Sunday 6 November 2022

पहली बार व्यापार मंडल अध्यक्ष की कुर्सी अंछा को मिली

 


फ़ोटो-व्यापार मंडल का नया-पुराना गोदाम

08 बार कुर्मी, 04 बार राजपूत व एक बार यादव जाति से बने अध्यक्ष

उपेंद्र कश्यप । दाउदनगर (औरंगाबाद)

व्यापार मंडल के अध्यक्ष पद का चुनाव परिणाम जब आया तो अंछा गांव उछल पड़ा। कारण स्पष्ट है कि पहली बार इस गांव के किसान नेता को यह कुर्सी मिली और जातीय संदर्भ में चौथी बार राजपूत जाति से कोई व्यक्ति अध्यक्ष बना। इसके पहले सिर्फ जिनोरिया निवासी सुदेश सिंह ही इस जाति से इस पद पर रहे हैं। वे तीन बार अध्यक्ष रहे हैं। 1983 के चुनाव से अब तक का इतिहास जो ज्ञात है, उसके अनुसार उप चुनाव और कार्यकारिणी द्वारा अध्यक्ष चुने जाने समेत 13 बार अध्यक्ष बने हैं। चुन्नू 12 वें अध्यक्ष बने थे। 13 वें अध्यक्ष राम बचन सिंह बने। व्यापार मंडल पर कुर्मी जाति का एकाधिकार रहा है। आठ बार कुर्मी जाति के नेता अध्यक्ष बने हैं। जबकि चार बार राजपूत और एक बार यादव जाति से। 1978 में तरारी से मुखिया बने बेलाढी निवासी दिनेश सिंह कुर्मी थे। वे 1983 और 1986 में व्यापार मंडल का अध्यक्ष बने। इनके बाद 1989, 1992 और 1995 में लगातार तीन बार संसा के हीरालाल सिंह अध्यक्ष बने। वे भी कुर्मी थे। उसी तरह 1998 और 2001 में गोरडीहां निवासी मुखिया रहे भगवान सिंह अध्यक्ष बने। वे भी कुर्मी हैं। 04 जनवरी 2016 को बेलाढी निवासी दीपक सिंह अध्यक्ष बने, वे भी कुर्मी थे। बताया कि कार्यकारिणी से उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष तब बनाया गया था। जब सुदेश सिंह की हत्या से यह कुर्सी खाली पड़ी हुई थी। बीच में सिर्फ सुदेश सिंह ही ऐसे सवर्ण नेता रहे जो तीन बार अध्यक्ष बने। वे जाति से राजपूत थे, जिनोरिया के निवासी। करमा पंचायत के मुखिया भी रहे हैं। 2004 में कार्यकारिणी ने उनको अध्यक्ष चुना था। 2007 में चुनाव जीत कर अध्यक्ष बने और फिर तीसरी बार अगस्त 2012 में अध्यक्ष बने थे। 04 अक्टूबर 2012 को हत्या होने तक वे इस पद पर रहे। सुदेश सिंह भी पिछड़ा और राजद की राजनीति करके ही व्यापार मंडल का अध्यक्ष बने थे। वर्ष 2017 में पहली बार हुआ था जब चुन्नू यादव व्यापार मंडल के अध्यक्ष बने। अब वे हार गए हैं और राम बचन सिंह अध्यक्ष बने हैं।


  



पिताजी की दुर्घटना के कारण हार : पूर्व अध्यक्ष

फोटो-चुन्नू यादव

पराजित व्यापार व्यापार मंडल अध्यक्ष चुन्नू यादव ने बताया कि सेवानिवृत्त शिक्षक पिता ललन सिंह के दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण उन्हें किसानों के बीच जाने का वक्त कम मिला। वे उनके इलाज में व्यस्त व तनावग्रस्त रहे। जब मिले भी तो तनावपूर्ण स्थिति में रहे। इसका प्रभाव पड़ा। बेहतर कार्यालय ना बनवा सकने का सपना जहां अधूरा रह गया वहीं जीतने के बाद किसानों को पहली बार बताया कि व्यापार मंडल धान भी खरीदता है। किसानों को लाभ पहुंचाया।



हार जीत की समीक्षा कर रहे नेता व समर्थक

 राम बचन सिंह व्यापार मंडल के अध्यक्ष बन गए और इस कुर्सी से विदा हो गए सुजीत कुमार सिंह उर्फ चुन्नू यादव। जिस चुन्नू यादव को पक्के तौर पर विजेता मान लिया गया था उनकी हार की वजह क्या है। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि लगभग 450 मतदाता अंछा गांव के हैं। इसके बाद बड़ी संख्या में लगभग 250 या इससे अधिक मतदाता करमा पंचायत के हैं। 125 से 150 तक मतदाता बेलवां, चौरी और नगर परिषद क्षेत्र में है। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि पिछले चुनाव में अंछा के मतदाता रामबचन सिंह के साथ खड़े न होकर चुन्नू यादव के साथ खड़े हुए थे। इस बार उन्होंने रामबचन सिंह का समर्थन किया और इस कारण चुनाव परिणाम प्रभावित हुआ। जो वर्ग प्रखंड प्रमुख के चुनाव के वक्त की गयी कथित जातीय राजनीति का आरोप लगा रहा था वह अब परिणाम से उत्साहित है। ऐसे समूह की मंशा पूरी हो गई है। जिसकी चर्चा इलाके में है। मण्डली से घिरे होने को भी लोग कारण बता रहे लेकिन इस तरह के आरोपको चुन्नू यादव ने खारिज कर दिया है।



Thursday 3 November 2022

आज मिलेगा व्यापार मंडल को 13 वां अध्यक्ष

 


मतदान बाद तुरन्त मतगणना व परिणाम आज

12 मतदान कर्मियों ने किया योगदान

2 पदों के लिए होना है चुनाव 10 पदों पर निर्विरोध निर्वाचन



दाऊदनगर व्यापार मंडल के अध्यक्ष का आज चुनाव होना है। 1983 में हुए पहले चुनाव से अब तक का 12 बार चुनाव हो चुका है। इसमें उप चुनाव और कार्यकारिणी द्वारा अध्यक्ष चुना जाना शामिल है।

शुक्रवार को व्यापार मंडल अध्यक्ष और प्रबंध कार्यकारिणी समिति के एक सदस्य के लिए मतदान होना है। प्रबन्ध कार्यकारिणी के लिए 12 पदों का चुनाव होता है। इसमें 10 का निर्विरोध चुनाव हो चुका है। प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रथम वर्ग से सदस्य के छह पदों में से पांच पदों के लिए निर्विरोध निर्वाचन हो चुका है। जबकि एक पद रिक्त रह गया है। द्वितीय वर्ग के सदस्य के छह पदों में से पांच पदों पर निर्विरोध निर्वाचन हो चुका है। अनुसूचित जाति वर्ग के सदस्य के एक पद के लिए मतदान होगा। जिसके लिए तीन उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं। चुनाव के लिए प्रशासनिक तैयारियां पूरी कर ली गई है। बताया गया कि 12 मतदानकर्मियों ने योगदान किया है। टेंट वगैरह लगा दिया गया है।



अध्यक्ष व सदस्य के लिए तीन-तीन प्रत्याशी

दाउदनगर व्यापार मंडल के चुनाव में 1959 मतदाता हैं। इसमें प्रथम वर्ग (सहकारी समितियां) से 15 व द्वितीय वर्ग (व्यक्तिगत किसान) से 1944 मतदाता हैं। प्रखंड कार्यालय परिसर में बनाए गए तीन मतदान केंद्रों पर कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच ये मतदान करेंगे। बीडीओ सह प्रखंड निर्वाचन पदाधिकारी योगेंद्र पासवान ने बताया कि चुनाव की सारी तैयारियां पूरी कर ली गई है। 

अध्यक्ष पद के लिए निवर्तमान अध्यक्ष सुजीत कुमार सिंह उर्फ चुन्नु यादव, पूर्व पैक्स अध्यक्ष रामवचन सिंह एवं राजद प्रखंड अध्यक्ष देवेंद्र कुमार सिंह मैदान में हैं। जबकि द्वितीय वर्ग से अनुसूचित जाति के एक पद के लिए तीन प्रत्याशी मैदान में है। इसके लिए विदेश राम, शम्भू पासवान एवं केदार पासवान के बीच मुकाबला है। 




