Friday 18 March 2016

अब नहीं सुनी जाती जय जजमानी तोरा सोने के केवाडी

गोंईठा मिलना हुआ मुश्किल
उपेन्द्र कश्यप 
हमने पूर्वजों से सुन रखा है-‘जय जजमानी तोरा सोने के केवाडी, दू गो गोईठा द। अगजा गोसांई गोड लागी ला दू गो गोईठा मांगिला।‘ यह गा गा कर मुहल्ले का झुंड जब गोईठा (उपला) मांगता था तो लोगों को अपनत्व का अहसास होता था। जब होलिका जलाई जाती तो ‘हो होल्ला रे’ या ‘होलइया रे पुरवइया टोला’ का जयघोष होता था। अब यह या तो औपचारिकता भर रह गया है, या फिर इसे अनावश्यक मानने वाले इसे नकारात्मक भाव से लेते हैं। पूर्व में जब अगजा (होलिका) जलाई जाती थी तो उसमें सामूहिकता थी अब सामूहिक सहभागिता का भाव कम हुआ है। लोग साथ रह कर भी एकला रहते हैं। भीड से बचते हुए होलिका में अपने घर से लायी समिधा (गोईठा, अक्षत एवं अन्य सामग्री) डाल कर चल देते हैं। अब मांगने में अपनत्व कम धौंस, उदंडता, छिन लेने की प्रवृति अधिक व्यक्त होती है। गांव के पूरब ही इसे जलाने की परंपरा है। पंडित लालमोहन शास्त्री ने बताया कि मान्यता है कि पूरब दिशा से शुद्ध धुआं निकलना शुभ है। शहर में किनारा खोजना मुश्किल है सो लोग कहीं भी होलिका जला देते हैं। अगजा में गड्ढा खोद कर उसमें कसैली, दूब, अक्षत, द्रव्य, धूप एवं अन्य सामग्री डालकर रेंड (अरंडी) का हरा पेड काटकर गाडा जाता है। यहीं से ‘जय जजमानी..’ गाने की परंपरा प्रारंभ हुई। यह आधुनिकता का असर है। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक बदलाव का असर है। जब बहुत कुछ बदल रहा है ति परंपराएं भी प्रभावित हो रही हैं।



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