Friday 24 August 2018

दाउदनगर के बाबा ने बनाया चौरासन मंदिर को ध्येय: विकास की लिखी गाथा


द्वारिकानाथ मिश्र के श्रम, समर्पण और तपस्या 
का फलाफल है चौरासन मंदिर की सुविधाएं
कैमूर पहाडी की चोटी पर स्थित है चौरासन मंदिर
1500 फीट की ऊँचाई पर बनवाया-कुआं, यात्री शेड
विकास के हर चिन्ह में है बाबा की मौजूदगी
मंदिर का सेवक, ग्रामीण सभी देते हैं सम्मान
उपेंद्र कश्यप । डेहरी
आदमी ठान ले तो क्या नहीं कर सकता? पहाड़ पर भी रहने लायक सुविधाएं उपलब्ध करा सकता है, जंगल में भी मंगलदायक स्थिति उत्पन्न कर सकता है। इसी का उदाहरण है-स्व.द्वारिकानाथ मिश्र और चौरासन मंदिर।  
अनुमंडल मुख्यालय से करीब 45 किलोमीटर दूर स्थित अकबरपुर (रोहतास) के ठीक सामने कैमूर पहाडी की चोटी पर स्थित चौरासन मंदिर में एक ब्लैक एंड ह्वाईट तस्वीर दिखती है। यह स्व.द्वारिकानाथ मिश्र की है। यहाँ वे कब पहुंचे, यह तारीख सही सही ज्ञात नहीं है। संभवत: 1982 में वे यहाँ पहुंचे। यहाँ आज जो कुछ भी है, वह इनके श्रम, कर्म, त्याग, तपस्या, समर्पण का फलाफल है। इनके आगमन से पूर्व यहाँ ठहरना कदापि संभव नहीं हुआ करता था। घना जंगल और पहाड़ पर न पीने के लिए पानी, न धुप-पानी से बचने के लिए कोइ छत नसीब था। यहाँ आने वाले पर्यटकों के पीने के लिए पानी की व्यवस्था उन्होंने किया था। जन सहयोग से एक कुआं बनवाया। जन और जन प्रतिनिधियों के सहयोग से बड़ा धर्मशाला बनवाया। इसके लिए तत्कालीन विधायक जवाहर प्रसाद से सहयोग भी लिया। इसके निर्माण से पूर्व कैमूर पहाड़ की चोटी पर स्थित चौरासन मंदिर से लेकर रोहतास किला तक के परिसर में कोइ ऐसा स्थान नहीं था, जिसके छत के नीचे बरसात, बर्फबारी या धुप से बचने के लिए शरण ले सकें पर्यटक। उनके प्रयास से ही यह सब हुआ है। इसी कारण जब चौरासन मंदिर पर सावन हो या अन्य कोई भी मौसम या अवसर, पर्यटक पहुँचते हैं तो उनके योगदान को सम्मान के नजरिये से यहाँ के पुजारी या व्यवस्थापक देखते हैं। करीब डेढ़ हजार फीट की ऊँचाई पर इतना सब करना कल भी आसान नहीं था और आज भी मुश्किल ही है। यहाँ के पुजारी स्थानीय निवासी मंगरू भगत कहते हैं कि- सब बाबा का ही देन है। बताया कि अब भी पीने के लिए पानी गाँव जा कर लाना पड़ता है। इसी से यहाँ आये पर्यटकों की प्यास बुझाते हैं। पर्यटकों को वे पानी-मिश्री देकर सन्नाटा और गर्मी के दिनों में आतिथ्य सत्कार का उदाहरण बनाते हैं।

विकास के लिए किया था अनशन
श्री मिश्र ने चौरासन मंदिर पर विकास के लिए अनशन किया था। हालांकि इनके दामाद औरंगाबाद जिला के दाउदनगर निवासी अश्विनी पाठक को इस शब्द पर आपत्ति है। वे इसे अनुष्ठान कहा जाना श्रेयष्कर मानते हैं। बताया कि सोन नद के किनारे कई दिन पीपल वृक्ष के नीचे भूखे बैठ गए। प्रशासनिक अधिकारी से लेकर आम-ओ-ख़ास लोग मिले। सवाल किया कि बाबा ऐसा क्यों कर रहे हैं? बोले-चौरासन पर जल स्त्रोत बनना चाहिए। भला कौन इसका विरोध करता? सबने सहमति दी और फिर पहाड़ की चोटी पर एक कुआं बना। यही एक मात्र जल स्त्रोत आज भी यहाँ है। हालांकि बदली परिस्थिति में मेले के वक्त बोतल बंद पानी भी अब मिलने लगा है।

