Thursday 27 October 2016

यह मियांपुर है : बिहार का अंतिम नरसंहार स्थल

हत्यारों की गोली से घायल देवमतिया
क्यों 32 की जगह 
1 1 नौकरी ही क्यों मिली?

नौकरी नहीं, सडक नहीं, अस्पताल नहीं, स्कूल नहीं, डाकघर नहीं, पुलिस पिकेट नहीं।
बहुत सालों बाद, संभवत: एक दशक बाद, एक बार फिर मियांपुर (गोह) जाना हुआ। 16 जून 2000 को पहली बार यहां गया था जब यहां 32 लाशें “चीख” रही थीं। तब घायल देवमतिया को देखने का मौका नहीं मिला था क्योंकि वह अहले सुबह इलाज को भेजी जा चुकी थी। कई साल बाद उससे मुलाकात हुई थी। तब उसकी तस्वीर मियांपुर की बरसी के मौके पर छपी थी। उसके दशक बाद उससे मुलाकात हुई। चेहरे पर अब झुर्रियां आ गयी हैं। कम सुनती है। शायद व्यवस्था की मार ने यह ठीक ही किया कि जमाने की शोर न सुनना पडे। अन्यथा क्या-क्या सुनेगी और क्या क्या बतायेगी बेचारी देवमतिया? कहते हैं ईश्वर इसीलिए बहरा के साथ गुंगा भी बनाता है, ताकि सुनने के बाद बोलने की बेचैनी जानलेवा न हो जाये?  
मियांपुर के स्मरण के लिए बने स्मारक के साथ लेखक

तब यहां सिर्फ लाशें नहीं गिरी थीं। मानवता पर यह हमला था। ब्लैक एंड ह्वाइट और यासिका मैट (कैमरा) के जमाने में जो कैद रिलों में हुआ था वह रियल लाइफ का विभत्स चेहरा था। स्मृतियां ताजा हो गयीं। कैसे गर्भवती की हत्या कर दी गयी थी। यह नरसंहार तब भी कई मामलों में ऐतिहासिक था और आज भी कई ऐतिहासिक सवाल, समाज से और सरकार से पूछ रहा है। व्यवस्था की पोल खोलता है मियांपुर!!! सरकार अपनी, सामाजिक न्याय का दावा करने वाले जब सरकार में बैठे थे तब यहां कत्लेयाम हुआ था। यह सेनारी के बदले रणवीर सेना का बदला था। खून के बदले खून का सिद्धांत पालन किया गया था। यह और बात है कि मारे गये सभी निर्दोष थे। क्योंकि इसमें कोई अपराधी नहीं था। बच्चे और महिलायें शामिल थे। इनका क्या कसूर था?

मियांपुर गांव में जाते हुए, अतीत को स्मरण करते हुए
सामाजिक न्याय के दावेदारों की अब भी सरकार है। लेकिन क्या मियांपुर के पीडितों को न्याय मिला? कई मामलों में राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट तब गयी जब किरकिरी हुई। मियांपुर के मामले में सरकार सुप्रीम कोर्ट भी नहीं गयी। और हां। यहां मारे गये थे 32 और सरकारी नौकरी मिली मात्र-11 को। जिस सेनारी के बदले में इस नरसंहार को अंजाम दिया गया था वहां मारे गये थे 34 और नौकरी भी मिली थी-34 को। सामाजिक न्याय के झंडाबरदार लालु प्रसाद ने इन भोले भाले ग्रामीणों को समझाया था कि क्यों 32 की जगह 11 नौकरी ही मिली।
सामाजिक न्याय के झंडाबरदारों को यहां जा कर देखना चाहिए। कितने भोले हैं ठगे गये मियांपुर के पीडित। राज्य के आखिरी सामूहिक नरसंहार का गवाह मियांपुर आज भी गरीबी और बेबसी में जी रहा है। जानते हैं तब सरकार के प्रतिनिधियों ने कुल 6 वादे किये थे। जाकर कोई देख आये और बताये कि इसमें कितने वादे पुरे किये जा सके हैं। एक भी नहीं। मुआवजा की राशि भले ही सभी के बदले मिली किंतु नौकरी नहीं, सडक नहीं, अस्पताल नहीं, स्कूल नहीं, डाकघर नहीं, पुलिस पिकेट नहीं। ये सब वादे अधूरे हैं।
 
मियांपुर के पीडितों का दर्द और हाल सुनते हुए
हां ध्यान दें- आज (27.10.16) को सेनारी नरसंहार के मामले में फैसला आया है। उसे देख लें। मैं भी सेनारी जाकर रिपोर्टिंग कर चुका हूं। उसका अनुभव अलग है। कभी फिर लिखुंगा।


(बिहार के चर्चित सेनारी नरसंहार काण्ड में 23 आरोपी बरी, 15 दोषी करार..आगामी 15 नवंबर को अदालत सुनाएगी सजा। जहानाबाद जिला कोर्ट का फैसला। 18 मार्च 1999 की रात जहानाबाद के सेनारी गाँव में प्रतिबंधित एमसीसी के उग्रवादियों ने 34 ग्रामीणों की गला रेतकर हत्या कर दी थी। इस फैसले पर स्त्रीकाल के संपादक संजीव चन्दन भाई ने सामाजिक कोण से फेसबुक वाल पर लिखा है तो मैने टिप्पणी की- समाजशास्त्र के साथ साथ एक पक्ष यह भी है कि दलितों, या अवर्णों को न्यायालय से निपटने का न शउर है, न क्षमता, न चाहत, न दिलचस्पी, न कोई साथ देने वाला काबिल और सक्षम साथी।) 

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