्सलबाड़ी आंदोलन बिहार में नक्सल आंदोलन कहा गया और बाद में नक्सलियों के व्यवहार में आये बदलाव ने उन्हें उग्रवादी की संज्ञा दिला दी। तब वे उद्देश्य से भटक गए। बिहार में इसके जन्म, विस्तार, प्रभाव, परिणाम और ख़ात्मे की पूरी यात्रा हिंसात्मक रही, नतीजा बिहार के खेत खलिहान लहू लुहान होते रहे और बुद्ध के शांति संदेश के लिए जाने गए बिहार को नई पहचान मिली-नरसंहारों का इलाका। इलाका विस्तार, इसके लिए खूनी संघर्ष, वर्ग शत्रु, जन अदालत, खस्सी-बकरी को जिस तरह कसाई रेत कर मारते हैं, उस तरह से आदमी जबह किये जाने लगे। हत्या के क्रूर से क्रूरतम तरीके अपनाए गए।


खैर, नक्सलबाड़ी आंदोलन के जनक पश्चिम बंगाल का ही एक हिस्सा हुआ करता था बिहार। तब उड़ीसा भी इसके साथ था। बाद में इसी बंगाल से उड़ीसा और बिहार अलग हुआ और बाद में बिहार से झारखंड अलग हुआ। बिहार (जब झारखंड साथ था) बंगाल की सीमा से सटा प्रदेश था। अब भी बिहार से बंगाल दूर नहीं है। बंगाल में जो आंदोलन 1970 के दशक में हो रहे थे, उसका कहीं ना कहीं बिहार के समाज पर मानसिक प्रभाव पड़ रहा था। और उससे प्रभावित हो रहे थे जमीन और मजदूरी के संघर्ष से जूझ रहे खेत मजदूर। वामपंथियों ने पीड़ितों को एकजुट किया। बाद में अति वामपंथी इसमें आए और फिर नक्सलवाद उग्रवाद के रूप में बदल गया। नतीजा यह हुआ कि न सिर्फ वर्गीय शत्रु की पहचान कर हत्या करने बल्कि आपसी गुटों में भी नक्सली संगठनों में हो रहा टकराव हत्या के सिलसिले को अंजाम देने लगा। इसमें एमसीसी (मार्क्सवादी कम्युनिस्ट सेंटर) पार्टी यूनिटी, मजदूर किसान संग्राम समिति जैसे अनेक संगठन एक ही उद्देश्य को लेकर साथ चलते हुए एक दूसरे की हत्या करने तक विरोध में खड़ा हो गए क्योंकि सत्ता और शक्ति व्यक्ति को निरंकुश महत्वाकांक्षी बना देता है, चाहे सत्ता छोटे इलाके की हो या बड़े इलाके की। इसीलिए हम देखते हैं कि बिहार में इलाका विस्तार के लिए हुए संघर्ष में काफी नक्सली मारे गए। 




