Tuesday 18 December 2018

सूबे बंगाल की सत्ता का केंद्र विन्दु रहे दाउदनगर के युवाओं को जाग्रत होने की जरुरत


दाउदनगरडॉटइन का आयोजन ‘दाउदनगर उत्सव’ सफल रहा। इसके विभिन्न पहलुओं पर मेरी दृष्टि। प्रशंसा भी, समालोचना भी, सलाह भी और कुछ ख़ास भी.....


(सन्दर्भ-दाउदनगरडॉटइन द्वारा आयोजित 
“दाउदनगर महोत्सव”)
०० उपेन्द्र कश्यप ००
दाउदनगर कई दिन की हलचलों के बाद शांत हो गया। यह हलचल थी दाउदनगरडॉटइन द्वारा आयोजित “दाउदनगर महोत्सव” से संबद्ध सांस्कृतिक गतिविधियों की वजह से। कभी सबसे बड़े ‘खुला-शौचालय’ का तगमा रखने वाले दाउद खां कुरैशी के किला परिसर में अपनी तरह का यह दूसरा आयोजन था। 16 दिसंबर के पूर्व गत वर्ष भी यही आयोजन हुआ था। महत्वपूर्ण है कि तब किला का जीर्णोद्धार कार्य आधा से अधिक हो चूका था। मो.इरशाद और नीरज कुमार की मित्र मंडली का यह प्रयास सर्वथा सराहनीय है। एक अच्छी कोशिश और सकारात्मक पहल। एक उम्मीद जगाती युवा और उर्जान्वित टीम दिखती है। पुरे कार्यक्रम में डिजिटल युग का प्रभाव दिखता है। उदघाटन सत्र में मैं था। इस कारण एसडीएम अनीश अख्तर के साथ डिजिटल तरीके से उद्घाटन किया और गुब्बारा भी उड़ाया-जिसे शान्ति का प्रतिक बताया गया। अब भला सफ़ेद कबूतर मिलते भी कहां हैं? साथ में अश्विनी तिवारी रहे। एसडीपीओ राज कुमार तिवारी के साथ भी मंच साझा करने का मौका मिला।
 उनसे गुफ्तगुं हुई तो उद्घोषक आफताब राणा से दुसरी बार माइक मांग लिया। मैंने बताया कि दाउदनगर किला को राष्ट्रीय महत्त्व के धरोहर वाले स्मारकों की सूची में जगह दिलाई जाए। इस सन्दर्भ में मैं और गोह विधायक मनोज कुमार पर्यटन विभाग के प्रधान सचिव से मिल चुके थे। तब साथ में धर्मवीर भारती थे। किला के विकास के लिए एसडीपीओ से सहयोग लेने को दाउदनगरडॉटइन से कहा तो नीचे खड़े इरशाद ने अंगूठा दिखाया। आशान्वित किया कि उनकी टीम अब पहल करेगी। किला का सौन्दर्यीकरण हुआ किन्तु अधूरा क्योंकि चारदीवारी पुरी तरह इसलिए नहीं बन सकी क्योंकि अतिक्रमण नहीं हटाया जा सक रहा है। बहरहाल, आयोजन बेहतर है, सकारात्मक है। आने वाले समय में यह बड़ा आयाम प्राप्त कर सकता है- यदि कोशिश समष्टि में हो।

जिन्दगी उलझी रही ब्रह्म की तरह:-
एसडीपीओ राजकुमार तिवारी ने अपनी बात शुरू कि- कोई कंघी न मिली जिससे संवारु इसको, जिंदगी उलझी रही ब्रह्म की तरह। मगध का इतिहास और सोन की धारा का जिक्र किया। बोले- मग का अर्थ है आग का गोला। मगध हमेशा इंटरफेस (अभिव्यक्त या रिफ्लेक्ट करता है मगध भारत की हर घटनाओं को) रहा है। तपस्वी भृगु और च्यवन की यह धरती है। मग ब्राह्मण बाहर से महाभारत काल में लाये गए। यह मगध ही है जिसने गौतम को बुद्ध बना दिया। यहां ऐसी ताकत है जो व्यक्ति को जिंदा बना देता है। 1662 से 1672 तक दाउदनगर सत्ता का केन्द्र रहा। दाउदनगर से दाऊद खान ने सत्ता चलाया। इस पर गर्व करें। जब तक गर्व करने का माद्दा नहीं रहेगा तब तक आप विकास नहीं कर सकते। कहा यह जीर्णोद्धार का बाट जोह रहा है। आप सजग हो जाएं तो कुछ भी असंभव नहीं है। यहां के लाल चाहे जहां रहते हों इसके संरक्षण के लिए प्रयासरत रहें। गौरव की अनुभूति करिये कि यहां से बिहार की सत्ता का संचालन होता था। युवा आगे आएं। शहर और यहां के युवाओं को जाग्रत होने के जरूरत है।

आलोचना से परे कुछ भी नहीं, किन्तु उसे लें सकारात्मक:-
आलोचना से परे कुछ भी नहीं होता। प्रशंषा सबको प्यारी लगती है। किन्तु आलोचना को जब सकारात्मक लेंगे तो सुधार बेहतर होगा। याद रखिये-सुधार की गुंजाइश सदैव हर जगह बनी रहती है। इरशाद के लिखे और आफताब के बोले गए शब्द प्रभावी हैं। तकनीक का इस्तेमाल प्रभावी बनाता है शब्दों को, किन्तु दायरा सिमटा सा लगा। “मैं दाउदनगर हूँ“ को उतने ही शब्दों में और व्यापक बनाया जा सकता है। जितना बताया गया है, वास्तव में दाउदनगर बस उतने भर नहीं है। बोली गयी डिजिटलबद्ध पंक्तियों को जब कोइ नया व्यक्ति सुनेगा, जो दाउदनगर को नहीं जानता है, या फिर कम जानता है तो उसे ही संपूर्ण मान लेगा। इसकी वजह है- यह शीर्षक। इसलिए सुधार पर विचार होना चाहिए। इन पंक्तियों में दाउदनगर की संपूर्ण संस्कृति नहीं झलकती है। जिउतिया को खारिज नहीं किया जा सकता है। इसके कुछ पहलुओं से कोइ सहमत नहीं भी हो सकता है, किन्तु दाउदनगर की संस्कृति का हर पहलु जिउतिया लोकोत्सव पर ही रिफ्लेक्ट करता है। किसी अन्य पर नहीं। एक यही आयोजन है जब दूर दराज के लोग इसे देखने दाउदनगर आते हैं। दाउदनगर का प्रतिनिधित्व किसी भी सांस्कृतिक मंच पर जिउतिया ही कर सकता है, दूसरा कुछ भी नहीं। यह ‘मैं दाउदनगर हूँ’ के लेखक भाई इरशाद को ध्यान रखना चाहिए।