प्रथम वर्ग का एक पद रह गया खाली 

सदस्य के बारह पदों में से 10 पर निर्विरोध निर्वाचन हुआ क्योंकि यहां दूसरे ने नामांकन ही नहीं किया। प्रथम वर्ग का एक पद अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। जिस पर कोई नामांकन नहीं हुआ। यह पद खाली ही रह गया और बाद में भी इस पर चुनाव कराया जाना संभव नहीं रहा। सूत्रों के अनुसार प्रथम वर्ग से दाउदनगर के सभी 15 पैक्स अध्यक्ष में से ही नामांकन कोई पैक्स अध्यक्ष कर सकते हैं। लेकिन अनुसूचित जाति का कोई पैक्स अध्यक्ष दाउदनगर प्रखंड में है ही नहीं। इसलिए अनुसूचित जाति के सदस्य पद के लिए कोई नामांकन हुआ ही नहीं। नियम यह है कि इस वर्ग के अनुसूचित पद पर 15 पैक्स अध्यक्ष में से ही किसी को नामांकन करना है। 




ये हुए निर्विरोध निर्वाचित

प्रथम वर्ग के पांच सदस्य पदों पर निर्विरोध निर्वाचन हुआ है। इसमें सुभाष यादव, जितेंद्र शर्मा, सहजानंद शर्मा, मृत्युंजय शर्मा एवं डेजी कुमारी शामिल हैं। 

द्वितीय वर्ग से अनुसूचित जाति के एक पद के लिए चुनाव होना है। शेष का।निर्विरोध निर्वाचन हुआ। द्वितीय वर्ग में महिला सामान्य से मालती देवी, अन्य सामान्य सीट से सुरेंद्र कुमार शर्मा एवं नागेद्र कुमार निर्विरोध निर्वाचित कर दिए गए। अति पिछड़ा पद से कमलेश राम और पिछड़ा वर्ग से सिकंदर मेहता निर्विरोध निर्वाचित हुए। इन पदों के विरुद्ध एक से अधिक नामांकन ही नहीं हुआ। 



खुद को दोहरा रहा व्यापार मंडल चुनाव का इतिहास




फ़ोटो-दैनिक जागरण में प्रकाशित रिपोर्ट

मैदान में चुन्नू यादव, रामबचन सिंह एवं देवेंद्र सिंह 

पांच साल पहले भी तीनों ही थे एक दूसरे के प्रतिद्वंदी

ना पहले था ना अब है कोई चौथा प्रत्याशी

 0 उपेंद्र कश्यप 0

इतिहास कभी-कभी खुद को दोहराता है। खासकर राजनीति में जब इतिहास का दुहराव होता दिखता है तो उसकी चर्चा व्यापक पैमाने पर होती है। दाउदनगर व्यापार मंडल अध्यक्ष के चुनाव को लेकर भी ऐसी ही स्थिति है। यह विचित्र संयोग है कि पांच साल पहले की लड़ाई का दुहराव फिर हो रहा है। पांच साल पहले जब चुनाव हुआ था तब भी जो तीन व्यक्ति प्रत्याशी बने थे वही तीन व्यक्ति इस बार भी प्रत्याशी हैं। न पिछली दफा कोई चौथा प्रत्याशी था और ना ही इस बार कोई चौथा व्यक्ति प्रत्याशी बना है। प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक पिछली दफा सुजीत कुमार उर्फ चुन्नू यादव को 481 मत मिले थे और चुनाव जीतकर वह व्यापार मंडल के अध्यक्ष बने। दूसरे स्थान पर अंछा के तत्कालीन पैक्स अध्यक्ष राम बचन सिंह रहे थे। जिनको 358 वोट मिला था और तीसरे स्थान पर देवेंद्र सिंह राजद प्रखंड अध्यक्ष रहे थे, जिनको 315 वोट मिला था। आंकड़ों के अनुसार विजेता ने अपने निकट प्रतिद्वंदी को 123 मत से हराया था। जबकि तीसरे स्थान पर रहे देवेंद्र सिंह पहले स्थान पर रहे सुजीत सिंह के मुकाबले 166 वोट कम ला सके थे। इस बार फिर तीनों प्रत्याशी हैं। तीनों की स्थिति लगभग एक सी है। सुजीत सिंह पैक्स अध्यक्ष के साथ व्यापार मंडल के निवर्तमान अध्यक्ष हैं। रामबचन सिंह अब पूर्व पैक्स अध्यक्ष और देवेंद्र सिंह राजद के अभी भी प्रखंड अध्यक्ष हैं। इतिहास खुद को दोहराता हुआ दिख रहा है। चुनाव परिणाम में भी इतिहास कहां खड़ा होगा यह शुक्रवार को तब स्पष्ट होगा जब मतदान के बाद मतगणना होगा और कौन बना व्यापार मंडल का अध्यक्ष यह साफ होगा।



मतदान व मतगणना की तैयारी पूरी

व्यापार मंडल चुनाव के लिए मतदान चार नवंबर को सुबह 7:00 बजे से 4:30 बजे तक होगा। मतदान केंद्र प्रखंड कार्यालय परिसर स्थित सभाकक्ष में और मनरेगा भवन में बनाया गया है। तीन मतदान केंद्र हैं। मतदान के तुरंत बाद प्रखंड कार्यालय सभाकक्ष में ही मतगणना का कार्य संपन्न होगा और इसी दिन परिणाम घोषित किया जाएगा। उम्मीद की जा रही है कि परिणाम आने तक रात हो जाएगी। मतदान व मतगणना की तैयारी लगभग पूरी कर ली गयी है।



दो श्रेणी के हैं कुल 1959 मतदाता 

प्रखंड विकास पदाधिकारी सह निर्वाचन पदाधिकारी योगेंद्र पासवान ने बताया कि व्यापार मंडल के लिए होने वाले चुनाव में कुल मतदाताओं की संख्या 1959 है। प्रथम वर्ग में 15 मतदाता हैं, जो आवश्यक रूप से पैक्स अध्यक्ष हैं। दूसरे वर्ग में 1944 मतदाता किसान वर्ग से हैं। बताया गया कि प्रखंड कार्यालय से मतदान केंद्र की दूरी लगभग 500 मीटर है। जारी सूचना के अनुसार अध्यक्ष का पद अनारक्षित है।


Tuesday 1 November 2022

व्यापार मंडल के चुनाव को लेकर बिछने लगी है गोटियां

  


प्रखंड प्रमुख चुनाव की राजनीति का पड़ेगा प्रभाव 


जातीय राजनीति में जाति साधने की जुगत


संवाद सहयोगी । दाउदनगर (औरंगाबाद)

व्यापार मंडल के अध्यक्ष का चुनाव होना है। शुक्रवार को इसके लिए मतदान होगा और इसी दिन चुनाव परिणाम भी घोषित हो जाएगा। चुनावी बिसात पर सब कोई मोहरा बिछाने में लगे हुए हैं। जातीय राजनीति में जाति साधने की जुगत की जा रही है। बड़ा प्रश्न यह है कि क्या प्रखंड प्रमुख के चुनाव को लेकर जिस तरह की जाती की राजनीति की गई थी उसका प्रभाव व्यापार मंडल के चुनाव पर भी पड़ेगा। इस पर राजनीतिक प्रेक्षकों की नजर है। व्यापार मंडल अध्यक्ष के चुनाव के लिए तीन प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं। निवर्तमान अध्यक्ष सुजीत कुमार सिंह उर्फ चुन्नू यादव, अंछा के पूर्व पैक्स अध्यक्ष रामबचन सिंह और राजद के प्रखंड अध्यक्ष देवेंद्र सिंह चुनाव मैदान में है। एक धड़ा ऐसा है जो यह कह रहा है कि इस बार प्रखंड प्रमुख के चुनाव में जिस तरह से जातीय राजनीति हुई उसका बदला लिया जाएगा। लेकिन इनकी ताकत कितनी है, यह चुनाव परिणाम बताएगा। फिलहाल सबकी नजर इस बात पर है कि इस बार कौन विजेता बनेगा। तीनों प्रत्याशी अपने-अपने दावा कर रहे हैं और किसानों मतदाताओं के बीच जा रहे हैं। सबके अपने दावे और वादे हैं, लेकिन अंतिम निर्णय तो मतदाताओं को ही लेना है और वह अपना फैसला शुक्रवार को सुनाएंगे।


