Thursday 28 June 2018

35 की उम्र में बैरागी बनने वाले शख्स 14 साल तक रहे दाउदनगर के चेयरमैन

छठा चेयरमैन-विकास का रामनामी बैंक : राम प्रसाद लाल
टाट से कि कुर्सी से’ का नारा गुंजता रहा। आप पढ चुके हैं किंग मेकर की भूमिका जारी रही। यह कोशिश भी कि महाजनी परंपरा से किसी को चेयरमैन बनाया जाए। पहली बार राम प्रसाद लाल चेयरमैन बनाये गए। 11 फरवरी 1958 से 27 फरवरी 1972 तक इस कुर्सी पर बैठे। चौदह सालएक लंबा वक्त होता है सत्ता के लिए। इतने समय तक आज तक कोई नहीं इस कुर्सी पर बैठ सका है। उन्होंने नई उपलब्धियां कायम की। सन 1951 में कुलदीप सहाय और उसके बाद डा.मुरारी मोहन राय के बाद राम प्रसाद लाल के चेयरमैन बनने तक की प्रवृति को देखें तो टाट से कि कुर्सी से’ की विचारधारा का संघर्ष तीखा था। टाट बनाम कुर्सी’ की विचारधारा प्रबल हो चुकी थी। टाट जमीन पर बिछाया जाता है जिस पर हम आप बैठते हैं। महाजनी परंपरा से चेयरमैन बनाने के खिलाफ की विचारधारा से संघर्ष में तब मध्यम मार्ग अपनाया गयाएक रणनीति के तहत। आखिर बुद्ध के प्रभाव वाले क्षेत्र में उनके मध्यम मार्ग का प्रभाव जो है। कुलदीप सहाय सवर्ण होते हुए भी शांतिप्रिय कमजोर जाति के थे। शहर से बाहर रहते थे। डा.मुरारी मोहन राय (इनके बारे में आगे आप पढेंगे) बंगलादेशी होने के कारण बाहरी थेकमजोर और काबिल भी। इसलिए किंग मेकर के घर जब बैठक हुई तो इनका चयन किया गया। ताकि खिलाफत की विचारधारा प्रबल न हो सके। राम प्रसाद लाल महजनी परंपरा से थेवे जाति के नोनियार/रोनियार थे। बहुसंख्यक थे। काबिल और दबदबा वाले घराने से ताल्लुक था उनका। हजारी बाबू इनके चाचा थे। इनका जन्म 29 जुन 1917 ई. को हुआ था। पटना विश्व विद्यालय के शेरघाटी हाई स्कूल से 1938 में 21 वर्ष की आयु में मैट्रिक पास किया था। वहां इनके चाचा हजारी लाल गुप्ता प्रधानाध्यापक थे। इनकी मृत्यू 23 अक्टूबर 1989 को हुई थी। दिसंबर 1957 में चुनाव हुआ था। चेयरमैन के शपथग्रहण की तय तिथि 08 फरवरी 1958 को शपथ नहीं हो सका। इसे रद्द कर दिया गया और दूसरी तिथि तय हुई-11 फरवरी 1958 की और इसी दिन वे चेयरमैन बने। इनके चयन के वक्त भी नारा लगा टाट पर से कि कुर्सी पर से। महाजनी परंपरा से इनका चयन हुआ। कोई विपक्ष नहीं। किसी की खिलाफत की चुनौती नहीं। जागरुकता थी या कहें वैमनस्य का भाव नहीं था। खूब इमानदारी से काम किया। किस्मत भी साथ था। 1962 में इनका कार्यकाल पूरा हो गया मगर चुनाव नहीं हुआ। भारत चीन युद्ध के कारण सरकार ने चुनाव नहीं कराया। जब 1964 में चुनाव की प्रक्रिया प्रारंभ हुई तो गोह कोंच के विधायक रहे ठाकुर मुनेश्वर सिंह के परामर्श से चुनाव स्थगित कराने की रणनीति बनी। नगरपालिका ने विभाग को लिखा कि मतदाता सूची अद्यतन नहीं है इसलिए चुनाव कराना न्यायोचित नहीं होगा। सरकार ने इसे स्वीकार करते हुए एक साल का अवधि विस्तार दे दिया। सन 1965 तक के लिए। मगर 1967 में बिहार सरकार ने नियम बदल दिया और डबल सीटेट (यानी दोहरा निर्वाचन) की व्यवस्था खत्म करते हुए एकल निर्वाचन की व्यवस्था कर दी और वार्ड छ: के बदले बारह बना दिये गये। मतदाता सूची का विखंडन हुआ। मगर चुनाव टलता रहा। 1969 या 1970 में गया के कल्क्टर रमेशचन्द्र अरोडा दाउदनगर थाना पर आये। जनता से मिलेबैठक की। लोगों ने चुनाव की मांग की। अक्टूबर 1970 में चुनाव का आदेश जारी हो गया। चुनाव 27 अक्टूबर 1970 को हुआ मगर तब भी कोई चेयरमैन नहीं बन सका। 27 अप्रैल 1972 को यमुना प्रसाद स्वर्णकार के चेयरमैन बनने तक वे चेयरमैन पद पर रहे। खैर..।
खूब इमानदारी से इस बीच काम किया। वर्तमान नगरपालिका मछली बाजार पर स्वतंत्रता सेनानी और विधायक रहे राम नरेश सिंह का कब्जा था। पूर्व चेयरमैन हजारी प्रसाद गुप्ता ने उन्हें यह जमीन मार्केट दान में दे दिया था। कारण था हजारी प्रसाद को राष्ट्रीय स्कूल में हेडमास्टर बहाल करना। इसे खाली कराने की उन्होंने ठान रखा था। सामाजिकराजनीतिकन्यायिकप्रशासनिक और दबंगता के घालमेल से एक व्युहरचना की गई। ढोल बजवाकर उनसे इस मार्केट को खाली कराया। केस मुकदमे की लंबी प्रक्रिया चली। हजारी लाल को कोर्ट में गवाही तक देनी पडी। मार्केट खाली कराकर उसमें शब्जी का बाजार लगाया गया। शहर के केदार कांस्यकार और भगवान बिगहा के तपेश्वर यादव ने इन्हें खदेड भगाया। मगर दुबले पतले शरीर के मालिक राम प्रसाद लाल दृढ इच्छा शक्ति के थे और अंत तक हार नहीं माने। खुद को लौह पुरुष के रुप में स्थापित किया। इन्होंने ही कंपोस्ट बनाने की योजना सरकार को भेजी थी जिसे प्रशंषा तो मिली मगर स्वीकृति नहीं। कंपोस्ट डेवलपिंग स्कीम के तहत योजना भेजी गई थी। दो ट्रेचिंग ग्राउंड बने थे। अशोक हाई स्कूल के पास कील खाना और दूसरा पीरा इलाही बाग (पीराही बाग या कसाइ मुहल्ला) मुहल्ला में। बडा गड्ढा खोदा हुआ था। उसमें कचडा एक परतदूसरा परत कमाउ शौचालय का पखानाएक परत फिर शहर का कचडा और फिर पखाना। इससे कंपोस्ट खाद बनाया जाता था। एक रुपया में एक बैल गाडी जैविक खाद शहर में नगरपालिका बेचता था। इससे खेती को उर्वरक मिल जाता था और रसायनिक खाद का इस्तेमाल कम होने से खेतों की उर्वरता कायम रहती थी। सरकार की तरफ से अनुदान देने की व्यवस्था थीमगर काफी लिखा-पढी के बावजूद अनुदान कभी मिला नहीं। सफाई जमादार जगदीश प्रसाद को इसके लिए 15 दिवसीय प्रशिक्षण के लिए पटना भेजा गया था। सरकार ने योजना की प्रशंसा की अधिकाधिक मदद का आश्वासन दिया मगर हुआ कुछ भी नहीं। इनके जीवन का दूसरा पहलू अध्यात्म से जुडा हुआ था। मात्र 41 साल की उम्र से 14 साल तक चेयरमैन रहने वाले राम प्रसाद लाल मात्र 35 साल की उम्र में वैरागी बन गए थे। अयोध्या चले गए। प्रमोद बन बडी कुटिया अयोध्या के महंत जय राम दास के शिष्य बन गए। उनसे दीक्षा ली। एक महीने से अधिक समय तक वहां रहे। पूरी तरह सात्विक बन गए। घर में लहसुन प्याज वर्जित हो गया। अयोध्या के रामनामा बैंक के सदस्य बन गए। 50 लाख बार राम’ लिखकर नया रिकार्ड बनाया। इसके लिए खाता बही रामनामा बैंक ही दिया करता था। 1990 में उनके इस कार्य के लिए स्वर्ण पदक मिला। अयोध्या पदक बांटने राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह गए। मगर देहांत हो जाने के कारण खुद राम प्रसाद जी नहीं गए और न ही उनके परिजन जा सके। इन्होंने स्कूल खूब खोला। उनका मानना था कि शिक्षा के बिना समाज का विकास संभव नहीं है। खास कर इस पिछडे इलाके में शिक्षा को गरीबकमजोर तबके तक पहुंचाना आवश्यक है। नतीजा कई स्कूल खोले गए। पटना का फाटक मिडिल स्कूल और बुधु बिगहा मिडिल स्कूल इन्होंने ही खुलवाया। तब शिक्षा कर लगता था। यह अब भी लगता है मगर इस क्षेत्र से नगरपंचायत को कोई मतलब नहीं है। तब शिक्षक बहाली भी नगरपालिका ही करता था। मात्र 15 शिक्षक इनके पहले शहर के लिए थे। इन्होंने 1967 से 1971 के बीच शिक्षकों की संख्या बढा कर 72 कर दी। स्कूलों को अपग्रेड किया। अर्थात प्राइमरी को मिडिल बना दिया। प्राथमिक शिक्षक नियंत्रण एवं ग्रहण अधिनियम 1971 बना तो इन शिक्षकों एवं स्कूलों पर सरकार का नियंत्रण हो गया। शिक्षकों का सरकारीकरण किया था। सभी 72 शिक्षक भी इससे लाभांवित हुए। सन 1971 में शहर में कुल 12 वार्ड बनाए गये। इससे पहले मात्र 06 वार्ड थे। उन्होंने सभी वार्ड में एक स्कूल खोला। इनके कार्यकाल में ही 11 मिडिल और 5 प्राथमिक स्कूल खुल चुका था।    

