Monday 25 June 2018

पांचवें चेयरमैन - कुलदीप सहाय : जब गुंजा नारा- टाट से कि कुर्सी से?



आजादी मिलने के बाद भी समाज जातीय व्यवस्था से बाहर नहीं निकल सका था। जातीय विभाजन हो या आर्थिक वजहों से संपन्न-विपन्न, उंच-नीच का भेद-भाव, यह तब भी था। अंग्रेजों द्वारा धार्मिक विभाजन का भी दंश यह शहर झेल रहा था। साल 1953 में भारत सरकार द्वारा निर्वाचन अधिनियम बनाने तक हिंदु-मुस्लिम मतदाताओं की सूची अलग-अलग बनती थी। 1948 तक जो तीन चेयरमैन बने थे सभी कुलीन थे। आर्थिक, सामाजिक और जातीय स्तर पर उनका दबदबा रहा था। जातीय स्तर पर देखें तो राजपूत, सैय्यद और ब्राह्मण चेयरमैन को देखते हुए समाज में यह विचार भी जगह बनाने लगा कि सिर्फ कुलीन तबके का ही चेयरमैन क्यों बनना चाहिए? हाशिए पर कमजोर के रुप में खडी चिन्हित जातियों से भी चेयरमैन बनाने की उत्कंठा जागृत होने लगी। ऐसा करना आसान नहीं था। कुलदीप सहाय इसी विचारधारा के बीच संघर्ष की उपज बने। यह विचार तब से विस्तार पा रहा था जब हजारी लाल गुप्ता चेयरमैन बनाये गए थे। अपने मात्र ढाई-तीन साल के कार्यकाल में उन्होंने जिस तरह समाज को शिक्षित करने के लिए प्रयास किया, स्कूल खोला, खोलवाया था उससे इस नारे को गढने में मदद मिली थी। कुलदीप सहाय जाति से कायस्थ थे। 1951 से 1953 तक वे चेयरमैन रहे, लेकिन समाजवाद की जमीन पर एक नई धारा को मजबूत कर गए। साल 1945 से 1951 तक वायस चेयरमैन रहने के बाद उन्हें चेयरमैन बनाया गया था। यह पहली बार हुआ था कि कोई चेयरमैन जनता का चयन था। पहली बार वोटिंग हुई थी। यानी जनता का चुना हुआ चेयरमैन। वे औरंगाबद निबंधन कार्यालय में ताईद (वसीका नवीस) थे। इस कारण उनकी छवि जनता में लिखाड की थी। काबिल माने जाते थे। घर बैठे लोगों का काम करा देते थे। मगर दूसरी तरफ मौज मस्ती वाले मिजाज के व्यक्ति थे। इस कारण मात्र करीब तीन साल ही चेयरमैन रहे। इनका चयन इस नारे के बीच हुआ था कि टाट पर से कि कुर्सी पर से। यानी चेयरमैन व्यवसायी, महाजनी परंपरा से बनना चाहिए या फिर इलिट तबके से। इलिट बोले तो पढा लिखा कुलीन तबका, उंची जातियों से, जिनका ठाट-बाट हो, शहर में दबदबा हो, खिलाफत की हिम्मत नागरिक समाज से कोई जुटा न सकता हो। चयन कुर्सी वाले का हुआ। चयन किंग मेकर माने जाने वाले व्यवसायी लक्ष्मी नारायण कांस्यकार के घर हुआ। इसमें डा.मुरारी मोहन राय का भी हस्तक्षेप था। इनका कार्यकाल विवादास्पद और लडाई झगडा का रहा। केदार कांस्यकार को प्रगतिशील विचारधारा का माना जाता था। वे नगरपालिका के सभापति थे। इस व्यवस्था को श्री सहाय ने खत्म करवा दिया था। इस कारण दोनों में नहीं बनती थी। खूब विवाद होता था। एक बार श्री कांस्यकार ने लखन मिस्त्री से घन चलवाकर नगरपालिका कार्यालय का ताला तुडवाया था। केदार बाबू पर प्राथमिकी दर्ज हुई। एक बार चेन्नई में सभी चेयरमैंनों की बैठक थी। उसमें बिना शामिल हुए ही इन्होंने यात्रा भत्ता निकाल लिया। विरोधी खेमे के केदार कांस्यकार को मौका मिला। उन्होंने मामले को कारर्वाई के अंजाम तक पहुंचाने में कोई कोर कसर नहीं छोडा। नतीजा बोर्ड को भंग कर इन्हें हटा दिया गया। खैर...।


ध्यातब्य:श्री कुलदीप सहाय जी की तस्वीर उपलब्ध नहीं होने के कारण पुस्तक-'श्रमण संस्कृति का वाहक- दाउदनगर' में प्रकाशित नहीं की जा सकी थी, यदि किन्हीं के पास उनकी तस्वीर उपलब्ध हो तो कृपया उपलब्ध कराएं-9931852301 या upendrakashyapdnr@gmail.com पर। मेरी इसी पुस्तक से यह अविकल प्रस्तुति है
यह आलेख और तस्वीर कॉपी राईट के तहत है  बिना अनुमति लिए इसका पूर्ण या आंशिक प्रकाशन नियम विरुद्ध है  सामग्री इसी लेखक (उपेंद्र कश्यप) द्वारा लिखित पुस्तक- “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” में प्रकाशित है  यह निजी शोध कार्य है 

No comments:

Post a Comment