Thursday 7 June 2018

चौथे चेयरमैन हजारी लाल गुप्ता : दूर दूर तक डिग्रियों का डंका


जब डिप्टी साहब चेयरमैन रहते गुजर गए तब हजारी लाल गुप्ता को चेयरमैन मनोनित किया गया। वे साल 1951 में कुलदीप सहाय के निर्वाचित होने तक इस पद पर रहे। वे नासरीगंज में तब हाई स्कूल के हेड मास्टर थे। दाउदनगर में ही पटना के फाटक मुहल्ला में उनका स्थाई निवास था। इनके वंशज आज भी शहर में रहते हैं। जब चेयरमैन बने तो हर शनिवार को वे यहां आते थे। रोजमर्रे का काम निपटा जाते थे। बीच में जब कभी अति आवश्यक हुआ तो आते थे। अन्यथा चपरासी सोन पार कर नाव से उनके पास जाता था और काम करा आता था। इनका कार्यकाल कम दिनों के लिए रहा। इनका जन्म संभवत: 1898 में हुआ था। पिता सोमारु साव थे। उनका यहां बडा व्यवसाय था। रुतबा था। किरानाज्वेलरी एवं कपडा की दुकानें थी। शहर में साव जी की चलती हुआ करती थी। जमीनें काफी थीं। बेटे को पढाया। इन्हें भारत के राष्ट्रपति बने सर्वपल्ली राधाकृष्णन से पढने का सौभाग्य कोलकाता विश्वविद्यालय में मिला। यहां से फिलोसफी और अंग्रेजी में एमए किया। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से कला में स्नानतक किया। कटक उडीसा से अंग्रेजी में एम.एड और एल.एल.बी किया था। इतना डिग्रीधारी कोई चेयरमैन आज तक नहीं मिला। इसका डंका दूर दूर तक बजा। सामाजिक प्रतिष्ठा बढती चली गई। ताजा ताजा आजाद हुए देश में वे सुट-बुट वाले बाबू थे। हमेशा कोट पैंट और टाई ही पहनते। तब जातिवाद भी कम नहीं था। कहावत थी- दाउदनगर में नीमनेउर (नेवला) और नोनियार की संख्या काफी है। स्वाभाविक था नोनियार वैश्य के नाते संख्या बल साथ था तो आर्थिक सामाजिक कारणों से प्रतिष्ठा भी। अनुशासन प्रिय थे। व्यक्तित्व ऐसा कि बेटा बाप के नाम से नहीं पिता पुत्र के नाम से जाना जाने लगे। एक दुर्भाग्य भी उनका रहा। जिसने विकलांग बना दिया। जब मात्र 14 साल की उम्र थी तो उनका विवाह सुन्दरी देवी से कर दिया गया। यह बताता है कि तबका चाहे कितना भी इलिट क्यों न हो तत्कालीन समाज में कम उम्र में शादी कर दी जाती थी। इस मामले में जातिधर्म या आर्थिकशैक्षणिक हैसियत का कोई मोल नहीं था। किशोरवय में पत्नी! अभी जवान भी न हुए थे कि मात्र 16साल की आयु में उनके पैर में जख्म हो गया। चिकित्सा सुविधा निम्नतम थी। इलाज में कमी रह गई या किस्मत यही थीउनको एक पैर ने जीवन भर के लिए लाचार बना दिया। इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। जीवन की तमाम मुश्किल हालातों से निपटने की शक्ति हासिल किया। जज्बा ही था कि शारीरिक कमजोरी को लाचारी नहीं बनने दिया और शिक्षा के उंच शिखर तक गये। नई बुलन्दियां गढी और उच्च डिग्रियां हासिल की। पटना हाई कोर्ट में वकालत कीलेकिन मन शिक्षा के क्षेत्र की ओर झुक रहा था। अंतत: उन्होंने शिक्षक ही बनने का निर्णय लिया। समाज में शिक्षा की जागृति लाने के लिए कई बडे कार्य किया। सिवानशेरघाटीनासरीगंज और दाउदनगर में राष्ट्रीय हाई स्कूल (अब राष्ट्रीय इंटर स्कूल) में प्रधानाध्यापक रहे। 