ध्यातव्य:- विकास का रामनामी बैंक : राम प्रसाद लाल शीर्षक से ही इस आलेख की पहली प्रस्तुति मेरी पुस्तक-श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर में अविकल हो चुकी है। 


यह आलेख और तस्वीर कॉपी राईट के तहत है बिना अनुमति लिए इसका पूर्ण या आंशिक प्रकाशन नियम विरुद्ध है सामग्री इसी लेखक (उपेंद्र कश्यप) द्वारा लिखित पुस्तक- “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” में प्रकाशित है यह निजी शोध कार्य है

Monday 25 June 2018

पांचवें चेयरमैन - कुलदीप सहाय : जब गुंजा नारा- टाट से कि कुर्सी से?



आजादी मिलने के बाद भी समाज जातीय व्यवस्था से बाहर नहीं निकल सका था। जातीय विभाजन हो या आर्थिक वजहों से संपन्न-विपन्न, उंच-नीच का भेद-भाव, यह तब भी था। अंग्रेजों द्वारा धार्मिक विभाजन का भी दंश यह शहर झेल रहा था। साल 1953 में भारत सरकार द्वारा निर्वाचन अधिनियम बनाने तक हिंदु-मुस्लिम मतदाताओं की सूची अलग-अलग बनती थी। 1948 तक जो तीन चेयरमैन बने थे सभी कुलीन थे। आर्थिक, सामाजिक और जातीय स्तर पर उनका दबदबा रहा था। जातीय स्तर पर देखें तो राजपूत, सैय्यद और ब्राह्मण चेयरमैन को देखते हुए समाज में यह विचार भी जगह बनाने लगा कि सिर्फ कुलीन तबके का ही चेयरमैन क्यों बनना चाहिए? हाशिए पर कमजोर के रुप में खडी चिन्हित जातियों से भी चेयरमैन बनाने की उत्कंठा जागृत होने लगी। ऐसा करना आसान नहीं था। कुलदीप सहाय इसी विचारधारा के बीच संघर्ष की उपज बने। यह विचार तब से विस्तार पा रहा था जब हजारी लाल गुप्ता चेयरमैन बनाये गए थे। अपने मात्र ढाई-तीन साल के कार्यकाल में उन्होंने जिस तरह समाज को शिक्षित करने के लिए प्रयास किया, स्कूल खोला, खोलवाया था उससे इस नारे को गढने में मदद मिली थी। कुलदीप सहाय जाति से कायस्थ थे। 1951 से 1953 तक वे चेयरमैन रहे, लेकिन समाजवाद की जमीन पर एक नई धारा को मजबूत कर गए। साल 1945 से 1951 तक वायस चेयरमैन रहने के बाद उन्हें चेयरमैन बनाया गया था। यह पहली बार हुआ था कि कोई चेयरमैन जनता का चयन था। पहली बार वोटिंग हुई थी। यानी जनता का चुना हुआ चेयरमैन। वे औरंगाबद निबंधन कार्यालय में ताईद (वसीका नवीस) थे। इस कारण उनकी छवि जनता में लिखाड की थी। काबिल माने जाते थे। घर बैठे लोगों का काम करा देते थे। मगर दूसरी तरफ मौज मस्ती वाले मिजाज के व्यक्ति थे। इस कारण मात्र करीब तीन साल ही चेयरमैन रहे। इनका चयन इस नारे के बीच हुआ था कि टाट पर से कि कुर्सी पर से। यानी चेयरमैन व्यवसायी, महाजनी परंपरा से बनना चाहिए या फिर इलिट तबके से। इलिट बोले तो पढा लिखा कुलीन तबका, उंची जातियों से, जिनका ठाट-बाट हो, शहर में दबदबा हो, खिलाफत की हिम्मत नागरिक समाज से कोई जुटा न सकता हो। चयन कुर्सी वाले का हुआ। चयन किंग मेकर माने जाने वाले व्यवसायी लक्ष्मी नारायण कांस्यकार के घर हुआ। इसमें डा.मुरारी मोहन राय का भी हस्तक्षेप था। इनका कार्यकाल विवादास्पद और लडाई झगडा का रहा। केदार कांस्यकार को प्रगतिशील विचारधारा का माना जाता था। वे नगरपालिका के सभापति थे। इस व्यवस्था को श्री सहाय ने खत्म करवा दिया था। इस कारण दोनों में नहीं बनती थी। खूब विवाद होता था। एक बार श्री कांस्यकार ने लखन मिस्त्री से घन चलवाकर नगरपालिका कार्यालय का ताला तुडवाया था। केदार बाबू पर प्राथमिकी दर्ज हुई। एक बार चेन्नई में सभी चेयरमैंनों की बैठक थी। उसमें बिना शामिल हुए ही इन्होंने यात्रा भत्ता निकाल लिया। विरोधी खेमे के केदार कांस्यकार को मौका मिला। उन्होंने मामले को कारर्वाई के अंजाम तक पहुंचाने में कोई कोर कसर नहीं छोडा। नतीजा बोर्ड को भंग कर इन्हें हटा दिया गया। खैर...।


