Saturday 22 February 2020

दाउदनगर अनुमंडल का ऐतिहासिक-धार्मिक महत्त्व


उमंगेश्वरी महोत्सव-2020 पर जिला प्रशासन औरंगाबाद द्वारा एक स्मारिका का प्रकाशन किया गया है इसमें चार पेज का एक आलेख मेरा भी शामिल किया गया है, जो दाउदनगर अनुमंडल के इतिहास और उसके महत्त्व को बताता है। आप यदि दाउदनगर के इतिहास और उसके महत्त्व को जानना चाहते हैं तो इस आलेख को पढ़ सकते हैं। इसका विमोचन 21 फरवरी को किया गया है।

स्मारिका में प्रकाशित सबसे बड़े इस आलेख को स्थान देने के लिए स्मारिका से जुड़ी पूरी टीम, विशेषत: अग्रज वरिष्ठ पत्रकार-संपादक कमल किशोर भैया को धन्यवाद....

०उपेंद्र कश्यप०
लेखक-‘श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर’ एवं सन्दर्भ ग्रन्थ-“उत्कर्ष”
संपर्क-9931852301
 
उमंगेश्वरी महोत्सव-21-22 फरवरी 2020
स्मारिका में प्रकाशित आलेख-पेज-1
सतरहवीं सदी में बसा शहर दाउदनगर का पुराना नाम सिलौटा बखौरा है। सिलौटा बखौरा शब्द जमीन खरीद-बिक्री के दस्तावेजों के अतिरिक्त कहीं अन्यत्र नहीं दिखता। इस भूखंड का प्रारंभ अज्ञात सिलौटा बखौरा से होता है। 1991 मार्च में यह दाउदनगर अनुमंडल बना। जिसके हिस्से में गया-जहानाबाद (अब अरवल भी) जिले की सीमा से सटे गोह और हसपुरा प्रखंड तथा बारुण, औरंगाबाद प्रखंड से सटा ओबरा प्रखंड है। अनुमंडल क्षेत्र का यह नक्शा पर्यटन के मानचित्र पर भी महत्त्व रखता है। यह और बात है कि इस पर विभागीय या सरकारी उपेक्षा की धूल पड़ी हुई है। जिसे हटाने की जरुरत है। अनुमंडल मुख्यालय दाउदनगर मगध के गौरवशाली इतिहास का एक साधारण कोरा सा जंगल-झाड़ से पटा हुआ पन्ना भर था, जिस पर दाउद खां ने इबारतें लिखी, नाम दिया और एक प्रशासनिक-व्यापारिक केंद्र बन कर उभरा। कहावत है-शहर में सासाराम और चट्टी में दाउदनगर मशहूर है। अनुमंडल क्षेत्र प्रागैतिहासिक और धार्मिक महत्व का रहा है, अपवित्र कीकट प्रदेश में भी पवित्र स्थल। च्यवनाश्रम हो या फिर गजहंस, प्राचीनता को अभिव्यक्त करते हैं। यह क्षेत्र औरंगाबाद जिला के गठन से पूर्व गया जिले का हिस्सा हुआ करता था। गया, गया जी बोला जाता है, और धार्मिक महत्त्व का है। उसका यह भाग भी महत्वपूर्ण है।
कीकट प्रदेश (मगध) का पश्चिमी छोर है दाऊदनगर अनुमण्डल, जिसकी एक सीमा सोन को छुती है तो दूसरी गया को। दो पुण्य नदियाँ सोन और पुनपुन यहाँ बहती हैं, और च्यवनाश्रम भी है जो इस इलाके की भौगोलिक प्राचीनता के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। च्यवनाश्रम तो वैदिक काल में वजूद में था। वेद में भृगु पुत्र च्यवन को च्यवाननाम दिया गया है। महर्षि भृगु को वरूण के यज्ञ में ब्रह्मा जी ने अग्नि से उत्पन्न किया था- जैसा कि महाभारत, आदिपर्व का श्लोक कहता है। मगध देश के तीर्थस्थलों के बारे में जब नारद ने ब्रह्मा से पूछा- तब ब्रह्म रामायण के अनुसार ब्रह्मा ने बताया- च्यवनाश्रम देवकुण्ड में सदा भगवान विष्णु और ऋषि भक्तिपूर्वक उपासना करते हैं। यहाँ का कुण्ड सिद्ध जाति के देवताओं और तपः सिद्ध महात्माओं द्वारा निर्मित है। रामायण कालीन इतिहास देखें तो आनन्द रामायण का यात्राकाण्ड कहता है काशी में विश्वनाथ जी के दर्शन के पश्चात आकाश मार्ग से गया जाने के क्रम में भगवान रामचन्द्र च्यवनाश्रम आये, यहाँ ऋषि च्यवन का दर्शन किया, देवकुण्ड में दुग्धेश्वर नाथ मंदिर को प्रतिष्ठापित किया, फिर भृगुरारी (भरारी) में पुनपुन और मंदार नदी संगम में स्नान किया। मन्दारेषकी स्थापना की और पूजा अर्चना भी की।

