Saturday 21 June 2014

एक दिवस पर दो महान आत्माओं की पूण्य तिथि



एक दिवस पर दो महान आत्माओं की पूण्य तिथि
उपेन्द्र कश्यप
इस रविवार का दिन खास है। दो महान आत्माओं की पूण्यतिथि है आज। जिनका अनुमन्डल के लिए अतुलनीय योगदान रहा है। अनुमंडल का इतिहास इनके बिना लिखा ही नहीं जा सकता है। स्व.रामपदारथ सिंह और स्व.रामविलास सिंह की पूण्यतिथि एक ही तिथि को होना मात्र संयोग ही कह सकते हैं। हालांकि दोनों ने दो पीढियों का प्रतिनिधित्व किया। यह भी संयोग ही है कि दोनों ने ओबरा, दाउदनगर और हसपुरा  क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। दोनों परिवारवाद और वंशवाद के आरोप से मुक्त रहे। परिवार के लिए संपत्ति अरजने के बदले समाज और क्षेत्र की चिंता अधिक की। दोनों महान आत्माओं की राजनीतिक यात्रा, विचारधारा और योगदानों पर चर्चा प्रासंगिक लगता है।
                              शिक्षक से संत बने पदारथ बाबू

जीवन काल में खोले दस स्कूल कालेज
दाउदनगर(औरंगाबाद) ओबरा के मरवतपुर गांव में सिंचार्इ विभाग के कर्मचारी गजाधर महतो के घर कब इस संत का जन्म हुआ, किसी को मालूम नहीं। इनके पुत्र मनोरंजन सिंह को भी जन्मतिथि नहीं सिर्फ पूण्य तिथि 22 जून 1975 मालूम है। लोकनायक जय प्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया की विचारधारा से खासे प्रभावित थे। उनकी शिक्षा मैट्रिक की गेट हार्इ स्कूल, औरंगाबाद से हुर्इ। जबकि इण्टर के बारे में कोर्इ जानकारी नहीं मिल सकी है। कोलकाता विश्वविधालय से उन्होंने बी.ए. की पढ़ार्इ पुरी की और 1934 या 35 से 1952 के प्रथम चुनाव के पहले तक दाउदनगर के सिफ्टन हार्इ स्कूल (अब अशोक इण्टर स्कूल) में शिक्षक के रूप में कार्यरत रहे। उत्कर्ष के अनुसार प्रथम चुनाव में संत पदारथ सिंह के नाम से नामांकन किया तो विरोधी परचा खारिज कराने में लग गये। तत्कालीन प्रधानाध्यापक जेमिनीकांत चटर्जी और ट्रेजरी अधिकारी ने गवाही दी कि राम पदारथ यादव ही राम पदारथ सिंह हैं। तब उनका परचा स्वीकृत हुआ। यादव से सिंह टाइटिल रखने की वजह तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक परिवेश का प्रभाव था। 1962 में औरंगाबाद लोकसभा सीट से चुनाव हार गये। 1969 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से ओबरा के विधायक बने। उन्होंने शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए कर्इ विधालय पिछड़ों के इलाके में खोला या खुलवाया। राष्ट्रीय उच्च विधालय, रामबाग, घटारो मध्य विधालय, तेंदुआ हरकेष हार्इ स्कूल, राष्ट्रीय मिडिल स्कूल दाउदनगर, मिडिल स्कूल इमामगंज, बेल, भरूब हार्इ स्कूल, जय प्रकाश मध्य विधालय सिरिस, जय प्रकाश हार्इ स्कूल सिरिस तथा रामलखन सिंह यादव महाविधालय औरंगाबाद उन्हीं की देन है। रामलखन सिंह यादव कालेज के वे संस्थापक सह सचिव भी रहे हैं। उन्होंने दस विधालय खोले या खुलवाया। मध्य से लेकर महाविधालय तक। नतीजा बौद्धिक विकास के साथ-साथ पिछड़ों की राजनीतिक और सामाजिक चेतना का विकास होने लगा।