ध्यातब्य:श्री कुलदीप सहाय जी की तस्वीर उपलब्ध नहीं होने के कारण पुस्तक-'श्रमण संस्कृति का वाहक- दाउदनगर' में प्रकाशित नहीं की जा सकी थी, यदि किन्हीं के पास उनकी तस्वीर उपलब्ध हो तो कृपया उपलब्ध कराएं-9931852301 या upendrakashyapdnr@gmail.com पर। मेरी इसी पुस्तक से यह अविकल प्रस्तुति है
यह आलेख और तस्वीर कॉपी राईट के तहत है  बिना अनुमति लिए इसका पूर्ण या आंशिक प्रकाशन नियम विरुद्ध है  सामग्री इसी लेखक (उपेंद्र कश्यप) द्वारा लिखित पुस्तक- “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” में प्रकाशित है  यह निजी शोध कार्य है 

जब अहीर शराफत दिखाता है तो ऐसे ही ‘लूट’ ली जाती है पुस्‍तक


आलेख वीरेंद्र यादव की 

हमारी पुस्‍तक ‘संभावनाओं के सोपान’ की एक कॉपी आज सरेआम ‘लूट’ ली गयी। लूटने वाले भी अपने ही विधान सभा क्षेत्र यानी ओबरा के हैं। दाउदनगर अनुमंडल के अतीत और वर्तमान पर वर्षों काम करने वाले उपेंद्र कश्‍यप से आज पटना में अति पिछड़ा वर्ग आयोग के पूर्व सदस्‍य प्रमोद चंद्रवंशी के आवास पर मुलाकात हुई। उन्‍होंने पुस्‍तक लेकर प्रमोद जी के आवास पर बुलाया। हमें तो लगा कि एक ‘कस्‍टमर’ मिल गये, यहां तो उल्‍टा ही हुआ। हमने उन्‍हें पुस्‍तक दी और उन्‍होंने पुस्‍तक अपने ‘तरकस’ में डाल ली। मेरे सामने देखने के अलावा कोई विकल्‍प नहीं था।
हम बात कर रहे थे पुस्‍तक की। विधान सभा के बजट सत्र के दौरान 75 से अधिक पुस्‍तक हमने बेची थी। उसके बाद से पुस्‍तक बेचने का क्रम जारी है। पत्रकार से बनिया बनने तक की यात्रा। आज बनिया के हाथों ही ‘लूट’ गये। सत्र के दौरान सिर्फ मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार को ही नि:शुल्क किताब भेंट की थी। नेता प्रतिपक्ष तेजस्‍वी यादव को भी पुस्‍तक भेंट करना चाहता था, लेकिन उन्‍होंने नकद भुगतान कर दिया। एक वक्‍त ऐसा भी आया जब एक पूर्व मंत्री ने 2100 की पुस्तक के बदले दस हजार का चेक थमा दिये। एक पूर्व सांसद के बदले उनके पुत्र बाद में पैसे पहुंचा गये। ‘वीरेंद्र यादव न्‍यूज’ के सहयोग के रूप हमने दस रुपये की आर्थिक मदद भी स्‍वीकार की है।
हम वापस उपेंद्र कश्‍यप और प्रमोद चंद्रवशी पर आते हैं। उपेंद्र औरंगाबाद जिले के दाउदनगर में पिछले 25 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। 2015 में उन्‍होंने एक पुस्‍तक लिखी थी- श्रमण संस्‍कृति का वाहक-दाउदनगर। दाउदनगर और आसपास के इलाकों पर आधारित उन्‍होंने दो खंडों में संदर्भ ग्रंथ ‘उत्‍कर्ष’ के नाम से प्रकाशित किया है। दाउदनगर का जिउतिया प्रमुख त्‍योहार है, उसकी लोकप्रियता बढ़ाने में उन्‍होंने बड़ी भूमिका निभायी है। जबकि प्रमोद चंद्रवंशी राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। दो बार उन्‍होंने ओबरा से विधान सभा का चुनाव लड़ा और दोनों बार उनका तीर (जदयू का चुनाव चिह्न) लक्ष्‍य नहीं भेद पाया। कई वर्षों तक वे अतिपिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्‍य भी रहे।
उपेंद्र कश्‍यप किसी काम से पटना आये थे। प्रमोद चंद्रवंशी के आवास पर ही मुलाकात हुई। इस दौरान काराकाट लोकसभा और ओबरा विधान सभा चुनाव को लेकर चर्चा भी हुई। लेकिन आमतौर पर जैसा हमारी सक्रियता को लेकर सवाल उठाया जाता है- चुनाव लड़ना है क्‍या। हम बस इतना ही कह पाये कि मुखिया का चुनाव में हार कर रिकार्ड बना लिये हैं, आगे शौक नहीं है। यह अलग बात है कि चुनाव अनुभव पर आधारित पुस्‍तक भी तैयार है।