कांवर यात्रा की परंपरा का किया प्रारंभ
चौरासन मंदिर पर इनके पूर्व कांवर यात्रा की परंपरा नहीं थी। द्वारिकानाथ मिश्र ने इसका प्रारंभ किया। सोनभद्र और गंगा (बक्सर) के जल से शिव के जलाभिषेक की परंपरा प्रारंभ किया। बोल बम के नारे गूंजने लगे। यह आज भी भर सावन गूंजता है। मेला लगता है। हजारों पर्यटक पहुंचते हैं। मंदिर में अखंड जोत जलने लगा। पर्यटक स्थल के रूप में इसने अपनी पहचान कायम की। अभी भर सावन यहाँ मेला सजता है, जगमग रहता है, श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।    

Thursday 23 August 2018

दाउदनगर भी आ चुके हैं स्व.अटल बिहारी वाजपेयी : अयूब अंसारी के माला डालने पर मारा था ताना

आपातकाल के बाद 1977 में दाउदनगर आये थे अटल बिहारी वाजपेयी

अयूब अंसारी ने पहनाया माला, फोटो खींचने पर वाजपेयी ने मारा ताना
 0 उपेंद्र कश्यप 0
गुरूवार को दाउदनगर के भखरुआं मोड़ से स्व.अटल बिहारी वाजपेयी की अस्थियाँ व्यवस्थित कलश यात्रा के रूप में गुज़री कुछ ऐसे पुराने लोग भी इस शहर में हैं, जो 41 वर्ष पुरानी स्मृतियों में खो गये सेवानिवृत शिक्षक बैजनाथ पाण्डेय को आज भी स्मरण है कि कैसे मो.अयूब अंसारी ने वाजपेयी जी को माला पहनाया था, और जब फोटो खींचने लगे तो, उन्होंने ताना मारा था बताया कि 1977 में जब आपातकाल हटा लिया गया तो मोरारजी भाई देसाई की अगुवाई वाली जनता पार्टी के साथ कांग्रेस (ओ), जनसंघ, भारतीय लोकदल और समाजवादी पार्टी ने मिलकर जनता पार्टी बनाया था उसी समय फ़रवरी महीना की किसी तारीख को 1977 में श्रद्धेय अटल बिहारी वापेयी जी दाउदनगर आये थे अभी गाजियाबाद रह रहे बैजनाथ पांडेय के पुत्र डॉ.विश्वकांत पाण्डेय ने अपने पिता के हवाले से बताया कि श्रद्धेय अटल बिहारी वापेयी को याद करते हुए उनका गला रुंध गया आँख डबडबा गए घटनाक्रम को चित्रित करने का प्रयास किया। बताया कि फ़रवरी महीना में तब न ज्यादा ठंढ था न ही ज्यादा गर्मी। अटल जी दाउदनगर के भखरुआं में पधारे थे। मोरारजी भाई देसाई का भी आने का कार्यकर्म था, किन्तु वे नहीं आ सके थे। श्रद्धेय अटल जी की अगुवाई के लिए तोरण द्वार बनवाया गया था। 
उस समय के दौर में जनसंघी लोग दाउदनगर से अशोक उच्च विद्यालय के शिझक पंडित शिवमूर्ति पांडेय की अगुवाई में जुटे थे। बलराम शर्मा (मौवारी) रामानंद सिंह (मखरा), मोहम्मद अयूब अंसारी (चूड़ी बाजार) के साथ दाउदनगर के दर्जनों वैश्य, स्वर्णकार, कांस्यकार हलुवाई समाज के साथ कई गण्यमान लोग उपस्थित हुए थे। उस समय का एक रोचक किस्सा याद करते हुए श्री पांडेय ने बताया। माला पहनाने की जिम्मेदारी मोहम्मद अयूब अंसारी ने ले रखा था। पहले उन्होंने माला पहनाया फिर फोटो खींचा महत्वपूर्ण है कि उस जमाने में श्री अंसारी फोटोग्राफी का काम भी खूब शौक से किया करते थे जब उन्होंने फोटों खींचा तो वापेयी जी ने कहा- अरे वाह! आप एक साथ दो -दो काम कर रहे हैं जी। माला भी पहना रहे हैं और फोटो भी ले रहे हैं। फोटो किसी दूसरे को लेने को बोल देते। उनकी वाक्यपटुता से अयूब अन्सारी जी तब झेंप गए थे। हाथ जोड़ कर पीछे हट गए। करीब आधे घंटे से भी कम समय के लिए दाउदनगर में रुक कर अपना अमिट छाप छोड़कर वापेयी जी वहाँ से तब चले गए थे आज उनकी जब अस्थि आने की सूचना वे सुने तो खुद को अपनी स्मृतियाँ साझा करने से रोक न सके