प्राचीनता के प्रमाण और बहुत कुछ...
उमंगेश्वरी महोत्सव-21-22 फरवरी 2020
स्मारिका में प्रकाशित आलेख-पेज-2
प्रागैतिहासिक काल से संबंध बताने वाली और भी कई किंवदतियां है। यथा हसपुरा भी महाभारत कालीन है। एक धारणा है कि जरासंध के पक्ष में युद्ध लड़ते वक्त बलराम जी द्वारा हंस नाम का एक राजा मारा गया था। यथा-
अथ हंस इति ख्यातः कश्चिदासीन महान नृपः ।
रामेण स हतस्तत्र संग्रामेऽष्टादशा बरे ।। (महाभारत)
वह हंस जरासंघ (मगध नरेश) के पश्चिम भागीय क्षेत्र का रक्षक था। उसी के नाम पर हसपुरा बसा। इसका पूर्व नाम हर्षपुरा भी हो सकता है। हर्ष के राजकवि वाणभट्ट से जुडाव के कारण। दाऊदनगर के बारे में भी एक धारणा है कि इसका पूर्व नाम दाऊनगर था। यह ‘कृष्ण के बडे भाई बलदाउ’ से जुडा बताया जाता है। अनुमण्डल में इन दोनों पवित्र नदियों के मैदानी इलाके में प्रचलित गजहंसकी प्रथा पर विचार करें। यह प्रथा दसवीं सदी पूर्व से लेकर महापाषाण संस्कृति तक के प्रमाण हो सकते हैं। इस मैदानी भाग में कई स्थानों पर गजहंस मिलते हैं- प्राय: गाँव से पूरब दिशा में गाँव आने वाली सड़क के ठीक किनारे। गजहंस को ही गजहस्त या स्मृति शिलालेख कहा जाता है। किसी की मृत्युपरांत एकादशा को महापात्र (कटाह, दिक्षित, तिवारी कई नाम हैं) के भोजन के बाद पुरोहित के साथ जजमान गजहंसको स्थापित करता है।

उमंगेश्वरी महोत्सव-21-22 फरवरी 2020
स्मारिका में प्रकाशित आलेख- पेज-3
मनोरा में 2000 साल प्राचीन बुद्ध प्रतिमा:-
प्रागैतिहासिक काल से ऐतिहासिक काल में चलिए। इस काल में सबसे प्राचीन अवशेष मिलता है मरोवां (मनौरा-ओबरा) में। यहाँ भगवान बुद्ध बदरू बाबाके रूप में पूजे जाते हैं। यह मरोवां निःसंदेह मौर्यकालीन नगरी थी जिसे मुगलशासन में एक छोटी प्रशासनिक इकाई परगना बनाया गया था। मरोवां ही मनौरा बना। मरोवां का नामकरण मौर्य शासकों से घनिष्टता का परिचायक है। यहाँ मोर पहनाव की प्रथा प्रचलित है, और मोरपंख मौर्यवंश का वंशचिह्न रहा है। मौर्यकाल 322 ईसा पूर्व से प्रारम्भ होता है जो 185 ईसा पूर्व तक रहा है। इसी काल में संभव है कि यहाँ बुद्ध प्रतिमा स्थापित की गयी हो क्योंकि तभी यह संभव दिखता है कि मोर पहनाव प्रथा प्रचलित हुआ होगा। इसके बाद हर्षवर्द्धन के काल में बुद्ध प्रतिमा स्थापित होने की संभावना बनती है। इसी राजा के राज-कवि थे बाणभट्ट। जिनका जन्मस्थल हसपुरा प्रखण्ड का पीरू (पूर्व नाम प्रितिकूट) है। हसपुरा पूर्व में हर्षपुरा रहा हो यह अतिश्योक्तिपूर्ण तथ्य नहीं माना जा सकता। मान्यता है कि हर्षवर्द्धन के प्रति बाणभट्ट की निष्ठा ने हर्षपुरानामकरण दिया होगा और बाणभट्ट के बाद इस इलाके का कोई जुड़ाव बौद्ध धर्म से नहीं रहा (याद करें-648 ई॰ में हर्ष की मृत्यु हुई है)। फिर आठवीं सदी में शंकराचार्य के उद्भव से ब्राह्मण धर्म में पूर्नजागृति पैदा हुई और उन्होंने बौद्धों की तर्ज पर संघों, मठों एवं विहारों का निर्माण शुरू करा दिया, नतीजा इस सदी के बाद बौद्धस्थल निर्माण की संभावना नहीं बनती। यहाँ स्थापित भगवान बुद्ध की प्रतिमा को कोरियाई पर्यटक दल ने दो हजार वर्ष प्राचीन बताया था, यह इसलिए भी विश्वसनीय लगता है कि इसी गांधार शैली की प्रतिमाओं को बामियान (अफगानिस्तान) में तालिबानियों ने ध्वस्त किया था।

