Sunday 10 August 2014

ढूंढना पडेगा शहीदों की शहादत की बाकी निशां अब


जातिवादी राजनीति के कारण ऐसी उपेक्षा-धर्मराज
स्मारक बनाने वाली माले भी भूल गई
उपेन्द्र कश्यप
शहीदों के चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, मरने वालों का बाकी यहीं निशां होगा।का भाव अब खत्म हो गया है। शहीदों की उपेक्षा या सम्मान की मात्रा भी अब जाति और धर्म के आधार पर तय होते हैं। इसका उदाहरण है स्वतंत्रता संग्राम में शहादत देने वाले औरंगाबाद जिला के इकलौते शहीद जगतपति कुमार। इनको जितना सम्मान मिलना चाहिए, उतना कभी नहीं मिला। कई ऐसे उदाहरण मिलेंगे, इस जिले में भी हैं ऐसे उदाहरण कि स्वतंत्रता सेनानी होने का लाभ सत्ता में शामिल होने से लेकर अम्पायरखड़ा करने तक लिया। यह सिलसिला पीढियों तक बेरोक टोक चलता रहा। बड़ी प्रतिमाएं लगाईं गई, कई स्थानीय निर्मितियों का नामकरण कराया गया, लेकिन जगतपति के मामले में क्या हुआ? उपेक्षा से आगे भूला जाने की हद तक वर्तमान पीढ़ी जा रही है। पूरे जिला में जगतपति के नाम पर शासन प्रशासन का कोई भवन नहीं है,  कोई गली,  मुहल्ला, नगर नहीं है, कोई सड़क नहीं है। जिला मुख्यालय स्थित नगर भवन का नाम शहीद जगतपति के नाम पर रखने का प्रस्ताव स्वीकृत होने के बावजूद नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर गुम हो गयी। इसी नगर भवन का उन्हें द्वारपालबना दिया गया। अगर परिवार जमींदार नहीं होता, पुनपुन किनारे खरांटी में पूर्वजों की जमीन नहीं होती तो शायद स्मारक स्थलभी नहीं बना होता। 1992 में माले ने जागोको जिंदा करने के लिए कार्यक्रम किया। तब इनके भतीजे धर्मराज बहादुर ने कहा था - कांग्रेसियों ने जगतपति के लिए क्या किया? टेलीविजन पर प्रसारित स्वतंत्रता ज्योतिकार्यक्रम में उनकी तस्वीर तक नहीं दिखाई गयी। बाद में जब इस संवाददाता ने उनसे साक्षात्कार लिया तो उन्होंने सीधा आरोप लगाया कि जातिवादी स्थानीय राजनीति के कारण ऐसी उपेक्षा होती रही है। जबकि जागो की मां ने पेंशन समेत तमाम प्रस्तावित सुविधाएं लेने से इंकार कर दिया था।‘ मालुम हो कि पूरा परिवार कोई लाभ नहीं लिया, लेकिन शायद देश के विभिन्न हिस्सों में बसे परिजन निजी कारणों से साल में एक दिन यहां नहीं आना चाहते। उधर भाकपा माले ने वर्ष 2000 के विस चुनाव से पूर्व इनका आदमकद प्रतिमा लगाने के लिए चंदा वसूली अभियान प्रारंभ किया था, लेकिन स्मारक बनाने वाली पार्टी को भी अब शहीद की जरूरत नहीं रहीं। आदमकद प्रतिमा की गूंज अब सुनाई नहीं पडती। माले के ही रामेश्वर मुनी ने जागो के प्रति सबको जगाने की पहल की थी, उनकी हत्या के बाद सब खत्म हो गया। गोह में उनका स्मारक उपेक्षा का शिकार है। चुनाव जीतने के बाद उनकी प्रतिमा के पास शपथ लेने की कसम खाने वाले विधायक की बातें जितनी क्रांतिकारी रही हो जीत के बाद वे भी सब भूल गये।



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