बिहार में नक्सलवाद के उभार के बाद और पतन तक के दौर का करीब साढ़े तीन दशक का दौर रहा है। यदि इसमें देखें तो जहां बर्बादी की कहानी शुरू हुई वहां नक्सल पंथ पनपने लगा और अंततः सबको उग्रवाद की चपेट में ले लिया। वहीं जहां विकास की धारा बहनी शुरू होती है वहां नक्सलवाद खत्म होता चला जाता है। 70 के दशक में जब बिहार में नक्सल का प्रभाव पैर जमाना शुरू किया था बिहार में विकास की बात करनी भी लोगों के लिए मुश्किल होती थी। और जब नक्सल पंथ बिहार के संदर्भ में 1990 और 2000 के दशक तक तो चरम पर रहा। तो विकास शब्द से लोगों की इतनी दूरी बढ़ती चली गई कि बिहारी यह मान चुका था कि बिहार में विकास चांद मामू की तरह काफी दूर है जिसे देखा तो जा सकता है उसे जमीन पर नहीं उतारा जा सकता। विकास का नक्सलवाद से कितना गहरा नाता है यह इस संदर्भ में आप आकलन कर सकते हैं। धीरे-धीरे नक्सल पनपना शुरू हुआ और लालू राबड़ी काल में चरम पर पहुंचा। जिसके जवाब में रणवीर सेना ने भी हत्याओं का दौर शुरू किया और दर्जनों नरसंहार में सैकड़ों निर्दोष लोगों की हत्या कर दी गई। चाहे वह स्वर्ण की गर्दन कटे या दलित की खोपड़ी व गर्भ को उड़ा दिया जाए। मारे तो हमेशा निर्दोष लोग ही गए। कभी रणवीर सेना वालों ने नक्सली संगठनों के प्रमुख कर्ताधर्ताओं के विरुद्ध अपनी गोलियां नहीं बरसाई। बंदूक की नाली नहीं ताना। ठीक इसी तरह नक्सलियों के संगठनों द्वारा भी रणवीर सेना के प्रमुख कर्ताधर्ताओं के गर्दन नहीं काटे गए। दोनों पक्षों ने हमेशा निर्दोष लोगों को मारा। बर्बरता की ऐसी इंतहा हो चली थी कि आप कल्पना करिए कि रणवीर सेना के मुखिया ब्रह्मेश्वर मुखिया ने क्या कहा था। उन्होंने एक इंटरव्यू में खुलेआम कहा था कि हम निर्दोष दलितों की हत्या इसलिए करते हैं कि इन्हीं के हित की बात नक्सली संगठन करते हैं। नक्सली मिलते नहीं तो वे जिस के हित में खड़े हैं, हम उसकी हत्या कर देते हैं, ताकि कोई दूसरा नक्सली इस जमात से ना निकले। 



ध्यान रखें कि बिहार में रणवीर सेना बनाम नक्सली संगठनों के संघर्ष में जो नरसंहार हुए हैं उसमें पिछड़े नहीं मारे गए और जब पिछड़ा मारा गया तो बिहार में नरसंहार का सिलसिला थम गया। रणवीर सेना ने नक्सलियों के बड़े नेताओं और समर्थकों के ना मिलने के कारण दलितों की हत्या की बात कही थी, लेकिन पिछड़ी यादव जाति के नेतृत्व में संचालित माने गए मार्क्सवादी कम्युनिस्ट सेंटर एमसीसी ने सेनारी में 18 मार्च 1999 को 35 की हत्या गर्दन रेतकर बर्बरता पूर्वक कर दी, तो इसके जवाब में रणवीर सेना द्वारा सेनारी से कुछ दूरी पर स्थित औरंगाबाद जिले के मियांपुर में 16 जून 2000 की रात दबंग पिछड़ी यादव जाति के लोगों की चुन चुन कर हत्या कर दी। जिसमें अकेले यादव जाति के 26 व्यक्ति मारे गए। बाकी मारे गए आठ व्यक्ति भी दूसरी पिछड़ी जाति के ही थे। इसमें कोई दलित नहीं मारा गया और इसके बाद बिहार में नरसंहार का सिलसिला खत्म हो गया। रणवीर सेना के जन्म से पहले फरवरी 1980 से लेकर अप्रैल 1994 तक जो 13 नरसंहार हुए उसमें कुल 164 व्यक्ति मारे गए। जबकि रणवीर सेना के उभार के बाद अप्रैल 1995 से लेकर मियांपुर नरसंहार (16 जून 2000) तक कुल हुए 30 नरसंहार में 321 की हत्या हुई।

