Wednesday 6 June 2018

तीसरे चेयरमैन: डिप्टी साहब, जिनको शहर खींच लाया

1945 से 1948 तक शहर के चेयरमैन रहे राय बहादुर जयदेव मिश्रा,
दाउदनगर के प्रथम ग्रेजुएट थे।

अभी तक अकेले ऐसे चेयरमैन जिनकी मृत्यु पद पर रहते हुई।
उपेन्द्र कश्यप- लेखक -श्रमण संस्कृति का वाहक दाउदनगर
राय बहादूर जय देव मिश्रा का उप नाम “डिप्टी साहब” ही चर्चित है। यही नाम जन मानस की स्मृतियों में बैठा हुआ है। वे 1945से 1948 तक शहर के चेयरमैन रहे। दाउदनगर में ही पढे लिखे। बिहार के अकेले बी.एन.कालेज से ग्रेजुएट किया था। शायद दाउदनगर के पहले ग्रेजुएट। ब्रिटिश हुकूमत में कानूनगो के पद पर बहाल हुए। वे अंडर सेक्रेटरी के बाद सर्वे सेटलमेंट आफिसर के पद से सेवानिवृत हुए। इसीलिए उनका उप नाम “डिप्टी साहब” ही पड गया। सेवा निवृति के बावजूद तत्कालीन सरकार ने उन्हें नहीं छोडा। काम सौंपा- पूर्णिया में बनेली ईस्टेट के रिसिवर का। यानी इस जमींदार घराने के विवाद को सुलझाने का काम मिला। राजा की तरह तैनात किए गए। तब मामला सुलझाने के लिए यहां से शीतल प्रसाद खत्री और इन्द्रदेव राय को साथ ले गए थे। इन दोनों को इससे पूर्व वे रांची भी साथ ले गए थे। सर्वे कार्य कराने में सहयोग के लिए। लक्ष्य पूरा करने में जब वे कामयाब हुए तो उन्हें वहीं रहने को कहा गया। मगर नबाबी ठाठ वाले शहर की गलियों ने उन्हें पुन: दाउदनगर खींच लाया। सोन किनारे की सोंधी मिट्टी की खुशबू भला और कहां मिलने वाली थी। वे दाउदनगर आ गये। उनको शहर का चेयरमैन बनने को कहा गया। उन्होंने साफ कहा कि सर्वसम्मति से बनाओगे तब स्वीकर है। उन्हें सर्वसम्मति से शहर का चेयरमैन बना दिया गया। उनके पीछे इस आकर्षण की वजह थी। नागरिकों को उनसे काफी अपेक्षा थी। उम्मीद थी कि डिप्टी साहब जब चेयरमैन होंगे तो शहर को बडी कामयाबी मिलेगी। सरकार में उनका रसूख है। अंग्रेजी हुकूमत भी उनकी क्षमता और प्रतिभा का लोहा मानती है। इसकी वजह थी नगरपालिका से जुडा महत्वपूर्ण कार्य करना और नगर निकाय चलाने का उनका तजुर्बा। वे गया म्युंसिपल के विशेष पदाधिकारी रह चुके थे। उसके बाद जब पटना सचिवालय में अंडर सेकरेट्री बने तो उन्होंने दाउदनगर नगर पालिका में चुनाव की व्यवस्था प्रारंभ कराया। यहां म्युंसिपल एक्ट की धारा 21 के तहत पदेन अध्यक्ष हुआ करता था। इसी प्रावधान के तहत यह पद 1885 से 1938 तक दाउदनगर के सिंचाई विभाग के एसडीओ और फिर औरंगाबाद के सिविल एसडीओ के पास रहा था। इन्होंने दफा 28 के तहत पदेन चेयरमैन की व्यवस्था खत्म कराया और तब ही नागरिक समाज से चेयरमैन के चयन की प्रक्रिया प्रार्ंभ हुई। कांग्रेस का जमाना था सो जम्होर के सूरज नारायण सिंह को प्रथम चेयरमैन बनने का मौका मिला। वे निर्वाचित नहीं मनोनित चेयरमैन थे। तब सरकार के पास यह अधिकार था कि किसी को भी चेयरमैन मनोनित कर सकती थी। उनके इसी योगदान से यहां का समाज उनका ऋणी था। वह कर्ज शायद उन्हें चेयरमैन बना कर उतारने की कोशिश की गई थी। लेकिन यह ऋण काफी बडा था। उनका इस पद पर रहते ही निधन हो गया। ऐसा 1885 से लेकर अब तक का अकेला उदाहरण है। जब कोई चेयरमैन पद पर रहते स्वर्ग सिधार गया हो। शहर में पक्की नाली निर्माण का कार्य उन्होंने ही प्रारंभ किया था। एक वाकया जन मानस में दर्ज है कि डा.रणधीर सिंह के पिता सिंघेश्वर सिंह को सरकार ने आई.ए.एस. की मानद उपाधि दे रखा था। जब वे शहर कार से आये तो थाना में अपनी गाडी लगा दी और वहां से पैदल ही उनके पुरानी शहर स्थित मकान पर गये। कारण बताया था कि डिप्टी साहब उनके सिनियर अधिकारी रहे हैं, गुरु की तरह रहे हैं, तो उनके पास कार से कैसे जायें? वाह रे जमाना, अब ऐसी अपेक्षा शायद ही की जा सकती है।

नोट-यह आलेख सबसे पहले मेरी किताब-‘श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर’- में प्रकाशित है, दूसरी बार आपके सामने अविकल प्रस्तुति यहाँ है।

यह आलेख और तस्वीर कॉपी राईट के तहत है  बिना अनुमति लिए इसका पूर्ण या आंशिक प्रकाशन नियम विरुद्ध है  सामग्री इसी लेखक (उपेंद्र कश्यप) द्वारा लिखित पुस्तक- “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” में प्रकाशित है  यह निजी शोध कार्य है 

No comments:

Post a Comment