Sunday 27 March 2016

‘प्रभु की रेल’ में “प्रभु कृपा” से बची जान

यात्रा वृतांत-1
'बर्निंग ट्रेन' बनते-बनते बची पलामू एक्सप्रेस

26.3.16 की रात, यह अनुभव हुआ कि जिन्दा जलकर मर जाने का डर कितना भयावह होता है। मरने के बाद तो कोई नहीं ऐसा अनुभव बता सकता, दहशत झेलने के कारण जो अनुभव हुआ वही साझा कर सकता हूं। ऐसी अनिष्ट की आशंका से भगदड और उससे बने माहौल में जान की खखन ने अन्दर तक हिला दिया। आदमी कितना कमजोर होता है ? मैं अकेला नहीं था ‘प्रभु की रेल’ में। और भी थे जिन्हें रेक की बोगियों से भागते देखा। मैं जब तक नींद से जागता, पटरियों पर शोर और यात्रियों की रेलमपेल थी। खैर, जान बची तो बात बनी----
मैं अपने परिवार के साथ 26 की रात रेणुकूट से पलामू एक्सप्रेस (यहां सिंगरौली लिंक एल्सप्रेस रहती है जो गढवा रोड में बरकाकाना से आने वाले पलामू के साथ मिल कर पलामू एक्सप्रेस बन जाती है और पटना तक जाती है) से शाम करीब साढे सात बजे चला। काफी झेलने के बाद (यह झेलने वाली रेल यात्रा का वृतांत आगे बतायेंगे) रेल छुक-छुक करती अंकोरहा स्टेशन को पार कर गयी। सोन नगर से पहले गाडी रूक गयी। घोर सन्नाटे में। अन्धेरे में। कुछ पल बाद खुली तो फिर रुक गयी और शोर कि बोगी में आग लग गयी है। मैं सो रहा था, प्राय: सो रहे थे। शोर ने आंखें खोली तो विवेक मर चुका था। या कहें ऐसी घडी में विवेकशून्य हो जाता है इंसान। महिलाओं बच्चों को बचाने की गरज में हर कोई बस भागने को उतावला। पता चला मेरे पीछे की कई बोगी बाद के एक बोगी में धूंआ भरने के बाद किसी ने चेन पूलिंग की। गाडी आगे बढी तो दूसरे ने चेन पूलिंग की। फिर किसी ने दौड कर ड्राइवर को बताया कि पहिये के पास आग लगने से धूंआ बोगी में भरी थी, जिसे यात्रियों ने चेन पूलिंग के बाद वाटर बोतलों में उपलब्ध पानी से उसे बुझा दिया है। ड्राइवर ने मामले की जांच की और अनिष्ट न होने को आश्वस्त किया तो सबने राहत की सांस ली। गाडी आगे को बढी और पूरी बोगियों में बस चर्चा इसी बात की। ‘प्रभु की रेल’ (मंत्री सुरेश प्रभु) में किसी तरह “प्रभु कृपा” से यात्रियों की जान बची और सबने उपर वाले प्रभु को शुक्रिया कहा तो धरती के प्रभु को भला बुरा। भला जो उन सहयात्रियों का जिनकी सुझ बुझ से एक ट्रेन बर्निंग ट्रेन बनने से बच गयी। भागी नींद से हलकान सभी बस यही सोचते रहे पूरी यात्रा कि यदि अनिष्ट न टलता तो क्या होता? हम भी तो यही सोचते-सोचते दाउदनगर आ गये भाई। लेकिन यह ट्रेन है बडी झेलाती.. बताउंगा अगली दफा................
फिलहाल सब खैरियत है|


