Saturday 2 June 2018

दाउदनगर के नहीं थे नगरपालिका के प्रथम चेयरमैन सूर्य नारायण सिंह



स्व.सूर्य नारायण सिंह जी की तस्वीर के साथ लेखक उपेन्द्र कश्यप
सन-1885 में नगरपालिका का गठन हुआ

तब से लेकर 1910 तक कोइ वार्ड नहीं था


सोन के पानी का रंग बदलते रहता है। कभी झक सफेद, एकदम से कजल तो बरसात में जुलाई से सितंबर तक चाय की तरह मटमैला और फिर सितंबर से दिसंबर तक पानी चामड (कचडा-फंगस) हो जाता है। इसी तरह यहां के प्रशासन और प्रशासक का भी रंग बदलते रहा है। जब सन-1885 में नगरपालिका का गठन हुआ था, तब शहर में कोई वार्ड नहीं था। यह सिलसिला सन 1910 तक चला। चूंकि डोमन खान के अत्याचार से मुक्ति का यह रास्ता ब्रिटिश हुकूमत ने निकाला था, इसलिए प्रजा पर सीधे सीधे उसका ही नियंत्रण हो गया। अंग्रेजी सरकार का अधिकार जनता पर हो गया। शहर का हर कार्य नगरपालिका कार्यालय से होने लगा। दाउदनगर सिंचाई विभाग के एसडीओ ही चेयरमैन के प्रभार में रहे, जब 1922 में म्युंसिपल एक्ट बना तब औरंगाबाद के सिविल एसडीओ इसके पदेन चेयरमैन बनने लगे, साल 1938 तक। साल 1910 में पहली बार वार्डों का गठन किया गया जिसकी संख्या मात्र-4 थी। सन-1925 में यह संख्या-6 थी। 1931 तक चुनाव नहीं होते थे। शहर के 25-50 गणमान्य लोग बैठते थे और हाथ उठा कर वार्ड कमीश्नर का चुनाव हो जात था। जब 1931 में इलेक्शन रुल बना तो चुनाव की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। चेयरमैन ही मतदाता सूची बनाते थे। जिसे कोई चुनौती नहीं दे सकता था। मतदाता वही बनते थे जो नगरपालिका को टैक्स देते थे। न्यूनतम डेढ रुपए देने वाले मतदाता बनते थे। इस डेढ रुपए का काफी महत्व था तब। तब किरानी को 30 रुपए महीना वेतन मिला करता था। मजिस्ट्रेट को मात्र डेढ सौ रुपए महीना का वेतन होता था। तब हर सीट से दो सदस्य चुने जाते थे। इस तरह जब छ: वार्ड बना था तो बारह का चुनाव होता था। तीन सरकार मनोनित करती थी। एक चिकित्सक, एक सामाजिक कार्यकर्ता और एक राजनीतिक दल से चुने जाते थे। चेयरमैन पदेन होता था। यानी कोई न कोई अधिकारी ही चेयरमैन बनता था। जब दाउदनगर के जगदेव मिश्रा (बाद में चेयरमैन बने हैं) पटना सचिवालय में पदस्थापित हुए तो उन्होंने ही नगरपालिका अधिनियम की दफा 28 के तहत पदेन चेयरमैन की व्यवस्था खत्म कराया।
इसके बाद 1938 में सरकार ने नागरिक समाज से प्रथम चेयरमैन के रुप में सूर्य नारायण सिंह को मनोनित किया। जो 1942 तक इस पद पर रहे। तब कांग्रेस ही थी और उसी का दबदबा सत्ता से लेकर समाज के गलियारे तक में था। ऐसे में कांग्रेसी पृष्ठभूमि के शख्स को ही चेयरमैन मनोनित किया गया। उनका जन्म 1867 में हुआ था। उनके पिता का नाम राम किशुन सिंह था। दाउदनगर के सिफ्टन हाई स्कूल (अब अशोक इंटर स्कूल) की प्रबंध कमिटी से जुडे हुए थे। शायद वे सचिव या किसी अन्य पद पर थे। इस कारण उनका दाउदनगर आना जाना लगा रहता था। जब उन्हें चेयर मैन बनाया गया तो उन्होंने शहर का अतिक्रमण हटाया। इसकी चर्चा हुई और खिलाफत भी। लेकिन यातायात बहाल हुई। आवागमन सुविधाजनक हुआ। तब तक सिंचाई विभाग के डाकबंगला (नगर भवन के बगल में) में नगर पालिका बोर्ड की बैठक हुआ करती थी क्योंकि चेयरमैन औरंगाबाद के एसडीओ हुआ करते थे। जब सूरज नारायण सिंह चेयरमैन बने तो बैठकें नगरपालिका के कार्यालय में होने लगी। तब खूब तैयारी होती थी। अंग्रेजी हुकूमत थी। उसकी ठाठ भी शहर ने देखा। खूब देखा। बैठक की तैयारी के लिए कई दिन से सभी वार्ड कमीश्नर (अब वार्ड पार्षद) तैयारी करते थे।