Saturday 9 June 2018

ससुर यमुना प्रसाद की परंपरा को आगे बढाते हुए मुख्य पार्षद बनी सोनी देवी


जो इतिहास बन गए:- महिला सशक्तिकरण की लिखी गयी नयी गाथा 
पहली बार अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद पर महिलाओं का कब्जा 
पूरी तरह बोर्ड पर पहली बार नारी शक्ति का हुआ नियंत्रण 1885 से अब तक पहली बार महिला बनी अध्यक्ष  
००० उपेंद्र कश्यप :- 09 जून 2018  
सोनी देवी नगर परिषद दाउदनगर के प्रथम बोर्ड की चेयरमैन बन गयी। दाउदनगर के सन्दर्भ में वे सबसे कम उम्र की चेयरमैन बनी हैं। राजनीतिक परिवार की पूरी तरह गैर राजनीतिक स्त्री- हाउस वाइफ। वह अपने ससुर यमुना प्रसाद की विरासत को आगे बढ़ाएंगी। श्री प्रसाद भी 27 फरवरी 1972 से लेकर 11 जून 1977 तक नगर पालिका के चेयरमैन रहे हैं। मेरी पुस्तक ‘श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर’ में इनके बारे में ही लिखा गया है- नगरपालिका के अंतिम मुग़ल। सबसे ताकतवर चेयरमैन। इनके बाद के बोर्ड में चेयरमैन से चेक पर हस्ताक्षर करने का अधिकार सरकार ने छीन लिया था और नयी व्यवस्था के तहत ‘कार्यपालक पदाधिकारी’ की व्यवस्था हुई। नारी सशक्तिकरण का यह प्रथम उदाहरण है। इतिहास की एक नयी गाथा लिख दी गयी है।
अध्यक्ष सोनी देवी और उपाध्यक्ष पुष्पा देवी, दोनों स्त्री शक्ति। यह नगरपालिका 1885 में गठित हुई थी, तब से लेकर अब तक यह पहली ऐसी घटना है, जब ऐसा हुआ है। अब बोर्ड पर नियंत्रण महिला की होगी। कुल 27 वार्ड से जीतकर आये पार्षदों में 18 महिला सदस्य हैं। यानी पूर्ण बहुमत से चार अधिक। यह भी एक उदाहरण है कि तय 12 आरक्षित सीट से 50 प्रतिशत अधिक स्त्री वार्ड पार्षद हैं। पुष्पा देवी दूसरी बार वार्ड पार्षद बनी थीं और अब उपाध्यक्ष बन गयीं। इनसे पहले सिर्फ एक रोहिणी नंदिनी ऐसी महिला पार्षद थीं, जो दो बार लगातार 2002 से 09 जून 2007 तक उपाध्यक्ष थीं। इस बार वे पुष्पा देवी से ही चुनाव हारी हैं।         

चेयरमैन की सूची में अठारहवें स्थान पर दर्ज होगा सोनी देवी का नाम 
वर्ष -1885 में नगरपालिका का गठन हुआ था। तब से 1937 चेयरमैन सिंचाई विभाग औरंगाबाद के एसडीओ पदेन होते थे। वर्ष 1938 से चुनाव शुरू हुआ और अब तक सोनी देवी को लेकर 17 बार चेयरमैन का चुनाव हो चुका हैं। एक बार बीडीओ इस पद पर रहे हैं। तब से अब तक की सूची-मेरी पुस्तक-“श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” से:-  
वर्ष  चेयरमैन  वाइस चेयरमैन  
1885 एसडीओ औरंगाबाद बाबु जवाहिर मल  1866 “ “ गिरिजा शेखर बनर्जी  1888 “ “ मोती लाल  
1909 “ “ मुंशी एकबाल हुसैन  1912 “ “ मुंशी एकबाल हुसैन  1913  “ “ मोहन लाल  
1914 “ “ मुंशी सैय्यद कयुम हुसैन  
1918 “ “ बाबु धर्मदास जैन  1920 “ “ हकीम सैय्यद मुहम्मद  1928 “ “ बाबु धर्मदास जैन 1931 “ “ खान बहादुर सैय्यद मुहम्मद  
1934 “ “ रघुनाथ सहाय  
1937 “ “ अनंत प्रसाद  
1938  सुरज नारायण सिंह पं.बलराम शर्मा
 1942 खान बहादूर सैय्यद मुहम्मद        नथुनी मिश्रा  1945 राय बहादूर जगदेव मिश्रा कुलदीप सहाय – 1951 तक हजारी लाल गुप्ता         कुलदीप सहाय 1951 कुलदीप सहाय         हरि प्रसाद  1953 मुरारी मोहन राय        बंशी राम  
11 फरवरी 1958 से  27 फरवरी 1972 तक-
                 राम प्रसाद लाल         बंशी राम  
27 फरवरी 1972 से  11 जुन 1977 तक -
                  यमुना प्रसाद स्वर्णकार    मोहम्मद ईशा  
11 जुन 1977 से बीडीओ जे.सी.रस्तोगी
 28 मार्च 1978 से 1983 तक-
                   शिवशंकर सिंह      कृष्णा प्रसाद  
12 जनवरी 1986 से-चंद्रमोहन प्रसाद तांती, कृष्णा प्रसाद  2002 से  अप्रैल 05 तक-
नारायण प्रसाद तांती रोहिणी नंदिनी  अप्रैल 2005 से  09 जुन 2007 तक-
                सावित्री देवी रोहिणी नंदिनी  09 जुन 2007  से 9 जुन 2012 तक-
परमानंद प्रसाद (दो बार)  अजय कुमार पांडेय   उर्फ सिद्धी पांडेय  
09 जुन 2012 से  27 जुन 2014 तक-
धर्मेन्द्र कुमार कौशलेन्द्र कुमार सिंह  
27 जुन 2014 से-
                परमानंद प्रसाद कौशलेन्द्र कुमार सिंह 
09 जून 2018 से - सोनी देवी  पुष्पा देवी