किसानों का उत्थान की कोशिश : चुन्नू यादव 


 व्यापार मंडल के निवर्तमान अध्यक्ष सुजीत कुमार सिंह उर्फ चुन्नू यादव का कहना है कि किसानों के उत्थान के लिए उनको समर्थन मूल्य दिलाने का काम करेंगे। खाद की किल्लत खत्म कर सबको खाद उपलब्ध कराने का प्रयास करेंगे। दावा यह कि-चुनाव निश्चित जीत रहे हैं, क्योंकि किसानों के साथ रहकर उनकी हर समस्या का समाधान करने का हर संभव प्रयास किया। हर परिस्थिति में उनके साथ रहा। जाति वर्ग धर्म का भेदभाव कभी नहीं किया।


समस्या से त्रस्त किसान पक्ष में : राम बचन सिंह 


 रामबचन सिंह कहते हैं कि किसान पक्ष में है क्योंकि वह समस्या से ग्रस्त और त्रस्त हैं। खाद किसानों को नहीं मिला। धान की खरीदारी हुई तो पैसा नहीं मिला। किसी को पैसा मिला तो समय पर नहीं मिला। इसलिए जनता और किसान दोनों त्रस्त होकर समर्थन में हैं।



कोई दावा वादा नहीं : देवेंद्र सिंह 


राजद प्रखंड अध्यक्ष देवेंद्र सिंह कहते हैं कि उनका कोई दावा और वादा नहीं है, जैसा कि उनका स्वभाव है। अपने व्यक्तित्व, चरित्र और स्वभाव के बल पर जनता और किसानों का समर्थन मांग रहे हैं। पूरी उम्मीद है कि किसान समर्थन करेंगे।

Monday 10 October 2022

सजा भुगत रही अंगरेजी हुकूमत के विद्रोहियों की पीढियां

 

          


(घुमंतू जनजातियां - समाज का उपेक्षित वर्ग राजस्थानी ग्रंथागार से प्रकाशित पुस्तक में प्रकाशित मेरा आलेख)



  ० उपेंद्र कश्यप ० 



विश्व की यह पहली ऐसी घटना थी जब अंग्रेजों ने भारत के करीब 200 जन जातियों को जन्मना अपराधी घोषित कर दिया था। क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट 1871 के तहत जन्मजात अपराधी घोषित इन जातियों को आजाद भारत में 31 अगस्त 1952 को इस काले कानून से भारत सरकार ने मुक्त कर दिया तो इन्हें विमुक्त जनजातियां कही जाने लगी। इन जातियों के साथ जो दुर्भाग्य अंग्रेजी हुकूमत के समय जुड़ा था, उसे भारत सरकार ने जारी रखा और यह अब भी इनका पीछा नहीं छोड़ रहा। इन घुमन्तु-विमुक्त जन जातियों को जन्मजात अपराधी के कलंक से मुक्त करते हुए भारत सरकार ने नये काले कलंकित एक दुसरे क़ानून के खूंटे से इनको बांध दिया। अंग्रेजों के काले कानून से यह कम काला और कलंकित करने वाला कानून नहीं है। इसे आजाद भारत सरकार ने नाम दिया था- हैबिचुअल ओफेंडर्स एक्ट। यानी ‘जन्मजात अपराधी’ घोषित जातियों को आजादी मिली तो उनके लिए नया कलंक-शब्द दिया गया-‘आदतन अपराधी’। अर्थात 81 वर्ष बाद जब विमुक्त हुए तो दूसरे कम कलंकित खूंटे से इनको सदा के लिए बांध दिया गया। अंग्रेजों के काले क़ानून के कारण इन जातियों को रोज थाने में तीन से चार बार हाजिरी लगानी पड़ती थी। चितौडगढ़ जिला के कपासन के मेंदा कोलानी में कंजड जाति के लिए पुलिस चौकी 1934 में खोला गया था। जहां रोज समुदाय के लोगों को हाजरी देनी पड़ती थी। मांग कर खाने वाले इस समुदाय को पुलिस चोर बताती थी, कच्ची शराब बनाने-बेचने के आरोप में प्रताड़ित करती थी। यह हाल तक स्थिति रही। समाज इन जातियों को, जो प्राय: खानाबदोश या बंजारा माने-समझे जाते हैं को चोर समझता है, शक की निगाह से देखता है। इसके लिए समाज नहीं, वह सरकार और क़ानून जिम्मेदार है जो बच्चे को धरती पर आते ही उसे अपराधी मान लेता है। धीरे-धीरे भारतीय समाज ने भी इनको अपराधी जाति मान लिया। पुलिस में भर्ती होने वाले जवानों को इनके बारे में पढ़ाया जाने लगा। प्रशिक्षण के दौरान उन्हें बताया जाता था कि ये जनजातियां पारंपरिक तौर से अपराध करती आई हैं। नतीजा इनको हर जगह अपराधियों के तौर पर देखा जाने लगा। पुलिस को उनका शोषण करने के लिए अपार शक्तियां दे दी गईं। देशभर में लगभग 50 ऐसी बस्तियां बनाई गईं जिनमें इन जनजातियों को जेल की तरह कैद कर दिया गया। इन बस्तियों की चारदीवारी के बाहर हर वक्त पुलिस का पहरा लगता था। बस्ती के बच्चों से लेकर हर सदस्य को बाहर आते-जाते वक्त पुलिस को अनिवार्य रूप से सूचना देनी होती थी या उपस्थिति दर्ज करानी पड़ती थी। इनकी किस्मत का फैसला पुलिस अधिकारियों के हत्थे छोड़ दिया गया। इनको अदालतों में अपने ऊपर लगे आरोपों के विरुद्ध पैरवी का अधिकार नहीं दिया गया। इनकी बस्तियां खुले जेल की तरह थीं। बिजनौर के नजीबाबाद किले के भातुओं को सुधारने के नाम पर अनोखा प्रयोग हुआ। इसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप वहां से भागा साधारण सुल्ताना इतना बड़ा डाकू बन गया कि उसे पकड़ने के लिए तीन साल तक संयुक्त प्रांत की फ़ौज को लगाना पड़ा था। गौरतलब है कि 2008 में संसद में एक एप्रोप्रियेशन बिल पास हुआ था जिसमें विमुक्त जातियों के हालात पर सांसदों ने कुछ तथ्यात्मक बातें रखी थीं। तब ओडिशा के सांसद ब्रह्मानंद पांडा ने ज़िक्र किया था कि उनके निर्वाचन क्षेत्र का लोधा समुदाय जो वास्तव में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, उन्हें आज भी समाज एवं शासन सत्ता पर बैठे लोग जन्मजात अपराधी ही मानते हैं। इस सबके कारण ही स्थिति ऐसी बनी कि छोटे कस्बे या शहर में छोटा-मोटा कोइ अपराध होता है तो पुलिस तंबू गाड़ कर रहने वाले बंजारों, खानाबदोशों को पकड़ कर ले आती है और घटना की लीपापोती कर देती है। जब सरकार और उसकी व्यवस्था का व्यवहार अपने ही वंचित नागरिकों के साथ ऐसा होगा, तो स्वाभाविक है जनता भी उसी तरह ट्रीट करेगी।



विमुक्त का अर्थ है-आजाद, स्वतन्त्र। दूसरा अर्थ है-छोड़ा गया और तीसरा अर्थ है-कार्यभार से मुक्ति। इन तीनों अर्थों के निकष पर यदि परखें तो इन जातियों/जनजातियों के हिस्से क्या लगा, भारत की आजादी मिलने से। वे 31 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं, किन्तु तब भी ये कितने स्वतन्त्र हैं भला? जन्मजात और आदतन में बहुत महीन अंतर है। इनको न 1947 में आजादी मिली, न 1952 में। इनको 31 अगस्त 1952 को “जन्मजात अपराधी” के खूंटे से खोल कर “आदतन अपराधी” के खूंटे से बांध दिया गया। जिनके साथ अंग्रेजों ने और फिर भारत सरकार ने ऐसा किया। उनकी आबादी देश में 2011 की जनगणना के अनुसार 15 करोड़ और वर्तमान में 20 करोड़ होने का अनुमान है। इतनी बड़ी आबादी जो समाज के मुख्यधारा से अलग, हाशिये पर खड़ी होकर बिना गुनाह किये अपराधी मानी जाती है, इस कलंक के साथ जीना कितना दुष्कर है, इस पीड़ा को खुद कलंकित हो कर ही समझा जा सकता है। वो देहात में कहते हैं न-जाके न फटी बेवाई, वो का जाने पीर पराई। यही स्थिति इनके मामले में है। सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह थी, जो अंग्रेजों ने इनको जन्मजात अपराधी माना?  