 जब चेयरमैन का आगमन होता था तब घडा में पानी और तरबुजा, खरबुजा रखा जाता था। एकदम से ताजा। सोन में उपजाया हुआ। तब यहां के सोन दियारा में तरबूज-खरबूज और ककडी की खेती खूब होती थी। ताजा फल और मीठा स्वाद के साथ शरीर को ठंढक भी मिलती थी। जब वे आते तो शहर में सडक किनारे दोनों ओर नागरिक खडे हो कर सलामी बजाते। आखिर अंग्रेजी सरकार का रुतबा जो था। फिर समाज जमींदारी प्रथा के प्रचलन से खासा प्रभावित था। उनका कालेज जीवन कलकत्ता (अब कोलकाता) विश्व विद्यालय से संबद्ध रहा है। उनके बडे भाई जगरनाथ सिंह ने भी इसी विश्व विद्यालय से संस्कृत में एम.ए. (स्नात्कोत्तर मानविकी) किया था। स्वतंत्रता आन्दोलन में भी उनकी भूमिका रही है। जब जय प्रकाश नारायण हजारी बाग जेल में रखे गए तो उसी वक्त इनको इनके साथी शालिक सोनार एवं ड्राइवर केवल राम (चंद्रवंशी) के साथ गिरफ्तार कर जेल में रखा गया। नतीजा जय प्रकाश बाबु से उनकी घनिष्ठता बढ गई। बाद में जेपी नारायण खुद भू-दान आन्दोलन के प्रणेता विनोबा भावे और त्रिपुरारी शरण सिंह के साथ जम्होर आए। सुरज नारायण सन 1947 से 1952 तक गया जिला के (तब औरंगाबाद जिला वजूद में नहीं था) जमींदार विधान सभा क्षेत्रसे एमएलसी (विधान परिषद सदस्य) रहे हैं। कांग्रेस में रहते हुए भी उसकी नीतियों के खिलाफ चुनाव लडे थे। क्योंकि वे जमींदारी उन्मूलन के खिलाफ थे। खिलाफत में अपना मतदान भी किया था। यह स्वभाव था या राजनीति यह अलग विषय है मगर उन्होंने जमींदार होते हुए भी इस प्रथा की खिलाफत किया यह महत्वपूर्ण है। इस इलाके में ईख उत्पादन से जुडे किसानों का संघ उन्होंने बनाया- केन ग्रोवर्स कापरेटिव युनियनजिसके वे प्रथम चेयरमैन रहे। जम्होर खादी भंडार भी उन्हीं की दी हुई जमीन पर कायम है। इस कारण वे समाज और क्षेत्र में लोकप्रिय होते चले गए। उनका काम करने का तरीका अलहदा था। नाम और रुतबा बडा हो गया था। स्थिति यह तक बन गई कि किसी को उनकी बात काटने तक का साहस नहीं होता था। जब दो लोग या समूह किसी मुद्दे पर आपस में उलझ जाते तो उनके बीच वे समझौता करा देते। नतीजा लोग पुलिस तक नहीं जाते। इन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में, खास कर हाशिये की आबादी को शिक्षित करने के लिए कई प्रयास किया था।
नोट:-मेरी पुस्तक-'श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर' -में यह आलेख -'सोन के पानी में तरबूज-खरबूज का रंग'- शीर्षक से प्रकाशित है। उसी की यहाँ अविकल प्रस्तुति है
यह आलेख और तस्वीर कॉपी राईट के तहत है  बिना अनुमति लिए इसका पूर्ण या आंशिक प्रकाशन नियम विरुद्ध है  सामग्री इसी लेखक (उपेंद्र कश्यप) द्वारा लिखित पुस्तक- “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” में प्रकाशित है  यह निजी शोध कार्य है 

2 comments:

  1. When we wanted to give these facts to Wikipedia smone blocked my account there.....

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