 दाउद खां और दाउदनगर:-
उमंगेश्वरी महोत्सव-21-22 फरवरी 2020
स्मारिका में प्रकाशित आलेख- पेज-4
दाउद खां ने दाउदनगर को बसाया था। इसमें संदेह नहीं है। दाउदनगर का लिखित इतिहास ‘तारीख-ए-दाउदिया’ उपलब्ध है। दाउद खां को बादशाह औरंगजेब के सिपहसालार था, जिसने पलामु फतह किया था। इसके पिता का नाम भीखन खान था। तारीख-ए-दाउदिया उसे कुरैश कबीले का बताते हुए मोहम्मद पैगंबर के कुल से जोडता है। पलामू फतह के बाद पटना वापसी के क्रम में दाउद खां को अंछा परगना में ठहरने की नौबत आयी। वे शिकार पर निकले। उन्हें बताया गया कि यह इलाका नेहायत खतरनाक है। इलाके के लिए चर्चित कहावत- ‘अंछा पार जब गये भदोही। तब जानो घर आये बटोही‘ भी बादशाह को लिख भेजा गया। मान्यता है कि बड़े इलाके का राजस्व जब दिल्ली पहुँचाया जाता था, इस रास्ते में उसे लूट लिया जाता था। बादशाह ने सिलौटा बखौरा में आबादी बसाने की प्रक्रिया प्रारम्भ की और अंछा तथा गोह परगने के राजस्व को यहाँ किला एवं मस्जिद तामीर करने में लगाया जाने लगा। यह सन् 1663 ई॰(1074 हिजरी) की बात है।
शहर की चारों ओर चार बड़े फाटक बनाया - अजीमाबाद या पटना का फाटक, अजगैब का फाटक तथा गाजी मियां का फाटक अपना वजूद खो चूका है। सिर्फ छत्तर दरवाजा का वजूद आज भी कायम है। इन चारों दरवाजों से आगे बड़े-बड़े गहरे गड्ढे खुदे हुए थे, ताकि कोई दुश्मन सहजता से पुलिस छावनी पर हमला न कर सके। तारीखे दाउदिया कहता है कि नबीर-ए-दाउद खां नवाब अहमद खान ने अहमदगंज बसाया, जिसे वर्तमान में नया शहर कहा जाता है।

उमंगेश्वरी महोत्सव-21-22 फरवरी 2020
स्मारिका में प्रकाशित आलेख-कवर पेज
देवकुंड महर्षि च्यवन से संबद्ध इलाका है, जो महर्षि भृगु के पुत्र थे। महर्षि च्यवन ऋषि के आश्रम के चलते इसका पौराणिक एवं धार्मिक महत्व है। त्रेता युग में जब भगवान राम अपने पिता का गया श्रद्ध करने की यात्र में देवकुंड आए तो उनका महर्षि ने स्वागत किया था। भगवान श्रीराम देवकुंड के सहस्त्रधारा में स्नानकर च्यवन ऋषि का दर्शन किए तथा रामेश लिंग की स्थापना किया। यह वर्तमान में बाबा दुग्धेश्वरनाथ शिवलिंग के नाम से विख्यात है। यहां एक मठ भी है जिसके संस्थापक बाबा बालापुरी जी थे। यह मठ गिरीनार पर्वत जूना अखाड़ा के नागा संयासियों की शाखा है। दशवें महंथ रामेश्वर पुरी जी के समय एक संस्कृत विद्यालय की स्थापना की गयी। टेकारी राज की महारानी ने कुंड के घाटों का जिर्णोद्धार सन 1925 में कराया था। महंत कन्हैयापुरी की मानें तो श्रावण के हर सोमवार को 15 से 20 हजार श्रद्धालु आते हैं। इसमें कांवरिए करीब 4000 होते हैं। देवकुंड मंदिर में स्थित शिवलिंग नीलम पत्थर का बताया जाता है।