वास्तव में इन जनजातियों ने अंग्रेजों के छक्के छुडा दिए थे। इतिहास की पुस्तकें यूं ही आरोपित नहीं हैं। इनके पन्नों पर जहां इन जन जातियों को तवज्जो मिलनी चाहिए थी, एक सिरे से इनकी चर्चा तक नदारद है। विमुक्त जनअधिकार संगठन कार्यकर्ता बीके लोधी ने लिखा है कि घुमन्तु जनजातियाँ वास्तव में भारतीय (हिन्दू) संस्कृति की रक्षक थीं और हैं। राज्यसभा में वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह ने योजना जनवरी 2014 में एक लेख-नयी रौशनी की तलाश में घुमंतू जनजातियाँ- में लिखा कि यह समुदाय युद्धकला में प्रवीण थीं। मुगलों को खूब छकाया तो सन 1857 की क्रान्ति में इनकी अग्रणी भूमिका रही है। भारत सरकार ने कुछ आयोग एवं कमेटियों का गठन किया था। उन्होंने भी यह माना था कि विमुक्त समुदाय को ब्रिटिश विद्रोह के कारण जन्मजात अपराधी के रूप में कलंकित होना पड़ा। विभिन्न शोधकर्ता, इतिहासकार एवं विद्वान स्पष्टत: यह स्वीकार करते हैं कि विमुक्त जातियां ब्रिटिश हुकूमत की सशस्त्र विद्रोही थीं, ये वास्तविक स्वातंत्र्य योद्धा थे। स्थानीय कृषक जातियों/जनजातियों ने अपने-अपने स्तर और क्षमता के अनुसार सशस्त्र विद्रोह किया था। तब 53 देशों में शासन करने वाले अंग्रेजों ने आखिर सिर्फ भारत में ही क्यों क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट लागू किया था? इसकी पृष्ठभूमि में अंग्रेज़ों की धारणा यह थी कि जिस तरह से भारत में जातिगत व्यवसाय होते हैं, जैसे लोहार का लड़का लोहार होता है, बढ़ई का लड़का बढ़ई, चिकित्सक का लड़का चिकित्सक, इसी तरह अपराधी की संतानें अपराधी ही होती हैं।

इसलिए भारत की लड़ाकू जातियों की संतानों को भी अनिवार्य रूप से जन्मजात अपराधी मान लिया गया था। बीके लोधी कहते हैं-यदि जीविका के लिए चोरी-चकारी जैसे छोटे अपराधों के कारण क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट लागू करना होता तो अंग्रेज़ों ने 1857 के पहले ही कर दिया होता। सच्चाई यह है कि 1857 की क्रांति विफल होने के पश्चात जब महारानी विक्टोरिया ने कंपनी सरकार से शासन अपने हाथ में ले लिया और उन तमाम विद्रोहियों को क्षमा कर दिया, जिन्होंने क्षमा याचना कर ली थी। किन्तु कुछ जन समुदाय ऐसे थे जो समझौता परस्ती को कायरता समझते थे और प्रतिशोधात्मक कार्रवाई के लिए सदैव तत्पर रहते थे। ऐसे ही समुदायों की पहचान करने के लिए क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट 1871 लागू किया गया था। हकीकत यह है कि यह वह समुदाय है जिसने हथियार बनाने, साजो-सामान जुटाने, सन्देश पहुंचाने से लेकर कई अन्य तरीके से क्रांतिकारियों की मदद की थी। इस समुदाय के बारे में कहा गया है कि ये प्राचीनकाल से व्यापार करते रहे हैं, तब से जब कारवां चला करता था। भारत में रेल आयी तो इनकी कारोबारी ताकत बढ़ी। बन्दरगाहों से सामानों को देश के अन्य भीतरी हिस्से तक पहुंचाने की जिम्मेदारी इनके कन्धों पर ही थी। लेकिन दुर्भाग्यवश इनको अंग्रेजों ने देशभक्ति और विद्रोह के कारण अपराधी जाति घोषित कर दिया और आजाद भारत की सरकार ने आदतन अपराधी।



न्याय की आग्रही विमुक्त जातियों की अजब न्याय व्यवस्था


अंग्रेजों द्वारा जन्मजात अपराधी का दर्जा देने और फिर भारत सरकार द्वारा आदतन अपराधी का दर्जा देने का दुर्भाग्य झेल रहा घुमंतू-विमुक्त समुदाय भारत सरकार से और अपने अपने राज्य सरकारों से न्याय का आग्रही है। इन जन जातियों को न्याय चाहिए ही चाहिए। किसी भी सभ्य समाज में यह स्वीकार्य अपेक्षा होती है। किन्तु दूसरी तरह इन जनजातियों की न्याय व्यवस्था विचित्र और उलझी हुई है। पारंपरिक व्यवस्था ही चली आ रही है। किसी तरह के मामले में कोइ थाना-पुलिस नहीं जाता। पंचायत बैठती है और दोनों पक्षों की बात सुन कर किसी निर्णय पर पहुँचती है। किसी विवाद पर पहले पंचायत बैठता है। विचार विमर्श के बाद सजा तय किया जाता है। कोइ विरोध नहीं कर सकता। सजा जो भी हो, जितना भी कठीण हो, आरोपित को स्वीकारना पड़ता ही है। चाहे आर्थिक दंड हो या शारीरिक प्रताड़ना का दंड। जिस जाति के स्त्री-पुरुष पर आरोप लगता है, उस जाति के अगल-बगल के कई गाँवों के स्वजातीय जुटते हैं। तब सुनवाई होती है। परखा जाता है कि आरोपित सही बोल रहा है या गलत। प्रेम प्रसंग, सेक्सुअल ह्रासमेंट, चोरी जैसे अपराध करने पर पंचायत जुटाए जाते हैं। हड़िया-बर्तन बन्द, मतलब घर खाना नहीं खाने, जाति से निकाल देने के फैसले होते हैं। आर्थिक सजा भी सुनाई जाती है। दोष सिद्ध होने पर सजा देने और मुक्त करने का प्रावधान है। आर्थिक दंड लगाया जाता है। छोटी गलती के लिए कम अर्थ दंड। एक लाख रुपये तक का भी दंड हो सकता है। जब स्थिति कठीन होती है, समझौता मुश्किल होता है, वाद-प्रतिवाद तीखा हो तो सजा के रूप बदल जाते हैं। यह तब होता है जब सजा सुनने वाला खुद को निर्दोष बताने पर अडिग हो। वह पंचायत के फैसले को खारिज करने के लिए स्वयं को निर्दोष बताता हो। ऐसे में उसकी परीक्षा ली जाती है। जैसे सीता ने अग्नि परीक्षा दिया था। आग में जले तो दोषी, न जले तो पतिव्रता, शुद्ध स्त्री। इस सन्दर्भ में तीन तरीके प्राय: आजमाए जाते हैं-




न्याय - सजा के तीन ख़ास तरीके:-

01-खनता लकड़ी काटने वाला एक औजार होता है। करीब सवा किलो वजन का। इसे एकदम गर्म लाल कर आरोपित के हाथ पर पीपल या आम का दो पत्ता रखकर उस पर रख दिया जाता है। इसके बाद वह व्यक्ति तीन बार एक ही स्थान पर परिक्रमा कर आगे सात कदम या डेग चलता है। शर्त यह है कि हाथ पर फोड़ा नहीं पड़ना चाहिए। यदि ऐसा हुआ तो हार माना जायेगा। इसके लिए एक पारंपरिक पूजा विधान है। खनता जिसके हाथ पर रखा जाना है उसको बिना सिला एक कपड़ा में ही रहना है। भूखे एक दिन पहले। ब्राह्मण पूजा कराएगा। वेद पुराण पढ़ने के लिए। मान्यता है कि ब्राह्मण के के वाणी से सब शुद्ध हो जाता है। खनता की पूजा करते हैं। कूल देवी की पूजा करते हैं। उनको ही साक्षी मान कर हाथ पर खनता रख दिया जाता है। कलयुग में कोई विश्वास नहीं करेगा लेकिन यहां यह सत्य माना जाता है।

  