यहां यह मौजू सवाल है कि नरसंहारों के लिए बदनाम बिहार का आखिरी नरसंहार मियांपुर क्यों बना? क्या एमसीसी के आधार जाति वाले जब मारे गए तो एमसीसी मांद में घुस गई? रणवीर सेना के इस बात का समर्थन नहीं किया जा सकता की हत्या के बदले हत्या करना उचित है। यहां नक्सली जिसकी आवाज उठाते हैं उसकी हत्या की जाए, यह कभी भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन एक कहावत याद रखिए लोहे को लोहा ही काटता है। तो क्या यह माना जाए कि नक्सली संगठनों के नेताओं और कर्ताधर्ताओं के विरुद्ध जिस रणवीर सेना की बंदूकें गरजती नहीं थी उसने जब बंदूकों का मुंह नक्सली संगठनों में कुख्यात एमसीसी का लीडरशिप जिस जाति से आता था उस जाति के खिलाफ चुन चुन कर हत्या करने की आक्रामक रणनीति बनाई तो वह नरसंहारों के लिए अंतिम कील साबित हुई। हमेशा इस बात का आप ध्यान रखिए कि यही रणवीर सेना जब लक्ष्मणपुर बाथे पहुंचता है जहां 31 दिसंबर 1997 को भारतीय नक्सल आंदोलन इतिहास के सबसे बड़े नरसंहार को अंजाम देते हुए 61 निर्दोषों की हत्या करता है तो इस बात को सुनिश्चित करता है कि इसमें यादव जाति का कोई व्यक्ति ने मारा जाए। यह सुनिश्चित करने के लिए लक्ष्मणपुर बाथे में रणवीर सेना द्वारा यादवों के घर चिन्हित कर बाहर से कुंडी लगा दिया गया था, ताकि गोलियों की बौछार से होने वाली हड़बड़ी में कोई यादव जाति का व्यक्ति घर से बाहर न निकले और मारा न जाए। उपरोक्त बातों को जानने और समझने के बाद यह नहीं लगता कि कहीं ना कहीं बिहार में हो रहे नरसंहारों का सिलसिला सामाजिक बुनावट और विसंगतियों से अधिक राजनीतिक लाभ लेने के स्वार्थ के कारण चल रहा था? क्या राजनीतिक संरक्षण नहीं था? बिहार में यह खुला सच है कि चाहे रणवीर सेना हो चाहे कोई दूसरा नक्सली संगठन, सब को राजनीतिक सत्ता का संरक्षण प्राप्त रहा है और राजनीति जब जरूरत समझती थी नरसंहार हो जाता था। क्योंकि नरसंहार करने के लिए निर्देश तो राजनीति से ही दिया जाता था। बिहार में नरसंहारों का प्रमुख कारण राजनीति ही रही है। राजनीति ने नरसंहार को अपने नफा नुकसान को देखकर निर्देशित किया और उसका लाभ लिया। ठीक वैसे ही जैसे वोट बैंक की राजनीति होती है। बिहार में नरसंहारों की राजनीति भी रही है। 