Saturday 19 March 2016

दैनिक भास्कर में भाई संजीव चन्दन की प्रकाशित पुस्तक समीक्षा

श्रमण संस्कृति का वाहक दाउद नगर
संजीव चन्दन
दैनिक भास्कर में भाई संजीव चन्दन की प्रकाशित पुस्तक समीक्षा 07.03.2016
दाउदनगर कलाकारों की जगह है, जहाँ पूरा शहर आश्विन मास की द्वितीया तिथि को  (प्रायः अक्तूबर में ) भांति –भांति के स्वांग रचता है, लावणी और झूमर गीत गाते हुए रात –रात भर झूमता है . इस छोटे से शहर में भांति –भांति की कलाएं साधी हैं, कलाकारों ने . पानी पर घंटो सोये रहने की कला या जहरीले बिच्छुओं से डंक मरवाने का करतब. स्वांग रचाते हुए कोई छिन्न मस्तक हो सकता है तो कोई अपने हाथ पाँव को अलग करता हुए दिख सकता है . आश्विन मास की आयोजन की रातों में पूरे शहर में कई लोग  अलग –अलग देवी –देवताओं की स्वांग में होते हैं तो कई लोग राजनीतिक व्यंग्य करते हुए अलग –अलग नक़ल –अवतारों में . कई लोग घंटों स्थिर मुद्रा में खड़े या बैठे होते हैं , पलक झपकाए बिना , कहीं बुद्ध बने तो कहीं कृष्ण या काली .
मुझे जब पहली बार दाउदनगर के इस कला –उत्सव का पता चला तो लोगों ने यह भी बताया कि इसके इतिहास की जानकारी के लिए स्थानीय पत्रकार उपेन्द्र कश्यप से संपर्क करना चाहिए . दाउदनगर के सांस्कृतिक इतिहास में विशेष रुचि रखने वाले उपेन्द्र कश्यप की किताब आई है, ‘ श्रमण संस्कृति का वाहक दाउद दाउदनगर’ .  
दाउदनगर के वासी इसे वाणभट्ट का भी शहर बताते हैं . कादम्बरी के रचनाकार वाणभट्ट को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘वाणभट्ट की आत्मकथा’ में नाट्य विधा में निपुण बताया है. द्विवेदी जी ने अपनी रचना का श्रेय मिस कैथराइन को दिया है , जो ७५ वर्ष की अवस्था में भी सोन क्षेत्र में घूम कर वाणभट्ट के सन्दर्भ में सामग्री जुटाती रही थीं , जिसे उन्होंने द्विवेदी जी को दिया था . स्वांग रचाता यह शहर कई –कई वाणभट्टों का शहर प्रतीत होता है .  कला उनके लिए आय का साधन नहीं है, अलग –अलग पेशों से जुड़े दाउद नगर वासी कला के संधान में लगे हैं , क्या डाक्टर , क्या इंजीनियर या प्राध्यापक , सब के सब स्वांग रचाने के पर्व में सोल्लास शामिल होते हैं .
स्वांग रचने के उत्सव की शुरुआत का इतिहास दाउदनगर के गायकों के गीतों में दर्ज है , उनके गीतों के अनुसार संवत 1917 यानी १८६० इसवी में कभी इस इलाके में महामारी फैली थी. तब महाराष्ट्र से आये कुछ संतों ने दाउद नगर की सीमाओं पर ‘बम्मा देवी’ की स्थापना की और रात –रात भर जागते हुए महीने भर उपासना करवाई . तब से यह उत्सव  जीवित पुत्रिका व्रत ( जीतिया ) के रूम में मनाया जाने लगा. ब्रिटिश कालीन गजेटियर के अनुसार १८६० के आस –पास  का समय विभिन्न महामारियों का समय है , जिससे लड़ने के लिए ब्रिटिश सरकार स्वास्थ्य सेवाओं की योजनायें बना रही थी, लागू कर रही थी .
लावणी में सामाजिक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व की गाथाएं गाई जाती हैं , धार्मिक मिथों के अलावा . सोण नदी पर बने नहर का विशद वर्णन एक लावणी में दर्ज है कि कैसे अंग्रेजों ने जनता के पालन के लिए नहर खुदवाया, कि नहर की कितनी गहराई , चौड़ाई है और कैसे नहर के लिए अभियंताओं ने नक़्शे आदि बनवाये .
यह किताब दाउदनगर के सामाजिक , राजनीतिक इतिहास का भी विवरण देती है. दाउदनगर को बसाने वाले दाउद खां के शासन और उसकी जनपक्षधरता का विस्तृत उल्लेख किया गया है. शहर कुरैशियों, तांती ,पटवा ठठेरा आदि पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों की आबादी वाला है – जिन्होंने इसकी संस्कृति को अपने श्रम –मूल्य के आधार पर रचा है – साहचर्य और सौहार्द के इस शहर की नीव में श्रमण –परंपरा ही है . उपेन्द्र कश्यप की किताब इसका बखूबी विवरण देती है . 
पुस्तक : श्रमण संस्कृति का वाहक दाउद नगर
       लेखक : उपेन्द्र कश्यप
       प्रकाशक : उत्कर्ष प्रकाशन
       मूल्य : 500 रूपये