02- आरोपित को नहर में पानी के अंदर तब तक रहना है जब तक दूसरा व्यक्ति 150 कदम आगे जा कार पीछे उसके पास न लौट जाए। यानी 300 कदम दूसरे व्यक्ति को चलना है और तब तक आरोपित को पानी के अन्दर रखना है। ऊपर दिखे तो दोषी माना जायेगा। यानी सांस रोके रखना है तब तक। 


03- एक किलो गर्म खौलते तेल में एक सिक्का डाला जाता है। उसे आरोपित को निकालना है। यदि हाथ जला तो दोष सिद्ध माना जायेगा। नहीं जला तो माना आजायेगा कि आरोपित का कथन ही सत्य है। वह निर्दोष है। 



न्याय-व्यवस्था-प्रणाली के इन तीन तरीकों को सभ्य समाज कतई स्वीकार नहीं करेगा, किन्तु इनकी यही अपनी परंपरागत न्याय व्यवस्था है। शायद न्याय-व्यवस्था के इस तरह न्याय-संगत न होने के कारण ही, कभी दहेज़-ह्त्या की घटना अंजाम नहीं पाती। खुले आसमान के नीचे, बिना दरवाजे वाली झुग्गियों में रहते हुए भी दुष्कर्म, छेड़खानी की घटना नहीं घटती है। फिर भी कोइ खारिज करता रहे, इनको परवाह नहीं। कोइ तर्क नहीं मानते ये। यह भी तो संभव है कि निर्दोष का हाथ गर्म दपदप खनता रखने से जल जाए, जल में स्वयं को डूबाये रखते वक्त मौत हो जाए, गर्म खौलते तेल से सिक्के निकालने से हाथ जल जाए? नहीं इस समाज में यह तर्क नहीं चलेगा। कोइ सुनने को तैयार नहीं। वास्तव में इनकी न्याय व्यवस्था-प्रणाली धार्मिक आस्था पर टिकी है, चमत्कार पर, और बिना चमत्कार धर्मं का वजूद नहीं होता। आपकी वे नहीं मान सकते, इसलिए हम ही मान लेते हैं कि, जो निर्दोष है वह, इनकी तय अग्नि परीक्षा से बिना जले बाहर निकला जाता होगा। खैर...


हिन्दू समाज की अन्य जातियों की तरह ही इन जातियों/ जन जातियों में शामिल हर एक जाति में सात कुड़ी या पारिछ होता है। सब एक दुसरे से स्वयं को ऊपर यानी श्रेष्ठ बताते हैं। जातीय सोपान एक तरह से गोल है। सब एक दुस्सरे से नीचे भी और ऊपर भी। यह गिनने वाले पर निर्भर करते है, गिनती कहाँ से किस ओर शुरू करता है। कुछ जातियां यथा- लाठौर या नट, गोही, कोडरिया, बको, कोंगड, तुरकेल, गुलाम, उमराहा, मणिकपुरिया, गदही, ओआण, छाता साथ रहते हुए भी अलहदा रहते हैं। सब एक दूसरे से खुद को व्यवसाय और खान-पान में अलगाव का आधार मानकर श्रेष्ठ और नीच का निर्धारण करते हैं। अन्य हिन्दू परंपराएं भी ये पालन करते हैं किन्तु मृत्यु बाद के संस्कार अलग हैं। वे शव को जलाते नहीं दफना देते हैं। बच्चा मरने पर जमीन में गाड़ दिया जाता है, जैसा प्राय: हिन्दू परिवार करता है। उम्रदराज की मौत पर जलाते नहीं दफनाते हैं। दशकर्म, भोज बरखी होता है। नेवता हँकारी देना पड़ता है। सबको बुलाना पड़ता है। अपने एक्शामता के अनुसार खाने-पीने की व्यवस्था जात-समाज-हित-नाता के लिए करना पड़ता है। जब कोइ बच्चा जन्म लेता है तो  सोहर गाते हैं लोग-

जुग जुग जियसु ललनवा, भवनवा के भाग जागल हो
ललना लाल होइहे, कुलवा के दीपक मनवा में आस लागल हो॥

आज के दिनवा सुहावन, रतिया लुभावन हो,
ललना दिदिया के होरिला जनमले, होरिलवा बडा सुन्दर हो॥

नकिया त हवे जैसे बाबुजी के,अंखिया ह माई के हो
ललन मुहवा ह चनवा सुरुजवा त सगरो अन्जोर भइले हो॥

सासु सुहागिन बड भागिन, अन धन लुटावेली हो
ललना दुअरा पे बाजेला बधइया, अन्गनवा उठे सोहर हो॥

नाची नाची गावेली बहिनिया, ललन के खेलावेली हो
ललना हंसी हंसी टिहुकी चलावेली, रस बरसावेली हो॥

जुग जुग जियसु ललनवा, भवनवा के भाग जागल हो
ललना लाल होइहे, कुलवा के दीपक मनवा में आस लागल हो॥


नाच गाना होता है। शंकर बाबा को पूजते हैं। छठी, सतईसा होता है। जिसके घर अधिक वर्ष पर पुत्र रत्न प्राप्त होता है, वहां तब खाने पीने का समारोह होता है। छह दिन प्रसूति से घर का कोइ बर्तन नहीं छुआयेगा। खाना अलग से फूल पीतल नहीं तो स्टील के बर्तन में उसे दिया जाता है। यहाँ भी हिन्दू परिवारों में प्रचलित रस्म का पालन दिखता है। 

शादी-विवाह में बाजा-नाच में कमी नहीं होती है। लोग अपनी क्षमता के अनुसार आयोजन-खर्च करते हैं। बनारस, जौनपुर, हरिहरगंज, दौलतपुर, संजीवन बिगहा, दूर-दूर तक रिश्तेदारी है। खाना पीना खूब होता है। दहेज़ का रोग यहाँ भी है-5 से 30 हजार रुपये तक दहेज नगदी दिया जाता है। बर्तन, मशाला जो सम्भव हो सका राजी खुशी से दिया जाता है। 

दहेज प्रताड़ना या हत्या की घटना कभी नहीं। वधु से मांगने, मारपीट करने, हत्या करने की घटना कभी नहीं घटी। यदि ऐसा हो जाए तो जिस लड़की के साथ घटना कारित किया गया, उसके परिजन, रिश्तेदार और जाति-समाज के लोग वर पक्ष के घर धावा बोल देते हैं। आरोपित के खिलाफ पंचायत लगेगी, कारर्वाई होगी, कभी-कभी यह हिंसक हो जाती है और आरोपित की हत्या तक कर दी जाती है। शिक्षा का इस समाज में घोर अभाव है। 200 की एक बस्ती में इस लेखक को इंटर फाइनल किया हुआ एकमात्र लड़का कुंदन मिला। उसकी दो बहन मैट्रिक, दो बहन इंटर और एक बहन बीए किये हुए है। बाकी सब के सब असाक्षर हैं। कुछ बच्चे समीप के विद्यालय जाने लगे हैं। लेकिन शिक्षा की उनकी यात्रा अभी शुरू हुई है, आजादी की आधी सदी बाद। कुंदन दो सांढ़, एक भैंसा, एक भैंस और एक कड़िया रखा है। गर्भ धारण करने की स्थिति में पहुंचे जानवर को पाल दिलाने का काम करता है। 200 या 300 रुपये तक एक जानवर मालिक से लेता है। अब यह धंधा सीमेन देने की मशीनी व्यवस्था से चौपट हो गया है। जिस धंधे में लाभ दिखा कर लेते हैं। खाद्यान मांगकर जमा कर लेते हैं। कटनी नहीं करते। कृषि कार्य नहीं करते। कुछ अपवाद भले हैं। अब आबादी का एक हिस्सा कृषि मजदूर बन रहा है। मणि बटैया पर खेती करने को कुछ लोग तैयार होने लगे हैं। ये जनजातियां सब दिन मांसाहार भोजन कर सकती हैं। हिन्दू परंपरा की तरह मंगलवार, गुरूवार या शुक्रवार, रविवार को मांसाहार न करने को यहाँ वर्जित नहीं है। एक्कादुका लोग शाकाहारी मिलेंगे। मुर्गा, मछली, खस्सी के अलावा भेड़ी, भेड़ा, गदहा, बिलार, सुअर भी खाने वाले लोग इन जातियों में हैं।  


अंत में बस इतना कि..