Friday 5 October 2018

असल भारतीयता दिखाता है श्रमिक समुदायों का दाउदनगर जिउतिया लोकोत्सव


(सन्दर्भ-पाखण्ड से इतर लोक का विचार-डॉ.अनुज लुगुन-प्रभात खबर-05-10-2018)
 नगर परिषद द्वारा “जिउतिया लोकोत्सव” आयोजन को लेकर पहले संशय पैदा करने, फिर उसे खारिज करने और फिर जन दबाव में एकाधिक पार्षद प्रतिनिधियों द्वारा अगले वर्ष आयोजन करने का भरोसा देने, कलाकारों द्वारा आन्दोलन किये जाने जैसे अवांक्षित मुद्दों की गरमाहट के बीच दाउदनगर जिउतिया लोकोत्सव संपन्न हो गया अपने पीछे कई सवाल छोड़ गया सवाल से अधिक यह कहना उचित जान पड़ता है कि-चिंताएं छोड़ गया चिंता इस बात की कि क्या नगर परिषद “जिउतिया लोकोत्सव” का आयोजन नहीं करेगा? जिसका आगाज 2016 में “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” के लेखक उपेंद्र कश्यप की पहल पर हुआ था विरोध तो तब भी हुआ था 23 में 08 वार्ड पार्षद खिलाफ में थे इस बार टिप्पणी आयी कि-अमुक खरीदारी में घोटाले का आरोप था, इससे ध्यान हटाने के लिए आयोजन किया गया था इस तर्क पर देखें तो फिर विकास का कोई कार्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि घोटाला तो नेहरू के जमाने में जीप खरीद से ही शुरू हो गया था तब से अभी तक हर कार्य में कमीशनखोरी, और हर संवैधानिक संस्था में “सरकार” गठन के लिए खरीद-फरोक्त होना चर्चा में रहता है तो क्या अब हाथ-पर हाथ धर कर बैठ जाया जाए जो हमारे से संतुष्ट नहीं हैं, वे भला हमारे काम से कैसे संतुष्ट हो सकते हैं? वे हमारा भला क्यों चाहेंगे? समाज के भले के लिए ‘सब’ नहीं ‘कुछ’ लोग ही दर्द ले सकते हैं, दर्द लेते हैं, और ऐसे ही लोगों से काम चलता है

विरोध करने के लिए विरोध करने वाले, श्रीमानों !

सोच के संकीर्ण दायरे से बाहर निकलिए हाँ, ऐसा करना सहज नहीं होता, क्योंकि पूर्वाग्रह, दुराग्रह आदमी को इस कदर जकड़ लेता है कि उसे पता ही नहीं चलता कि वह किसका और क्यों विरोध कर रहा है? उसके विरोध का अंजाम क्या होगा, किसे कितना नुकसान होगा, यह दिखता ही नहीं है व्यक्ति को लक्ष्य करने के परिणाम स्वरूप समाज-संस्कृति-सभ्यता को क्षति पहुँचती है खैर, उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले वर्ष फिर से नगर परिषद “जिउतिया लोकोत्सव” का आयोजन करेगा विरोधी शहर की संस्कृति के आगे नतमस्तक होंगे      

खैर...
जिउतिया जाते-जाते एक सुखद इतिहास लिख गया प्रभात खबर के संपादकीय पन्ने पर डॉ.अनुज लुगुन ने “पाखण्ड से इतर लोक का विचार” शीर्षक से अग्रलेख लिखा है वे 02 अक्टूबर को दाउदनगर गए थे मुझसे मेरी किताब ली, और कई विषयों पर संक्षिप्त चर्चा की थी यह सकारात्मक आलेख है, जिसमें शहर का नाम आया है, अन्यथा किसी शहर का नाम इस तरह के लिखे में तो नकारात्मक कारणों से ही प्राय: आता है लेकिन इससे गौरव का बोध उन्हीं को होगा, जो सकारात्मक सोच रखते हैं, अन्यथा कुछ जलेंगे, कुछ झेपेंगे, कुछ भीतर-भीतर विरोध करगें गाना गुनगुना लीजिये- कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना
विरोध करने वाले, जिउतिया को खारिज करने वाले और जिउतिया को वंचित, शोषित, दलित समाज का बता कर खारिज करने की कोशिश करने वालों अनुज लुगुन को पढ़ लो पूरा नहीं पढ़ सकते तो यहाँ कुछ ख़ास दे रहा हूँ, शायद आँखों की पट्टी खुल जाए अगर वास्तव में थोड़ा सा भी शहर से प्यार है, शहर की अपनी संस्कृति पर गर्व है, तो पढ़ने से गौरव का बोध होगा, अन्यथा तो जिसने आँख बंद कर ली है, उससे कुछ नहीं कहना:-

