Wednesday 27 August 2014

ज्ञान को चुनौती देते हैं ओझा!


शिक्षिका का उतारा गया विष 
दूर से यहां आते हैं ग्रामीण
झाड़ फूंक के बाद अंग्रेजी दवा की मनाही
 दाउदनगर (औरंगाबाद)  यह तस्वीर विज्ञान के इस युग में अंधविश्वास का एक रूप दिखाता है। पहली तस्वीर और चौंकाती है, क्योंकि जिस स्त्री की पीठ पर ओझा थाली सटाए हुए है वह मालती सिन्हा हैं। मालती राजकीय कृत हरवंश हाई स्कूल गोरडीहां की प्रभारी प्रधानाध्यापिका हैं। पढ़ी लिखी नौकरी पेशा संभ्रांत परिवार। सहसा यह जान कर भरोसे को झटका लगा। मगर सच आंखों के सामने था। उनके पति अनिल सिंह भी साथ हैं और बताते हैं कि दो घंटे में सर्प का विष बुधन बिगहा गांव निवासी चंद्रदेव सिंह ने झाड़ से उतार दिया। मालती बताती हैं कि स्कूल परिसर में जहरीले करैत ने काटा था। पूरा बदन अकड़ रहा था। अब राहत है। तभी दूसरे शहर में पढ़ रहे पुत्र ने मोबाइल पर चिंता जाहिर करते हुए चिकित्सक से दिखाने का सलाह दिया। श्री सिंह ने कहा नहीं, ऐसा मत करिएगा। शरीर से विष पूरी तरह निकाला जा चुका है। अगर डाक्टर विष मारने के लिए दवा दिया तो परिणाम बुरा हो सकता है।पति बोले- बेटे को बोल देंगे कि डाक्टर से दिखा लिया है।यह है आधुनिक भारत, अंध विश्वास से लड़ते हिंदुस्तान की तस्वीर। युवा पीढ़ि के बदलाव की इच्छा भी परंपरावादी मानसिकता के आगे दम तोड़ देती है। दूसरी तस्वीर में दिख रहे हैं-उब के रामपुर से आई उषा देवी। इन्हें बिछउत ने पंद्रह दिन पूर्व काट लिया था। शरीर में पूरा बेचैनी थी। गर्मी से आग की तरह बदन जल रहा था। लगातार पंद्रह दिन उनके बदन से विष उतारा गया। बताया कि अगर विष नहीं उतरता तो पूरे शरीर में फोड़ा निकल जाता। नीमा के रामदेव सिंह को बहिरा सांप ने काटा था। ओझा चंद्रदेव सिंह ने बताया कि बहिरा सांप काटने पर पंद्रह दिन रोजाना दो दो घंटे विष उतारना पड़ता है। गेहूंमन और करैत के काटने पर दो घंटा में पीड़ित के शरीर से सारा विष उतर जाता है। अब इसे क्या कहा जाए चमत्कार, अंधविश्वास या फिर विज्ञान से होड़ लेता जादू टोना।शिक्षक एवं ग्रामीणों का विष उतारते ओझाजागरण