शुक्राचार्य की मां हैं ‘न-कटी भवानी’
गोह के भृगुरारी में न्यूनतम 1200 साल प्राचीन इतिहास जमींदोज है। इतिहास का सूत्र काव्य के प्रमाणित आदि कवि वाणभट्ट के पूर्वजों से जुड़ता है, जिनका काल 7 वीं सदी रहा है। यहां का गढ़ देखकर कोई समझ सकता है कि यह प्राचीन है। यहां जब तब खुदाई के दरम्यान पुरातात्विक महत्व की सामग्रियां मिलती रही हैं। भृगुरारी जिस भृगु ऋषि के नाम पर बसा था, वे भृगु वाण के पूर्वज माने जाते हैं। वाण के पिता चित्रभानु ग्यारह भाई थे, जिसमें सबसे बड़े भृगु थे। भृगु की पत्नी पुलोमा थीं, इन्हीं के पुत्र थे दैत्यगुरु शुक्राचार्य। कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगना कब प्रारंभ हुआ, कोइ नहीं जानता। यहाँ न-कटी भवानी का मंदिर है। श्रीमद देवीभागवत के अनुसार महर्षि भृगु की पत्नी अपने शरण में आए दैत्यों की रक्षा करती थीं। विष्णु ने यह देख अपने चक्र से भृगु पत्नी का मस्तक काट दिया। महर्षि ने अपनी पत्नी को शल्य क्रिया से स्वस्थ्य कर दिया। दैत्यों ने इस चमत्कार को देख कहा - न-कटी, न-कटी मां, न-कटी भवानी। यानि काटने के बाद भी जो जीवित हो गयी। दैत्याचार्य शुक्राचार्य ने इसी वक्त मां की प्रथम पूजा की और न-कटी भवानी के नाम से ख्याति प्राप्त हुई। पद्मासन में मां की प्रतिमा है, इनका मस्तक नीचे हैं। इनकी जयंती वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को होती है। यहाँ बौद्ध काल के प्रमाण मिलते हैं। भिक्षा पात्रों के टुकड़े मिलते रहते हैं। इससे इस स्थल पर बौद्धकाल का प्रभाव होने की बात सामने आती है।

ईराक से जुड़ा है सैयदना का अमझर शरीफ:-
हसपुरा के अमझर शरीफ दरगाह में सैयदना अमीर मोहम्मद कादरी रज्जाकी का मजार है। ईराक के बगदाद में 810 हिजरी में जन्मे सैय्यदना 846 हिजरी में हिन्दुस्तान आए। उनके पास एक सूखी छड़ी थी। इन्हें निर्देश था कि जहां रात्रि विश्राम के वक्त यह छड़ी हरी हो जाए वहीं जीवन यापन करना है। अविभाजित हिन्दुस्तान में सिलसिला ए कादरिया के वे पहले बुजुर्ग थे। उनकी छड़ी इसी हसपुरा प्रखंड के नरहना के जंगल में हरी हो गयी थी, जो अब अमझरशरीफ है। यहां उनकी दोस्ती अजदहा (सांप) से हुई थी। आज भी यहां के सांप मित्रवत व्यवहार करते हैं, किसी को बिना छेड़े नहीं डंसते, जबकि पूरी रात मेला के दिनों में खुले में लोगों की भीड़ रहती है। उनके द्वारा लगाया गया अजनाश का पेड़ अजदहों से बचाता है लेकिन इसका वृक्षारोपण किसी दूसरी स्थान पर नहीं हो पाता। इसकी कई कोशिशें बेकार रहीं। पूर्व में तत्कालीन डीएसपी सुबोध कुमार विश्वास ने भी अपने आवास पर अजनाश लगाने का प्रयास किया मगर सफलता नहीं मिली। हजरत सैयदना का देहांत 940 हिजरी में हुआ था। तब से उनके मजार पर करोड़ों हिन्दू मुस्लिम मत्था टेक चुके हैं।