यहां यह प्रश्न मौजू है कि नरसंहारों की स्थिति क्यों बनी? इसकी मूल वजह क्या है? राजनीति तो यहां भी है। राजनीति के कारण ही समाज में कई तरह की विसंगतियां पैदा हुई। जिसके कारण खेत किसान मजदूर एकजुट हुए और वह सामंत और जमींदारों के खिलाफ एकजुट होकर हल्ला बोलने की मुद्रा में खड़े हो गए। जिसका नेतृत्व करने वाले वामपंथी रहे। वामपंथियों ने गांव-गांव जाकर कृषि मजदूरों को एकजुट करना शुरू किया तब बिहार में तीन किलो बन मिलता था। यानी दिनभर की मजदूरी तीन सेर चावल मिलता था। यहां हमेशा ध्यान रखें कि एक किलो से कम की मात्रा एक सेर है। ऐसे में कृषि मजदूरों की हालत बहुत बदतर थी। स्थिति इतनी बदतर थी कि मझोले और बड़े जोतदार कृषि मजदूरों को मजदूरी देने के लिए प्रताड़ित करते थे। शाम के धुंधलके में या रात में कृषि मजदूरों को मजदूरी लेने के लिए अपनी पत्नी को भेजने के लिए कहते थे या कोई दूसरी महिला रिश्तेदार को। स्वाभाविक है कि शाम के धुंधलके में या रात के अंधेरे में एक पुरुष किसी स्त्री को क्यों बुलाता है? कृषि मजदूरों को जब वामपंथी संगठन एकजुट करने लगे तो उनके आत्मसम्मान को कुरेदा गया। और वामपंथियों ने उन्हें यह समझाया कि मजदूरी से ज्यादा जरूरी सम्मान होता है और इसी सम्मान को हासिल करने के लिए कृषि मजदूर एकजुट हुए और वे मझोले और बड़े जोतदारों के खिलाफ हल्ला बोल की मुद्रा में खड़े हो गए। बिहार सामंती सोच वाला प्रदेश रहा है यहां बड़ी मात्रा में ऐसे ऐसे जमींदार रहे हैं जिनकी सोच कबीलाई संस्कृति की तरह रही है। मजदूरों के साथ दुर्व्यवहार करना, उनकी बेटी, बहनों, बहुओं पर हवस की नजर गड़ा कर रखना, कम मजदूरी देना, बात बात पर मजदूरों को पीटना, भूखे रखना, पेड़ में बांधकर पीटना, समय पर पैसा ना देना, पैसे ब्याज पर लेने के लिए मजबूर करना, यह सब हथकंडे अपनाए जाते थे। बंधुआ मजदूर आखिर बिहार के इस इलाके में क्यों रहे? कारण, यही सामंती सोच थी। वामपंथी संगठन जब कृषि मजदूरों को संगठित करने लगे और बदलाव की इबारत जब लिखी जाने लगे तो सामंती सोच वाले बड़े-मंझोले जोतदार और किसान संघर्ष के मुद्रा में खड़े हो गए। वे टकराव में उतरे ना कि बदलाव को अंगीकार किया। नतीजा दोनों तरफ से हथियार उठने लगे। एक तरफ गोला बारूद वाले बंदूक थे तो दूसरी तरफ हंसिया, खुरपी और लाठी थे। सामंतों के सामने मुकाबले में खड़ा रहना मुश्किल हो गया। यह पीड़ा उन्हें सालती थी। तब तक दलितों का ही नरसंहार होता था। समाजशास्त्री आंद्रे बेंते ने अपना विचार व्यक्त करते हुए तब कहा था- 'बिहार में हरिजनों की हो रही हत्याएं बेशक दुखद है। पर साथ ही इस बात का संकेत है कि हरिजनों में चेतना तेजी से आ रही है। इनकी उभरती चेतना इनकी हत्या का कारण बन रही है' 


 और फिर वह दौर शुरू हुआ जब बड़े घरों से और पुलिस वालों से नक्सली संगठन हथियार लूट कर इकट्ठा करने लगे। जब कृषि मजदूरों की लड़ाई लड़ रहे हैं वामपंथी संगठनों के हाथ में भी गोला-बारूद और बंदूक आ गए तो फिर हिंसक झड़पें अधिक होने लगी। तब समाज शास्त्रियों ने इसे संज्ञा दी- बैलेंस ऑफ टेरर का, यानी आतंक का संतुलन। जब वामपंथी संगठन स्वर्ण की हत्या करते थे तो बदले में रणवीर सेना दलितों की हत्या करती थी। बदला लेने की इस प्रवृत्ति के कारण नरसंहारों का सिलसिला लंबे दौर तक चला। शायद इसीलिए बैलेंस और टेरर शब्द का जन्म हुआ। लेकिन यहां एक बात साफ-साफ समझ लें कि सवर्णों की हत्या का मतलब सवर्ण जातियां नहीं थी। सिर्फ एक जाती थी जिसे बिहार में भूमिहार कहा जाता है। रणवीर सेना इसी भूमिहार जाति का लीडर संगठन बन गया था। ठीक वैसे ही जैसे एमसीसी यादवों का संगठन माना गया था। इसी एमसीसी ने बिहार के औरंगाबाद जिले के दलेल चक बघौरा में 27 मई 1987 को 57 राजपूतों की हत्या कर दी थी। इसके पहले 11 राजपूतों की हत्या इसी औरंगाबाद जिला में एमसीसी ने की थी। इसके बाद किसी नरसंहार में राजपूत नहीं मारे गए। तब सत्येंद्र नारायण सिन्हा (जो 1989 में मुख्यमंत्री बने थे) समेत राजपूत नेताओं ने राजपूतों को संघर्ष में न जाने के लिए मनाया और बदली परिस्थिति को स्वीकार लिया। नतीजा दलेलचक बघौरा के बाद किसी नरसंहार में राजपूत नहीं मारे गए। जबकि भूमिहार रणबीर सेना के बैनर तले संघर्ष में रहे। भूमिहार संघर्ष करते रहे और नतीजा सवर्णों में सबसे अधिक नक्सलियों द्वारा उन्हीं की हत्या हुई। इसी रणवीर सेना ने मियांपुर को अंजाम दिया। आपसी खूनी संघर्ष की परिणति का चरम था मियांपुर। जिसके बाद नरसंहारों का सिलसिला खत्म हो गया। 