जीवन ही जिनका फुटबाल का खेल रहा


राष्ट्रीय खेल दिवस (29 अगस्त) पर विशेष

फोटो-रामाशीष बाबू, नन्दकिशोर सिंह एवं दयानन्द शर्मा
यहां फुटबाल टुर्नामेंट का कराया कई आयोजन
महिला फुटबाल टुर्नामेंट भी हुआ
उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) रामाशीष बाबू। जी हां, कोई रामाशीष सिंह नहीं बोलता इन्हें। इनका पूरा जीवन ही फुटबाल को समर्पित रहा। शहर में लोगों को ‘जबरन’ इसके लिए प्रेरित करना और उसे आयोजक बना देना इनकी फितरत रही है। व्यक्तित्व ऐसा कि गुस्से में जुबान फिसली भी तो लोगों ने बुरा नहीं माना। फुटबाल का आयोजन और इनका नाम दोनों यहां एक दूसरे के प्रयाय माने गये। कुल्हा टूट गया तो चार साल से बिस्तर पर क्या पडे कि आयोजन ही बंद पडा गया। कब प्रफ्फुलचन्द्रा ने आयोजन किया तो उनको सम्मान मिला। चार पहिया वाहन से ही फिल्ड का भ्रमण किया था। मूलत: बडका बिगहा निवासी श्री सिंह अपने मामा के घर बिहटा (देवहरा) रहते थे। करीब चार दशक पूर्व दाउदनगर आये तो फिर उनके प्रयास से कई फुटबाल टुर्नामेंट हुआ। फिलहाल करीब सौ साल की उम्र में वे यहां अंछा निवासी अपनी बेटी मालती देवी और दामाद कृष्णा सिंह के घर मृत्यू की प्रतिक्षा कर रहे हैं। उन्होंने सीखाया कि खेल क्या है, कैसे बडा आयोजन होता है। ज्ञान गंगा के निदेशक नन्दकिशोर सिंह उनसे 1990 में जुडे। बताया कि श्री कृष्ण शील्ड और श्री राम कला शील्ड चलाते थे। जिद्दी प्रवृति के हैं, जो ठान लिया सो कर दिखाने का जज्बा उनसे सीखा जा सकता है। उत्साही और इमानदार हैं। चन्दा का एक रुपया भी अपने उपर खर्च नहीं किया कभी। उनका जमा किया हुआ करीब 8000 रुपया जमा है। बताया कि उनके नाम पर एक टीम बनाने की योजना है। उसी में यह बचा पैसा खर्च होगा। बिहार एथलेटिक्स एशोसियेशन के उपाध्यक्ष और एथलेटिक्स के राष्ट्रीय कोच रहे दयानन्द शर्मा ने उन्हें नि:श्चल प्रवृति का खेल को समर्पित व्यक्ति बताया। कहा कि इन्होंने समाज को सन्देश दिया कि जाति धर्म से उपर उठकर कार्य करोगे तभी खेल का और समाज का विकास संभव है। बताया कि खेल मैदान पर आयोजक संस्था का छोटा कार्यकर्ता जो काम नहीं कर सकता है वह काम भी बडी श्रद्धा से किया करते थे। उन्हें खेल से जुडे किसी काम को करने में हीनता का बोध नहीं होता था। किसी से कोई गिला शिकवा उनको नहीं रहा।     

Friday 22 August 2014

अद्भुत अनुभूति देता है पीपल का प्राचीन वृक्ष


 
हजारों साल प्राचीन है यह वृक्ष
तमाम शाखायें धरती को छूने आती हैं नीचे
पुन: उपर की ओर लौट जाती हैं शाखायें
उपेन्द्र कश्यप 
 जैसा आप तस्वीर में देख रहे हैं, वास्तव में देखेंगे तो बडा सुखद आश्चर्य और अद्भुत अनुभूति करेंगे। यह स्थान है औरंगाबाद जिला के दाउदनगर अनुमंडल के गोह प्रखंड का गोरकट्टी गांव। इस वृक्ष के बारे में कोई सटिक जानकारी नहीं है। पंडित लालमोहन शास्त्री का कहना है कि यहां च्यवन ऋषि ने भगवान शंकर की प्रतिमा स्थापित किया था। इसके बाद का ही यह वृक्ष होगा। यानी हजारों साल प्राचीन। इस वृक्ष की विशेषता है कि इसका फैलाव व्यापक है। हर शाखा उपर आकाश की ओर जाती तो है लेकिन थोडी दूरी तय करने के बाद वापस धरती की ओर लौट आती है। पृथवी को चूमकर पुन: आकाश की ओर मुड जाती हैं। यहां कोई यह बताने वाला नहीं है कि यह वृक्ष कब से है। हर बुजूर्ग अपने पूर्वजों से भी पुराना इसे बताते हैं। दादर के वेंकटेश शर्मा का कुछ विद्वानों के हवाले से मानना है कि ताडुका के भाई सुबाहु यहां पुनपुन के किनारे पूजा करने आता था। यहीं वह शक्तिमान बना और दक्षिण भारत की ओर चला गया जहां राम के तीर से उसकी मृत्यू हुई। हालांकि श्री शास्त्री इससे सहमत नहीं हैं। इस वृक्ष की आयु का सही सही आकलन नहीं किया जा सकता। इसकी उम्र जानने के लिए विशेषज्ञ की जरुरत पडेगी। इसी स्थान पर पुनपुन दक्षिण दिशा की ओर मुडती है। यहां आना थोडा मुश्किल है क्योंकि रास्ता नहीं है। करीब तीन किलोमीटर की पैदल यात्रा करनी पडेगी। बरसात में स्थिति इतनी बदतर कि इस संवाददाता के साथ यहां पहुंचे आदित्य राज जैकी ने कई बार कहा कि ऐसे स्थान पर मत ले चलिए। लेकिन जब वृक्ष के पास पहुंचा तो सारा थकान मिट गया। इस सुखद अहसास ने सुकून पहुंचाया। प्रमोद पासवान की तो हालत खराब हो गई। यह परेशानी इसलिए हुई कि यहां पहुंचने का रास्ता नहीं है। खेत के मेड ही एकमात्र विकल्प हैं। दूसरा बारिश ने इस यात्रा को कठिन बना दिया। भाजयुमो नेता दीपक उपाध्याय एवं धीरज सिंह चौहान ने कार्बन डेटिंग कर वृक्ष की प्राचीनता पता करने की मांग की है। सबने कहा कि प्राचीनता के साथ साथ यह कारण भी ज्ञात करने की जरुरत है कि शाखायें उपर से नीचे की ओर क्यों आती हैं। श्री शास्त्री का मत है कि यह प्रक्रिति की झलक है। यह प्राकृतिक और अध्यात्मिक कारण है।