शमशेर खाँ का मकबरा:-
दाउदनगर के शमशेरनगर में है ऐतिहासिक शमशेर खाँ का मकबरा। वे औरंगजेब के शासन, अजीमाबाद (पटना) और गोरखपुर(उत्तर प्रदेश) जैसे बड़े सूबे के सूबेदार रहे थे। इनका पूर्व नाम इब्राहिम था और ये मशहुर कवि अब्दुल रहीम खानखाना की दूसरी पत्नी से उत्पन्न पुत्र थे। रहीम की मृत्यु के बाद इनका परवरिश इनके चाचा दाउद खाँ कुरैशी ने किया। जिन्होंने दाऊदनगर की आधारशिला रख एक शहर की बुनियाद रखी थी। इनकी मृत्यु के बाद इब्राहिम को पहले मानिकपुर फिर शाहाबाद का फौजदार बनाया गया। अफगान विद्रोह के समय इब्राहिम ने जब अदम्य साहस तथा युद्ध कौशल का परिचय दिया तो बादशाह ने प्रसन्न होकर उसका नया नामकरण किया और इब्राहिम शमशेर खाँ बन गया। सन् 1707में औरंगजेब के पुत्र बहादुर शाह मुहम्मद मुअज्जम ने सत्ता संभाली और 27 फरवरी 1712 ई॰ को उसकी भी मृत्यु हो गयी तो दिल्ली सल्तनत में सत्ता का संघर्ष और तीखा एवं तेज हो गया। शमशेर खाँ ने इस संघर्ष में शहजादा रफीउरशान का पक्ष लेते हुए कर्क युद्ध लड़ा और 1712 ई॰ के इसी संघर्ष में अपने बेटे अकील खाँ के साथ मारे गये। चूंकि शमशेर खाँ ने अपने जीवन काल में ही शमशेर नगर गाँव बसाया था सो इसी कारण उनके शव को यहाँ सोन नदी के मैदानी किनारे पर दफनाया गया और बाद में यहाँ मकबरा बनाया गया। इस मकबरें तीन कब्रें हैं। एक शमशेर खाँ का, एक सबसे छोटे कब्र के बारे में किवदंति है कि यह उनके वफादार कुत्ते की है, लेकिन तीसरा कब्र किसका है, यह न मिथकों में हैं न किवदंतियों में स्पष्ट है ।

Friday 7 February 2020

औरंगाबाद डीएम क्यों और कहां बोले कि चढ़ रहा आँखों पर चश्मा...


डीएम बोले-बड़े होने पर बच्चे अवश्य पढ़ें-'गुनाहों का देवता'
दाउदनगर के संस्कार विद्या परिसर में आयोजित तीन दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय बाल फिल्म महोत्सव का 07 फरवरी 2020 को उद्घाटन करने के बाद औरंगाबाद के डीएम राहुल रंजन महिवाल ने कहा- कला जीवन को जीवंत बना देती है। कलाकार कितनों का संबल बन जाता है। अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म फेस्टीवल गोवा, मुम्बई में देखा-सुना था। कान तरस जाते हैं, जिला में अंतरराष्ट्रीय शब्द सुनने के लिए। आज सुन रहा हूँ। अंतरराष्ट्रीय स्तर की फिल्में दिखाई जायेंगी। इसके विभिन्न आयामों को बच्चों को बताया जाएगा। टीवी की दिक्कत थी, जब हम बच्चे थे। रामायण और महाभारत देखने के लिए बहुत दूर जाना पड़ता था। अब जमाना बदल गया है। अब लोग छोटा भीम देखते हैं। माई नेम इज कलाम देखा। हिंदी साहित्य का उपासक रहा हूँ। गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास है, इसे बच्चे जरूर पढ़ें। जब बड़ा हो जाएं। दिनमान का जिक्र किया। टीवी, कार्टून, मोबाइल देखने का नफा-नुकसान है। आंखों पर चश्मा चढ़ जाता है। हम लोगों का बचा, क्योंकि टीवी, मोबाइल नहीं था।

सीख सकते हैं हिंदी शब्दों का शुद्ध उच्चारण :-
डीएम ने कहा कि टीवी से शब्द का उच्चारण सीखने का अवसर मिलेगा। इससे सीखिए। हिंदी शब्द का शुद्ध उच्चारण सीखने को इससे मिलता है। हमें प्रारंभिक दौर में उच्चारण गलत सीखाया जाता है। फिर और फीर में क्या अंतर है, यह जानना चाहिए। कान्वेंट स्कूल में जाने पर फर्क पड़ता है। अंग्रेजी शब्द भी सीख सकते हैं। शब्दों का चयन बेहतर तरीके से सीख सकते हैं। श्रम करना है। जो हो रहा है वह ऐतिहासिक हो रहा है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनेगी।