                        शान-ओ-शौकत से दूर रहा गरीबों का मसीहा

कई बार बने मंत्री लेकिन रहे बेदाग
संवाद सहयोगी, दाउदनगर(औरंगाबाद) प्रखन्ड से दाउदनगर को अनुमंडल बनाने वाले रामविलास सिंह का जीवन सादगीपूर्ण रहा है। 1970 के दशक में जब सामाजिक बदलाव की इच्छायें करवट ले रही थीं तब 1967 में संयुक्त शोसलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार बनकर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़कर और मंत्री रहे रामनरेष सिंह के खिलाफ मात्र 23 मत से पराजित हुए थे रामविलास सिंह। प्रथम लडार्इ में ही चर्चा बटोरी, प्रतिष्ठा प्राप्त की और एक शक्तिशाली व्यकितत्व का जन्म हुआ। सन 1967 में संसोपा से जीते। 1972 में जीत राज्य सरकार में पुलिस राज्य मंत्री बने। तब दाऊदनगर विधानसभा क्षेत्र हसपुरा प्रखण्ड से जुडा था। सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ जब देश ने जयप्रकश नारायण के नेतृत्व में सन 1974 में 'दुसरी आजादी’ का विगुल फुका तो सत्ता के खिलाफ मंत्री रहते हुए उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। 1975 में दाऊदनगर विधानसभा क्षेत्र का वजूद खत्म हो गया। हसपुरा गोह विधानसभा क्षेत्र के साथ नया आकार पाया तो दाऊदनगर को ओबरा विधानसभा क्षेत्र के साथ नयी पहचान मिली। साल 1977 में नारायण सिंह यादव और सूर्य भान सिंह जैसे दिग्गजों को मात देकर विधायक बने और 1978 में ग्रामीण विकास मंत्री बने। साल 1985 और 1990 में पुन: विधायक बने। मंडल के नायक लालू प्रसाद यादव के प्रथम मंत्रीमण्डल में रामविलास बाबू कारा सहाय एवं पुर्नवास मंत्री बने। साल 1995 के चुनाव में उन्हें तत्कालिन सामाजिक आक्रोष के फलस्वरूप जन्में वामपंथी लहर में मात खानी पड़ी। जीवन के उतराद्र्ध में भी उन्होंने हार नहीं मानी और जब साल 2000 के चुनाव में राजद नेता लालू प्रसाद ने उन्हें प्रत्याशी नहीं बनाया तो निर्दलीय ही चुनाव लड़ने उतरे। इन्हें चुनाव चिहन मिला ताला चाभी। यह उनके राजनीतिक जीवन की आखरी लड़ार्इ बन गयी। 11 अप्रैल 2009 को जब इस लेखक ने इनसे बात की  तो उन्होंने अपनी बीमारी से ज्यादा वर्तमान राजनीति की बीमार सिथति की चर्चा की। राजनीति को सिद्धांतों के बदले स्वार्थ की राह चलते देखकर मर्माहत  रामविलास  बाबू आचार्य नरेन्द्र देव, एस एम जोषी, मधूलिमय, अटलविहारी बाजपेयी, कर्पुरी ठाकूर से प्रभावित रहे हैं। उनके राजनीतिक गुरू रामानंद तिवारी रहें हैं। 22 जून 2009 को अंतत: रामविलास बाबू पटना के एक नर्सिग होम में इलाज के क्रम में अपने अनुयायियों, समर्थको और शुभचिंतको को छोड कर सदा के लिए चलें गये।