Wednesday 13 August 2014

समूह के जिम्मे सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा



                        दाउदनगर में जीवित है जिउतिया संस्कृति
                                                154 साल से निरंतर प्रवाह बरकरार
उपेंद्र कश्यप
दुख के निराकरण की गर्ज से जन्मी जिउतिया संस्कृति का न कोई वाहक है न कोई संरक्षक। आम आदमी के सहयोग, समर्पण और सहभागिता से यह संस्कृति संवत 1917 से आम जन के रग रग में प्रवाहित हो रही है। इस लोक संस्कृति में फोकलोट (लोकयान) में सभी चार तत्व प्रचूरता से विद्यमान है। अपनी लोक कला, लोक साहित्य, लोक व्यवहार है। वास्तव में झारखंड के अलग होने के बाद छउ नृत्य हमारा प्रतिनिधि संस्कृति नहीं रहा। सरकार छठ को प्रतिनिधि संस्कृति मानती है जबकि वह पूरे प्रदेश में होता है और किसी भी खास क्षेत्र या समुदाय तक सीमित नहीं है। जिउतिया का पर्व उत्तर भारत में प्राय: हर जगह मनाया जाता है मगर यह सिर्फ दाउदनगर में ही लोक संस्कृति बन सकी है। इसका प्रभाव समीपवर्ती तरार और ओबरा में भले दिखता है, मगर है यह दाउदनगर की विशिष्ट पहचान। ब्राजील के कार्निवाल से इसकी तुलना होती है। आकर्षण और सम्मोहन की पराकाष्ठा आप देख सकते हैं जब यह नौ दिवसीय समारोह अपने अंतिम दो दिन चरमोत्कर्ष पर होता है। पूरा शहर भेष बदलो समारोह में तब्दील दिखता है। अपुराणिक चरित्रों, राजनेताओं, संविधान, समेत तमाम क्षेत्रों पर टिप्प्णी करते लोक कलाकार मिलेंगे। पटवा टोली और कसेरा टोली चौक मुख्य केन्द्र होते हैं। शहर में जिमूतवाहन भगवान के चार चौक बने हैं। मुख्यत: पटवा जिसे तांती भी कहा जाता है अर कसेरा जाति के लोगों के समर्पण भाव और परिश्रम की बदौलत यह संस्कृति जीवंत बनी हुई है अन्यथा कब का विलुप्त हो जाती। इसके गीत बड़े सरस होते हैं। व्यंग्य मजेदार और चुटिले। शहर की बड़ी आबादी इसमें शामिल होती है और आश्चर्य कि हर बच्चा जो पहली बार अपनी सांस्कृतिक प्रस्तुति दे रहा होता है वह भी आपको प्रभावित करता है। इससे लगता है कि इस शहर की मिट्टी में कला का जादू बसता है।दाउदनगर की जिउतिया संस्कृतिजागरण