Friday 18 March 2016

अब नहीं सुनी जाती जय जजमानी तोरा सोने के केवाडी

गोंईठा मिलना हुआ मुश्किल
उपेन्द्र कश्यप 
हमने पूर्वजों से सुन रखा है-‘जय जजमानी तोरा सोने के केवाडी, दू गो गोईठा द। अगजा गोसांई गोड लागी ला दू गो गोईठा मांगिला।‘ यह गा गा कर मुहल्ले का झुंड जब गोईठा (उपला) मांगता था तो लोगों को अपनत्व का अहसास होता था। जब होलिका जलाई जाती तो ‘हो होल्ला रे’ या ‘होलइया रे पुरवइया टोला’ का जयघोष होता था। अब यह या तो औपचारिकता भर रह गया है, या फिर इसे अनावश्यक मानने वाले इसे नकारात्मक भाव से लेते हैं। पूर्व में जब अगजा (होलिका) जलाई जाती थी तो उसमें सामूहिकता थी अब सामूहिक सहभागिता का भाव कम हुआ है। लोग साथ रह कर भी एकला रहते हैं। भीड से बचते हुए होलिका में अपने घर से लायी समिधा (गोईठा, अक्षत एवं अन्य सामग्री) डाल कर चल देते हैं। अब मांगने में अपनत्व कम धौंस, उदंडता, छिन लेने की प्रवृति अधिक व्यक्त होती है। गांव के पूरब ही इसे जलाने की परंपरा है। पंडित लालमोहन शास्त्री ने बताया कि मान्यता है कि पूरब दिशा से शुद्ध धुआं निकलना शुभ है। शहर में किनारा खोजना मुश्किल है सो लोग कहीं भी होलिका जला देते हैं। अगजा में गड्ढा खोद कर उसमें कसैली, दूब, अक्षत, द्रव्य, धूप एवं अन्य सामग्री डालकर रेंड (अरंडी) का हरा पेड काटकर गाडा जाता है। यहीं से ‘जय जजमानी..’ गाने की परंपरा प्रारंभ हुई। यह आधुनिकता का असर है। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक बदलाव का असर है। जब बहुत कुछ बदल रहा है ति परंपराएं भी प्रभावित हो रही हैं।



Sunday 13 March 2016

राजनीतिक विरासत और पंस में 81 महिला 100 पुरुष प्रत्याशी

पंचायतों में राजनीतिक विरासत सौंपने की कोशिश

दाउदनगर (औरंगाबाद) प्रखंड में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में अपनी राजनीतिक विरासत परिवार को सौंपने की कोशिश भी दिख रही है। जो मुखिया या जिला पार्षद किसी कारण वश चुनाव नहीं लड पा रहे तो वे इस तरह की कोशिश में हैं। हालांकि सभी नहीं। कोई पत्नी तो कोई पति तो कोई पुत्र को विरासत सौपने में जुटा हुआ है। अंकोढा पंचायत के मुखिया वीरेन्द्र कुमार सिन्हा विधायक बन गये हैं।  इस बार उनके पुत्र कुणाल प्रताप मैदान में हैं। करमा के मुखिया जगदीश नारायण सिंह की पत्नी गंगा देवीअंछा मुखिया जुदागीर राम की पत्नी कलावती देवीगौरडीहां मुखिया भगवान सिंह की पत्नी सबिता देवी मैदान में हैं। तरार मुखिया अंजू देवी के पति दयाशंकर प्रसाद भी मैदान में हैं। सिन्दुआर मुखिया उपेंद्र राम क्षेत्र बदलकर मनार पंचायत से चुनाव लड रहे हैं।