बाबू भैया कहकर, मांग खा कर जीने वाले ये लोग आरोपित हैं। जन्मजात या आदतन अपराधी नहीं। लोगों को नजरिया बदलना होगा। इनका प्रश्न है-अगर हमारी जाति अपराधी होती तो एक ही स्थान पर 60 बरस से कैसे रहती? सरकारी जमीन पर कैसे बसे रहते? लोग भगाने नहीं आते? समाज में घुल मिलकर रहते हैं। मांग चांग कर खाते हैं। भारत के हर हिस्से में घूम कर मांगते खाते हैं। इस प्रश्न का जवाब जो आप देंगे, वही हकीकत है।


#घुमंतू_विमुक्त_जनजातियां
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#Ghumantu_janjatia
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Saturday 16 July 2022

बिहार में उग्रवाद का क्या था मूल कारण

(नक्सल आंदोलन के बिहार में जन्म, विस्तार, प्रभाव, परिणाम और ख़ात्मे की पूरी यात्रा का विश्लेषण)

० उपेंद्र कश्यप ०

 लेखक- 'आंचलिक पत्रकारिता के तीन दशक

(श्रम, संघर्ष, अपेक्षा और परिवर्तन)'

और-"श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर" 


नक्सल आंदोलन बंगाल की देन थी। बंगाल के नक्सलबाड़ी से खेतिहर मजदूरों का, श्रमिकों का जो भू-पतियों और सत्ता के खिलाफ आक्रोश पनपा और एकजुट होकर जो आंदोलन शुरू हुआ था वह नक्सलबाड़ी आंदोलन के नाम से जाना गया। भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के नेता चारु मजूमदार और कानू सान्याल ने जो सशत्र विद्रोह 1967 में शुरू किया था, वही नक्सलबाड़ी आंदोलन बिहार में नक्सल आंदोलन कहा गया और बाद में नक्सलियों के व्यवहार में आये बदलाव ने उन्हें उग्रवादी की संज्ञा दिला दी। तब वे उद्देश्य से भटक गए। बिहार में इसके जन्म, विस्तार, प्रभाव, परिणाम और ख़ात्मे की पूरी यात्रा हिंसात्मक रही, नतीजा बिहार के खेत खलिहान लहू लुहान होते रहे और बुद्ध के शांति संदेश के लिए जाने गए बिहार को नई पहचान मिली-नरसंहारों का इलाका। इलाका विस्तार, इसके लिए खूनी संघर्ष, वर्ग शत्रु, जन अदालत, खस्सी-बकरी को जिस तरह कसाई रेत कर मारते हैं, उस तरह से आदमी जबह किये जाने लगे। हत्या के क्रूर से क्रूरतम तरीके अपनाए गए।


खैर, नक्सलबाड़ी आंदोलन के जनक पश्चिम बंगाल का ही एक हिस्सा हुआ करता था बिहार। तब उड़ीसा भी इसके साथ था। बाद में इसी बंगाल से उड़ीसा और बिहार अलग हुआ और बाद में बिहार से झारखंड अलग हुआ। बिहार (जब झारखंड साथ था) बंगाल की सीमा से सटा प्रदेश था। अब भी बिहार से बंगाल दूर नहीं है। बंगाल में जो आंदोलन 1970 के दशक में हो रहे थे, उसका कहीं ना कहीं बिहार के समाज पर मानसिक प्रभाव पड़ रहा था। और उससे प्रभावित हो रहे थे जमीन और मजदूरी के संघर्ष से जूझ रहे खेत मजदूर। वामपंथियों ने पीड़ितों को एकजुट किया। बाद में अति वामपंथी इसमें आए और फिर नक्सलवाद उग्रवाद के रूप में बदल गया। नतीजा यह हुआ कि न सिर्फ वर्गीय शत्रु की पहचान कर हत्या करने बल्कि आपसी गुटों में भी नक्सली संगठनों में हो रहा टकराव हत्या के सिलसिले को अंजाम देने लगा। इसमें एमसीसी (मार्क्सवादी कम्युनिस्ट सेंटर) पार्टी यूनिटी, मजदूर किसान संग्राम समिति जैसे अनेक संगठन एक ही उद्देश्य को लेकर साथ चलते हुए एक दूसरे की हत्या करने तक विरोध में खड़ा हो गए क्योंकि सत्ता और शक्ति व्यक्ति को निरंकुश महत्वाकांक्षी बना देता है, चाहे सत्ता छोटे इलाके की हो या बड़े इलाके की। इसीलिए हम देखते हैं कि बिहार में इलाका विस्तार के लिए हुए संघर्ष में काफी नक्सली मारे गए। 




बिहार में नक्सलवाद के उभार के बाद और पतन तक के दौर का करीब साढ़े तीन दशक का दौर रहा है। यदि इसमें देखें तो जहां बर्बादी की कहानी शुरू हुई वहां नक्सल पंथ पनपने लगा और अंततः सबको उग्रवाद की चपेट में ले लिया। वहीं जहां विकास की धारा बहनी शुरू होती है वहां नक्सलवाद खत्म होता चला जाता है। 70 के दशक में जब बिहार में नक्सल का प्रभाव पैर जमाना शुरू किया था बिहार में विकास की बात करनी भी लोगों के लिए मुश्किल होती थी। और जब नक्सल पंथ बिहार के संदर्भ में 1990 और 2000 के दशक तक तो चरम पर रहा। तो विकास शब्द से लोगों की इतनी दूरी बढ़ती चली गई कि बिहारी यह मान चुका था कि बिहार में विकास चांद मामू की तरह काफी दूर है जिसे देखा तो जा सकता है उसे जमीन पर नहीं उतारा जा सकता। विकास का नक्सलवाद से कितना गहरा नाता है यह इस संदर्भ में आप आकलन कर सकते हैं। धीरे-धीरे नक्सल पनपना शुरू हुआ और लालू राबड़ी काल में चरम पर पहुंचा। जिसके जवाब में रणवीर सेना ने भी हत्याओं का दौर शुरू किया और दर्जनों नरसंहार में सैकड़ों निर्दोष लोगों की हत्या कर दी गई। चाहे वह स्वर्ण की गर्दन कटे या दलित की खोपड़ी व गर्भ को उड़ा दिया जाए। मारे तो हमेशा निर्दोष लोग ही गए। कभी रणवीर सेना वालों ने नक्सली संगठनों के प्रमुख कर्ताधर्ताओं के विरुद्ध अपनी गोलियां नहीं बरसाई। बंदूक की नाली नहीं ताना। ठीक इसी तरह नक्सलियों के संगठनों द्वारा भी रणवीर सेना के प्रमुख कर्ताधर्ताओं के गर्दन नहीं काटे गए। दोनों पक्षों ने हमेशा निर्दोष लोगों को मारा। बर्बरता की ऐसी इंतहा हो चली थी कि आप कल्पना करिए कि रणवीर सेना के मुखिया ब्रह्मेश्वर मुखिया ने क्या कहा था। उन्होंने एक इंटरव्यू में खुलेआम कहा था कि हम निर्दोष दलितों की हत्या इसलिए करते हैं कि इन्हीं के हित की बात नक्सली संगठन करते हैं। नक्सली मिलते नहीं तो वे जिस के हित में खड़े हैं, हम उसकी हत्या कर देते हैं, ताकि कोई दूसरा नक्सली इस जमात से ना निकले। 



ध्यान रखें कि बिहार में रणवीर सेना बनाम नक्सली संगठनों के संघर्ष में जो नरसंहार हुए हैं उसमें पिछड़े नहीं मारे गए और जब पिछड़ा मारा गया तो बिहार में नरसंहार का सिलसिला थम गया। रणवीर सेना ने नक्सलियों के बड़े नेताओं और समर्थकों के ना मिलने के कारण दलितों की हत्या की बात कही थी, लेकिन पिछड़ी यादव जाति के नेतृत्व में संचालित माने गए मार्क्सवादी कम्युनिस्ट सेंटर एमसीसी ने सेनारी में 18 मार्च 1999 को 35 की हत्या गर्दन रेतकर बर्बरता पूर्वक कर दी, तो इसके जवाब में रणवीर सेना द्वारा सेनारी से कुछ दूरी पर स्थित औरंगाबाद जिले के मियांपुर में 16 जून 2000 की रात दबंग पिछड़ी यादव जाति के लोगों की चुन चुन कर हत्या कर दी। जिसमें अकेले यादव जाति के 26 व्यक्ति मारे गए। बाकी मारे गए आठ व्यक्ति भी दूसरी पिछड़ी जाति के ही थे। इसमें कोई दलित नहीं मारा गया और इसके बाद बिहार में नरसंहार का सिलसिला खत्म हो गया। रणवीर सेना के जन्म से पहले फरवरी 1980 से लेकर अप्रैल 1994 तक जो 13 नरसंहार हुए उसमें कुल 164 व्यक्ति मारे गए। जबकि रणवीर सेना के उभार के बाद अप्रैल 1995 से लेकर मियांपुर नरसंहार (16 जून 2000) तक कुल हुए 30 नरसंहार में 321 की हत्या हुई।