Thursday 7 June 2018

चौथे चेयरमैन हजारी लाल गुप्ता : दूर दूर तक डिग्रियों का डंका


जब डिप्टी साहब चेयरमैन रहते गुजर गए तब हजारी लाल गुप्ता को चेयरमैन मनोनित किया गया। वे साल 1951 में कुलदीप सहाय के निर्वाचित होने तक इस पद पर रहे। वे नासरीगंज में तब हाई स्कूल के हेड मास्टर थे। दाउदनगर में ही पटना के फाटक मुहल्ला में उनका स्थाई निवास था। इनके वंशज आज भी शहर में रहते हैं। जब चेयरमैन बने तो हर शनिवार को वे यहां आते थे। रोजमर्रे का काम निपटा जाते थे। बीच में जब कभी अति आवश्यक हुआ तो आते थे। अन्यथा चपरासी सोन पार कर नाव से उनके पास जाता था और काम करा आता था। इनका कार्यकाल कम दिनों के लिए रहा। इनका जन्म संभवत: 1898 में हुआ था। पिता सोमारु साव थे। उनका यहां बडा व्यवसाय था। रुतबा था। किरानाज्वेलरी एवं कपडा की दुकानें थी। शहर में साव जी की चलती हुआ करती थी। जमीनें काफी थीं। बेटे को पढाया। इन्हें भारत के राष्ट्रपति बने सर्वपल्ली राधाकृष्णन से पढने का सौभाग्य कोलकाता विश्वविद्यालय में मिला। यहां से फिलोसफी और अंग्रेजी में एमए किया। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से कला में स्नानतक किया। कटक उडीसा से अंग्रेजी में एम.एड और एल.एल.बी किया था। इतना डिग्रीधारी कोई चेयरमैन आज तक नहीं मिला। इसका डंका दूर दूर तक बजा। सामाजिक प्रतिष्ठा बढती चली गई। ताजा ताजा आजाद हुए देश में वे सुट-बुट वाले बाबू थे। हमेशा कोट पैंट और टाई ही पहनते। तब जातिवाद भी कम नहीं था। कहावत थी- दाउदनगर में नीमनेउर (नेवला) और नोनियार की संख्या काफी है। स्वाभाविक था नोनियार वैश्य के नाते संख्या बल साथ था तो आर्थिक सामाजिक कारणों से प्रतिष्ठा भी। अनुशासन प्रिय थे। व्यक्तित्व ऐसा कि बेटा बाप के नाम से नहीं पिता पुत्र के नाम से जाना जाने लगे। एक दुर्भाग्य भी उनका रहा। जिसने विकलांग बना दिया। जब मात्र 14 साल की उम्र थी तो उनका विवाह सुन्दरी देवी से कर दिया गया। यह बताता है कि तबका चाहे कितना भी इलिट क्यों न हो तत्कालीन समाज में कम उम्र में शादी कर दी जाती थी। इस मामले में जातिधर्म या आर्थिकशैक्षणिक हैसियत का कोई मोल नहीं था। किशोरवय में पत्नी! अभी जवान भी न हुए थे कि मात्र 16साल की आयु में उनके पैर में जख्म हो गया। चिकित्सा सुविधा निम्नतम थी। इलाज में कमी रह गई या किस्मत यही थीउनको एक पैर ने जीवन भर के लिए लाचार बना दिया। इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। जीवन की तमाम मुश्किल हालातों से निपटने की शक्ति हासिल किया। जज्बा ही था कि शारीरिक कमजोरी को लाचारी नहीं बनने दिया और शिक्षा के उंच शिखर तक गये। नई बुलन्दियां गढी और उच्च डिग्रियां हासिल की। पटना हाई कोर्ट में वकालत कीलेकिन मन शिक्षा के क्षेत्र की ओर झुक रहा था। अंतत: उन्होंने शिक्षक ही बनने का निर्णय लिया। समाज में शिक्षा की जागृति लाने के लिए कई बडे कार्य किया। सिवानशेरघाटीनासरीगंज और दाउदनगर में राष्ट्रीय हाई स्कूल (अब राष्ट्रीय इंटर स्कूल) में प्रधानाध्यापक रहे। 01 जनवरी 1957 से लेकर 01 अक्टूबर 1964 तक यहां प्रधानाध्यापक रहे। उन्होंने इस स्कूल की स्थापना में भी भूमिका निभाया था। आज भी यह स्कूल इस बात का गवाह है। यहां दीवारें बताती हैं कि जब जुलाई 1953 में स्कूल खोला गया तो संस्थापकों में विधायक राम नरेश सिंह एवं पदारथ सिंहहजारी लाल गुप्ता एवं रामकेवल सिंह शामिल हैं। इस स्कूल की स्थापना में बनारसी प्रसाद सिंहअनंत प्रसादकेदारनाथ सिंहदेव प्रसाद भट्टाचार्यसैयद अब्दुल रउफ शमसीडा.विजय कुमार सिंह एवं डा.मुरारी मोहन राय अन्य सदस्य के रुप में दर्ज हैं। यह सन्योग ही है कि 1953 से 1957 तक शहर के चेयरमैन रहे डा.मुरारी मोहन राय भी इस स्कूल की स्थापना से जुडे थे। यही नहीं इस विद्यालय में उन्होंने राधामोहन प्रसाद को कामर्स शिक्षक के रुप में बहाल किया था और उन्हें ही खुद प्रधानाध्यापक का प्रभार दिया था। 02 अक्टूबर 1964 से 12 सितंबर 1993 तक वे प्रधानाध्यापक रहे। राधामोहन प्रसाद ही नहीं विज्ञान शिक्षक बासदेव प्रसाद एवं लालमोहन सिंह को इस स्कूल में उन्होंने ही बहाल किया था। इसके अतिरिक्त नगरपालिका के विद्यालयों में सुखदेव मिश्रा (सुखु पंडित) के पिता सरयु मिश्रासुखदेव प्रसाद समेत कई शिक्षक बहाल किया। शिक्षा के क्षेत्र में शहर में सबसे पहले बतौर चेयरमैन उन्होंने ही शिक्षक बनाने का काम किया। इससे कई घरों में रोजगार देने से इनकी प्रतिष्ठा तो बढी हीसमाज भी शिक्षा के प्रति जागरुक हुआ। शिक्षा के प्रति उनके लगाव ने उनको गढवा (झारखंड) में स्थापित कर दिया। सरकारी सेवा से सेवानिवृत होने के बाद वहां गार्ड बाबू के नाम से स्थापित एक व्यक्ति ने इन्हें गढवा कन्या हाई स्कूल में प्रधानाध्यापक बनवाया। वहां चर्चित होटल प्लाजा में खाना खाते थे। इस विद्यालय में सेवा के दौरान ही 22 जनवरी 1970 को उनका देहांत हृदय गति रुकने से हो गया। वहां से ट्रक में शव लेकर लोग आये। शहर में मातम छा गया था। समाज का हर तबका इनके घर की ओर दौडा। लोगों को लगा कि उनके बीच का सितारा उन्हें छोड गया। आखिर शिक्षा का अलख जगाने वाला समाज का अग्रणी व्यक्ति के अंतिम दर्शन का अवसर कोई भला क्यों छोडना चाहेगायहां से पटना ले जाकर गंगा घाट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया।   
नोट-यह आलेख सबसे पहले मेरी किताब-‘श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर’- में प्रकाशित है, दूसरी बार आपके सामने अविकल प्रस्तुति यहाँ है।