Sunday 10 August 2014

ढूंढना पडेगा शहीदों की शहादत की बाकी निशां अब


जातिवादी राजनीति के कारण ऐसी उपेक्षा-धर्मराज
स्मारक बनाने वाली माले भी भूल गई
उपेन्द्र कश्यप
शहीदों के चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, मरने वालों का बाकी यहीं निशां होगा।का भाव अब खत्म हो गया है। शहीदों की उपेक्षा या सम्मान की मात्रा भी अब जाति और धर्म के आधार पर तय होते हैं। इसका उदाहरण है स्वतंत्रता संग्राम में शहादत देने वाले औरंगाबाद जिला के इकलौते शहीद जगतपति कुमार। इनको जितना सम्मान मिलना चाहिए, उतना कभी नहीं मिला। कई ऐसे उदाहरण मिलेंगे, इस जिले में भी हैं ऐसे उदाहरण कि स्वतंत्रता सेनानी होने का लाभ सत्ता में शामिल होने से लेकर अम्पायरखड़ा करने तक लिया। यह सिलसिला पीढियों तक बेरोक टोक चलता रहा। बड़ी प्रतिमाएं लगाईं गई, कई स्थानीय निर्मितियों का नामकरण कराया गया, लेकिन जगतपति के मामले में क्या हुआ? उपेक्षा से आगे भूला जाने की हद तक वर्तमान पीढ़ी जा रही है। पूरे जिला में जगतपति के नाम पर शासन प्रशासन का कोई भवन नहीं है,  कोई गली,  मुहल्ला, नगर नहीं है, कोई सड़क नहीं है। जिला मुख्यालय स्थित नगर भवन का नाम शहीद जगतपति के नाम पर रखने का प्रस्ताव स्वीकृत होने के बावजूद नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर गुम हो गयी। इसी नगर भवन का उन्हें द्वारपालबना दिया गया। अगर परिवार जमींदार नहीं होता, पुनपुन किनारे खरांटी में पूर्वजों की जमीन नहीं होती तो शायद स्मारक स्थलभी नहीं बना होता। 1992 में माले ने जागोको जिंदा करने के लिए कार्यक्रम किया। तब इनके भतीजे धर्मराज बहादुर ने कहा था - कांग्रेसियों ने जगतपति के लिए क्या किया? टेलीविजन पर प्रसारित स्वतंत्रता ज्योतिकार्यक्रम में उनकी तस्वीर तक नहीं दिखाई गयी। बाद में जब इस संवाददाता ने उनसे साक्षात्कार लिया तो उन्होंने सीधा आरोप लगाया कि जातिवादी स्थानीय राजनीति के कारण ऐसी उपेक्षा होती रही है। जबकि जागो की मां ने पेंशन समेत तमाम प्रस्तावित सुविधाएं लेने से इंकार कर दिया था।‘ मालुम हो कि पूरा परिवार कोई लाभ नहीं लिया, लेकिन शायद देश के विभिन्न हिस्सों में बसे परिजन निजी कारणों से साल में एक दिन यहां नहीं आना चाहते। उधर भाकपा माले ने वर्ष 2000 के विस चुनाव से पूर्व इनका आदमकद प्रतिमा लगाने के लिए चंदा वसूली अभियान प्रारंभ किया था, लेकिन स्मारक बनाने वाली पार्टी को भी अब शहीद की जरूरत नहीं रहीं। आदमकद प्रतिमा की गूंज अब सुनाई नहीं पडती। माले के ही रामेश्वर मुनी ने जागो के प्रति सबको जगाने की पहल की थी, उनकी हत्या के बाद सब खत्म हो गया। गोह में उनका स्मारक उपेक्षा का शिकार है। चुनाव जीतने के बाद उनकी प्रतिमा के पास शपथ लेने की कसम खाने वाले विधायक की बातें जितनी क्रांतिकारी रही हो जीत के बाद वे भी सब भूल गये।



Saturday 9 August 2014

नि:शक्तता पेंशन से करते हैं मुफ्त इलाज



फोटो-इलाज करते डा.विकास मिश्रा
पीएचसी में मंत्री के मौखिक आदेश से सेवा शुरु
चार साल में किया बीस हजार मरीजों का मुफ्त इलाज
एक्यूप्रेसर का उपकरण भी नहीं देता पीएचसी
उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) डा.विकास मिश्रा दोनों आंखों से नहीं देख सकते। सरकार उन्हें नि:शक्तता पेंशन देती है। इसी तीन सौ रुपये मासिक आमदनी से ही जीविका चलाते हैं। कोई कभी कुछ तरस खा कर दे दिया तो बात अलग। फरवरी 2011 से तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे के मौखिक आदेश पर पीएचसी में एक्यूप्रेसर पद्धति से इलाज प्रारंभ किया था। उम्मीद थी कि कुछ आय भी होगा। मगर ऐसा नहीं हुआ। हर सप्ताह दो दिन सेवा देते हैं। पीएचसी के आंकडे के मुताबिक औसतन 60 मरीज एक दिन में देखते हैं। लोग स्वास्थ्य लाभ लेकर चले जाते हैं। वार्ड पार्षद बसंत कुमार से इन्होंने आग्रह किया तो वे आरटीआई से इस मामले की सूचना मांगी। इसके जबाव में बताया गया कि मंत्री का लिखित आदेश प्राप्त नहीं है। इनको कोई उपकरण उपलब्ध नहीं कराया गया है। तब पीएचसी प्रभारी ने पत्र जारी कर सप्ताह में दो दिन स्वेच्छा से सेवा देने को कहा था। डा.विकास ने कहा कि कोई उपकरण देता है तो काम चलता है। चूंकि अधिक मरीज देखने से अधिक मशीन खराब या बेकार होता था इसलिये मरीज भी अब कम देखना कर दिया। रोगी कल्याण समिति भी मदद नहीं करती। स्वास्थ्य प्रबन्धक प्रेम प्रकाश दिवाकर ने बताया कि हम कोई सुविधा नहीं दे सकते क्योंकि डा.विकास की बहाली या नियोजन नहीं हुआ है। जिला से दिशा निर्देश भी ऐसा ही मिला है। फिलहाल एक्यूप्रेसर का इलाज अपने अकेले दम पर कर समाज को प्रेरित कर रहे हैं डा.मिश्रा कि आभाव के बीच भी व्यक्ति समाज की सेवा कर सकता है।



गांधी तेरे देश में ये क्या हो रहा !


