Wednesday 27 January 2016

फ्रांसिस बुकानन की दाउदनगर यात्रा....

धर्मवीर भारती 

आजादी से पहले कई अंगे्रज यात्रियों ने औरंगाबाद जिला (तात्कालिन गया जिला) की यात्रा की। जिसमें कनिघंम, विलियम डेनियल, फ्रांसिस बुकानन, हैमिल्टन का नाम महत्वपूर्ण है।
फ्रांसिस बुकानन एक चिकित्सक थे। बंगाल चिकित्सा  कोलकाता में उन्होंने चिड़ियाघर की स्थापना की। जो कलकत्ता (अब-कोलकाता) अलिपुर चिड़ियाघर के नाम से मशहुर है। बुकानन ने भारत में दो सर्वे किए। पहली बार 1800 ई. में मैसुर का एवं 1807 ई. से 1814 ई. तक बंगाल का ।
1811 से 1812 तक पटना - गया क्षेत्र का बैलगाड़ी से भ्रमण किया। जिनका संकलन ‘जर्नल आफ फ्रांसिस  बुकानन‘ में है। बुकानन ने अपनी यात्रा के दौरान रास्ते का नक्शा बनाया और सर्वे भी किया। स्थान को खास लैंडमार्क से निश्चित दूरी को दर्शाया गया है।
फ्रांसिस बुकानन और उनकी दाउदनगर यात्रा का नक्शा
बुकानन की यात्रा के दौरान लिखी गई डायरी में शब्दों का चयन गजब हैं। उन्होंने जो देखा वही लिखा। उनकी लेखनी से उस समय की सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था के बारे में पता चलता है। इस महत्वपूर्ण यात्रा में जो भी मिला उन्होंने उससे बातचीत की, जानकारी ली। बुकानन ने यात्रा के दौरान तय की गई दूरी का नक्शा बनाया जिसका स्केल है 16 मील= 1 ईंच ।
ॅ06 फरवरी 1812 को फ्रांसीस बुकानन बैलगाड़ी के माध्यम से गोह होते हुए देवहरा पहूंचे। रास्ते में देखा की महिलाएं लाल घाघरे में है और बैद्यनाथ की तरफ पुरूषों के साथ कांवर लेकर जा रही है। साथ में जोर-जोर से नारा लगा रही हंै। बैद्यनाथ की तरफ आने-जाने वाले रास्ते में काफी मंदिर, मुर्तियां एवं उनके अवशेष बिखरे पडे़ है। उन्होंने देवहरा के बाद पूनपून नदी पार किया । पूनपून नदी के बारे में उन्होंने लिखा है कि उसकी चैड़ाई 100 यार्ड है और गया क्षेत्र के किसी भी पानी के स्त्रोत से ज्यादा पानी है। पूनपून नदी की बह रही धारा 30 यार्ड चैड़ी और 12 से 18 इंच गहरी एवं चैड़ी है। उसमें बह रहा जल अत्यंत निर्मल है।
दोपहर को वे पूनपून नदी के किनारे स्थित छिन्नमस्तिका माता मंदिर पहंूचे। मंदिर ध्वस्त की गई पूरानी मंदिर के ईटों से पूनः निर्मित है। वास्तुकला असाधारण है। मंदिर के अंदर छिन्नमस्तिका माता की मुर्ति है। वह एक लेटे हुए पुरूष के शरीर के उपर नृत्य कर रही हैं और प्रणय मुद्रा में है। माता खून की प्यासी हुै। उन्होंने अपना सिर स्वयं काटा है। उनके गर्दन  से खुन की तीन धाराएं बह रही है। पहली धारा माता के कटे हुए मुख में दूसरी धारा हाथ में लिए हुए खप्पड़ में और तीसरी धारा जयकाल के मुख में। पास में ही गौरी शंकर की मुर्तियां है जो अमोद मुद्रा में है एक बैल की खुबसुरत प्रतिमाएं है जो तेल एवं सिंदुर से रंगी है। दो पुजारी बैठकर पुजा कर रहे हैं। मंदिर बहुत छोटा है इसके चारों ओर अनेकों शिवलिंग हंै और यहां सन्यासियों ने धूनी रमाई है।