यह आलेख और तस्वीर कॉपी राईट के तहत है  बिना अनुमति लिए इसका पूर्ण या आंशिक प्रकाशन नियम विरुद्ध है  सामग्री इसी लेखक (उपेंद्र कश्यप) द्वारा लिखित पुस्तक- “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” में प्रकाशित है  यह निजी शोध कार्य है 

Wednesday 6 June 2018

तीसरे चेयरमैन: डिप्टी साहब, जिनको शहर खींच लाया

1945 से 1948 तक शहर के चेयरमैन रहे राय बहादुर जयदेव मिश्रा,
दाउदनगर के प्रथम ग्रेजुएट थे।

अभी तक अकेले ऐसे चेयरमैन जिनकी मृत्यु पद पर रहते हुई।
उपेन्द्र कश्यप- लेखक -श्रमण संस्कृति का वाहक दाउदनगर
राय बहादूर जय देव मिश्रा का उप नाम “डिप्टी साहब” ही चर्चित है। यही नाम जन मानस की स्मृतियों में बैठा हुआ है। वे 1945से 1948 तक शहर के चेयरमैन रहे। दाउदनगर में ही पढे लिखे। बिहार के अकेले बी.एन.कालेज से ग्रेजुएट किया था। शायद दाउदनगर के पहले ग्रेजुएट। ब्रिटिश हुकूमत में कानूनगो के पद पर बहाल हुए। वे अंडर सेक्रेटरी के बाद सर्वे सेटलमेंट आफिसर के पद से सेवानिवृत हुए। इसीलिए उनका उप नाम “डिप्टी साहब” ही पड गया। सेवा निवृति के बावजूद तत्कालीन सरकार ने उन्हें नहीं छोडा। काम सौंपा- पूर्णिया में बनेली ईस्टेट के रिसिवर का। यानी इस जमींदार घराने के विवाद को सुलझाने का काम मिला। राजा की तरह तैनात किए गए। तब मामला सुलझाने के लिए यहां से शीतल प्रसाद खत्री और इन्द्रदेव राय को साथ ले गए थे। इन दोनों को इससे पूर्व वे रांची भी साथ ले गए थे। सर्वे कार्य कराने में सहयोग के लिए। लक्ष्य पूरा करने में जब वे कामयाब हुए तो उन्हें वहीं रहने को कहा गया। मगर नबाबी ठाठ वाले शहर की गलियों ने उन्हें पुन: दाउदनगर खींच लाया। सोन किनारे की सोंधी मिट्टी की खुशबू भला और कहां मिलने वाली थी। वे दाउदनगर आ गये। उनको शहर का चेयरमैन बनने को कहा गया। उन्होंने साफ कहा कि सर्वसम्मति से बनाओगे तब स्वीकर है। उन्हें सर्वसम्मति से शहर का चेयरमैन बना दिया गया। उनके पीछे इस आकर्षण की वजह थी। नागरिकों को उनसे काफी अपेक्षा थी। उम्मीद थी कि डिप्टी साहब जब चेयरमैन होंगे तो शहर को बडी कामयाबी मिलेगी। सरकार में उनका रसूख है। अंग्रेजी हुकूमत भी उनकी क्षमता और प्रतिभा का लोहा मानती है। इसकी वजह थी नगरपालिका से जुडा महत्वपूर्ण कार्य करना और नगर निकाय चलाने का उनका तजुर्बा। वे गया म्युंसिपल के विशेष पदाधिकारी रह चुके थे। उसके बाद जब पटना सचिवालय में अंडर सेकरेट्री बने तो उन्होंने दाउदनगर नगर पालिका में चुनाव की व्यवस्था प्रारंभ कराया। यहां म्युंसिपल एक्ट की धारा 21 के तहत पदेन अध्यक्ष हुआ करता था। इसी प्रावधान के तहत यह पद 1885 से 1938 तक दाउदनगर के सिंचाई विभाग के एसडीओ और फिर औरंगाबाद के सिविल एसडीओ के पास रहा था। इन्होंने दफा 28 के तहत पदेन चेयरमैन की व्यवस्था खत्म कराया और तब ही नागरिक समाज से चेयरमैन के चयन की प्रक्रिया प्रार्ंभ हुई। कांग्रेस का जमाना था सो जम्होर के सूरज नारायण सिंह को प्रथम चेयरमैन बनने का मौका मिला। वे निर्वाचित नहीं मनोनित चेयरमैन थे। तब सरकार के पास यह अधिकार था कि किसी को भी चेयरमैन मनोनित कर सकती थी। उनके इसी योगदान से यहां का समाज उनका ऋणी था। वह कर्ज शायद उन्हें चेयरमैन बना कर उतारने की कोशिश की गई थी। लेकिन यह ऋण काफी बडा था। उनका इस पद पर रहते ही निधन हो गया। ऐसा 1885 से लेकर अब तक का अकेला उदाहरण है। जब कोई चेयरमैन पद पर रहते स्वर्ग सिधार गया हो। शहर में पक्की नाली निर्माण का कार्य उन्होंने ही प्रारंभ किया था। एक वाकया जन मानस में दर्ज है कि डा.रणधीर सिंह के पिता सिंघेश्वर सिंह को सरकार ने आई.ए.एस. की मानद उपाधि दे रखा था। जब वे शहर कार से आये तो थाना में अपनी गाडी लगा दी और वहां से पैदल ही उनके पुरानी शहर स्थित मकान पर गये। कारण बताया था कि डिप्टी साहब उनके सिनियर अधिकारी रहे हैं, गुरु की तरह रहे हैं, तो उनके पास कार से कैसे जायें? वाह रे जमाना, अब ऐसी अपेक्षा शायद ही की जा सकती है।

नोट-यह आलेख सबसे पहले मेरी किताब-‘श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर’- में प्रकाशित है, दूसरी बार आपके सामने अविकल प्रस्तुति यहाँ है।

यह आलेख और तस्वीर कॉपी राईट के तहत है  बिना अनुमति लिए इसका पूर्ण या आंशिक प्रकाशन नियम विरुद्ध है  सामग्री इसी लेखक (उपेंद्र कश्यप) द्वारा लिखित पुस्तक- “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” में प्रकाशित है  यह निजी शोध कार्य है 