Sunday 15 June 2014

आओ बचा लें पीढियों के लिए हम कूआं

               संस्कृति और सूचनाओं के आदान प्रदान का केंद्र थे कूएं


फोटो –   शहर के कूएं और उसकी स्थिति

खत्म हो रहा हैं कूओं का वजूद
भूगर्भीय जलस्तर का बढ रहा संकट
उपेन्द्र कश्यप 
 कूआं भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से महत्वपूर्ण स्थान रखता है। आज भी छठ जैसे पवित्र पर्व के लिए श्रद्धालु कूआं का ही जल पसन्द करते हैं। चापाकल समेत तमाम दूसरे विकल्प को कूआं जितना पवित्र नहीं माना जाता है क्योंकि उसमें चमडा या रबर जैसे तत्व इस्तेमाल किए जाते हैं। कूआं सामाजिक जीवन को भी काफी हद तक प्रभावित करता था। संस्कृति और समझ, पारिवारिक मेल जोल को बढावा देने, के साथ साथ कूआं से जुडे क्षेत्र की सूचना का आदान प्रदान का महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था। कूआं के महत्व को विद्या वर्मा का कूआं पर लिखे प्रतिबिंब के एक अंश से समझा जा सकता है- “वही कूआं है यह, जो ठिठुरती ठण्ड हो, या पसीना टपकती गर्मी, या कपडों के साथ शरीर को तर करती वर्षा हो, कभी घडा रखने तक को, जगह नही मिलती थी। कूंए पर पहुंचकर वृद्धा भी अपने को जवान समझती थी, प्रौढ भी खुद को शोख और अल्हड अनुभव करती थी। कौन सी ऐसी बात थी? कूंए पर-पानी खींचती और गागर में डालते समय आधा छलकाते| सीढी से उतरते समय गिरते गिरते बचना, अच्छा लगता था। फ़िर बतियाना-किसकी सगाई हो गई, किसकी सास ने बहु को मारा, किसकी किससे आँख मिचौली चल रही है।“ लेकिन आज शहर हो या गांव पानी भरने का काम कूओं से अब नहीं होता। कूएं देखने को नहीं मिलते। नतीजा स्त्रीयां घरों में कैद हो गईं। उनकी स्वच्छन्दता छिन गई। महल्ले की कौन कहे पास पडोस से दूर हो गईं। इससे संस्कृति और कई तरह के आवश्यक ज्ञान का प्रवाह पीढियों तक रुक गया। कूआं वैज्ञानिक कारणों से भी अन्य जल स्त्रोतों से बेहतर थे। इससे भूगर्भीय जल स्तर को बचाना आसान होता था। कूएं खत्म हुए तो भूगर्भीय जलस्तर भी रोजाना नीचे खिसकता जा रहा है। ऐसे में कूआं बचाने की कोई पहल नहीं होती है तो दुख होता है। आने वाली पीढियों के लिए हम जल संकट से जुझने का अवसर देकर अपराधबोध का बोझ लेकर धरती से जाएंगे। जल संकट धीरे धीरे बढता जा रहा है। यह हर कोई देख समझ और झेल रहा है, मगर कूआं बचाने की पहल कोई नहीं कर रहा।

                       निराशा के बीच उम्मीद की किरण


फोटो-  कूआं बचाने की अपील करता शंभु
निराशा के बीच उम्मीद की किरण
निराशा के बीच एक उम्मीद की किरण दिखाया है शंभु कुमार ने। एक्टिविस्ट बनने की कोशिश में लगा यह युवा इस बारे में सोचता है तो अन्धेरे में प्रकाश की एक टिमटिमाती किरण दिखाई पडती है। उसने नगर पंचायत के कार्यपालक पदाधिकारी को एक पत्र दे कर मांग किया है कि विकास के लिए जब भी योजनाएं बनाई जाए तो कूओं के पुनुरुद्धार की योजना पहली प्राथमिकता में ली जाए। शहर के कूओं की उडाही, मरम्मती और जीर्णोद्धार का कार्य किया जाए ताकि समाज को, आने वाली पीढियों को हम जल संकट से जुझने के लिए छोड देने का अपराधबोध लेकर धरती से न जाएं। कहा है कि इसका धार्मिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी महत्व है। कूओं की महिमा जगत जानता है। मालुम हो कि शहर के तमाम कूओं की स्थिति दयनीय है। हद यह कि कई कूओं का वजूद खत्म कर उसपर अब घर बना लिए गये हैं। कई कूएं अतिक्रमण की शिकार हैं। कई भरते जा रहे हैं।