07 फरवरी 1812 को वे देवहरा  से 10 मील की दूरी पर छोटे-छोटे गांव से होते हुए दाउदनगर पहूंचे। बुकानन लिखते है कि सड़कंे बैलगाड़ी के चलने लायक थीं और रास्ते के दोनों तरफ कई मंदिर हैं।
दाउदनगर में विश्राम किया और अपनी डायरी में रास्ते के विवरण को लिखा। 08 फरवरी 1812 को दाउदनगर  के निवासियों से मनोरा गांव की प्रसिद्धि के बारे में सूनी और चार  कोस की दूरी तय कर पहूंच गए। देखा की मनोरा गांव ऊंचाई पर बसा है। गांव के पूर्व दिशा में पूराना मंदिर है, जो घुमावदार है। दीवार बहुत मोटी है। मंदिर की बनावट अन्य मंदिरों की तुलना मंे अलग है। मंदिर में पद्मासन लगाए बुद्ध की प्रतिमा है। हाथ घुटनों पर है। दोनों पैर के पास पुजारी ब्राह्मण है। जिनको पाठक से संबोधित किया जाता है। मनोरा गांव के बारे में सारी जानकारियां दी। उन्होंने बताया की बुद्धपूजन उनकी संस्कृति नहीं थी। बुकानन अपने जर्नल में लिखते है कि वह जमीदार ब्राह्मण मुझसे डर भी रहा था। उसे लगा रहा था की मैं यहां की जमीन पर कब्जा करने आया हूं। जमींदार ब्राह्मण मुझे कोल राजा के घर के खंडहर दिखाने को कहा जिसने इस बुद्ध मंदिर को बनवाया था। वह मुझे मंदिर से 200 यार्ड उत्तर की ओर ले गया जहां ईटों का खंडहर बिखरा पड़ा था । खंडहर लगभग 20 यार्ड वर्गाकार था। जिसकी सतह पर दो शिवलिंग  स्थापित थे। पास में दो मुर्तियां थी। जिसमेें  एक छोडे वासुदेव की मुर्ति स्थानीय लोग  इसे महामा कहते है।
उसके बाद बुद्ध की बड़ी प्रतिमा को कलाकृति को निहारने लगा। मुर्तियां काफी सजी धजी थी। शिलालेख भी लिखा था। मनोरा से एक कास उत्तर की तरफ बोतारा ;इवनजंतंद्ध पहंूचा । स्थानीय लोगों ने बताया कि कोल राजा के खंडहर पड़े हैं। यह भी 20 यार्ड वर्गाकार एवं 20 फीट उंचा था। इसकी काफी सारी ईटें निकाली गई थी । मेरे अनुमान से यह पूजा का स्ािान रहा होगा, कारण खंडहर में देव गौरीशंकर की टुटी हुई प्रतिमाएं थी।
जिसे लोग सोका बोक्ता ;ेवांइवाजंद्ध कहते है। गांव के लोग इस खंहडर को चेरस कहते है। जो कोल राजाओं के राज्य के गवाह हैं। फिर मैं दाउदनगर वापस चला आया। 11 फरवरी 1812 को दाउदनगर से 3 कोस दूर पूर्व की ओर चला गया वहां पर एक गांव आया जिसका नाम ताल है। गांव काफी लंबा चैड़ा था दक्षिण की तरफ दलदल था । जिसे कोेल का निवास स्थान बताया जाता है। दीवारों की मिट्टियों से दलदल का निर्माण हो गया होगा। यहां की मिट्टियों में ईटों एवं वर्तन के अवशेष पाए गए लेकिन जांच से किसी बड़े किले या मंदिर नही थे।