Sunday 3 June 2018

चेयरमैन साहब: हकीमी से हुए खान बहादूर, कुत्ते को पच्चीस पैसे की जलेबी



दो बार वायस चेयरमैन रह चुके थे दूसरे चेयरमैन

चमरटोली को डूबसे से बचाया तो ब्रिटिश हुकूमत ने दी “खान बहादूर” का लकब

जब असहयोग आन्दोलन में प्राय: सभी कांग्रेसियों के साथ सूरज नारायण सिंह ने भी अपने सभी पदों से त्यागपत्र दे दिया तब सरकार ने खान बहादूर सैय्यद मुहम्मद को यहां का चेयरमैन नियुक्त किया था। वे 1942 से 1945 तक इस पद पर रहे। इसके पहले 1920 और 1931 में वायस चेयरमैन रहे थे। पहली बार ऐसा हुआ था कि कोई वायस चेयरमैन इस पद तक पहुंचे हों। हालांकि वे मात्र दूसरे ही चेयरमैन थे। पिता का नाम हकीम जलील खां था। सन-1939 में असहयोग आन्दोलन प्रारंभ हुआ था। तब डिस्ट्रिक्ट बोर्ड हुआ करता था। जब 1935 में गवर्मेंट आफ इंडिया एक्ट बना तो उसके तहत राज्य में फेडरल सरकार बनी थी। जिसमें सात मंत्री थे। सभी ने असहयोग आन्दोलन के समर्थन में इस्तिफा दे दिया था। सैय्यद मुहम्मद को ब्रिटिश हुकूमत ने खान बहादूरका तगमा दिया था। इसकी वजह थी। गया के कलक्टर की पत्नी बीमार रहती थी। इलाज के लिए काफी जगहों पर गई, वैद्य, हकीम से मिलीं, मगर स्वस्थ नहीं हो रही थीं। सैय्यद मुहम्मद खुद हकीम थे। उंची डिग्री नहीं थी उनके पास। तब भी इनकी हकीमी की चर्चा दूर दराज तक थी। इन्हें कलक्टर का बुलावा आया। अपनी दवा और नुस्खे से उन्हें ठीक कर दिया। शेरवानी और अचकन पहन कर गया जाते, कलक्टर से हाथ मिलाते। यह तब बडी हैरत और गरिमा की बात हुआ करती थी। इससे उनका कद बढता गया। कहते हैं शहर में सोन का हुल्लड (बाढ) आया तो वार्ड संख्या 3 चमार टोली पानी में डूब गया। शहरियों ने इस बाढ की विभीषिका से किसी तरह खुद को बचाया। इन्होंने गया कल्क्टर को टेलीग्राम पर सूचना दी कि हमने बाढ से शहार को बचा लिया तो उधर से उन्हें खान बहादूरका लकब दे दिया गया। वे यहां सेना के लिए जवान का चयन किया करते थे। रिक्रूटिंग आफिसर थे। जवानों का चयन फौज के लिए करते और उसे नगरपालिका का चपरासी फौजदार राम अपने साथ लेकर दानापुर कैंट पहुंचा देते। उन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी। मलुट गुरु जी उन्हें थोडी बहुत अंग्रेजी सीखाते थे। उनका काफी रुतबा था। ऐसा कि दूसरा उदाहरण मुश्किल से मिलेगा। एक वाकया याद आता है। नगरपालिका में सैय्यद वायज अहमद चपरासी थे। उनको कह दिया कि जाओ तुम्हें सस्पेन्ड किया।वह घर जा कर बैठ गए, मतलब काम पर आना बंद कर दिया। तीन दिन बाद बुलावा भेजा। आये और जब चेयरमैन ने पूछा कि क्यों नहीं आ रहे थे तो जवाब दिया कि- आपने सस्पेंड किया था।वे अवाक रह गए। आज जब चेयरमैन की बात चपरासी भी नहीं सुनता तो ऐसे वाकये चकित करते हैं। वे कागजी कारर्वाई नहीं करते थे। कर्मचारी को परेशान न होना पडे इसका ख्याल करते थे। मगर रुतबा था कि जो मुंह से कह दिया वह काम हो जाता था। उनके जमाने में बडा बाबु थे- गया प्रसाद वर्मा-उनको भी मौखिक ही सस्पेंड किया था। एक बार उनको अपने रईसजादे (बेटे) मो.जुबैर खान के लिए पैरवी करनी पडी थी। वे सरकारी सेवा में थे। गया में उनको उच्चाधिकारियों ने सस्पेंड कर दिया। मिलिट्री में कैप्टन रहे के.अब्राहम गया के तब कलक्टर थे। उनसे पैरवी किया। उनसे इनकी अच्छी बनती थी। कारण था रिक्रूटिंग आफिसर रहते उनसे संपर्क हुआ था। जुबैर खान कुत्ते को उस जमाने में रोजाना पच्चीस पैसे की जिलेबी खिलाया करते थे।
नोट-यह आलेख सबसे पहले मेरी किताब-‘श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर’- में प्रकाशित है, दूसरी बार आपके सामने अविकल प्रस्तुति यहाँ है। 

यह आलेख और तस्वीर कॉपी राईट के तहत है  बिना अनुमति लिए इसका पूर्ण या आंशिक प्रकाशन नियम विरुद्ध है  सामग्री इसी लेखक (उपेंद्र कश्यप) द्वारा लिखित पुस्तक- “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” में प्रकाशित है  यह निजी शोध कार्य है 

Saturday 2 June 2018

दाउदनगर के नहीं थे नगरपालिका के प्रथम चेयरमैन सूर्य नारायण सिंह



स्व.सूर्य नारायण सिंह जी की तस्वीर के साथ लेखक उपेन्द्र कश्यप
सन-1885 में नगरपालिका का गठन हुआ