01 जनवरी 1957 से लेकर 01 अक्टूबर 1964 तक यहां प्रधानाध्यापक रहे। उन्होंने इस स्कूल की स्थापना में भी भूमिका निभाया था। आज भी यह स्कूल इस बात का गवाह है। यहां दीवारें बताती हैं कि जब जुलाई 1953 में स्कूल खोला गया तो संस्थापकों में विधायक राम नरेश सिंह एवं पदारथ सिंहहजारी लाल गुप्ता एवं रामकेवल सिंह शामिल हैं। इस स्कूल की स्थापना में बनारसी प्रसाद सिंहअनंत प्रसादकेदारनाथ सिंहदेव प्रसाद भट्टाचार्यसैयद अब्दुल रउफ शमसीडा.विजय कुमार सिंह एवं डा.मुरारी मोहन राय अन्य सदस्य के रुप में दर्ज हैं। यह सन्योग ही है कि 1953 से 1957 तक शहर के चेयरमैन रहे डा.मुरारी मोहन राय भी इस स्कूल की स्थापना से जुडे थे। यही नहीं इस विद्यालय में उन्होंने राधामोहन प्रसाद को कामर्स शिक्षक के रुप में बहाल किया था और उन्हें ही खुद प्रधानाध्यापक का प्रभार दिया था। 02 अक्टूबर 1964 से 12 सितंबर 1993 तक वे प्रधानाध्यापक रहे। राधामोहन प्रसाद ही नहीं विज्ञान शिक्षक बासदेव प्रसाद एवं लालमोहन सिंह को इस स्कूल में उन्होंने ही बहाल किया था। इसके अतिरिक्त नगरपालिका के विद्यालयों में सुखदेव मिश्रा (सुखु पंडित) के पिता सरयु मिश्रासुखदेव प्रसाद समेत कई शिक्षक बहाल किया। शिक्षा के क्षेत्र में शहर में सबसे पहले बतौर चेयरमैन उन्होंने ही शिक्षक बनाने का काम किया। इससे कई घरों में रोजगार देने से इनकी प्रतिष्ठा तो बढी हीसमाज भी शिक्षा के प्रति जागरुक हुआ। शिक्षा के प्रति उनके लगाव ने उनको गढवा (झारखंड) में स्थापित कर दिया। सरकारी सेवा से सेवानिवृत होने के बाद वहां गार्ड बाबू के नाम से स्थापित एक व्यक्ति ने इन्हें गढवा कन्या हाई स्कूल में प्रधानाध्यापक बनवाया। वहां चर्चित होटल प्लाजा में खाना खाते थे। इस विद्यालय में सेवा के दौरान ही 22 जनवरी 1970 को उनका देहांत हृदय गति रुकने से हो गया। वहां से ट्रक में शव लेकर लोग आये। शहर में मातम छा गया था। समाज का हर तबका इनके घर की ओर दौडा। लोगों को लगा कि उनके बीच का सितारा उन्हें छोड गया। आखिर शिक्षा का अलख जगाने वाला समाज का अग्रणी व्यक्ति के अंतिम दर्शन का अवसर कोई भला क्यों छोडना चाहेगायहां से पटना ले जाकर गंगा घाट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया।   
नोट-यह आलेख सबसे पहले मेरी किताब-‘श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर’- में प्रकाशित है, दूसरी बार आपके सामने अविकल प्रस्तुति यहाँ है।

यह आलेख और तस्वीर कॉपी राईट के तहत है  बिना अनुमति लिए इसका पूर्ण या आंशिक प्रकाशन नियम विरुद्ध है  सामग्री इसी लेखक (उपेंद्र कश्यप) द्वारा लिखित पुस्तक- “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” में प्रकाशित है  यह निजी शोध कार्य है 

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