दाउदनगर और हमीदगंज दो कस्बे हंै और दोनों के बीच में एक थाना भी है। हमीदनगर की गलियां सीधी एवं चैड़ी हंै लेकिन कुछ गलियां पतली एवं टेड़ी-मेढ़ी भी है। चैड़ी गलियां मुख्य मार्ग से निकलती हैं रास्ते में झोपड़ियां अधिक संख्या में है।
दाउदखान जिसके नाम से इस शहर का नाम रखा गया, ने एक संुदर किलाबंद सराया का निर्माण कराया । यह आयताकार है, ईट की दीवारों से निर्मित है। उसमें संुदर नक्काशी भी है। दाउद खां के वंशज सराय के जीर्ण-शीर्ण भाग में अपना आवास बनाकर रह रहे थे। बुकानन के दृष्टिकोण से यह गढ़़ रहा होगा लेकिन  अंग्रेजी सरकार के नजर से बचाने के लिए इसका प्रयोग सराय के रूप में किया जा रहा था। दाउद खां केे बेटे ने भी एक सराय का निर्माण कराया जो हामीद के नाम से है। इसमें लंबी एवं चैड़ी गलियां है और दोनों तरफ गेट भी है। यहां पर छोटा भवन भी है जिसे स्थानीय लोग इमामबाड़ा कहते हैं । इसका  रख-रखाव अच्छा है। गारे से निर्मित एक और भवन है। जिसे चैतेरा बोलते है। यह तीन मंजिला है, बढ़ते ऊंचाई में भवन शंकु के आकार का होते गया है।  यह भवन घेरा रहित है और छत पंचाकृति में है। जो देखने में खास नहीं है । इसका आकार जयपुर के प्रसिद्ध भवन के जैसा मेल खाता है। इमामबाड़ी के पास दो नवाबों के स्मारक बने है। जो कि छोटे और अस्त-व्यस्त है। दाउदनगर में मकानों की संख्या गया शहर से कम है लेकिन यहां के निर्मित मकान देश के अन्य साधारण लोगों के घरो के मुकाबले ज्यादा आरामदायक है। मकान मिट्टी  एवं खपड़े से निर्मित है।
12 फरवरी 1812 को दाउदनगर से 12 मील दूरी तय कर पहलेजा पहुंचा । बसंत ऋतु की पश्चिमी हवा के किनारे काफी हवा चल रही थी। कस्बे से चार मील दूर मैं शमशेर गंज (शमशेर नगर) पहुंचा । यहां बाजार एवं सराय है। जिसका निर्माण शमशेर खान ने करवाया था। बुकानन आगे लिखते है कि शमशेर खान को गांव के दक्षिण तरफ एक बगीचे में दफनाया गया था। यह बगीचा चारों तरफ से ईट से घेरा गया है।
शमशेर खान को स्थानीय लोग जबरदस्त खान के नाम से जानते थे। जिसका मतलब उसके हिंसक होने को दर्शाता है। शमशेर खान की शादी जोबन खान की बहन से हुई थी।  फ्रांसीस बुकानन  12 फरवरी को ही अगनुर  सराय  अरवल विक्रमपुर मनेर होते हुए पटना की ओर प्रस्थान कर गए। दाउदनगर का इतिहास को खोजने में लिखने में कई लेखकों ने कलम चलाई  जिसमें महत्पपूर्ण श्रेय युवा लेखक श्री उपेन्द्र कश्यप को जाता है। वे फ्रांसिस बुकानन हैंमेलटन के बाद दाउदनगर अनुमंडल के इतिहास को करीब 21 वर्षो से खोजने एवं जानने में लगे हैं। दाउदनगर के जिउतिया लोक उत्सव को आज तक उपेक्षित रखा गया है जो दुर्भाग्यपूर्ण है।