गांधी तेरे देश में ये क्या हो रहा !

तेरे शरणागत भी तेरी दुर्गति के जिम्मेदार
अधिकारी, सिपाही और जनप्रतिनिधि दोषी
उपेन्द्र कश्यप
दाउदनगर (औरंगाबाद) यह जो आप देख रहे हैं, वह ‘अंग्रेजों भारत छोडो दिवस’ के दिन की है। गांधी जी की यह दुर्गति उनकी तस्वीरों के नीचे बैठकर काम करने वाले अधिकारियों, उनकी कसमें खाने वाले खद्दरधारियों और विधि व्यवस्था की जिम्मेदारी संभालने वाले, अवसर विशेष पर उनकी प्रतिमा को सलामी देने वाले सिपाहियों के बीच हो रही है। हमारी राजनीतिक क्षुद्रता ने जब राष्ट्रवाद और राष्ट्रभक्ति को सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता का रंग देना शुरु कर दिया हो तो महापुरुषों को भी जातीय और राजनीतिक खांचे में बैठाया ही जायेगा। हमारे नेताओं ने 67 साल में देश में जिस राजनीतिक वातावरण का निर्माण किया है यह उसका एक उदाहरण मात्र है। प्रखंड परिसर में गांधी बाबा का स्मारक बनाया गया था कि लोग यह जान सकें कि क्षेत्र में कौन कौन वे महान स्वतंत्रता सेनानी हैं जिन्होंने अपना सबकुछ त्याग कर हमें आजादी दिलाया है। उनके नाम इस स्मारक पर खुदे हुए हैं। मगर माइक्रोस्कोप लगा कर भी पढना मुश्किल। कारण है कि हर बार सीधे चुना पोत दिया जाता रहा। नाम दिखता रहे इसकी कोशिश किसी ने नहीं की। आप जान नहीं सकते कि किनके नाम खुदे हैं। साल में दो बार यहां बीडीओ और प्रखंड प्रमुख झंडोतोलन करते हैं। उनको भी नहीं दिखता और जो उपस्थित आला अधिकारी उपस्थित रहते है या जनप्रतिनिधि उनको भी यह “दुर्गति” नहीं दिखती। यहां तैनात जिला पुलिस बल के एक-चार के जवानों ने तो हद ही कर दी है। अपना सरसो का तेल हो या अन्य बोतल गांधी जी पास ही रखते हैं, जैसे वे इनके सामानों की चोरी न हो इसकी जिम्मेदारी लिये बैठे हों। स्मारक से ही एक रस्सी बान्ध कर उसपर कपडे सुखाये जाते हैं। प्रतिमा की छत टूटी हुई है। जिस राज्य और देश में मंत्री के आगमन पर लाखों रुपये सडक या कमरे की सजावट पर खर्च कर दिया जाता हो वहां इस स्थिति के लिए जिम्मेदार तंत्र को मानसिक तौर पर दिवालिया या राष्ट्रप्रेम के मामले में संकिर्ण न कहा जाये तो कोई दूसरा शब्द भी ढुंढना पडेगा।

बोल उनके ....
जिनकी खिडकियों से दिखती है दुर्दशा
दैनिक जागरण के सवाल पर चौंके सभी
प्रखंड कार्यालय परिसर का गांधी स्मारक रोजाना बैठने वाले तीन सक्षम पदाधिकारियों की खिडकी से दिखता है। इस परिसर में रोजाना नेता उपस्थित रहते हैं। दिखता सबको है मगर देखना कोई नहीं चाहता। इसे देखने के लिए जिस श्रद्धा और दृष्टि की जरुरत होती है वह किसी के पास शायद ही है। इनके बोल भी महत्वपूर्ण हैं। बीडीओ राजेन्द्र शर्मा को जब दुर्दशा बताया तो बोले कि यह आपत्तिजनक है। इस मामले को देखेंगे। रंग रोगन होगा। सीओ प्रतिभा कुमारी बोलीं कि इस पर ध्यान देंगे। देखेंगे कि क्या कर सकते हैं। प्रमुख अखिलेश कुमार सिंह बोले कि सीएम के कार्यक्रम के वक्त प्रखंड सह अंचल कार्यालय की पेंटिंग-डेंटिंग हुई थी। तब अधिकारियों को देखना चाहिये था। जागरण के सवाल के बाद कहा कि तेरहवी वित्त आयोग की राशि से एक योजना लेंगे और इस स्मारक की उपेक्षा न हो इस पर ध्यान देंगे। प्राय: इस परिसर में आने वाले प्रखंड भाजपा अध्यक्ष अश्विनी तिवारी ने कहा कि जनप्रतिनिधि भी दोषी हैं। इमानदारी से स्वीकार किया कि हम आते हैं लेकिन जनता के काम से मतलब रहता है। हमने भी इस दिशा में कभी नहीं सोचा। आवाज नहीं उठाया लेकिन अब इसकी कोई दुर्दशा न करे इसकी कोशिश जरुर करेंगे।      