Tuesday 10 June 2014

दादर की ऐतिहासिकता का प्रमाण है अरुण सतंभ


दादर की ऐतिहासिकता का प्रमाण है अरुण सतंभ


मिलते रहे हैं मौर्ययुगीन मृदभाड के अवशेष

गांव की चारों ओर कभी थे पोखर

उपेंद्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) : गोह प्रखंड का दादर गांव ऐतिहासिक है। इसका प्रमाण गांव में स्थित एक पोखर से मिलता है जिसमें भग्न अरुण स्तंभ है, इसे ग्रामीण सत्ययुगकालीन बताते हैं। म्यूजियम एशोसियेशन आफ इंडिया के सचिव डा.आनंद वर्धन की मानें तो इसके सूर्य स्तंभ होने की संभावना अधिक है। पोखर और स्तंभ की जांच किए जाने की आवश्यकता है। इससे इस क्षेत्र के इतिहास के नये सफात मिल सकते हैं। यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि यहां काले रंग के चमकदार मृदभाड़ों के अवशेष यदा कदा मिलते रहे हैं। इस पोखरा को सत्ययुगीन बताया जाता है। मृदभांड़ हो या फिर कभी कभी प्राप्त होने वाले मृदभाड़ के अवशेष उसे मौर्यकाल का पूर्व का माना जाता है। तालाब के मध्य स्थित अरुण स्तंभ और धारणा के अनुसार सूर्य लिंग प्राचीन वैदिक धर्म की परंपरा पर आधारित है। तथ्य है कि कोणार्क के सूर्य मन्दिर के बाहर भी अरुण स्तंभ स्थापित है। यह इलाका मगध क्षेत्र का भूभाग है जहां सूर्य की पूजा की वृहद परंपरा प्राचीन काल से रही है। प्रजनन की शक्ति की उपासना भी परंपरा में है। शिवलिंग की उपासना प्रचलन में है मगर सूर्य लिंग प्राय: देखने को नहीं मिलते। दादर के पोखरा स्थित इस स्तंभ को भी जनन शक्ति का प्रतीक माना जाता है। पोखर को प्रजनन की स्त्री शक्ति और पाषाण लिंग को पुरुष शक्ति का प्रतीक माना जाता है। देव सूर्य मन्दिर के पोखरा में भी अरुण स्तंभ है। गांव के उत्तर दिशा में यह पोखरा स्थित है। वास्तु शास्त्र में इस स्थान को जलदेवता के लिए निर्धारित किया गया है। ग्रामीण पूर्व मुखिया रामप्रवेश शर्मा, कमलेश शर्मा एवं वेंकटेश शर्मा का कहना है कि गांव के चारों ओर पोखरा हुआ करता था। अभी दक्षिण पश्चिम दिशा में एक पोखरा है जिसका इस्तेमाल चर्म शिल्प कार करते हैं। वैदिक परंपरा में ऐसी व्यवस्था थी। 1फिलहाल पोखरा जलकुंभी से भरा हुआ है। जल सूख जाने के कारण स्तंभ दिखता है। बरसात में जब जल इस जलाशय में भर जायेगा तो यह स्तंभ भी छुप जाता है। पोखरा की गहराई और चौड़ाई मिट्टी भर जाने के कारण संकुचित हो गया है। अतिक्रमण तो नहीं हुआ है मगर इसके पुनरुद्धार और पुरातात्विक परीक्षण की आवश्यकता है।उपेंद्र कश्यप,