अनुज लुगुन के आलेख 
पाखण्ड से इतर लोक का विचार 
से कुछ पंक्तियाँ:-  
इस माह में मगध अंचल में मनाया जानेवाला एक त्योहार है ‘जिउतिया’. इस अंचल के दाउदनगर का जिउतिया सबसे ज्यादा लोकप्रिय है. वहां इस अवसर पर लगभग सप्ताह भर से स्वांग, नकल, अभिनय और झांकियां प्रस्तुत की जाती हैं. लोक कलाकार हैरतअंगेज करतब दिखाते हैं. आमतौर पर हिंदी पट्टी में स्त्रियों की सार्वजनिक भागीदारी बहुत कम दिखती है. यहां तक कि प्रगतिशील संगठनों के कार्यक्रमों में भी. यह हिंदी पट्टी का सामंती और पितृसत्तात्मक लक्षण है. लेकिन, दाउदनगर के जिउतिया त्योहार में स्त्रियों की बराबर की उपस्थिति ने इस पर पुनः विचार करने को विवश किया है. त्योहार के कार्यक्रम की व्यवस्था आपसी सहयोग-सद्भाव के साथ सभी स्थानीय समुदायों के लोग मिल-जुलकर करते हैं. 
लगभग डेढ़ सौ वर्षों से चले आ रहे, कई दिनों तक रातभर चलनेवाले कार्यक्रम में लाल देवता और काला देवता नामक प्रहरी के जिम्मे सुरक्षा का भार होता है और दोनों उसी भेष में घूम-घूम निगरानी करते हैं. ये प्रतीक पुलिस-प्रशासन की बजाय स्थानीय समुदाय की शांतिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण व्यवस्था के हैं. यह सामुदायिक भागीदारी के द्वारा सुरक्षा का उदाहरण है. पुरोहितवाद और कर्मकांड के पाखंड से इतर यह त्योहार अपने अंदर लोक जीवन और कलाओं का समागम तो है ही, यह अपनी भंगिमाओं में लोक का वैचारिक प्रतिनिधि भी है. 
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का मानना रहा है कि संस्कृति और साहित्य के अंदर जो द्वंद्व दिखायी देता है, वह मूलतः लोक और शास्त्र का द्वंद्व होता है. लोक श्रमिक समाज की दुनिया है, जबकि शास्त्र पोथियों की दुनिया है. लोक चिंता और शास्त्र चिंता के बीच हमेशा टकराव चलता रहता है. उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि एक समय में ब्राह्मण धर्म को अवर्ण धर्म ने पराजित किया. यह लोक का पक्ष था. आगे चलकर लोक का नया दर्शन ही बना- तंत्र. यह साधनामूलक था, जिसने शूद्र और वंचितों को अधिक स्वतंत्रता दिया और उसकी मान्यताओं ने शास्त्र को चुनौती दी.
लोक अपने तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद सहज और लचीला होता है. वह समन्वय की ताकत रखता है, जबकि शास्त्र ‘श्रेष्ठता बोध’ और ‘चयन’ के विचार से चालित होता है. वह अपने ढांचे के अनुकूल ‘करेक्शन’ करता है, अनुशासन गढ़ता है और संस्थाओं के माध्यम से अपना ‘वर्चस्व’ कायम करता है. इन्हीं अर्थों में लोक का विचार बहुलतावादी है, और शास्त्र वर्चस्वकारी. शास्त्र विचार को एक रंग और एकरूपता देने की कोशिश करता है. बहुलता उसके लिए चुनौती है. इसलिए देखा गया है कि शास्त्र-सम्मत धर्म अपना दूसरा कोई प्रतिरूप नहीं चाहते हैं. शास्त्र के पंडित और पुरोहित अपना वर्चस्व बनाते हैं. वे नहीं चाहते कि उनकी सत्ता उनके हाथ से छूटे.
लोक और शास्त्र के टकराव और दोनों के आपसी लेन-देन को समझे बिना संस्कृतियों का अध्ययन नहीं किया जा सकता है. भारतीय लोक की बहुलता को समझने की कोशिश होनी चाहिए. स्वाधीनता संघर्ष के दौरान और उसके कुछ समय बाद हुए कुछ प्रयासों को छोड़कर हमारा अध्ययन लोक की दिशा में नहीं हुआ. हम कथित आधुनिकता के दबाव में औपनिवेशिक मानसिकता के नियंत्रण में रहे और मध्यवर्गीय आकांक्षाओं में उलझकर लोक को उपेक्षित करते रहे. 
इसलिए देवेंद्र सत्यार्थी जैसे महान लोक अध्येताओं के द्वारा प्रस्तावित लोक संस्कृतियों के जरिये भारतीय बहुलता को समझने की दिशा में हम अग्रसर नहीं हुए. लोक का स्वभाव ही है सामूहिकता और सहभागिता. बिना इसके न तो सामाजिकता संभव है और न ही सामाजिक सुरक्षा. लोक अपने समय की सत्ता के विरुद्ध प्रतिरोध भी गढ़ता है. यह प्रतिरोध समाज के वंचित-उत्पीड़ित समुदायों की कथाओं, गाथाओं और गीतों में सहज ही देखा जा सकता है. 
पूंजीवादी युग में शास्त्र पूंजी के साथ गठजोड़ भी करता है. इस तरह लोक पर केवल शास्त्र का हस्तक्षेप नहीं होता, बल्कि पूंजी भी उस पर हमला करती है. 
देश में जिउतिया की तरह अनगिनत लोक त्योहार मनाये जाते हैं. आदिवासी लोक तो विलक्षण लोक है. इन त्योहारों में ही हम असल भारतीयता को देख सकते हैं. इनमें आंतरिक अंतर्विरोध जरूर होंगे, लेकिन यहां आपसी सद्भाव है. यह श्रमिक समुदायों का उत्सव है. ऐसे दौर में जब हम सांप्रदायिकता के चंगुल में फंसते जा रहे हैं, लोक के उत्सव, राग और संघर्ष से जुड़कर, उससे बहस और संवाद करते हुए ही हम नये जनवादी समाज का निर्माण कर सकते हैं.