तब से लेकर 1910 तक कोइ वार्ड नहीं था


सोन के पानी का रंग बदलते रहता है। कभी झक सफेद, एकदम से कजल तो बरसात में जुलाई से सितंबर तक चाय की तरह मटमैला और फिर सितंबर से दिसंबर तक पानी चामड (कचडा-फंगस) हो जाता है। इसी तरह यहां के प्रशासन और प्रशासक का भी रंग बदलते रहा है। जब सन-1885 में नगरपालिका का गठन हुआ था, तब शहर में कोई वार्ड नहीं था। यह सिलसिला सन 1910 तक चला। चूंकि डोमन खान के अत्याचार से मुक्ति का यह रास्ता ब्रिटिश हुकूमत ने निकाला था, इसलिए प्रजा पर सीधे सीधे उसका ही नियंत्रण हो गया। अंग्रेजी सरकार का अधिकार जनता पर हो गया। शहर का हर कार्य नगरपालिका कार्यालय से होने लगा। दाउदनगर सिंचाई विभाग के एसडीओ ही चेयरमैन के प्रभार में रहे, जब 1922 में म्युंसिपल एक्ट बना तब औरंगाबाद के सिविल एसडीओ इसके पदेन चेयरमैन बनने लगे, साल 1938 तक। साल 1910 में पहली बार वार्डों का गठन किया गया जिसकी संख्या मात्र-4 थी। सन-1925 में यह संख्या-6 थी। 1931 तक चुनाव नहीं होते थे। शहर के 25-50 गणमान्य लोग बैठते थे और हाथ उठा कर वार्ड कमीश्नर का चुनाव हो जात था। जब 1931 में इलेक्शन रुल बना तो चुनाव की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। चेयरमैन ही मतदाता सूची बनाते थे। जिसे कोई चुनौती नहीं दे सकता था। मतदाता वही बनते थे जो नगरपालिका को टैक्स देते थे। न्यूनतम डेढ रुपए देने वाले मतदाता बनते थे। इस डेढ रुपए का काफी महत्व था तब। तब किरानी को 30 रुपए महीना वेतन मिला करता था। मजिस्ट्रेट को मात्र डेढ सौ रुपए महीना का वेतन होता था। तब हर सीट से दो सदस्य चुने जाते थे। इस तरह जब छ: वार्ड बना था तो बारह का चुनाव होता था। तीन सरकार मनोनित करती थी। एक चिकित्सक, एक सामाजिक कार्यकर्ता और एक राजनीतिक दल से चुने जाते थे। चेयरमैन पदेन होता था। यानी कोई न कोई अधिकारी ही चेयरमैन बनता था। जब दाउदनगर के जगदेव मिश्रा (बाद में चेयरमैन बने हैं) पटना सचिवालय में पदस्थापित हुए तो उन्होंने ही नगरपालिका अधिनियम की दफा 28 के तहत पदेन चेयरमैन की व्यवस्था खत्म कराया।
इसके बाद 1938 में सरकार ने नागरिक समाज से प्रथम चेयरमैन के रुप में सूर्य नारायण सिंह को मनोनित किया। जो 1942 तक इस पद पर रहे। तब कांग्रेस ही थी और उसी का दबदबा सत्ता से लेकर समाज के गलियारे तक में था। ऐसे में कांग्रेसी पृष्ठभूमि के शख्स को ही चेयरमैन मनोनित किया गया। उनका जन्म 1867 में हुआ था। उनके पिता का नाम राम किशुन सिंह था। दाउदनगर के सिफ्टन हाई स्कूल (अब अशोक इंटर स्कूल) की प्रबंध कमिटी से जुडे हुए थे। शायद वे सचिव या किसी अन्य पद पर थे। इस कारण उनका दाउदनगर आना जाना लगा रहता था। जब उन्हें चेयर मैन बनाया गया तो उन्होंने शहर का अतिक्रमण हटाया। इसकी चर्चा हुई और खिलाफत भी। लेकिन यातायात बहाल हुई। आवागमन सुविधाजनक हुआ। तब तक सिंचाई विभाग के डाकबंगला (नगर भवन के बगल में) में नगर पालिका बोर्ड की बैठक हुआ करती थी क्योंकि चेयरमैन औरंगाबाद के एसडीओ हुआ करते थे। जब सूरज नारायण सिंह चेयरमैन बने तो बैठकें नगरपालिका के कार्यालय में होने लगी। तब खूब तैयारी होती थी। अंग्रेजी हुकूमत थी। उसकी ठाठ भी शहर ने देखा। खूब देखा। बैठक की तैयारी के लिए कई दिन से सभी वार्ड कमीश्नर (अब वार्ड पार्षद) तैयारी करते थे।


 जब चेयरमैन का आगमन होता था तब घडा में पानी और तरबुजा, खरबुजा रखा जाता था। एकदम से ताजा। सोन में उपजाया हुआ। तब यहां के सोन दियारा में तरबूज-खरबूज और ककडी की खेती खूब होती थी। ताजा फल और मीठा स्वाद के साथ शरीर को ठंढक भी मिलती थी। जब वे आते तो शहर में सडक किनारे दोनों ओर नागरिक खडे हो कर सलामी बजाते। आखिर अंग्रेजी सरकार का रुतबा जो था। फिर समाज जमींदारी प्रथा के प्रचलन से खासा प्रभावित था। उनका कालेज जीवन कलकत्ता (अब कोलकाता) विश्व विद्यालय से संबद्ध रहा है। उनके बडे भाई जगरनाथ सिंह ने भी इसी विश्व विद्यालय से संस्कृत में एम.ए. (स्नात्कोत्तर मानविकी) किया था। स्वतंत्रता आन्दोलन में भी उनकी भूमिका रही है। जब जय प्रकाश नारायण हजारी बाग जेल में रखे गए तो उसी वक्त इनको इनके साथी शालिक सोनार एवं ड्राइवर केवल राम (चंद्रवंशी) के साथ गिरफ्तार कर जेल में रखा गया। नतीजा जय प्रकाश बाबु से उनकी घनिष्ठता बढ गई। बाद में जेपी नारायण खुद भू-दान आन्दोलन के प्रणेता विनोबा भावे और त्रिपुरारी शरण सिंह के साथ जम्होर आए। सुरज नारायण सन 1947 से 1952 तक गया जिला के (तब औरंगाबाद जिला वजूद में नहीं था) जमींदार विधान सभा क्षेत्रसे एमएलसी (विधान परिषद सदस्य) रहे हैं। कांग्रेस में रहते हुए भी उसकी नीतियों के खिलाफ चुनाव लडे थे। क्योंकि वे जमींदारी उन्मूलन के खिलाफ थे। खिलाफत में अपना मतदान भी किया था। यह स्वभाव था या राजनीति यह अलग विषय है मगर उन्होंने जमींदार होते हुए भी इस प्रथा की खिलाफत किया यह महत्वपूर्ण है। इस इलाके में ईख उत्पादन से जुडे किसानों का संघ उन्होंने बनाया- केन ग्रोवर्स कापरेटिव युनियनजिसके वे प्रथम चेयरमैन रहे। जम्होर खादी भंडार भी उन्हीं की दी हुई जमीन पर कायम है। इस कारण वे समाज और क्षेत्र में लोकप्रिय होते चले गए। उनका काम करने का तरीका अलहदा था। नाम और रुतबा बडा हो गया था। स्थिति यह तक बन गई कि किसी को उनकी बात काटने तक का साहस नहीं होता था। जब दो लोग या समूह किसी मुद्दे पर आपस में उलझ जाते तो उनके बीच वे समझौता करा देते। नतीजा लोग पुलिस तक नहीं जाते। इन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में, खास कर हाशिये की आबादी को शिक्षित करने के लिए कई प्रयास किया था।
नोट:-मेरी पुस्तक-'श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर' -में यह आलेख -'सोन के पानी में तरबूज-खरबूज का रंग'- शीर्षक से प्रकाशित है। उसी की यहाँ अविकल प्रस्तुति है
यह आलेख और तस्वीर कॉपी राईट के तहत है  बिना अनुमति लिए इसका पूर्ण या आंशिक प्रकाशन नियम विरुद्ध है  सामग्री इसी लेखक (उपेंद्र कश्यप) द्वारा लिखित पुस्तक- “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” में प्रकाशित है  यह निजी शोध कार्य है