Thursday 16 August 2018

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बच्चों से पूछा-पीएम बनोगे? जवाब मिला-नहीं

पीएम ने कुर्सी की ओर इशारा कर पूछा-यहां आना चाहोगे? बच्चे बोले-नहीं। क्यों? जवाब मिला-अच्छे लोग राजनीति में नहीं आते।

फोटो-प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ विवेकानंद स्कूल के बच्चे निदेशक डॉ. शम्भू शरण सिंह के साथ

संसद पर हमले के बाद पहुंची बच्चों की पहली टीम से पूछा था अटल जी ने प्रश्न

दो समूह में विवेकानन्द मिशन स्कूल के मिले थे 28 बच्चे

उपेंद्र कश्यप । डेहरी
जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, तब वे अपने कक्ष में बच्चों के जवाब से चौंक गए थे। गजब का जवाब उनको बच्चों ने दिया था। ये बच्चे तब कक्षा 8, 9 या 10 में पढ़ते थे। अब सभी 28 बच्चे बड़े हो गए हैं, और विभिन्न क्षेत्रों में देश की सेवा कर रहे हैं। तब का एक वाकया संभव है उनको काफी समय तक स्मरण में रहा हो।
संसद पर हमले (13 दिसंबर 2001) के बाद दाउदनगर के विवेकानंद स्कूल ऑफ एजुकेशन की टोली लेकर निदेशक सह डालमियानगर महिला कॉलेज के इतिहास विभाग के प्रोफेसर (डॉ.) शम्भू शरण सिंह, मनोविज्ञान के प्रो.जयराम सिंह दिल्ली लोकसभा और राज्यसभा की कार्रवाई देखने गए थे। जिनके साथ उपेंद्र कश्यप, अशोक कुमार सिंह, प्रभात मिश्रा, विमल कुमार भी थे। डॉ.शम्भू शरण सिंह ने बताया-यादों में अब भी हैं वे पल। हम सब लोकसभा की कार्यवाही देख रहे थे। उसी वक़्त प्रधानमंत्री के कक्ष  से बुलावा आया और हुई एक अद्भुत विलक्षण व्यक्तित्व वाजपेयी जी से मुलाक़ात। गौरवपूर्ण पल। सबको प्रधानमंत्री कक्ष में ले जाया गया। ऑफर किया-बैठिये। खड़े होकर अपनी कुर्सी की ओर इशारा करते हुए पूछा-इस कुर्सी पर आना/ बैठना चाहोगे? बच्चे का जवाब था-नहीं सर। प्रति प्रश्न हुआ-क्यों? बच्चा तो जी बच्चा होता है। झेंप जरूर गया, किन्तु उत्तर के साथ-अच्छे लोग राजनीति में नहीं आते।

वाजपेयी के संवादों से प्रेरित होकर बने सफल बच्चों के अनुभव, उनकी ज़ुबानी:-

प्रधानमंत्री श्री वाजपेयी के साथ मिले-संवाद किये छः बच्चों के अनुभव -जो जब बच्चे थे, तब प्रधानमंत्री कक्ष में जाकर अटल बिहारी वाजपेयी जी से मिले थे। उनसे संवाद हुआ था, इनका। इसके बाद वे बड़े सफल हुए।

उनके कहे वाक्य से मिलती है प्रेरणा-शिव शंकर
कोल इंडिया लिमिटेड के एमटी शिवशंकर ने कहा- जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पूछा कि संसद आना पसंद करोगे? हंगामा देखने के बाद चूंकि छवि खराब बन गयी थी, तो हमने कहा-नहीं। इसके बाद उन्होंने कहा कि -'देश को बेहतर बनाने में आप सबकी भागीदारी महत्वपूर्ण है। हम ये भागीदारी हमें दिए हुए कार्य को ईमानदारी पूर्वक करके निभा सकते हैं।'
उनकी यह पंक्ति मेरी जिंदगी का मूलमंत्र बन गया। इससे दिए गए काम को करने के प्रति उत्साह बनाये रखता है। ईमानदार बनाये रखता है। काम छोटा हो या बड़ा, उस काम को ईमानदारी से निभाना ही सच्ची देश सेवा है।