Sunday 23 September 2018

दाउदनगर वालों, तुमसे तुम्हारे पूर्वज मांग रहे हैं- प्रतिदान

दाउदनगर को गढ़ने वालों जागो●
तुम्हारे पुरखों ने शहर की ख़ास संस्कृति गढ़ी है● सामूहिक संस्कार गढ़ा है● प्रारंभ जितना कठीन होता है, उतना अंत नहीं● 156 वर्ष लगे सरकार के सहयोग लेने में, उसे कोई तुरंत खत्म करता है, तो शहर बनाने वालों की पराजय है● जय हमेशा उनकी होती है जो अगुआ होते हैं● पिछलगुओं का, लीक पर चलने वालों का इतिहास नहीं लिखा जाता●
        ■दाउदनगर जिउतिया लोकोत्सव के लिए है आंदोलन की आवश्यकता।■
जिउतिया डॉक्युमेंट्री में इतिहास बताते

यदि संबत 1917 से ही आगाज मानें तो यहां जिउतिया का ख़ास स्वरूप 158 साल से है। 156 वें वर्ष (2016 में) इसे एक उपलब्धि मिली और मेरी पहल, तत्कालीन चेयरमैन परमानंद प्रसाद, उप चेयरमैन कौशलेंद्र सिंह और ईओ विपिन बिहारी सिंह ने नप में आयोजन कराया था। यह उस यात्रा का प्रारंभ विंदू था, जिसे राजकीय दर्जा हासिल करना है।निस यात्रा को गर्भ में ही (प्रथम वर्ष में) मार देने वाले एसडीएम हैं, और अब दुसरे वर्ष जब इसको पुनः प्रारंभ किया जा सकता है, तो  शहर के जन प्रतिनिधि मार रहे हैं।

आयोजन नहीं कराने के पक्ष में मेरी समझ से कोई तर्क नहीं गढ़ा जा सकता है। अब न कराने वाले जो भी कहें, उनको खुल कर अपनी बात रखनी चाहिए। कारण बताना चाहिए। प्रायः वार्ड पार्षद, उनके प्रतिनिधि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर हैं। उनको सार्वजनिक बात रखनी चाहिए।

लोक कलाकारों को सामने आना चाहिए। बोर्ड और ईओ आपकी नहीं सुन रहे हैं, तो एकजुट होइए। सभी मिलकर एक ज्ञापन दीजिये, जैसा कि एक कलाकार ने मुझे बताया है कि ज्ञापन की तैयारी है। कलाकारों को पूर्व चेयरमैन परमानन्द प्रसाद और वीसी कौशलेंद्र सिंह को पकड़ना चाहिए। उनसे नेतृत्व करने को कहिये। हालांकि अच्छा होता वे दोनों खुद नेतृत्व के लिए आगे आएं। कौशलेंद्र जी परमानन्द जी की अनुपस्थिति (बोर्ड) के बावजूद दो की ताकत खुद रखते हैं। कई वार्ड पार्षद हैं जो चाहते होंगे कि आयोजन हो, वे भी साथ आ सकते हैं।

शहर को आयोजन न होने से कितना नुकसान होगा, इसकी कल्पना नहीं कर सकता कोइ भी वह व्यक्ति जिसे संस्कृति की समझ नहीं है।
मुझे लगता है कुछ गिने चुने लोग हैं जो हो सकता है चाहते हों कि आयोजन न हो। इसकी वजह उनकी "प्रभुवादी सोच" है। उनको लगता होगा कि यह उत्सव समाज के निचले तबके का है, इलीट वर्ग का नहीं है। जो जातियां इस समारोह में भागीदार हैं, जिन्होंने अपने पूर्वजों के इस धरोहर को पृथ्वी के एक कोने में सुरक्षित बचा कर रखा है, वही वर्ग नप बोर्ड में प्रभावशाली संख्या में है। शहर उनका है, शहर की संस्कृति उनकी है, शहर का संस्कार उन्होंने गढ़ा है।

इस संस्कृति को, संस्कार को बचाना और आगे बढाने का दायित्व भी उसी जमात के वंशजों और पीढ़ी का है। आप खुद नहीं जागेंगे, तो कोई आपको ना पसन्द करने वाला जगाने नहीं आयेगा। यह कतई संभव नहीं है, कि आप सोये रहिये और विरोधियों से अपेक्षा रखिये कि वे आपको नींद से झकझोरकर जगाने आएंगे। न ऐसा इतिहास में हुआ है, न वर्तमान में हो रहा है, और न ही भविष्य में होगा।

(आज कई फोन मैसेज आये। इसलिए लिख रहा हूँ। शहर को तुरंत आंदोलन की आवश्यकता है। आखिर क्यों नहीं नगर परिषद "दाउदनगर जिउतिया लोकोत्सव" का आयोजन कर रहा है?)

Friday 21 September 2018

दाउदनगर के सरकारी ताजिया में कहीं नहीं है सरकार


दाउदनगर में सरकारी ताजिया रखा जाता है। कब से और इसमें मुगलिया सरकार की भूमिका क्या रही थी, यह कोई नहीं जानता। यह शहर बिहार के प्रथम गवर्नर सूबेदार दाउद खा का बसाया हुआ है। सन 1662 से 1672 ई. तक शहर का निर्माण हुआ है। आम धारणा है कि दाउद खा ने बरादरी मुहल्ला में सरकारी खर्च पर ताजिया रखवाने की परंपरा प्रारंभ की थी, मगर हकीकत क्या है यह कहीं मजमून के रूप में दर्ज नहीं है। तारीख ए दाउदिया में इसका जिक्र नहीं आता है, जो स्वाभाविक तौर पर दाउद खा और दाउदनगर का इतिहास बताता है। बरादरी मुहल्ला दाउद खा किला के पश्चिम है। पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता है कि ताजिया का खर्च दाउद खा देते थे। हालाकि बाद के मुगलिया दौर में ही शासकों की कृपा रही है, सहयोग रहा है। नतीजा आम जनता ने इसे सरकारी ताजिया का तगमा दे दिया, जिसमें आजाद भारत की किसी सरकारी या स्थानीय प्रशासन की कोई भूमिका नहीं रही। बताया जाता है कि अन्य ताजियों की तरह ही इसका वजूद है, सिर्फ नाम का सरकारी है।

खत्म हो गई परंपरा
 सरकारी ताजिया से जुड़ी एक परंपरा सात-आठ वर्ष पहले खत्म कर दी गई। बताया जाता है कि मिनहाज नकीब के घर के पास तूफानी खलीफा और मोहन साव के घर के पास मीर साहब का गोला जमता था। इसी बीच सरकारी ताजिया किला की ओर से मर्सिया पढ़ते हुए आता और दोनों गोलों के बीच चिरता हुआ निकल जाता। कई दफा विवाद भी हुआ। इसे देखते हुए समाज के लोगों ने यह पुरानी परंपरा खत्म कर दी और आपसी विचार सहयोग से नई व्यवस्था लागू हुई कि देहाती क्षेत्र के ताजिया के साथ शहरी ताजिया से एक रोज पूर्व इसका पहलाम होता है।