यहां यह मौजू सवाल है कि नरसंहारों के लिए बदनाम बिहार का आखिरी नरसंहार मियांपुर क्यों बना? क्या एमसीसी के आधार जाति वाले जब मारे गए तो एमसीसी मांद में घुस गई? रणवीर सेना के इस बात का समर्थन नहीं किया जा सकता की हत्या के बदले हत्या करना उचित है। यहां नक्सली जिसकी आवाज उठाते हैं उसकी हत्या की जाए, यह कभी भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन एक कहावत याद रखिए लोहे को लोहा ही काटता है। तो क्या यह माना जाए कि नक्सली संगठनों के नेताओं और कर्ताधर्ताओं के विरुद्ध जिस रणवीर सेना की बंदूकें गरजती नहीं थी उसने जब बंदूकों का मुंह नक्सली संगठनों में कुख्यात एमसीसी का लीडरशिप जिस जाति से आता था उस जाति के खिलाफ चुन चुन कर हत्या करने की आक्रामक रणनीति बनाई तो वह नरसंहारों के लिए अंतिम कील साबित हुई। हमेशा इस बात का आप ध्यान रखिए कि यही रणवीर सेना जब लक्ष्मणपुर बाथे पहुंचता है जहां 31 दिसंबर 1997 को भारतीय नक्सल आंदोलन इतिहास के सबसे बड़े नरसंहार को अंजाम देते हुए 61 निर्दोषों की हत्या करता है तो इस बात को सुनिश्चित करता है कि इसमें यादव जाति का कोई व्यक्ति ने मारा जाए। यह सुनिश्चित करने के लिए लक्ष्मणपुर बाथे में रणवीर सेना द्वारा यादवों के घर चिन्हित कर बाहर से कुंडी लगा दिया गया था, ताकि गोलियों की बौछार से होने वाली हड़बड़ी में कोई यादव जाति का व्यक्ति घर से बाहर न निकले और मारा न जाए। उपरोक्त बातों को जानने और समझने के बाद यह नहीं लगता कि कहीं ना कहीं बिहार में हो रहे नरसंहारों का सिलसिला सामाजिक बुनावट और विसंगतियों से अधिक राजनीतिक लाभ लेने के स्वार्थ के कारण चल रहा था? क्या राजनीतिक संरक्षण नहीं था? बिहार में यह खुला सच है कि चाहे रणवीर सेना हो चाहे कोई दूसरा नक्सली संगठन, सब को राजनीतिक सत्ता का संरक्षण प्राप्त रहा है और राजनीति जब जरूरत समझती थी नरसंहार हो जाता था। क्योंकि नरसंहार करने के लिए निर्देश तो राजनीति से ही दिया जाता था। बिहार में नरसंहारों का प्रमुख कारण राजनीति ही रही है। राजनीति ने नरसंहार को अपने नफा नुकसान को देखकर निर्देशित किया और उसका लाभ लिया। ठीक वैसे ही जैसे वोट बैंक की राजनीति होती है। बिहार में नरसंहारों की राजनीति भी रही है। 




यहां यह प्रश्न मौजू है कि नरसंहारों की स्थिति क्यों बनी? इसकी मूल वजह क्या है? राजनीति तो यहां भी है। राजनीति के कारण ही समाज में कई तरह की विसंगतियां पैदा हुई। जिसके कारण खेत किसान मजदूर एकजुट हुए और वह सामंत और जमींदारों के खिलाफ एकजुट होकर हल्ला बोलने की मुद्रा में खड़े हो गए। जिसका नेतृत्व करने वाले वामपंथी रहे। वामपंथियों ने गांव-गांव जाकर कृषि मजदूरों को एकजुट करना शुरू किया तब बिहार में तीन किलो बन मिलता था। यानी दिनभर की मजदूरी तीन सेर चावल मिलता था। यहां हमेशा ध्यान रखें कि एक किलो से कम की मात्रा एक सेर है। ऐसे में कृषि मजदूरों की हालत बहुत बदतर थी। स्थिति इतनी बदतर थी कि मझोले और बड़े जोतदार कृषि मजदूरों को मजदूरी देने के लिए प्रताड़ित करते थे। शाम के धुंधलके में या रात में कृषि मजदूरों को मजदूरी लेने के लिए अपनी पत्नी को भेजने के लिए कहते थे या कोई दूसरी महिला रिश्तेदार को। स्वाभाविक है कि शाम के धुंधलके में या रात के अंधेरे में एक पुरुष किसी स्त्री को क्यों बुलाता है? कृषि मजदूरों को जब वामपंथी संगठन एकजुट करने लगे तो उनके आत्मसम्मान को कुरेदा गया। और वामपंथियों ने उन्हें यह समझाया कि मजदूरी से ज्यादा जरूरी सम्मान होता है और इसी सम्मान को हासिल करने के लिए कृषि मजदूर एकजुट हुए और वे मझोले और बड़े जोतदारों के खिलाफ हल्ला बोल की मुद्रा में खड़े हो गए। बिहार सामंती सोच वाला प्रदेश रहा है यहां बड़ी मात्रा में ऐसे ऐसे जमींदार रहे हैं जिनकी सोच कबीलाई संस्कृति की तरह रही है। मजदूरों के साथ दुर्व्यवहार करना, उनकी बेटी, बहनों, बहुओं पर हवस की नजर गड़ा कर रखना, कम मजदूरी देना, बात बात पर मजदूरों को पीटना, भूखे रखना, पेड़ में बांधकर पीटना, समय पर पैसा ना देना, पैसे ब्याज पर लेने के लिए मजबूर करना, यह सब हथकंडे अपनाए जाते थे। बंधुआ मजदूर आखिर बिहार के इस इलाके में क्यों रहे? कारण, यही सामंती सोच थी। वामपंथी संगठन जब कृषि मजदूरों को संगठित करने लगे और बदलाव की इबारत जब लिखी जाने लगे तो सामंती सोच वाले बड़े-मंझोले जोतदार और किसान संघर्ष के मुद्रा में खड़े हो गए। वे टकराव में उतरे ना कि बदलाव को अंगीकार किया। नतीजा दोनों तरफ से हथियार उठने लगे। एक तरफ गोला बारूद वाले बंदूक थे तो दूसरी तरफ हंसिया, खुरपी और लाठी थे। सामंतों के सामने मुकाबले में खड़ा रहना मुश्किल हो गया। यह पीड़ा उन्हें सालती थी। तब तक दलितों का ही नरसंहार होता था। समाजशास्त्री आंद्रे बेंते ने अपना विचार व्यक्त करते हुए तब कहा था- 'बिहार में हरिजनों की हो रही हत्याएं बेशक दुखद है। पर साथ ही इस बात का संकेत है कि हरिजनों में चेतना तेजी से आ रही है। इनकी उभरती चेतना इनकी हत्या का कारण बन रही है' 