सर ने ठहाका लगा कर चिंता व्यक्त किया:-धीरज कुमार

एकेडेमिया सोलुशन प्रा.लि. के मैनेजर धीरज कुमार ने कहा कि वाजपेयी जी के शाँत स्वभाव और सादगी से हम प्रभावित हुए थे। रुक रुक कर बात करने का अंदाज बताता है कि वो एक सुलझे हुए इंसान थे। सहपाठी द्वारा राजनीति में नहीं आने की बात सुन कर जोर से ठहाका लगाया और फिर चिंतित हो कर बोले कि- 'हमारी युवा पीढ़ी राजनीति को इतना बुरा मानती है कि वो राजनीति में आना पसंद नहीं करती। यह चिंता का विषय है औऱ हमें मंथन करने पे मजबूर करती है।' दो शब्द-
बिछड़े कुछ इस अदा से कि रुत ही बदल गई।
इक शख़्स सारे देश को वीरान कर गए।।

उनके ठहाके से मन की घबराहट खत्म हो गयी:-सीतेश वत्स

अग्रसेन मेडिकल कॉलेज हिसार में एमबीबीएस, एमएस डॉ.सीतेश वत्स ने कहा कि अटल जी से मिलना एक अदभुत क्षण था। एक बड़े व्यक्तित्व से मिलने की ख़ुशी भी थी और मन में कुछ घबराहट भी था। उनसे बातचीत के दौरान उनकी हँसी और ठहाकों ने सारा माहौल हल्का कर दिया। मन शांत हो गया। इतने सहजता से वे मिले थे। वह पल आज भी याद है। उनकी कविता की ये पंक्ति "क्या हार में क्या जीत में किंतित नहीं भयभीत मैं" अपने आप में उनके व्यक्तित्व की सारी कहानी कहती है। उनकी कविताएं और उनके शब्द हमारे लिए प्रेरणा के स्रोत रहेंगें।

उनके पथ चलने का लिया संकल्प:-अवनीश कुमार
यूके इंडस्ट्रीज फरीदाबाद में क्यू ए इंजीनियर सह इनकमिंग क्वालिटी हेड अवनीश कुमार ने कहा कि उनसे मिलने के बाद सोच और विकसित हुआ। बालमन था। हमने उनके पथ चलने का संकल्प लिया। आज उनकी प्रेरणा से ही सफल हुए हैं। जब मिले थे तब सिर्फ हम सब एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें जानते थे। उनके प्रतिभा और उनके व्यक्तित्व से हम सब अनभिज्ञ थे। मिलने के बाद हम सब ने उन्हें अलग अलग माध्यम से जाना। किसी भी व्यक्ति के सामान्य जीवन को प्रेरणास्रोत बनाने का वे ज्वलंत उदाहरण हैं। वे अभिभावक होने के साथ साथ हम सब के आदर्श भी है। उनके पथचिन्हों पर अपनी जिंदगी की गाड़ी दौड़े ये हमारा संकल्प है।

क्षितिज सा अनन्त और समुद्र से शांत थे अटल:-प्रो.मुरारी
आकाश एजुकेशन सर्विस लि. पटना के वनस्पति विज्ञान के लेक्चरर और डेहरी निवासी मुरारी सिंह ने कहा कि-
एक हंसी अभी भी मेरे ज़ेहन में गूंजती है...हाँ.... एक खुले दिल से तब के माननीय प्रधानमंत्री अटल जी की हँसी। क्षितिज के भाँति अनंत... समुद्र के भांति शांत..गंगा की तरह पवित्र। फिर भी अत्यंत ही सरल, प्रेरणादायी..... हाँ ऐसे थे अपने पूर्व प्रधानमंत्री माननीय अटल बिहारी वाजपेयी जी।

120 सेकेंड वाजपेयी के साथ:-आलोक सिंह
अर्जेंटीना में मेडिटरेनीयन शिपिंग कंपनी(MSC) में सीनियर मरीन इंजीनियर के पद पर कार्यरत आलोक सिंह कहते हैं-
भारतवर्ष के प्रधानमंत्री होकर भी बच्चों से यूं संजीदगी से मिलना और बातें करना, घुटनों के हालिया ऑपरेशन के दर्द के बावजूद, प्रोटोकॉल से हटकर खुद खड़े हो हम बच्चों के साथ फोटो के लिए खड़े हो जाना, हमसे हमारे दिल्ली भ्रमण के बारे में पूछना, वाजपेयी जी के व्यक्तित्व की सरलता और गहराई हम सब के लिए आदर्श हैं। उनकी सादगी और मृदुल स्वभाव को मैं अपने जीवन में उतारना चाहता रहा। उस 120 सेकेंड की मुलाकात ने मेरे चरित्र को सुदृढ करने के लिए 120 वर्षों का 'जीवनवायु' दिया था।

Tuesday 14 August 2018

अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में रोहतासगढ़ की थी भूमिका

436 वर्ष पूर्व मुगल बादशाह अकबर के शासन काल 1582 में बनी थी “रोहतास सरकार”