पंचायत समिति को 81 महिला, 100 पुरुष प्रत्याशी

दाउदनगर (औरंगाबाद) प्रखंड में 21 सदस्यीय पंचायत समिति के लिए कुल 181 प्रत्याशियों ने नामांकन किया है। जांच और नाम वापसी के बाद यह स्पष्ट हो सकेगा कि कितने मैदान में संघर्ष के लिए उतर सकेंगे। इनमें 81 महिला और 100 पुरुष प्रत्याशी हैं। कुल नामांकन का 44.75 प्रतिशत महिला हैं। कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां पुरूषों को चुनौती देने वास्ते महिला प्रत्याशी खडी हुई है। शमशेरनगर में क्षेत्र संख्या 01 से आठ महिला और 02 से सात पुरूष, अरई में क्षेत्र तीन से आठ महिला, चैरी में क्षेत्र चार से पांच महिला एवं पांच से चार महिला, कनाप में छः से आठ पुरूष व एक महिला और सात से छः महिला, गौरडीहां में आठ से चौदह महिला, संसा में नौ से दस एवं दस से दस पुरूष, महावर में ग्यारह से चैदह पुरूष व दो महिला, अंकोढा में बारह से बारह पुरूष, तरारी में तेरह से सात एवं चैदह से दस पुरूष व एक महिला, अंछा में 15 से सात महिला, बेलवां में सोलह से छः पुरूष व एक महिला और सतरह से आठ पुरूष, करमा में अठारह से नौ महिला, तरार में उन्नीस से छः महिला, मनार में बीस से नौ महिला और सिन्दुआर में इक्कीस से आठ पुरूष उम्मीदवारों ने नामांकन किया है।



15 में 14 मुखिया चुनाव लडने से वंचित


आरक्षण के कारण वंचित हुए 13 मुखिया

एक मुखिया से बन गये विधायक

दाउदनगर (औरंगाबाद) प्रखंड के 15 पंचायतों में से 14 के मुखिया चुनाव नहीं लड रहे हैं। आरक्षण चक्रानुक्रम के कारण स्थिति परिवर्तित होने से 13 वंचित हो गये हैं, जबकि एक विधायक बन जाने के कारण चुनाव नहीं लड रहे हैं। प्राप्त विवरण के अनुसार अरई सामान्य से अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हो गया है तो अनिल कुमार चुनाव नहीं लड रहे। इसी तरह शमशेरनगर अति पिछडा से अनु.जाति के लिए सुरक्षित हो गया है। इस कारण माधुरी देवी चुनाव मैदान से बाहर हो गयीं। गोरडीहां सामान्य से महिला आरक्षित होने से भगवान सिंह, अनु.जाति से महिला सामान्य हो जाने से अंछा के युदागीर राम, सामान्य महिला से अति पिछडा हो जाने से तरारी की निर्मला सिन्हा, महिला से सामान्य हो गये तरार की अंजू देवी, अ.जा. से सामान्य हो गये सिन्दुआर के उपेन्द्र राम, सामान्य से महिला बन गये करमा के जगदीश नारायण सिंह, अ.पि. से सामान्य महिला बन गये संसा के अरविन्द कुमार, सामान्य महिला से अति पिछडा बन गये चौरी की ललीता देवी, सामान्य महिला से अ.जा बन गये मनार की सावित्री देवी, अजा से सामान्य बन गये बेलवां की बिगनी देवी और अ.पि. से अनुजा बन गये कनाप के परशुराम प्रसाद चुनाव लडने से वंचित हो गये हैं। सिर्फ महावर की आरक्षण स्थिति नहीं बदली सो यहां के मुखिया हरिप्रसाद सिंह चुनाव लड रहे हैं। अंकोढा पंचायत से मुखिया बने बीरेन्द्र कुमार सिंहा विधायक बन गये हैं, इस कारण वे चुनाव नहीं लड रहे हैं।