सिलौटा बखौरा से दाउदनगर भाया सोन नद की यात्रा


---उपेन्द्र कश्यप---9931852301
सिलौटा बखौरा। जी हां! सतरहवीं सदी में औरंगजेब के शासन काल में बसाये गये दाउदनगर का पूर्व नाम। शहर का नाम महाभारत कालीन श्री कृष्ण के अग्रज बलदाउ से जोड कर “दाउनगर” बताने की कोशिश की जाती है, जिसका कोई प्रमाण नहीं है। तर्क दिया जाता है कि बलदाउ मगध नरेश जरासंध के पास इसी रास्ते से गये थे। क्या वास्तव में ऐसा कोई मार्ग था, जो सिलौटा बखौरा से गुजरता था? माना जाता है कि भगवान बुद्ध बोधगया से सारनाथ जाने के क्रम में मनौरा में विश्राम किये थे। उस मार्ग में गोह, मनौरा और अन्छा परगना के गांव पडे होंगें। कौन जानता है? मनौरा क्षेत्र में इसी कारण बुद्ध का महत्व दिखता है। सोन के पानी का रंगएक रास्ता बताता हैं- जो राजगृह से सीधे पश्चिम चलकर वर्तमान सोनपुर गांव (जिला-गया) होते हुए उत्तर पश्चिम काशी की ओर चला जाता है। राज प्दच्युत होकर कोशल नरेश प्रसेनजित मगध नरेश अजातशत्रु से सहायता मांगने इसी मार्ग से राजगृह आया था। अजातशत्रु बिंबिसार का पुत्र था जिसने अपने पिता के बाद 492 ईसा पूर्व से 462 ई.पू. तक मगध पर शासन किया था। सोनपुर के निकट ही गया से एक और मार्ग आकर मिलता था। यह सम्मिलित मार्ग सोन पार कर कारुष के जंगलों से होकर काशी को चला जाता था। बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद गौतम इसी मार्ग से बोधगया से सारनाथ की ओर गये थे। जब मगध की राजधानी राजगृह से उठकर पाटलीपुत्र चली गई तब यह मार्ग बंद हुआ। ललित विस्तरसे अनुमान होता है कि पहली ईसा सदी तक यह मैदानी मार्ग लोगों की नजरों से पूरी तरह ओझल हो गया था। यानी दाउदनगर बनने के करीब साढे सोलह सौ साल पहले ही यह मार्ग बंद हो गया था। बाद में सतरहवीं सदी में जब फ्रांसीसी यात्री तावर्निये पश्चिमी काशी से रोहतास गढ के पास सोन पार कर पटना गया था तब वह सोन के किनारे किनारे दाउदनगर-अरवल होते हुए पटना पहुंचा था। यह इलाका (अंछा परगना) उस मार्ग में पडता था जिससे औरंगजेब कालीन भारत के पूर्वी इलाके (कोलकाता, मगध समेत बडा क्षेत्र) से राजस्व की वसूली कर दिल्ली दरबार को पहुंचाया जाता था। जब यह कहा जाता है कि अंछा पार जब गए भदोही तब जानो घर आये बटोहीतो यह स्पष्ट हो जाता है कि इस परगना के घनघोर जंगली क्षेत्र में राजस्व लूट लिया जाता था। तभी दाउद खां ने इस इलाके की किलाबन्दी की। हम जानते हैं कि सोनघाटी का विकासमान यातायात भी प्राकृतिक महत्व के कारण है, मानवीय महत्व के कारण नहीं। पाटलीपुत्रा (पटना) को छोडकर इस घाटी के प्राचीनतम ज्ञात नगर हैं धनपुर, सोहागपुर और बिलहरी। इनके बाद के मध्यकालीन नगर हैं- अगोरी, पलामू, रोहतासगढ, दाउदनगर तथा मनेर। इस कारण यह स्पष्ट है कि दाउदनगर मध्यकालीन (मुगलकालीन) नगर है। महत्वपूर्ण है कि सिलौटा बखोरा या दाउदनगर परगना अंछा का एक इलाका है। जमीन खरीद फरोख्त के दस्तावेजों में हाल तक हाल-मोकाम के बाद परगना अंछा ही लिखा जाता रहा है। अंछा, गोह और मनौरा तीन महत्वपूर्ण परगना मुगलकाल में थे। इन तीनों परगनाओं को औरंगजेब ने दाउद खां को पलामु फतह के बाद भेंट किया था। औरंगजेब ने सिपहसिलार दाउद खां को बिहार का नया सुबेदार नियुक्त किया था। उसने इलाका विस्तार का अभियान 1660 में प्रारंभ किया और जिला गया का कोठी, औरंगाबाद जिला का कुंडा, और देवगन राज को फतह कर पलामु भी फतह कर लिया था। इसके बाद ही दाउद खां ने सिलौटा बखौरा को आबाद किया और नगर बसाया। यहां 1662 में दाउद खां ने अपना किला बनाना प्रारंभ किया था जो 1672 में पूर्ण हो सका था।