तब सात परगनों के सूबे रोहतास में था शाहाबाद, गया, पलामू, बनारस शामिल

पूर्वी भारत की राजधानी हुआ करता था पहाड़ पर स्थित “रोहतास गढ़” किला

उपेंद्र कश्यप । डेहरी

स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में रोहतासगढ़ की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही है। यहां से कई प्रदेशों के शासन तंत्र को चलाया गया है। 436
साल पहले यहाँ ‘रोहतास सरकार’ का गठन हुआ था। इसमें सात परगने शामिल थे। मुख्यालय या राजधानी रोहतासगढ़ किला बना था। यहाँ से पूर्वी भारत पर नियंत्रण रखा जाता था। मानसिंह के समय यहाँ से बिहार, झारखंड, उड़ीसा, बंगाल, त्रिपुरा तक शासन किया जाता था। इस बात का उल्लेख रोहतासगढ़ का इतिहास किताब में डॉ.श्याम सुन्दर तिवारी और जो इतिहास में नहीं है-में राकेश कुमार सिंह ने किया है। इस सन्दर्भ में देखें तो रोहतास का इतिहास गौरवशाली रहा है। किताब में उल्लेखित तथ्य के अनुसार मुगल बादशाह अकबर के शासन काल 1582 में ‘रोहतास सरकार’ थी, जिसमें सासाराम, चैनपुर के साथ सोन के दक्षिण-पूर्वी भाग के परगने-जपला, बेलौन्जा, सिरिस और कुटुम्बा शामिल थे। रोहतास पहाडी के नीचे रोहतास के दारोगा मलिक विसाल के परिवार के मकबरे हैं। यहाँ प्राप्त शिलालेख के अनुसार जब नवाब इखलास खान किलेदार था तब, उसे मकराइन परगना, सिरिस, कुटुम्बा, से बनारस तक के क्षेत्रों की फौजदारी भी प्राप्त थी। वह चाँद (चैनपुर), मगरूर, तिलौथु, अकबरपुर, बेलौन्जा, विजयगढ़ ( नजीब नगर), और जपला का जागीरदार भी था। यानी उसके क्षेत्र में शाहाबाद, गया, पलामू और बनारस शामिल थे।

गौरवबोध: बहुत कुछ ज्ञात के बाद भी और खोजना शेष:-
फोटो-रामचंद्र प्रसाद कश्यप
रोहितेश्वर धाम सेवा समिति के संयोजक रामचंद्र प्रसाद कश्यप ने कहा कि रोहतासगढ़ और इस इलाके के इतिहास से स्थानीय जनों को गौरवबोध का अहसास होता है। समिति के अध्य्क्ष कृष्णा सिंह यादव, सचिव मृत्युंजय सिंह, कोषाध्यक्ष सुभाष सिंह, संरक्षक- रघुवीर प्रसाद ने बताया कि रोहतासगढ़ का शासन बहुत दूर-दूर तक था। यहाँ से कई प्रदेशों के शासन तंत्र को संभाला जाता था। इसका हजारों साल का ज्ञात और किताबों में दर्ज इतिहास है। किसी भी गाँव, कस्बे या इलाके के लिए अपना ज्ञात इतिहास होना गौरव की अनुभूति देता है। बिहार के राजनीतिक और सामाजिक ही नहीं भू-जैव-वैज्ञानिक इतिहास में रोहतास के बिना नहीं लिखा जा सकता है। पाषाणकालीन, शिलालेख युगीन, और बहुत हद तक गुफाकालीन इतिहास भी इस रोहतासगढ़ से संबद्ध है। बताया कि अभी रोहतासगढ़ का पूरा इतिहास सामने आना शेष है। यहीं से आदिवासी जन भारत के विविध प्रान्तों में गए। रोहतासगढ़ पर काफी काम तो हुआ है, किन्तु अभी और काम किया जाना शेष है।

दो बार गठित हुआ जिला रोहतास:-

रोहतास जैसा दो बार जिला गठित होने का सौभाग्य शायद ही किसी को होगा, यदि मिला भी होगा तो काफी कम संख्या इसकी होगी। स्वतन्त्र भारत में 10 नवम्बर 1972 को रोहतास जिला का गठन किया गया था। इससे 188 साल पहले ही
वर्ष 1784 में तीन परगना को मिलाकर रोहतास जिला बनाए जाने का उल्लेख ऐतिहासिक दस्तावेज में है। शाहाबाद गजेटियर में 1784 में रोहतास जिला स्थापित होने का उल्लेख है। उसके अनुसार रोहतास, सासाराम व चैनपुर परगनों को मिलाकर जिला बनाया गया था।