Tuesday 5 August 2014

अद्भुत ! सूर्य रश्मियों के साथ घुमता है त्रिशूल


                   फोटो-जोडा मन्दिर, उसके त्रिशूल और भक्त
निर्माण संबधी श्लोक पढा जाना शेष
बाबा भोलेनाथ के कंगूरे पर लगा त्रिशूल चमत्कारी
प्रतिमाओं की शक्ति से बचे थे बच्चे
उपेन्द्र कश्यप
 दाउदनगर के पुराना शहर में करीब दो सौ साल पुराना एक जोडा मंदिर है। एक में शिवलिंग स्थापित है जिसके कंगूरे पर लगा त्रिशूल सूर्य की रश्मियों के साथ घुमता है। नतीजा जब भी आप देखेंगे यह त्रिशूल पूर्व की अपेक्षा दूसरे कोण पर दिखेगा। एक मंदिर में राम-सीता, लक्षमण, भरत, शत्रुघ्न और हनुमान की प्रतिमा है। दूसरे में शंकर, कृष्णा-राधिका, कार्तिक, गणेश, सूर्य, विष्णु-लक्षमी की प्रतिमायें हैं। मंदिर परिसर के निवासी विवेकानन्द मिश्रा ने बताया कि कैथी लिपी में लिखा हुआ एक शिला पट्ट है जिस पर लिखे श्लोक से इसके स्थापना काल का ज्ञान मिलता है। इसे पढना और समझना शेष है। इसके पढे जाने के बाद ही यह ज्ञात होगा कि वास्तव में मन्दिर का निर्माण कब हुआ था। वेंकटेश शर्मा ने बताया कि एक बार वे यहां बैठे तो उन्हें यह बताया गया तो काफी आश्चर्य हुआ। करीब दो घंटे बैठ गया तो देखा कि सूर्य की किरणों के साथ त्रिशूल भी घुम गया। भक्त राम जी सोनी ने बताया कि हम रोज देखते हैं। भगवान शंकर का यह चमत्कार है। उनकी शक्ति छिपी हुई है। जो मांगते हैं सो मिलता है। क्या निर्माण के समय त्रिशूल को किसी खास तरीके से तो नहीं लगाया गया है या फिर ढिला हो जाने के कारण तो नहीं घुमता? इस पर मंदिर से जुडे राधा मोहन मिश्रा ने बताया कि ऐसी कोई बात नहीं है। यह सिर्फ चमत्कार है। बाबा भोले की शक्ति है। विवेकानन्द मिश्रा ने बताया कि साल 2000 में बिजली त्रिशूल पर गिरा था तो पत्थर का बडा टूक़डा गिर कर दूसरे मन्दिर परिसर में जा गिरा। तब ज्ञान ज्योति शिक्षण केन्द्र के एक दर्जन बच्चे बैठे थे। किसी को चोट नहीं लगी और जिस दो स्थान पर पत्थर का टूकडा गिरा वहां वहां के पत्थर टूट गये। आसपास की नालियों में टर्र टर्र करने वाले बेंग जल कर राख हो गये मगर बच्चों को कुछ नहीं हुआ। समाज इसे चमत्कार मानता है। विज्ञान की मुट्ठी अभी खुलनी बाकी है। 