हारने से टूटता है इंसान:-
डीएम ने कहा कि जब व्यक्ति हारता है तो तकलीफ होती है। हारने और तकलीफ होने से टूटता है इंसान। यह अभिभावक ध्यान दें। अभिभावकों से कहा कि-अनुरोध है कि बच्चों पर अपनी महत्वाकांक्षा और सपने के लिए इतना दबाब मत डालिये कि वह परेशान हो जाये। मैट्रिक फेल हो गए, किन्तु क्रिकेट के भगवान माने गए सचिन। अमिताभ को संघर्ष करना पड़ा। बहुत बार असफल होना पड़ा। ऊंची जगह पढ़े थे। पिता नामी थे, पैसा की कमी नहीं थी। नौकरी के लिए सेलेक्शन में छांट दिए गए।

मोबाइल विंध्वंसक भी, बच्चों को जानना जरुरी कि क्या देखें:-अखिलेन्द्र मिश्रा


अंतरराष्ट्रीय बाल फिल्म महोत्सव दाउदनगर में क्या कहा अखिलेन्द्र मिश्रा ने--
दाउदनगर के संस्कार विद्या में विद्या निकेतन स्कूल समूह द्वारा आयोजित बिहार के प्रथम अंतर्राष्ट्रीय बाल फिल्म महोत्सव में अभिनेता अखिलेन्द्र मिश्रा ने कई बड़ी बात बच्चों के लिए कही है। जिसे अमल में ला कर बच्चे वाकई में कमाल कर सकते हैं। सबसे बड़ी बात मोबाइल के इस्तेमाल को लेकर कही। कहा कि सिनेमा के क्षेत्र में बच्चों के लिए नगण्य काम हो रहा है। स्पाइडरमैन बनता है विदेश में तो बच्चे खूब देखते हैं। सरफरोश फिल्म के मिर्ची सेठ ने कहा कि भारतीय सिनेमा तो फ़िल्म ही नहीं बना रहा बच्चों के लिए। बच्चों के बारे में इतना कोई नहीं सोचता, जितना सुरेश गुप्ता सर ने सोचा। पुरी दुनिया मुट्ठी में है, मोबाइल में सिनेमा, सीरियल, न्यूज, सब है। दुनिया मोबाइल में सिमट गई है। मोबाइल रहना भी जरूरी है किंतु एक तय उम्र में। और यह भी जानना जरूरी है कि कब, कितना और क्या देखने के लिए इस्तेमाल करना है। मोबाइल का प्रयोग, उपयोग करना जानना आवश्यक है। इसमें बहुत कुछ है। यह बहुत विन्ध्वंसक भी है। यह शरीर के 70 फीसदी पानी को सोख लेता है, चूस लेता है। दिमाग-मस्तिष्क की जितनी बीमारियां हो रही हैं, इसका खास कारण मोबाइल है। सॉफ्टवेर है मस्तिष्क जो अद्भुत है। लिक्विड का स्त्राव होता है। जो मोबाइल से बाधित होता है।

अनुशासन से जीवन में कमाल तय:-
लिजेंड ऑफ़ भगत सिंह के चंद्रशेखर आजाद ने कहा कि जितना अनुशासित रहेंगे उतना बढ़िया काम जीवन में होगा। अनुशासित हैं तो जीवन में कमाल होना तय है। कामाल होगा ही। एकाग्रचित होना भी आवश्यक है। सफलता की कुंजी एकाग्रचित होने में है। लक्ष्य पर फोकस कीजिये। सफल होइएगा। जो आप पाना चाहते हैं, उस पर फोकस करिये।

मन को समझिये:-

लगान के अर्जुन अखिलेन्द्र मिश्रा ने कहा कि चेतन और अवचेतन दो मन हैं। चेतन मन सीखता है, जैसे साइकिल चलाना सीखना। साइकिल चलाते चलाते दो चार दोस्तों को हैलो कर रहे हैं, यह अवचेतन मन है। चेतन अच्छा-बुरा, सही-गलत की पहचान करता है। यह उसकी क्षमता है। चेतन मन जो करता है वह अवचेतन मन में  संग्रहित हो जाता है। इसलिये अवचेतन मन में हमेशा सही चीज ही संग्रहित करिये।

नाटक का तकनीकी विस्तार सिनेमा है:-
उन्होंने कहा कि नाटक का ही तकनीकी विस्तार सिनेमा है। नाटक और सिनेमा के अंतर को जब तक नहीं जानिएगा, तब तक साहित्य से नहीं जुड़ियेगा। जब तक साहित्य से नहीं जुड़ियेगा, तब तक सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना का जागरण नहीं होगा। कैसा सिनेमा देखना चाहिए, क्या है सिनेमा यह जानिए।