दाउदनगर और उसके दक्षिण बारुण तक का इलाका घने जंगल से भरा हुआ था। 1766 में फ्रांसीसी अभियंता लुई फेलिक्स द ग्लास ने लिखा है कि इस इलाके में सर्वेक्षण करना नितांत असंभव है। अभेद्य वनाच्छादित प्रदेश है। न सडक है न पगडंडी ही। यानी यह इलाका तब भी दाउदनगर ही था घनघोर जंगल के बीच विकास के लिए संघर्ष करता हुआ एक कस्बा। जब बलदाउ (महाभारत काल) और बुद्ध (ढाई हजार साल पूर्व) थे तो यह इलाका था ही नहीं। ऐसे में बलदाउ से दाउग्राम होने की कोई संभावना बचती ही नहीं है। मगध के इस क्षेत्र में पिछले ढाई हजार सालों में मह्त्वपूर्ण भौगोलिक भूगर्भीय घटना रही है सोन भद्र नद के प्रवाह में परिवर्तन। विशेषज्ञ कहते हैं कि पुनपुन नदी जो  वर्तमान में फतुहा में गंगा में मिलती है वह नौबत पुर (पटना के दक्षिण-पश्चिम में) के आगे फतुहा में गंगा में मिलने तक बाल्मिकी कृत रामायणकालीन सोन के पाट का अनुसरण करती है। फल्गु जब गंगा के समानांतर बहना शुरु करती है तो धोवा नाम धारण करती है। सोन की धोवन होने की वजह से ही। सोन जो आज कोइलवर में गंगा में मिलता है उसका प्राचीन प्रवाह और पूरब दिशा से होता था और वर्तमान पटना शहर के बीच से होते हुए गंगा में मिलता था। पूरब में सोनउरा-सोनपुर-मोरहर-दरघा-धोवा-हरोहर से आगे पूरब को सोन कभी नहीं गया। इसी तरह वह पश्चिम में अपने वर्तमान पाट से कुछ पश्चिम तक जा कर रुक गया। बाणभटट की कादम्बरी की रचना सोन नद के किनारे स्थित प्रीतिकूट में की गयी थी। इसे स्वयं बाण ने अपना गृह बताया है। यह प्रीतिकूट कोई दूसरा नहीं बल्कि औरंगाबाद जिले के हसपुरा का पीरू गाँव ही है। ध्यान दें, हर्षवर्धन काल में सोन वर्तमान देवकुण्ड-रामपुर चाय होते हुए प्रवाहित होता था, जिसे दाउदनगर में बहकहा जाता है। हर्षवर्धन-वाणभट्ट काल (सातवीं सदी का पूर्वार्ध) में सोन का मार्ग हुआ करता था बह, जहां निरंतर पानी बहा करे। यहां इसे सोन का छाडन कहा जाता है। जे.डी.बेल्गर ने इसका उल्लेख किया है। उसके शब्दों में-अधिकारियों द्वारा प्राप्त सूचनाओं और अपने व्यक्तिगत अवलोकन निरुपण के आधार पर मेरा विचार है कि सुदूर अतीत में दाउदनगर के पास तराढ (तराड) गांव के निकट से सोन दक्षिण-पूरब को बहता था। देवकुंड या देवकुढ के टांड की बिल्कुल बगल से होता हुआ रामपुर चाइ और केयाल के सटे आगे बहता था। तराढ या तरार (आर तर या आर पर) का हिन्दुस्तानी में अर्थ होता है नदी की उंची कगार पर बसा हुआ। नाम से ही स्पष्ट है कि यह गांव पहले किसी नदी के उंचे तीर या तट पर बसा हुआ था। तराढ से बिल्कुल सटे और इसके तथा दाउदनगर के बीच में सोन नहर के लिए हाल की खुदाई से बिल्कुल साफ हो गया है कि यह इलाका पहले की किसी बडी नदी का पाट था। चाइ और केयाल में पानी के बडे-बडे गड्ढे आज भी मौजूद हैं-संभवत: वे प्राचीन सोन के अवशिष्ट हैं। देवकुंड में हर साल एक मेला लगता है। मैं समझता हूं कि केयाल से सोन उत्तर-पूरब को लगातार बहते उए सोनभदर गांव के पास पुनपुन का वर्तमान पाट धर लेता था।बेल्गर आगे लिखता है- यह स्पष्ट है कि सुदूर अतीत से बुद्ध के निर्वाणकाल तक मेरे इंगित किए हुए रास्ते से बहता हुआ सोन फतुहा के पास गंगा में मिल जाता था।बेल्गर के इस मत में भी संशोधन की गुंजाईश है। उन्नीसवीं सदी में पटना प्रमंडल का अभियंता रह चुका और सडकें बनवाने के सिलसिले में पटना- गया इलाकों के आभियांत्रिक लक्षणों का पूरा ज्ञान हासिल करने वाले एम.पी.बी.डुएल का मत है कि-सोन अरवल और दाउदनगर के बीच से अपना पाट छोडकर पटनावाली सडक पार करने के बाद मसौढी के उत्तर पुनपुन का पाट धर लेता था। वहां से उसका कुछ पानी फतुहा के निकट गंगा में मिल जाता था और कुछ पानी मैथवान (वर्तमान नाम-महतमैन) नदी से होकर मुंगेर की ओर बढा जाता था।कौल के मत को ध्यान रखते हुए डुएल के मत में इतना सुधार किया जा सकता है कि फतुहा के निकट का पानी गिरने (या, बेल्गर के मतानुसार, सोन-गंगा-संगम) की स्थिति बुद्धकालीन हो सकती है, बाल्मीकि कालीन नहीं। उनदिनों फतुहा के उत्तर का राघोपुर-दियारा टापू नहीं , मगध की तत्कालीन भूमि का एक खंड था। सोन के पाट परिवर्तन के इस विशद विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि महाभारत और बुद्ध काल में सिलौटा बखौरा के अस्तित्व में होने की धारणा उचित नहीं जान पडता है।