 और फिर वह दौर शुरू हुआ जब बड़े घरों से और पुलिस वालों से नक्सली संगठन हथियार लूट कर इकट्ठा करने लगे। जब कृषि मजदूरों की लड़ाई लड़ रहे हैं वामपंथी संगठनों के हाथ में भी गोला-बारूद और बंदूक आ गए तो फिर हिंसक झड़पें अधिक होने लगी। तब समाज शास्त्रियों ने इसे संज्ञा दी- बैलेंस ऑफ टेरर का, यानी आतंक का संतुलन। जब वामपंथी संगठन स्वर्ण की हत्या करते थे तो बदले में रणवीर सेना दलितों की हत्या करती थी। बदला लेने की इस प्रवृत्ति के कारण नरसंहारों का सिलसिला लंबे दौर तक चला। शायद इसीलिए बैलेंस और टेरर शब्द का जन्म हुआ। लेकिन यहां एक बात साफ-साफ समझ लें कि सवर्णों की हत्या का मतलब सवर्ण जातियां नहीं थी। सिर्फ एक जाती थी जिसे बिहार में भूमिहार कहा जाता है। रणवीर सेना इसी भूमिहार जाति का लीडर संगठन बन गया था। ठीक वैसे ही जैसे एमसीसी यादवों का संगठन माना गया था। इसी एमसीसी ने बिहार के औरंगाबाद जिले के दलेल चक बघौरा में 27 मई 1987 को 57 राजपूतों की हत्या कर दी थी। इसके पहले 11 राजपूतों की हत्या इसी औरंगाबाद जिला में एमसीसी ने की थी। इसके बाद किसी नरसंहार में राजपूत नहीं मारे गए। तब सत्येंद्र नारायण सिन्हा (जो 1989 में मुख्यमंत्री बने थे) समेत राजपूत नेताओं ने राजपूतों को संघर्ष में न जाने के लिए मनाया और बदली परिस्थिति को स्वीकार लिया। नतीजा दलेलचक बघौरा के बाद किसी नरसंहार में राजपूत नहीं मारे गए। जबकि भूमिहार रणबीर सेना के बैनर तले संघर्ष में रहे। भूमिहार संघर्ष करते रहे और नतीजा सवर्णों में सबसे अधिक नक्सलियों द्वारा उन्हीं की हत्या हुई। इसी रणवीर सेना ने मियांपुर को अंजाम दिया। आपसी खूनी संघर्ष की परिणति का चरम था मियांपुर। जिसके बाद नरसंहारों का सिलसिला खत्म हो गया। 




बिहार में 2000 में हुए मियांपुर नरसंहार के बाद भले ही नरसंहार ना हुए हों लेकिन नक्सलवाद खत्म नहीं हुआ। मारपीट, एकाधिक केव हत्या जैसी छिटपुट घटनाएं घटती रहती हैं, लेकिन नरसंहार नहीं। और जब 2005 में बिहार की सत्ता से लालू राबड़ी बेदखल कर दिए गए और नीतीश कुमार की सत्ता आई और उन्होंने विकास का जो रास्ता चुना तो बिहार से नक्सलवाद लगभग सफाया हो गया। अब बिहार में नक्सली सक्रियता है, ना नरसंहार है, ना बदले की कार्रवाई में कोई रणवीर सेना की गोलियां बरसती ही दिख रही हैं। मामला पूरी तरह शांत हो गया है। यह सब बताता है कि विकास से सोच भी बदली जा सकती है और संघर्ष को शांति के रास्ते पर भी ले जाया जा सकता है। इसलिए पहली, दूसरी और तीसरी जरूरत अगर समाज, प्रदेश और देश को है तो उसका नाम विकास है। विकास के जरिए हम तमाम समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। बुद्ध की धरती जब लहू लुहान होने के बावजूद शांत हो गई तो कुछ भी शांत हो सकता है। और अशांत रहते हुए विकास तो नहीं प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए जरूरी है कि बुद्ध की धरती मगध ने नरसंहारों के बाद शांति का जो संदेश दिया उसे पूरा देश और विश्व स्वीकार करे।


Sunday 3 July 2022

बिहार प्रदेश गठन से एक वर्ष पुराना है पानी से चलने वाला मिल



फोटो-सिपहां स्थित पानी से चलने वाला मिल






बिहार का गठन वर्ष 1911 में और मिल बना 1910 में


इंगलैण्ड से टरबाइन लाकर रखी औद्योगिकीकरण की नींव


बर्मिंघम शहर से मशीन ला रचा दो उद्यमियों ने इतिहास


उपेंद्र कश्यप । दाउदनगर (औरंगाबाद)


पानी से तेल निकालना कहावत है, जिसे दाउदनगर शहर ने सही साबित किया है। जी हां, इसने पानी से तेल निकालना न सिर्फ सीखाया बल्कि इसे अभी तक संचालित रखे हुए है। जिसे विस्तार देकर राज्य और केंद्र की सरकारें उर्जा के क्षेत्र में नया अध्याय लिख सकते हैं। यह सोच थी दो उद्यमियों की। वर्ष-1911 में सन्युक्त प्रांत से अलग बिहार राज्य के गठन से एक वर्ष पूर्व संगम साव रामचरण राम आयल एण्ड राइस मिल सिपहां में खोला गया था। औधोगिक घरानों को जहां शोषक माना जाता रहा है वहीं इस मिल की व्यवस्था आदर्श रही है। सोन नहर का निर्माण होने के बाद सन-1910 में नासरीगंज (रोहतास) के उधमी संगम साव एवं दाउदनगर के रामचरण राम ने पानी से चलने वाली मिल की स्थापना किया। याद करें ठीक उसी समय जब भारत में प्रथम इस्पात कारखाने की आधारशिला जमशेदपुर में रखी गई थी। यहां इंगलैण्ड के बर्मिंघम शहर से आए टरबाइन की दरातें जब पानी के बहाव से घुमी तो विकास का पहिया भी तेजी से घुमा। मालिकों में शामिल तीसरी पीढ़ी के डा. प्रकाश चन्द्रा को याद है कि इंगलैण्ड का ही बना हुआ एक गैस इंजन है जो क्रुड आयल से चलता था। यह अभी अवशेष के रूप में बचा हुआ है। इस मिल का गौरव और वैभव बड़े इलाके तक फैला था। रामसेवक प्रसाद की मृत्यु (वर्ष 1967) के बाद और बदले औद्योगिक परिवेश के कारण इस अनुठे उद्योग का पतन प्रारंभ हो गया। कभी 150 कर्मचारी यहां रहते थे। अब मात्र 22 हैं। । 48 की जगह अब सिर्फ 16 कोल्हू चलते हैं। राजस्थान के गंगापुर से प्रतिदिन एक ट्रक न्यूनतम राई आता था। अब सिर्फ महीने में एक ट्रक लाया जाता है। टरबाईन की तकनीकी खराबी दूर करने में काफी परेशानी होती है। कलकता तक जाकर मैकेनिक लाना पड़ता है। सरकार इस तरह के तकनीक को परिमार्जित कराकर नहरी क्षेत्रों में लघु उधोग के रूप में स्थापित करने हेतु अगर प्रोत्साहित करे तो जल-उर्जा से नहरी इलाकों में लघु-उधोग का जाल बिछाया जा सकता है। तरक्की की नई राह खुल सकती है। दूर्दशा से मुक्ति प्राप्त हो सकती है।


 सरसों नहीं राई की होती है पेराई

डा.प्रकाशचंद्रा कहते हैं कि शुद्धता व गुणवत्ता के लिए यहाँ सरसों नहीं राई की पेराई होती है। इसलिए बाजार में मूल्य प्रतिष्पर्धा करना मुश्किल होती है। बाजार में टिके रहने के लिए नई तकनीक इस्तेमाल करना होगा, स्पेलर बिठाना होगा किन्तु तब मील का मूल स्वरूप बदल जाएगा। पारिवारिक बंटवारा के कारण पूंजी निवेश को लेकर उदासीनता भी है।


 लगाए जा रहे हैं 12 कोल्हू-उदय शंकर

मील संस्थापकों की तीसरी पीढ़ी के डेहरी में रह रहे उदय शंकर बताते हैं कि यहां अब फिल्टर लगा दिया गया है। शुद्धता की गारंटी है। और 12 कोल्हू लगाए जा रहे हैं। दो को इंस्टाल कर दिया गया है। दस शीघ्र ही इंस्टाल किया जाएगा। इसके बाद आठ कोल्हू और लगाए जाएंगे। पुराने कोल्हू की क्षमता कम हो रही है। इसलिए नया लगाया जा रहा है।

अब भी 23 रुपये वार्षिक शुल्क देय

यहां एक मौसम में एक लाख मन सरसो तेल का उत्पादन होता था। नहर में पानी ग्यारह महीने उपलब्ध होता था। अंग्रेजों के शासन में गया के तत्कालीन कलक्टर से मिल मालिकों का जो समझौता हुआ था, उसके अनुसार मात्र 23 रूपये वार्षिक सिंचाई विभाग को बतौर कर देना पड़ता था। इसके बदले पानी आपूर्ति तथा नहर की उड़ाही की जिम्मेदारी सरकार की थी। यह बाधित है अब। पैसा उतना ही लगता है। सौ साल पुराना दर क्योंकि समझौता अनुसार जब तक यह उद्योग चलेगा पैसा नहीं बढ़ाया जा सकता। पानी अब चार महीने ही मिल पाता है।