रोहतास का औरंगजेब ने किया था पुनर्गठन:-  

इतिहास के अनुसार 25 फरवरी 1702 को वजीर खां के पुत्र अब्दुल कादिर को रोहतास का किलेदार नियुक्त किया गया। वर्ष 1764 में मीर कासिम को बक्सर युद्ध में अंग्रेजों से पराजय मिली तो यह क्षेत्र अंग्रेजों के हाथ आ गया। वर्ष 1774 में अंग्रेज कप्तान थामस गोडार्ड ने रोहतास गढ़ को अपने कब्जे में लिया और उसे तहस-नहस कर दिया। अकबर के समय से चली आ रही रोहतास सरकार में औरंगजेब ने कई परिवर्तन किये थे। और फिर सातों परगना को उसने पुनगर्ठित किया था।

Saturday 4 August 2018

मुद्रा योजना को सफल बनाने के लिए होगी ‘मुद्रा मित्र कमिटी’ गठित


दस्तावेज सही हो तो मुद्रा ऋण देने से इंकार नहीं कर सकते बैंक
जिम्मेदारी से समस्या का समाधान करायेगी जिलों की कमिटी
आवेदक की शिकायत पर बैंक कर्मी के खिलाफ होगी कार्रवाई
पहल- नई व्यवस्था से बैंक पर बनेगा दबाव, आवेदकों को राहत
उपेंद्र कश्यप। डेहरी
मुद्रा ऋण को लेकर कैट ने नई पहल शुरू की है। जिस तरह शिक्षा ऋण देने में बैंक आनाकानी करते हैं ठीक उसी तरह वे मुद्रा ऋण भी देने से परहेज करते हैंजबकि केंद्र सरकार स्वयं ऋण की गारंटर होती है। आवेदक बैंक का चक्कर लगाते-लगाते थक जाते हैंऔर अंततः उसे निराश होना पड़ता है। इस समस्या के समाधान के लिए कंफेडरेशन ऑफ़ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) ने हर जिले में एक 'मुद्रा मित्र कमिटीगठित करने का निर्णय लिया है। बिहार प्रदेश संयोजक अशोक कुमार वर्मा ने बताया कि कमिटी मुद्रा ऋण लेने वालों के लिए मित्र की भूमिका में होगी। क्या क्या दस्तावेज चाहिएयह बताने के साथ बैंक यदि ऋण देने से इंकार करता है तो उसके खिलाफ कार्रवाई भी कराएगी। इसके लिए संबंधित मंत्रालय तक शिकायत जायेगी। इसके बाद बैंक कर्मी के खिलाफ स्थानान्तरण से लेकर अन्य अनुशासनात्मक कारर्वाई की जा सकती है। बताया कि ऋण देना बैंक वालों की कृपा नहीं बल्कि आवेदक का अधिकार है। यदि उसके दस्तावेज सही हैं, नियमानुसार सभी अहर्ता पुरी करते हैं, तो बैंक ऋण देने से इनकार नहीं कर सकते। बैंक मैनेजर प्राय: दस्तावेजों के सही होने, अहर्ता पुरी करने के बावजूद अपने ‘स्व विवेक’ के अधिकार का इस्तेमाल कर आवेदन खारिज करा देते हैं। इस कारण इस योजना का लाभुक-संख्या अपेक्षाकृत कम है। बैंक बहाना बनाते हैं। इसके लिए कोइ लक्ष्य संख्या तय नहीं है, इसके बावजूद बैंक कह देता है कि टार्गेट पूरा हो गया इसलिए लोन नहीं दे सकते।

