Sunday 3 July 2022

बिहार प्रदेश गठन से एक वर्ष पुराना है पानी से चलने वाला मिल



फोटो-सिपहां स्थित पानी से चलने वाला मिल






बिहार का गठन वर्ष 1911 में और मिल बना 1910 में


इंगलैण्ड से टरबाइन लाकर रखी औद्योगिकीकरण की नींव


बर्मिंघम शहर से मशीन ला रचा दो उद्यमियों ने इतिहास


उपेंद्र कश्यप । दाउदनगर (औरंगाबाद)


पानी से तेल निकालना कहावत है, जिसे दाउदनगर शहर ने सही साबित किया है। जी हां, इसने पानी से तेल निकालना न सिर्फ सीखाया बल्कि इसे अभी तक संचालित रखे हुए है। जिसे विस्तार देकर राज्य और केंद्र की सरकारें उर्जा के क्षेत्र में नया अध्याय लिख सकते हैं। यह सोच थी दो उद्यमियों की। वर्ष-1911 में सन्युक्त प्रांत से अलग बिहार राज्य के गठन से एक वर्ष पूर्व संगम साव रामचरण राम आयल एण्ड राइस मिल सिपहां में खोला गया था। औधोगिक घरानों को जहां शोषक माना जाता रहा है वहीं इस मिल की व्यवस्था आदर्श रही है। सोन नहर का निर्माण होने के बाद सन-1910 में नासरीगंज (रोहतास) के उधमी संगम साव एवं दाउदनगर के रामचरण राम ने पानी से चलने वाली मिल की स्थापना किया। याद करें ठीक उसी समय जब भारत में प्रथम इस्पात कारखाने की आधारशिला जमशेदपुर में रखी गई थी। यहां इंगलैण्ड के बर्मिंघम शहर से आए टरबाइन की दरातें जब पानी के बहाव से घुमी तो विकास का पहिया भी तेजी से घुमा। मालिकों में शामिल तीसरी पीढ़ी के डा. प्रकाश चन्द्रा को याद है कि इंगलैण्ड का ही बना हुआ एक गैस इंजन है जो क्रुड आयल से चलता था। यह अभी अवशेष के रूप में बचा हुआ है। इस मिल का गौरव और वैभव बड़े इलाके तक फैला था। रामसेवक प्रसाद की मृत्यु (वर्ष 1967) के बाद और बदले औद्योगिक परिवेश के कारण इस अनुठे उद्योग का पतन प्रारंभ हो गया। कभी 150 कर्मचारी यहां रहते थे। अब मात्र 22 हैं। । 48 की जगह अब सिर्फ 16 कोल्हू चलते हैं। राजस्थान के गंगापुर से प्रतिदिन एक ट्रक न्यूनतम राई आता था। अब सिर्फ महीने में एक ट्रक लाया जाता है। टरबाईन की तकनीकी खराबी दूर करने में काफी परेशानी होती है। कलकता तक जाकर मैकेनिक लाना पड़ता है। सरकार इस तरह के तकनीक को परिमार्जित कराकर नहरी क्षेत्रों में लघु उधोग के रूप में स्थापित करने हेतु अगर प्रोत्साहित करे तो जल-उर्जा से नहरी इलाकों में लघु-उधोग का जाल बिछाया जा सकता है। तरक्की की नई राह खुल सकती है। दूर्दशा से मुक्ति प्राप्त हो सकती है।


 सरसों नहीं राई की होती है पेराई

डा.प्रकाशचंद्रा कहते हैं कि शुद्धता व गुणवत्ता के लिए यहाँ सरसों नहीं राई की पेराई होती है। इसलिए बाजार में मूल्य प्रतिष्पर्धा करना मुश्किल होती है। बाजार में टिके रहने के लिए नई तकनीक इस्तेमाल करना होगा, स्पेलर बिठाना होगा किन्तु तब मील का मूल स्वरूप बदल जाएगा। पारिवारिक बंटवारा के कारण पूंजी निवेश को लेकर उदासीनता भी है।


 लगाए जा रहे हैं 12 कोल्हू-उदय शंकर

मील संस्थापकों की तीसरी पीढ़ी के डेहरी में रह रहे उदय शंकर बताते हैं कि यहां अब फिल्टर लगा दिया गया है। शुद्धता की गारंटी है। और 12 कोल्हू लगाए जा रहे हैं। दो को इंस्टाल कर दिया गया है। दस शीघ्र ही इंस्टाल किया जाएगा। इसके बाद आठ कोल्हू और लगाए जाएंगे। पुराने कोल्हू की क्षमता कम हो रही है। इसलिए नया लगाया जा रहा है।

अब भी 23 रुपये वार्षिक शुल्क देय

यहां एक मौसम में एक लाख मन सरसो तेल का उत्पादन होता था। नहर में पानी ग्यारह महीने उपलब्ध होता था। अंग्रेजों के शासन में गया के तत्कालीन कलक्टर से मिल मालिकों का जो समझौता हुआ था, उसके अनुसार मात्र 23 रूपये वार्षिक सिंचाई विभाग को बतौर कर देना पड़ता था। इसके बदले पानी आपूर्ति तथा नहर की उड़ाही की जिम्मेदारी सरकार की थी। यह बाधित है अब। पैसा उतना ही लगता है। सौ साल पुराना दर क्योंकि समझौता अनुसार जब तक यह उद्योग चलेगा पैसा नहीं बढ़ाया जा सकता। पानी अब चार महीने ही मिल पाता है।

No comments:

Post a Comment