न राजा न रानी रही, फकत एक कहानी रही

दाउदनगर के पौराणिक इतिहास से लेकर वर्तमान इतिहास तक के सफर पर एकदम संक्षिप्त आलेख।
11 मई 2013 को दैनिक जागरण में प्रकाशित। अचानक गूगल में यह शीर्षक टाइप किया तो यह आलेख मिल गया।

उस खबर का लिंक-https://m.jagran.com/lite/bihar/aurangabad-10382182.html

उपेन्द्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) : ''न राजा रहा, न रानी रही, फकत एक कहानी रही, लाल वो गोहर सब छोड़ गए, ताबूत सिर्फ उनकी निशानी रही।'' दाउदनगर के गौरवपूर्ण अतीत पर किसी शायर की यह पंक्ति सटीक बैठती है। सिलौटा बखौरा से दाउदनगर बनने की प्रक्रिया, फिर नगर पंचायत, अनुमंडल बनना और इस बीच कई बार गर्वानुभूति के अवसर का मिलना, हमारे अतीत के सुनहरे क्षण रहे हैं। पौराणिक 'कीकट प्रदेश' का पश्चिमी किनारे पर कलकल हजारों साल से बहते सोन नद के तट पर बसा दाउदनगर अपने हजारों साल के इतिहास में न जाने कितनी दफा, कितने झंझावत झेला होगा? कौन जानता है, इस दौर की आबादी, हमारे पूर्वजों को कैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ा होगा? इलाके के 'गजहंस' दसवीं सदी पूर्व से लेकर प्रागैतिहासिक काल तक की आबादी से हमें जोड़ते हैं। ऐतिहासिक काल में हमारी मौजूदगी के प्रमाण 322 ईसा पूर्व से लेकर 185 ईसा पूर्व तक रहे स्वर्णयुग - मौर्य काल से जोड़ते हैं, यह संकेत मनौरा में स्थापित बुद्ध प्रतिमा से जुड़ी 'मोर पहनाव प्रथा' से मिलता है क्योंकि मोर पंख मौर्य शासकों का वंश चिन्ह रहा है। छठी सदी में इसलामिक क्रांति से पूर्व हर्षव‌र्द्धन के काल में यहां बुद्ध प्रतिमा के स्थापित होने, हर्षपुरा (हसपुरा) के उपराजधानी (कवि वाणभट्ट के कारण) रहने, वाणभट्ट के पीरु निवासी होने की संभावनाएं हमें गर्व का अहसास कराते हैं। मुगलकालीन भारी में सिलौटा बखौरा को दाउदनगर के रूप में औरंगजेब के सिपहसालार दाउद खां ने विकसित किया। इस शहर की अपनी विशेषताएं हैं। तब दाउद खां ने बड़े करीने से शहर को बसाया था। शांति व्यवस्था का ख्याल रखा था। सामाजिक और जातीय समरसता पर उनका ध्यान था। जातीय नाम से इतने मुहल्ले और जातियों की (सतरहवीं सदी से बसी आबादी के संदर्भ में) एक अलग बोली है। ये दोनों खासियतें बताती है कि यहां बाहर से लाकर विभिन्न जातियों को तब बसाया गया था। जातियां चयन की गयी थी, सामाजिक, पारिवारिक और राजनीतिक प्रशासनिक जरूरतों के मद्देनजर। 'तारीख ए दाउदिया' का हिंदी संस्करण तो नहीं मिलता, हिंदी अनुवाद की कोशिश की जा रही है, इतिहास का यह पुस्तक उपलब्ध दस्तावेज है जिससे आवश्यक जानकारी मिल सकती है। जब 19 वीं सदी में शहरीकरण की कल्पना ग्रास रूट की आबादी नहीं कर पाती थी, सन 1885 में इसे नगरपालिका बनाया गया। नील कोठियां, अंग्रेजी हुकूमत की स्मृति शेष है। आजादी के संघर्ष में राजनीतिक पाठशाला (चौरम) रहा यह इलाका, जहां से समाजवादी विचारधार के ध्वजवाहक निकले। जिसमें संत पदारथ जैसे नेता पिछड़ी हुई आबादी तक शिक्षा की रौशनी पहुंचाने का कार्य किया। करीब 19 वर्ष के संघर्ष के बाद सन 1991 में अनुमंडल बना। अब सपना जिला बनने का है। जिला बनाओ संघर्ष समिति का गठन हुआ है। यह संघर्ष कब तक चलेगा? इतिहास की गर्वोक्ति के साथ वर्तमान संवारने के लिए यह अहम कार्य है। हमारा दुर्भाग्य है कि 'लीडर' नहीं पैदा कर पा रहे हैं। राजनीतिक नेतृत्व के मोर्चे पर हम कमजोर पड़ रहे हैं। मजबूत लीडर नहीं मिल रहा है। सोच बदलने की जरूरत है। याद आती है कि किसी कवि की पंक्ति 'हम अपनी परिधि में कैद हैं, लाचार हैं, इसलिए प्रतिमान के बिगड़े हुए आकार हैं। तुम न बांधो आज यहां पर ये कनात ए कागजी, मुश्किलों से जूझने को हम चलो तैयार हैं।' अंत में यह कि उठो ए नदीम कुछ करें दो जहां बदल डालें। जमीं को ताजा करें, आसमां बदल डालें।