जीने के लिए चूहा नहीं सरीसृप का भी भोजन


                                                ·         जीवन अभिशाप मगर गजब का जज्बा
·         दुखों के समंदर में रोचक अठखेलियां
·                 बरसात में घर से दूर तंबू का आसरा 
·         कबाड़ चुनना-बेचना, गोह पकड़ना धंधा
                      उपेंद्र कश्यप 
औरंगाबाद के ओबरा प्रखंड में डिहरा लख के किनारे बारुण रोड में अभी मुसहरों की एक टोली ठहरी हुई है। मूलत: डेहरीआन सोन के बारह पत्थर के निवासी हैं। जीवन इनके लिए हमारे नजरिये से अभिशाप से कम नहीं। बरसात के दिनों में खेतों के किनारे पलास्टिक के तंबुओं में जीवन कितना कष्टकर है यह तब ज्ञात होगा जब आप एक रात गुजार कर देखेंगे।1किसी ने कहा था- जिस तरह हमने गुजारी जिंदगी, उस तरह गुजारे कोई एक दिन।वाकई, भले जीवन अभिशाप हो मगर उत्कट जज्बा देखने को मिली। जीवन में प्रेम का कितना महत्व है यह भी बताती है यह टोली। भोजन, कपड़ा और मकान की बुनियादी जरूरतों के घोर अभाव के बीच एक तस्वीर आपको प्रेम करना सीखाती है। दरअसल में दुखों के समंदर के बीच अठखेलियां अधिक महत्वपूर्ण होती है। पति और पत्नी के बीच प्रेम की चरम अभिव्यक्ति दिखी, जब जवाहर मुसहर अपनी पत्नी को पास बिठाकर उसके सिर से जूं निकालते हैं। हमारे समाज में यह जोरु का गुलामसाबित करता है। खुले में ऐसे दृश्य की तो कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। यहां यह रोजर्मे की बात है। हालांकि जब कैमरे का फ्लैश चमका तो दोनों अलग-अलग हो गए। 1साड़ी पहनी एक बच्ची के हाथ में मोबाइल दिखा तो सवाल कर बैठा। जवाब बड़े इत्मीनान का मिला- मोबाइल अब केकरा भिर ना रहत बा?’ यानी जीवन के कई रंग। कभी जस अरोड़ा ने कहा था- जीवन को अगर गंभीर बनाया जायेगा तो शेष क्या बचेगा? यही यहां दिखा। कृष्णा मुसहर ने बताया कि जूता चप्पल जैसे कबाड़ चुनना और फिर डेहरी ले जाकर बेचना काम है। 1बटैया पर पेड़ काटते हैं। खेत खलिहान से गोह (एक सरिसृप) पकड़ते हैं। हम जानते हैं कि चूहा मुसहरों का भोजन है मगर इसने बताया कि वे गोह भी खाते हैं। क्योंकि मीट, मछली और मुर्गा खरीदने की क्षमता नहीं है। चावल या रोटी का जुगाड़ कबाड़ या अन्य काम से हो जाता है। थोड़े मसाले से गोह का शिकार भोजन को स्वादिष्ट बना देता है। जीवन का यही जायका उनको जीने की ताकत देता है। ये महादलित हैं, सरकार के एजेंडे का प्रथम नाम मगर व्यवहारिक दुनिया में नीचे से किस स्थान पर है यह समाज, तय करना भी मुश्किल। राजनीति की अपनी दुविधा है, मगर इस दुविधा और सीमा से पार यह समाज अपने तरीके से जीवन यापन कर रहा है।ऐसे जीवन जीते हैं मुसहर परिवारजागरण

Sunday 3 August 2014

अनोखी शिल्प रचना है बाबा हेमनाथ मंदिर की


: दाउदनगर गया पथ में भखरुआं से करीब नौ किलोमीटर दूर सिहाड़ी में अनोखा मंदिर है बाबा हेमनाथ का। मंदिर करीब दो सौ साल पहले उस समय के जमींदार रघुनाथ सहाय ने अपनी जमीन में बनवाया था। इसके साथ ही बड़े बड़े कमरों वाली धर्मशाला और पानी पीने के लिए एक कुआं भी है। इसके लिए तब 45 बिगहा कृषि योग्य भूमि सुरक्षित रखी गई थी जो अब अतिक्रमित होकर मात्र 15 बिगहा बच गई है। अब और कम हो गई है। मंदिर भव्य नहीं है मगर अनोखा है। पूरा मंदिर टुकड़ों में है। मंदिर में शिल्प कला की बेहतर रचना है। शिल्प कला अयोध्या का प्रस्तावित राम मंदिर की तरह है। बिना गारा और सीमेंट का बना है। दो सौ साल पूर्व इस तरह के निर्माण की कल्पना थोड़ा मुश्किल लगता है। बनावट ऐसी की मंदिर आप खोल सकते हैं। दूसरी जगह ले जाकर पुन: खड़ा कर सकते हैं। मंदिर के पुजारी श्यामनंदन कुमार गिरी ने बताया कि मंदिर और धर्मशाला के लिए मात्र 13 डिसमिल जमीन बची हुई है। 1बताया कि धर्मशाला की छत पर इस उद्देश्य से निर्माण और मरम्मत का कार्य करा रहा था कि धर्मशाला सुरक्षित रहे। मगर विरोध के कारण उसे स्थगित करना पड़ा। इसे उद्धार की जरुरत है। महाशिवरात्रि में खासा भीड़ लगता है। कार्यक्रम होता है। फतेपुर सिहाड़ी के सुरेश पांडेय बताते हैं कि एक परिवार विशेष के कारण यहां स्थिति तनावपूर्ण बन जाती है। करीब पांच साल पूर्व कुंआ की उड़ाही की गई थी तब काफी मात्र में पशुओं की हड्डियां निकली थी। तनाव उपजा लेकिन सहिष्णु समाज ने इसे निपटा दिया। मंदिर को अतिक्रमण मुक्त और उद्धार कराने की जरूरत है। यह पर्यटन का केन्द्र बन सकता है क्योंकि इस तरह का मंदिर इलाके में नहीं है।