संस्कृति हो तो दाउदनगर जैसी:-
माइथोलॉजिकल धारावाहिक के रावण श्री मिश्रा ने स्कूली बच्चों की ओर इशारा करते हुए कहा कि हम इतने शरीफ नहीं थे। गजब की अनुभूति हो रही है, जिसको शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। दाऊ नगर या दाऊद नगर, जो हो संस्कृति ऐसी ही होनी चाहिए। ऐसी परंपरा हो। भारत में कभी कभी शायद होता है अंतरार्ष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव। बिहार में तो हुआ ही नहीं। शिक्षा के साथ साथ सिनेमा भी बच्चों के लिए महत्वपूर्ण है, यह सोचना काफी महत्वपूर्ण है। मेरे जमाने में सिनेमा देखना मना था। सिनेमा देखने के लिए पिटाई होती थी, अब सिनेमा में ही चला गया। 

Monday 3 February 2020

अति सर्वत्र वर्जयेत : सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता


 # शाहीनबाग #जामिया #सीएए विरोध #धरना के खिलाफ धरना

भारतीय समाज में अब क्रिया की प्रतिक्रया का दौर शुरू हो गया है। इससे बहुतों को असुविधा हो रही है। जो कल तक प्रतिक्रया की कल्पना नहीं कर सकते थे, वे हतप्रभ हैं। उनको अब समझ नहीं आ रहा कि क्या करें? यह सब क्या है...
भारतीय समाज में समय-समय पर एक पंक्ति सुनने को मिलती है-‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ यह खूब प्रासंगिक लग रहा है अभी, और स्मरण आ रहा है बिहार में जातीय नरसंहार के दौर के अंत का कारण। भारतीय समाज उसी दिशा में अब लगता है बढ़ चला है। सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के संघर्ष में दिशा वैसी ही दिख रही है, जब बिहार में जातीय नरसंहार का दौर था। सरकार कुछ नहीं कर पा रही थी। उसके नियंत्रण से नक्सली संगठन और निजी सेना दोनों बाहर थे। अंतत: रणवीर सेना ने मियांपुर (16 जून 2000) में 33 लोगों की जघन्य तरीके से ह्त्या कर दी थी। यह नरसंहार सेनारी के बदले में अंजाम दिया गया था। सेनारी एमसीसी ने तो रणवीर सेना ने मियांपुर को अंजाम दिया। इसके बाद बिहार में कोइ नरसंहार नहीं हुआ। नरसंहार रोकने में बिहार सरकार की कोइ भूमिका नहीं थी। कोइ श्रेय नहीं ले सकता। यह अति का अतिरेक से सामना का परिणाम था। इसका जातीय विश्लेषण फिर कभी। फिलहाल, सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर ही केन्द्रित रहते हैं।
 
श्लोक है-
अति रूपेण वै सीता चातिगर्वेण रावणः।
अतिदानाद् बलिर्बद्धो ह्यति सर्वत्र वर्जयेत्।।
अर्थात-अत्यधिक सुन्दरता के कारण सीता हरण हुआ। अत्यंत घमंड के कारण रावण का अंत हुआ। अत्यधिक दान देने के कारण रजा बाली को बंधन में बंधना पड़ा। अतः सर्वत्र अति को त्यागना चाहिए। अति कभी भी अच्छी नहीं होती, फिर वह किसी भी कारण से हो।