Thursday 20 September 2018

राज्य की प्रतिनिधि संस्कृति बनाने की आवश्यकता


जिउतिया लोकोत्सव न्यूनतम 158 साल से मनाया जा रहा है। इसमें बिहार की प्रतिनिधि संस्कृति बनने की पूरी क्षमता है। सरकार संस्कृति को बढ़ावा देने की बात चाहे जितनी कर ले, वह बहुजनों के इस पुराने लोक उत्सव को भाव नहीं देती। जबकि वह इसे गंभीरता से ले तो इस संस्कृति को बहुत ऊंचाई दी जा सकती है। आश्रि्वन अंधरिया दूज रहे, संवत 1917 के साल रे जिउतिया। जिउतिया जे रोपे ले हरिचरण, तुलसी, दमड़ी, जुगुल, रंगलाल रे जिउतिया। अरे धन भाग रे जिउतिया.। स्पष्ट बताता है कि संवत 1917 यानी 1860 में पाच लोगों ने इसका प्रारंभ किया था। इतिहास के मुताबिक इससे पहले से यह आयोजन होता था, सिर्फ इमली तर मुहल्ला में। कारण प्लेग की महामारी को शात करने की तत्कालीन समाज की चेष्टा थी। इसमें कामयाबी भी मिली। लेकिन तब एक महीना तक जो जागरण हुआ वह निरंतरता प्राप्त कर संस्कृति बन गई। बाद में यह नौ दिन और अब मात्र तीन दिवसीय संस्कृति में सिमट गया। यह हर साल आश्रि्वन कृष्णपक्ष अष्टमी को मनाया जाता है। यहा लकड़ी या पीतल के बने डमरुनुमा ओखली रखा जाता है। हिंदी पट्टी में इस तरह सामूहिक जुटान पूजा के लिए कहीं नहीं होता। यहा शहर में बने जीमूतवाहन के मात्र चार चौको (जिउतिया चौक) पर ही तमाम व्रती महिलाएं पूजा करती हैं। इस संस्कृति में फोकलोट अर्थात लोकयान के सभी चार तत्व यथा लोक साहित्य, लोक कला, लोक विज्ञान और लोक व्यवहार प्रचुरता में उपलब्ध हैं। तीन दिन तक होने वाली प्रस्तुतियों में इसे देखा जा सकता है। इसे बिहार की प्रतिनिधि संस्कृति बनाने के लिए जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री थे तो सरकार को ज्ञापन सौंपा गया था। सरकार बहुजनों की इस लोक संस्कृति के उत्थान के लिए कुछ भी नहीं कर रही है। सिर्फ प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। लोक अपने तंत्र (सरकार) से कुछ नहीं लेती। न सुरक्षा मागती है न साधन। न तनाव देती है न बवाल। लोग अपने में मस्त रहते हैं, मस्ती करते हैं और दूसरों को इतना मस्त कर देते हैं कि धन भाग रे जिउतिया, तोरा अइले जियरा नेहाल रे जिउतिया, जे अइले मन हुलसइले, नौ दिन कइले बेहाल, रे जिउतिया.और जब पर्व खत्म होने को होता है तो लोग विरह की वेदना महसूस करते हैं। देखे अइली जिउतिया, फटे लागल छतिया, नैना ढरे नदिया समान। जाने तोहे बिन घायल हूं पागल समान..।


https://www.google.co.in/amp/s/m.jagran.com/lite/bihar/aurangabad-representatives-of-the-state-to-create-culture-12963811.html
30 सितंबर 2015 को जागरण में प्रकाशित मेरा लेख।

Monday 17 September 2018

कैलिफोर्निया के डाक्टर ने कहा मर्ज लाइलाज, मगर होमियोपैथ की गोलियों से ही कैंसर की जंग फतह