Saturday 2 August 2014

भारी पड रही मैत्री संबन्धों पर स्वार्थपरता


आंतरिक अनुभूति बना देती है मित्र
उपेन्द्र कश्यप
आज विश्व मित्रता दिवस है। वैश्विक होती दुनिया भले ही मुट्ठी में समा रही हो मगर संबन्धों की डोरियां उलझती और लंबी होती जा रही है। संबन्ध अब नि:स्वार्थ नहीं रह गये हैं। विवेकानन्द मिशन स्कूल के निदेशक डा.शंभुशरण सिंह का मानना है कि अनमोल जीवन की अनमोल निधि है मित्रता। व्यक्ति के जीवन को संवारने, संवेदनाओं के संप्रेषण में और विकास को गति देने में मित्रता की महत्वपूर्ण भुमिका होती है। प्राचीन काल से ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं, जिनसे हम प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं। विश्व युद्धों के काल में विभिन्न देशों के बीच के मैत्री संबन्धों के परिणाम सर्वविदित हैं। वर्तमान में पुरी दुनिया शांति स्थापित करने के प्रति चिंतित है। इसका एकमात्र कारण है कि विकास की आपाधापी में मैत्री संबन्धों पर स्वार्थपरता हावी है। व्यक्ति और समाजिक जीवन में भी विश्वास और नि:स्वार्थता पर कायम मित्रता की कडी कमजोर हुई है। मित्रता पर कलंक के दाग भी लगे हैं। आज जरुरत है कि पुरातन काल से स्थापित मैत्री संबन्धों की कडी को स्वर्णिम बनाने की दिशा में हम प्रयास करें और आने वाली पीढियों के लिए बेहतर उदाहरण परोसें। भगवान प्रसाद शिवनाथ प्रसाद बीएड कालेज के सचिव डा.प्रकाश चन्द्रा का मत है कि इस शब्द के जेहन में आते ही मन पवित्र हो जाता है। यही एकमात्र रिश्ता है जो रक्त संबन्ध से अलग है। जब दो व्यक्ति आपस में मिलते हैं तो आंतरिक अनुभूति मित्र बना देती है। जब न स्वार्थ होता है न अपेक्षायें होती है तो संबन्ध प्रगाढ हो जाता है। ग्लोबलाइजेशन के दौर में व्यवसायिकता इतनी हावी हो गई है कि रिश्तों के आयाम बदलते जा रहे हैं। लोग अपने स्वार्थ के लिए मित्र बनाते हैं, जब स्वार्थ की पूर्ति नहीं होती है तो मित्र से शत्रु बन जाते हैं। आज अच्छे मित्र की कमी है। मित्रता को परिभाषित करना उतना ही कठिन है जितना मानवता को परिभाषित करना। राजेश कुमार सिंह उर्फ मंटु सिंह का कहना है कि आपसी समझ खत्म हो गई है। लाभ हानी के आधार पर हम मित्र बनाने लगे हैं।जब मित्र लाभप्रद नहीं रहता तो मित्रता भी नहीं रह जाती। चाहे व्यैक्तिक हो या राजनैतिक। कन्हैया सिसोदिया का कहना है कि मित्रता की परख मुश्किल होती जा रही है। मित्र पर भरोसा कम होता जा रहा है। यह ह्रास है। डा.बशीर बद्र ने शायद इसी सन्दर्भ में लिखा है कि-‘परखना मत परखने में कोई अपना नहीं रहता, किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता।‘

मित्रता पर दिव्यांश की काव्य पंक्ति
मित्रता अतुल्य है, बहुमूल्य है ये भावना, अहम का है समर्पण, संबंध की ये साधना |
सुखद कोमल भावनाओं का समागम मित्रता, प्राण इस संबंध का है वचन की प्रतिबद्धता |
आस्था हो मित्र पर सद् हृदय से व्यवहार हो, सदा कुसुमित रहे कानन बस यही उदगार हो |
सुभेक्षा, संदर्भ रहित, स्नेह का उपहार हो, मित्रता में सदा निज स्वार्थ का प्रतिकार हो |
मन का सामंजस्य  है ये, देव का वरदान है, नमन है उसको जो रखता मित्रता का मान है |