अगस्त तक कमिटियों का गठन:-
इसी अगस्त महीने के आखिर तक जिलों में ‘मुद्रा मित्र कमिटी’ का गठन कर लिया जाना है। सूचि दिल्ली जायेगी और फिर केंद्र इसको अंतिम स्वीकृति देगी। बताया गया कि जिलों में कमिटी के अध्यक्ष के लिए कैट का सदस्य होना आवश्यक है। इसके लिए कोइ भी ट्रेडर्स 11000 रुपया 18 फीसदी जीएसटी के साथ देकर सदस्य बन सकते हैं। कमिटी सदस्यों को प्रशिक्षण भी दिया जाना है।
गारंटी सरकार लेती है:-
अशोक वर्मा ने बताया कि ऋण की गारंटी केंद्र सरकार लेती है। इसके बाद भी बैंक आनाकानी करते हैं। रुपये 10 लाख तक के ऋण के लिए कोइ गारंटी नहीं देनी है। इसके लिए फंड किसी बैंक का नहीं होता, बल्कि केंद्र सरकार फंड देती है।
मुद्रा ऋण योजना: क्या है, किसके लिए कब से है:
प्रधानमंत्री मुद्रा योजना मुद्रा बैंक के तहत है, जिसकी शुरुआत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 08 अप्रैल 2015 को की गयी थी इसका मतलब है 'माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेंट्स रिफाइनेंस एजेंसी' (MUDRA)। मुद्रा बैंक का उद्देश्य युवाशिक्षित और प्रशिक्षित उद्यमियों को मदद देकर मुख्यधारा में लाना है। इस योजना के तहत छोटे उद्यमियों को कम ब्याज दर पर 50 हजार से 10 लाख रुपये तक का कर्ज दिया जाता है। केंद्र सरकार इस योजना पर 20 हजार करोड़ रुपये लगा रही है। साथ ही इसके लिए 3000 करोड़ रुपये की क्रेडिट गारंटी रखी गई है।
कुछ विशेषता:-
अनुसूचित जाति और जनजाति के उद्यमियों को प्राथमिकता। पहुंच का दायरा बढ़ाने के लिए डाक विभाग के विशाल नेटवर्क का इस्तेमाल। देश भर के 5.77 करोड़ छोटी व्यापार इकाइयों की मदद करेगा। इन्हें अभी बैंक से कर्ज लेने में बहुत मुश्किल होती है। इसके तहत तीन तरह के कर्ज दिए जाएंगे- शिशुकिशोर और तरुण। व्यापार शुरू करने वाले को 'शिशुश्रेणी का ऋण। 'किशोर' के तहत 50 हजार से लाख तक और 'तरुणश्रेणी के तहत से 10 लाख रुपये का कर्ज दिया जाएगा।

Thursday 2 August 2018

लेरुआ में दफन है हजारों साल पुराना इतिहास, खंगालने के लिए उत्खनन आवश्यक

यहां से मिला है 1000 साल पुराना 'कीर्तिमुख'
दो दशक पूर्व खोजा था 'सोनघाटी पुरातत्व परिषदने

काल निर्धारण और निर्माण शैली से अनभिज्ञ है परिषद

उपेन्द्र कश्यप । डेहरी


फोटो-दैनिक भास्कर में प्रकाशित मेरी रिपोर्ट (2.8.18)


गोडैला पहाड़ से सटा गांव लेरुआ उत्खनन की दरकार रखता है। यहां न्यूनतम 1000 साल से अधिक पुराना इतिहास दफन है। इसे सामने लाने की आवश्यकता है। अन्यथा एक वक्त ऐसा आएगा जब यहां दफन इतिहास को सामने न ला सकने का पश्चाताप भी सरकार और अन्य जिम्मेदार नहीं कर सकेंगे। यहां 'कीर्तिमुखका एक टुकड़ा करीब दो दशक पूर्व मिला था। इसे 'सोनघाटी पुरातत्व परिषदने खोजा था। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में संभवतः 1998 में इसे खोजा गया था। खोजने वाली टीम में सचिव कृष्ण किसलय और संयुक्त सचिव अवधेश कुमार सिंह शामिल थे। श्री किसलय का यह प्रश्न है कि आखिर यह अकेला पीस यहां क्यों और कब से हैकाल निर्धारणनिर्माण शैली यह तय नहीं किया जा सका है। बताया कि यह दुर्लभ प्रतिमा है। कहीं नहीं मिलती है। सोनघाटी पुरातत्व परिषद ने मांग किया है कि ऐसे स्थानों की खुदाई कर इतिहास के दबे पन्नों की खोज की जाए। अन्यथा जमीन में दबा इतिहास भी कल नहीं निकाला जा सकेगाऐसी स्थिति हो जाएगी।


प्राचीन मौर्य मार्ग पर प्रतिमा निर्माण केंद्र तो नहीं:-
श्री किसलय ने बताया कि संभव है कि लेरुआ मूर्ति निर्माण का केंद्र रहा हो। प्राचीन मौर्य कालीन मार्ग पर यह गांव स्थित है। यह मार्ग गांधार (तक्ष शीला) से ताम्रलिप्ति (श्री लंका) तक है। इसी मार्ग से महात्मा बुद्ध बोध गया से सारनाथ गए थे। इस कारण लगता है कि यहां मूर्ति निर्माण हुआ करता था। बनाई गई प्रतिमाएं दूसरे स्थानों के लिए आपूर्ति की जाती होंगीचूंकि यह स्थान मौर्यकालीन व्यापारिक मार्ग पर हैइसलिये यह अधिक उचित लगता है।