 बड़े अस्पतालों से रिटर्न मरीजों की कहानी-उनकी ही ज़ुबानी
आम धारणा यही है कि होमियोपैथ की सफेद मीठी गोलियों और पारदर्शी लिक्विड पर एलोपैथ चिकित्सा पद्धति के त्वरित प्रभाव के मुकाबले लोग जल्दी भरोसा नहीं करते, क्योंकि एलोपैथ का प्रभाव तो तत्क्षण दिखता है जबकि होमियोपैथ धीरे-धीरे असर करता है। एलोपैथ की दुनिया में दवा और चिकित्सा पद्धति का व्यापक विस्तार है। जबकि हैनिमैन की होमियोपैथी में आम तौर एक ही तरह की दिखने वाली सफेद मीठी गोली और लिक्विड का ही मुख्य संसार होता है, जिससे सभी तरह की बीमारी के लिए हर दवा का रंग-रूप एक जैसा दिखता है। होमियोपैथी के जनक हैनिमैन की इस पद्धति में कई बीमारियों और कई असाध्य माना जाने वाले  रोगों का भी शर्तिया इलाज है। यह कहना है बिहार के औरंगाबाद जिला के दाउदनगर के मौलाबाग के चिकित्सक डा. मनोज कुमार का।
शिक्षक अनिल कुमार ने तो छोड़ दी थी जिंदगी पर भरोसा
बुकनापुर गांव निवासी शिक्षक अनिल कुमार को 2010 में कैंसर हो गया था। हालांकि तब एम्स ने क्लियर नहीं किया था अर्थात सौ फीसदी यह नहींबताया था कि मरीज को कैैंसर है, मगर उन्हें होने के लक्षण का संकेत मिला था। अनिल कुमार भेलौर के मशहूर अस्पताल सीएमसी गए तो वहां उन्हें ऑर्थराइटिस से ग्रस्त होना बताया गया। मर्ज वहां भी ठीक नहीं हुआ। फिर वे मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल गए, जहां पता चला कि मरीज को मल्टीपल माइलोमा है, जो एक तरह का ब्लड कैंसर ही है और इस मर्ज ने मरीज को चौथे स्टेज तक जकड़ रखा है, जो फिलहाल लाइलाज है। इस मर्ज के पूरी तरह कभी ठीक नहीं हो सकने की बात कैलिर्फोिर्नया में कार्यरत डा. नरसिम्हा ने भी कही थी और यह बताया था कि यह मर्ज पूरी तरह तो कभी ठीक नहीं हो सकता, मगर संयमित रह और अपने को स्वस्थ रखकर इस मर्ज से लंबे समय तक लड़ा जा सकता है। वह डा. मनोज कुमार की क्लिनिक में इलाज कराया। अब ठीक हैं।
कैैंसर से मुक्ति पा धनकेसरी देवी 85 की उम्र में भी फीट 
अनिल कुमार की माँ धनकेसरी देवी को 1998 में यूट्रस कैंसर हुआ था। तब 65 वर्ष की उम्र थी। पटना स्थित महावीर कैंसर संस्थान से धनकेसरी देवी का इलाज पांच सालों तक चला था। 85 साल की उम्र में वह डा. मनोज कुमार की क्लिनिक में बतौर कैैंसर की पहली मरीज आयी थीं। वह अब भी पूरी तरह स्वस्थ हैं और इस उम्र में खुद क्लिनिक पहुंचती हैं।
रीसते घाव से परेशान थे राहुल, अब बीएड कर जिंदगी संवारने की तैयारी
दाउदनगर के पुरानी शहर निवासी राहुल कुमार सीएमसी (भेलौर) से रिटर्न हुए थे। हसपुरा में हुई दुर्घटना में 03 मार्च 2015 को पैर घायल कर बैठे थे। एक साल भेलौर रहे। पैर में रड लगा हुआ था। जख्म ठीक नहीं हो रहा था। एक जख्म ठीक होता तो फिर उसकी जगह दूसरा जख्म बन जाता था। रीम (पीव) बहता रहता था। किसी का सहारा लेकर उन्हें उठना-बैठना पड़ता था। शहर के लोगों के चंदा सहयोग से 13-14 लाख रुपये खर्च हो चुका था। दो सालों से काफी परेशान थे। उनकी जानकारी होने पर डा. मनोज कुमार खुद उनके पास गए। उन्हें होमियोपैथ पर भरोसा नहीं था, मगर इनके पिता विजय चौरसिया को होमियोपैथ पर विश्वास था। डा. मनोज कुमार ने नि:शुल्क चिकित्सा किया। स्थिति बदली। अब वह स्वस्थ हो गए है, उनका मर्ज लगभग ठीक हो चला है। सिर्फ एक ही दवा का इलाज चला। ट्रीटमेंट शुरू होने के दो-तीन महीने बाद ही राहुल कुमार मानसिक तौर पर सहज हो गए। उनका मनोबल अब इतना बढ़ चुका है कि वह भगवान प्रसाद शिवनाथ प्रसाद बीएड कॉलेज (दाउदनगर) से बीएड कर रहे हैं।
प्रोस्टेट कैैंसर के मरीज श्याम कुमार अब स्वस्थ
विवेकानन्द मिशन विद्यालय समूह के शिक्षक श्याम कुमार को प्रोस्टेट कैैंसर होने की बात बतायी गयी थी। उन्होंने एलोपैथ इलाज से थक-हार जाने के बाद होमियोपैथ का इलाज शुरू कराया। एक साल से इलाजरत श्याम कुमार अब अपने को पूरी तरह स्वस्थ बताते हैं।
ब्लेडप्रेसर से पीडि़त थे ज्योतिषाचार्य 
ज्योतिषाचार्य तारणी कुमार इंद्रगुरु ने बताया कि ब्लेड प्रेसर से परेशान थे। मात्र एक खुराक में ठीक हो गए। हर्ष कुमार (विश्वम्भर बिगहा, दाउदनगर) को जन्म के बाद से ही परेशानी हो रही थी। इस बालक को निमोनिया हो गया था। लगातार 104-105 डिग्री फारेनहाइट बुखार रहता था। उसकी उम्र तीन साल है। पिछले दो साल से होमियोपैथ का इलाज चल रहा है। अब सब कुछ ठीक हो चुका है।
तीन साल की सुहानी जन्म से ही थी परेशानहाल  
मात्र तीन साल की है सुहानी कश्यप। औरंगाबाद, पटना और वाराणसी में भी इलाज कराया। स्वास्थय लाभ नहीं मिला। जन्म के समय से ही सामान्य शारीरिक विकास के अभाव में पैखाना-पेशाब नहीं हो पाता था। पेशाब बिना नली लगाए होता ही नहीं था। ऑपरेशन ही एकमात्र विकल्प बताया जा रहा था। हर्ट में छेद और डाउन सिंड्रोम की भी शिकायत थी। होमियोपैथ के इलाज के बाद अब स्वस्थ। पढ़ती भी है और बालसुलभ चंचलता भी उसमें आ चुकी है।
एथेलिट्स दयानंद शर्मा दूसरे को सहारा देने की हालत मेें
एथेलिट्स रहे सेवानिवृत्त नागरिक दयानंद शर्मा के दोनों पैरों में सूजन रहता था। तीन सालों तक इलाज कराने के बाद थक गए तो अंत में होमियोपैथ के इलाज में डॉक्टर मनोज कुमार के पास गए। एक साल में ठीक हो चुके दयानंद शर्मा कहते हैं कि अब तो किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं, दूसरे को सहारा देने के लिए तैयार हूं। शिक्षक मनीष कुमार संसा गांव के निवासी हैं। किडनी में स्टोन था, जो अब ठीक हो चुका है।

सवर्णवादी मीडिया बनाम निकम्मी बहुजनवादी सोच

"मीडिया दर्शन" में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित अग्रलेख-17.09.2018
*उपेंद्र कश्यप*
संदर्भ-सच में बहुजनों को अपनी मीडिया की जरुरत है।