बिहार में 2000 में हुए मियांपुर नरसंहार के बाद भले ही नरसंहार ना हुए हों लेकिन नक्सलवाद खत्म नहीं हुआ। मारपीट, एकाधिक केव हत्या जैसी छिटपुट घटनाएं घटती रहती हैं, लेकिन नरसंहार नहीं। और जब 2005 में बिहार की सत्ता से लालू राबड़ी बेदखल कर दिए गए और नीतीश कुमार की सत्ता आई और उन्होंने विकास का जो रास्ता चुना तो बिहार से नक्सलवाद लगभग सफाया हो गया। अब बिहार में नक्सली सक्रियता है, ना नरसंहार है, ना बदले की कार्रवाई में कोई रणवीर सेना की गोलियां बरसती ही दिख रही हैं। मामला पूरी तरह शांत हो गया है। यह सब बताता है कि विकास से सोच भी बदली जा सकती है और संघर्ष को शांति के रास्ते पर भी ले जाया जा सकता है। इसलिए पहली, दूसरी और तीसरी जरूरत अगर समाज, प्रदेश और देश को है तो उसका नाम विकास है। विकास के जरिए हम तमाम समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। बुद्ध की धरती जब लहू लुहान होने के बावजूद शांत हो गई तो कुछ भी शांत हो सकता है। और अशांत रहते हुए विकास तो नहीं प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए जरूरी है कि बुद्ध की धरती मगध ने नरसंहारों के बाद शांति का जो संदेश दिया उसे पूरा देश और विश्व स्वीकार करे।


Sunday 3 July 2022

बिहार प्रदेश गठन से एक वर्ष पुराना है पानी से चलने वाला मिल



फोटो-सिपहां स्थित पानी से चलने वाला मिल






बिहार का गठन वर्ष 1911 में और मिल बना 1910 में


इंगलैण्ड से टरबाइन लाकर रखी औद्योगिकीकरण की नींव


बर्मिंघम शहर से मशीन ला रचा दो उद्यमियों ने इतिहास


उपेंद्र कश्यप । दाउदनगर (औरंगाबाद)