क्या कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टीकरण और हिन्दू विरोध की अति नहीं कर दी है? उसी के नेता एके एंटनी ने 2014 लोक सभा चुनाव के बाद अपनी पार्टी द्वारा हार नहीं, इतिहास के सबसे बड़ी बदतर हार के लिए जिम्मेदार कारक को चिन्हित कर जो जांच रिपोर्ट दिया था, उसमें क्या था? यही न कि भारतीय समाज कांग्रेस की कार्यशैली, नीति, विचार को मुस्लिम परस्त मानती है और छवि हिन्दू विरोध की बन गयी है। फिर कांग्रेस क्यों नहीं चेत रही है? अति शायद यही है। जवाहर लाल नेहरू की नीतियाँ मुस्लिम परस्त रही है। यह गलत है तो स्वयंभू बुद्धिजीवी या कांग्रेसी क्यों नहीं एबीपी के कार्यक्रम ‘प्रधानमंत्री’ और फिर अभी प्रसारित ‘प्रधानमंत्री-II’ के खिलाफ कोर्ट गए या जाते हैं। इस डॉक्युमेंट्री धारावाहिक में तो साफ़-साफ यह दिखाया गया है कि नेहरू ने ही देश में मुस्लिम तुष्टीकरण का बीजारोपण किया जो अब अतिरेक की हद तक पहुँच गया है। पहले वाले कार्यक्रम के एक एपिसोड में साफ़ दिखाया-बताया गया है कि जब बंटवारे के वक्त दंगा हुआ और मुस्लिम आरोपी पकडे गए तो नेहरू ने पटेल से कहा कि इतने ही हिन्दुओं की गिरफ्तारी कराइए नहीं तो मुस्लिमों का हम पर विश्वास नहीं होगा। हद है तुष्टीकरण की राजनीति का। दूसरे कार्यक्रम के प्रथम एपीसोड में दिखाया गया कि अधिमिलन के वक्त नेहरू की दिलचस्पी कश्मीर को भारत में मिलाने से अधिक अपने मित्र शेख अब्दुल्ला को महाराजा हरी सिंह की कैद से बाहर निकाल कर सत्ताधीश बनाने में थी। समय पर सभी महापुरुषों के योगदान की समीक्षा की जाती है, इसमें गलत क्या है? इसे नेहरू को अपमानित करना बताना गलत है। कांग्रेस ने भी कई बार नैतिकताएं, मर्यादाएं तोड़ी हैं और इसकी अब समीक्षा करने को गलत ठहराना गलत होगा। ठीक इसके उलट, नरेंद्र मोदी के कार्य की समीक्षा भी होगी। हो रही है। और उनके फैसले में भी गलत-सही ढूंढा जाएगा, जिसे राष्ट्र के अपमान से जोड़ना गलत है।  

शाहीन बाग़ के संदर्भ में देखें तो क्या सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई की अति का यह दौर है? 02 फरवरी को शाहीन बाग़ में सीएए के खिलाफ धरना पर बैठे लोगों के खिलाफ स्थानीय लोग प्रदर्शन पर उतर गए। धरना का 50 दिन हो गया है। सवाल यह है कि अपनी मांग मनाने के लिए सड़क को बंधक बना लेना क्या उचित है? पुलिस क्यों नहीं उन्हें हटा पा रही है, या हटाना नहीं चाहती? क्यों सरकार को बात करनी चाहिए, या नहीं करनी चाहिए? क्या दिल्ली चुनाव की वजह से ही दोनों पक्ष अपनी राजनीति सेंक रहे हैं? यदि भाजपा चुनावी राजनीति के कारण इनको नहीं हटाना चाहती तो इनको हटने से रोक कौन रहा है? फिर स्वयंभू सेकुलर जमात ने समर्थन का ऐलान क्यों किया? दोनों पक्ष राजनीति कर रहे हैं, और सवाल एक दूसरे के खिलाफ उठा रहे हैं कि फलां शाहीन बाग़ पर राजनीति कर रहा है? जब रोजमर्रे के काम को लेकर लोग परेशान होंगे तो क्या वे प्रतिक्रया देने से खुद को रोक सकेंगे? और यदि क्रिया के विरुद्ध रोजमर्रे की समस्या से जमा गुस्सा या असंतोष प्रतिक्रया स्वरूप व्यक्त होगा तो उसे ‘सामान्य’ कैसे बनाए रखा जा सकता है? प्रतिक्रया तो प्राय: तीखी ही होती है। जामिया और शाहीन बाग़ में युवक द्वारा गोली चलाने की घटना को भी ऐसी ही प्रतिक्रया माना जा सकता है।
यह संकेत है कि देश में अराजक और कट्टर तत्व अब उठ खड़े होने लगे हैं। यह अतिरेक का जमाना हो चला है तो अतिरेक से ही इसका खात्मा होगा। सरकारें अपना हित देखेंगी, चाहे सरकार किसी की हो। नेता कोइ हो, वह तो अपना भला ही देखेगा। आज का यही कटु सत्य है। इसलिए जनता को ही आगे आना होगा। लेकिन निजी बनाम नक्सली सेना की तर्ज पर प्रतिक्रया देने सामने आना कितना उचित होगा? यह भी समय ही सही मूल्यांकन कर सकेगा। हम तो बस चर्चा कर सकते हैं। कर रहे हैं। बाकी जो जिनको देश अपने अनुसार बनाने की चिंता है उनको अपने अनुकूल करते हुए हम देख ही सकते हैं, फिलहाल। हालांकि समय उनका भी इतिहास लिखेगा, जो तटस्थ खड़े हैं, मूकदर्शक बनकर।