11वीं-12वीं सदी से 'कीर्तिमुखका निर्माण प्रारंभ:-
*विशेषज्ञ टिप्पणी*
कला संस्कृति एवं युवा विभाग के बिहार विरासत विकास समिति के डिप्टी डायरेक्टर अनंताशुतोष और हेरिटेज सोसायटी की निदेशक मनीषा पांडेय ने बताया कि यहाँ मिली 'कीर्तिमुखप्रतिमा किसी बड़ी प्रतिमा या बड़ी संरचना का हिस्सा है। अध्ययन बताता है कि 11 वीं-12वीं सदी में पत्थर पर प्रतिमाओं का निर्माण इस तरह से हुआ था। माथा के ऊपर इस तरह की आकृति बनाई जाती थी। इसे 'कीर्तिमुख'का नाम दिया गया है। ऐसी आकृतियां सिर्फ हिन्दू प्रतिमाओं में ही नहीं बल्कि बौद्धजैन प्रतिमाओं में भी बनाई जाती थी। यह अपने आप में अकेले पूर्ण संरचना नहीं है। इसका इस्तेमाल किसी बड़ी प्रतिमा या स्थापत्य संरचना के लिए सजावटी आइटमअलंकरण के लिए किया गया होगा। 

मनुष्य-पशु की मिश्रित प्रतिमा:-
दोनों विशेषज्ञों ने बताया कि प्रारंभिक मध्य काल में प्रतिमाओं में आधा मनुष्य और आधा जानवर की आकृति पत्थरों पर मात्र कल्पना के आधार पर उकेरा गया। गुप्तकाल में प्रस्तर तराशने वालों ने शरीर बनायाउनके हाथ में आयुध दे दिया। इसके बाद सातवीं से बारहवीं सदी तक शरीर के बाहर खाली स्थानों को भरने के लिएफिलिंग आइटम के रूप में गंधर्वफूलआकाशीय देवी-देवतागजकिन्नरकल्पना के आधार पर कलाकार बनाने लगे। 

इधर बलुआउधर बैसाल्ट की प्रतिमा:-
अनंताशुतोष और मनीषा पांडेय ने बताया कि सोन के पश्चिमी क्षेत्र रोहतास से आरा तक के इलाके में मिली 99 फीसदी प्रतिमाएं सैंड स्टोन (बलुआ पत्थर) से निर्मित हैं। जबकि पूर्वी इलाके में औरंगाबाद से लेकर गयानालन्दानवादापटना के क्षेत्र में मिली प्रतिमाएं बैसाल्ट स्टोन की होती हैं।

भारतीय माइथोलॉजी में ‘कीर्तिमुख’ के किस्से:-
फोटो-कीर्तिमुख का चित्र

भारतीय माइथोलॉजी में ‘कीर्तिमुख’ के कई किस्से दर्ज हैं। इसे शिव का मुख्य द्वारपाल बताया गया है। मंदिरों के मुख्य द्वार के ऊपर या गर्भगृह के द्वार पर धड़रहित एक डरावना सिर जो दिखता है वही कीर्तिमुख है। किस्सा यह है कि एक योगी को शिव का आअशीर्वाद मिला तो वह अहंकारी हो गया। उसे खाने के लिए एक दानव पैदा किया तो योगी पैर पर गिर गया। शिव ने दानव को मना किया तो कह बैठा-इसे खाने के लिए ही आपने पैदा किया है, इस पर नशे में उन्मत शिव ने कह दिया- खुद को खा लो। जब पीछे मुड़े तो देखा शरीर का अधिक भाग वह खा चूका है। रोका और उसे
कहा-तुम सभी देवताओं से ऊपर हो, यशस्वी हो।’ इसलिए कीर्तिमुख का एक अर्थ ‘यशस्वी मुख’ भी होता है।
कथा दो:-

लंका के प्रवेशद्वार पर शुक्राचार्य "रुद्र कीर्तिमुख" नाम का दारुपंच अस्त्र स्थापित किया था। बाहर होने वाली प्रत्येक गतिविधि इस पर चित्रित होकर दिखाई देती थी। जैसे आज के सीसीटीवी कैमरे हैं। इसके मुख से अग्नि का गोला निकल कर शत्रु का संहार करता था।
कथा तीन:-
जलंधर नामक एक महाशक्तिशाली दैत्य था। यह जन्म लेते ही भूख-भूख चिल्लाने लगा। शिव सोच में पड़ गये, नामकरण कीर्तिमुख किया। समझाया- पुत्र कीर्तिमुखजब तक भोजन का प्रबंध नहीं होता तब तक अपने ही हाथ-पैर खाकर भूख मिटा लो। ऐसा ही किया, जब गर्दन की ओर बढ़ा तो शिव ने रोकते हुए कहा-पुत्र कीर्तिमुखतुम्हारा जीवित रहना आवश्यक है ताकि मेरी कुटिया की सुरक्षा होती रहे अत: तुम द्वार पर नियुक्त हो जाओ।