पानी से तेल निकालना कहावत है, जिसे दाउदनगर शहर ने सही साबित किया है। जी हां, इसने पानी से तेल निकालना न सिर्फ सीखाया बल्कि इसे अभी तक संचालित रखे हुए है। जिसे विस्तार देकर राज्य और केंद्र की सरकारें उर्जा के क्षेत्र में नया अध्याय लिख सकते हैं। यह सोच थी दो उद्यमियों की। वर्ष-1911 में सन्युक्त प्रांत से अलग बिहार राज्य के गठन से एक वर्ष पूर्व संगम साव रामचरण राम आयल एण्ड राइस मिल सिपहां में खोला गया था। औधोगिक घरानों को जहां शोषक माना जाता रहा है वहीं इस मिल की व्यवस्था आदर्श रही है। सोन नहर का निर्माण होने के बाद सन-1910 में नासरीगंज (रोहतास) के उधमी संगम साव एवं दाउदनगर के रामचरण राम ने पानी से चलने वाली मिल की स्थापना किया। याद करें ठीक उसी समय जब भारत में प्रथम इस्पात कारखाने की आधारशिला जमशेदपुर में रखी गई थी। यहां इंगलैण्ड के बर्मिंघम शहर से आए टरबाइन की दरातें जब पानी के बहाव से घुमी तो विकास का पहिया भी तेजी से घुमा। मालिकों में शामिल तीसरी पीढ़ी के डा. प्रकाश चन्द्रा को याद है कि इंगलैण्ड का ही बना हुआ एक गैस इंजन है जो क्रुड आयल से चलता था। यह अभी अवशेष के रूप में बचा हुआ है। इस मिल का गौरव और वैभव बड़े इलाके तक फैला था। रामसेवक प्रसाद की मृत्यु (वर्ष 1967) के बाद और बदले औद्योगिक परिवेश के कारण इस अनुठे उद्योग का पतन प्रारंभ हो गया। कभी 150 कर्मचारी यहां रहते थे। अब मात्र 22 हैं। । 48 की जगह अब सिर्फ 16 कोल्हू चलते हैं। राजस्थान के गंगापुर से प्रतिदिन एक ट्रक न्यूनतम राई आता था। अब सिर्फ महीने में एक ट्रक लाया जाता है। टरबाईन की तकनीकी खराबी दूर करने में काफी परेशानी होती है। कलकता तक जाकर मैकेनिक लाना पड़ता है। सरकार इस तरह के तकनीक को परिमार्जित कराकर नहरी क्षेत्रों में लघु उधोग के रूप में स्थापित करने हेतु अगर प्रोत्साहित करे तो जल-उर्जा से नहरी इलाकों में लघु-उधोग का जाल बिछाया जा सकता है। तरक्की की नई राह खुल सकती है। दूर्दशा से मुक्ति प्राप्त हो सकती है।


 सरसों नहीं राई की होती है पेराई

डा.प्रकाशचंद्रा कहते हैं कि शुद्धता व गुणवत्ता के लिए यहाँ सरसों नहीं राई की पेराई होती है। इसलिए बाजार में मूल्य प्रतिष्पर्धा करना मुश्किल होती है। बाजार में टिके रहने के लिए नई तकनीक इस्तेमाल करना होगा, स्पेलर बिठाना होगा किन्तु तब मील का मूल स्वरूप बदल जाएगा। पारिवारिक बंटवारा के कारण पूंजी निवेश को लेकर उदासीनता भी है।


 लगाए जा रहे हैं 12 कोल्हू-उदय शंकर

मील संस्थापकों की तीसरी पीढ़ी के डेहरी में रह रहे उदय शंकर बताते हैं कि यहां अब फिल्टर लगा दिया गया है। शुद्धता की गारंटी है। और 12 कोल्हू लगाए जा रहे हैं। दो को इंस्टाल कर दिया गया है। दस शीघ्र ही इंस्टाल किया जाएगा। इसके बाद आठ कोल्हू और लगाए जाएंगे। पुराने कोल्हू की क्षमता कम हो रही है। इसलिए नया लगाया जा रहा है।

अब भी 23 रुपये वार्षिक शुल्क देय

यहां एक मौसम में एक लाख मन सरसो तेल का उत्पादन होता था। नहर में पानी ग्यारह महीने उपलब्ध होता था। अंग्रेजों के शासन में गया के तत्कालीन कलक्टर से मिल मालिकों का जो समझौता हुआ था, उसके अनुसार मात्र 23 रूपये वार्षिक सिंचाई विभाग को बतौर कर देना पड़ता था। इसके बदले पानी आपूर्ति तथा नहर की उड़ाही की जिम्मेदारी सरकार की थी। यह बाधित है अब। पैसा उतना ही लगता है। सौ साल पुराना दर क्योंकि समझौता अनुसार जब तक यह उद्योग चलेगा पैसा नहीं बढ़ाया जा सकता। पानी अब चार महीने ही मिल पाता है।