Tuesday 5 January 2016

तीन साल बाद मिला व्यापार मंडल को अध्यक्ष

फोटो-व्यापार मंडल कार्यालय

इतिहास के आइने में

उपेन्द्र कश्यप
 सोमवार को करीब तीन साल बाद व्यापार मंडल को कार्यकारी अध्यक्ष मिल गया। गत 04 अक्टूबर 2012 को सुदेश सिंह की हत्या के बाद से यह पद रिक्त था। नया कार्यकारी अध्यक्ष दीपक सिंह बने हैं। इस अवसर पर इस संस्था का इतिहास जानना दिलचस्प होगा। मुखिया और पूर्व व्यापार मंडल अध्यक्ष भगवान सिंह ने बताया कि सन 1978 में तरारी पंचायत के मुखिया बने बेलाढी निवासी दिनेश कुमार सिंह 1983 और 1986 में अध्यक्ष चुने गये थे। इनकी पुत्र वधु निर्मला सिन्हा अभी तरारी से मुखिया हैं। इनके पुत्र नागेन्द्र कुमार 2007 में व्यापार मंडल अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लडकर हार गये थे। सन 1989, 1992 और 1995 में लगातार तीन बार संसा के हीरालाल सिंह अध्यक्ष निर्वाचित हुए। वे अपने पंचायत संसा से मुखिया और बाजार समिति के अध्यक्ष भी रहे हैं। 1998 में गोरडीहां से मुखिया भगवान सिंह का मुकाबला सुदेश सिंह से हुआ। अध्यक्ष बन गये भगवान सिंह। सन 2001 में पुन: भगवान सिंह निर्विरोध चुन लिए गये। सन 2004 में कर्यकारिणी ने सुदेश सिंह को निर्विरोध अध्यक्ष चुन लिया। कोई चुनौती नहीं मिली। सन 2007 में नागेन्द्र सिंह और करमा पंचायत के मुखिया सुदेश सिंह के बीच मुकाबला हुआ। सुदेश सिंह जीत गये। इसके बद अंतिम चुनाव 2012 में हुआ तो सुदेश सिंह जीते। किंतु एक से डेढ माह के भीतर ही उनकी हत्या कर दी गयी। तब से यह पद रिक्त है।