संजीव चंदन (संपादक-स्त्रीकाल) ने अपने एक पोस्ट में आरक्षण पर ईटीवी बिहार पर हुई बहस का हवाला देते हुए अंत में टिप्पणी की है-'सच में बहुजनों को अपनी मीडिया की जरुरत है।'इससे असहमत होने की कोइ वजह नहीं दिखती किन्तु सवाल कई हैं, जो उठने चाहिए। सवाल से भागने से समाज का वैचारिक विकास नहीं हो सकता। राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए भी यह आवश्यक है कि समाज के भीतर जो सवाल हैं, शंकाएं है, उस पर बहस होनी चाहिए। तभी सही मायने में समाज का विकास संभव हो सकेगा। क्या वास्तव में ऐसी जरुरत हैयह जरूरत क्या अभी पैदा हुई हैजरूरत पुरी करने से बहुजनों को किसने रोक रखा हैक्या बहुजन अपना मीडिया हाउस चलाने में सक्षम हैंकहीं ऐसा तो नहीं कि अपनी अक्षमता छुपाने के लिए सवर्णवादी मीडियाब्राह्मणवादी मीडिया का रोना रोते हैं- बहुजनविचार करिये- क्या दुसरे को गलियाने या कोसने से किसी की कोई समस्या का समाधान हुआ हैसवालों का जवाब स्वयं में तलाशिये-बहुजनों! इस शब्द में आप लेखनी की सुविधा के लिए पिछड़ाअति पिछड़ादलितमहादलित या एक शब्द में कहें तो गैर सवर्णों को जोड़ कर पढ़ें/ समझें। वैसे अपनी सुविधा के लिए इसे अवर्ण भी संबोधित कर सकते हैं। खैर!
अपनी बात एक किस्सा से शुरू करता हूँ-बिहार में एक जिला है-औरंगाबाद। यहाँ अपना अस्पताल चलाने वाले एक प्रख्यात चिकित्सक ने मुझसे व्यक्तिगत बात-चीत में कहा-हमारे मित्र सोच रहे हैं, एक अपना मीडिया हाउस खडा करने को। डॉक्टर साहब सक्षम हैं, उनकी मित्रमंडली लंबी चौड़ी है। फिर दुबारा कभी कोइ चर्चा नहीं। क्यों? क्योंकि शौक है, आवश्यकता महसूस होती है, लेकिन नहीं है तो त्याग, जज्बा, समर्पण और सबसे बड़ी बात व्यावसायिक लाभ-हानि का खतरा मोल लेने का साहस। और बहुजनों, जब तक आप यह सब हासिल नहीं कर लेंगे तब तक अपना मीडिया हाउस तो छोडिये, मीडिया का अंग भी नहीं बन सकते। की-पोस्ट पर तो बिराजने से रहे। अब तो हालात यह हैं कि अखबार में जगह पाने की इच्छा रखने वाले रोज जगह न पा सकने के कारण मीडिया को गलियाते हैं, किन्तु उनका सामूहिक संस्कार ऐसा है कि वे बहुजन पत्रकारों के माध्यम से भी जगह नहीं प्राप्त कर पाते। बहुजनों को नेताओं के बयान से अधिक नुकसान है। जब आप जानते हैं, मानते हैं कि-मीडिया सवर्णवादी है, तो सवाल है कि क्या गलियाने से अगला आपको जगह देगा? क्या आपको कोइ गाली देगा तो उसे तवज्जो देंगे? कतई नहीं। मीडिया में जगह चाहिए तो उसके चरित्र को समझना ही होगा। यह कतई संभव नहीं कि बिना मीडिया हाउस का चरित्र समझे, उसकी कार्यशैली जाने बगैर आपको वहां जगह मिल जाए।
वास्तव में बहुजनों ने निक्कमेपन को अपना रखा है। टैग लाइन है-“हम कुछ करेंगे नहीं, दूसरे करने वालों को गाली देंगे।“ मीडिया कवरेज के आकांक्षी लोगों ने तय कर रखा है कि सम्मान भी नहीं देंगे, सम्मान को रिश्वत का नाम देंगे और खबर में पत्रकार बनाए रखेंगे। यह होने वाला नहीं है। हर बहुजन न लालू प्रसाद है, न कांशी राम है, न मुलायम सिंह, न मायावती है, न नितीश कुमार है, न सुशील मोदी, न रामबिलास पासवान है, कि आप तमाचा जड़ेंगे, भगायेंगे, लतियायेंगे और मीडिया वाले आपके पीछे खुशामदी में दौड़ेंगे। जो नाम आपने उपर पढ़ा, वे सब दोषी हैं। आज के वर्तमान हालात के लिए। सब कोइ अपना मीडिया हाउस खडा करने में सक्षम थे। करीब पिछले तीन दशक से ये सब सत्तासीन हैं। चाहते तो कई मीडिया हाउस खड़े कर देते, लेकिन नहीं, ‘अपना काम बनता-भांड में जाए जनता’-को अपनाते रहे। ये लोग अपना हित साधने के लिए काम करते रहे, समाज के व्यापक हित के लिए नहीं। उस समाज का कोइ महत्त्व नहीं जिसका अपना साहित्य नहीं है। आपसी विश्वास की कमी है। अपना मीडिया हो तो समाज को जागरुक करना आसान है, समझाना, संबल देना, प्रोत्साहित करना, सही मार्ग दर्शन देना सहज है। और उपरोक्त नेताओं की समस्या यही है कि, यदि उनकी जनता जागरुक होगी तो उनके लिए सत्ता गहना मुश्किल होगी। किसी ने व्यापक वर्गहित की न तो चिंता की न ही चिंतन किया। क्या इन नेताओं ने “बहुजन मीडिया” खड़ी करने की कोशिश की? आप खड़ा करते, और सवर्ण, सामंती, ब्राह्मणवादी तत्व आपको रोकते तो आपकी गालियाँ, आपका विरोध समझ में आता।
आज कई सेक्टर ऐसे हैं, जहां अघोषित नियम मुताबिक़ सिर्फ सवर्ण हैं, उनका ही चलता है। तमाम की-पोस्ट पर वही हैं, जैसा कि अपनी शोध पुस्तक में फ़ॉरवर्ड प्रेस के संपादक प्रमोद रंजन ने पटना के मीडिया हाउसों का सर्वेक्षण कर जातीय स्थिति बताया था। बहुजनों को भी चाहिए कि वे इस क्षेत्र में आयें, लेकिन इसके लिए छोटे पैमाने से शुरुआत तो भले हुई है, किन्तु प्रभावकारी सफलता तभी संभव है जब करोड़ों की लागत से बहुजन मीडिया हाउसेस खड़े हो सकेंगे। प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया हाउस तक। यह यात्रा कठीन नहीं होगी, बशर्ते कि शुरू तो हो। अभी तो हम वहीं लटके पड़े हैं जहां से आन्दोलन शुरू किये गए थे।  
बहुजन समुदाय तो थोड़ा ही मिलने पर अपनों के खिलाफ सक्रीय होता है। क्योंकि वह खुद को दबा-कुचला समझता है, कुंठित मन का है, और उसमें दबाने-कुचलने वालों के खिलाफ खडा होने का साहस नहीं होता, इसलिए वह अपनो के खिलाफ कलम घिसता है, पैर खींचता है, उलझा हुआ है। कैसे भला आप सवर्णवादी/सामन्तवादी मीडिया से मुकाबला कर सकेंगे? पहले अवर्ण अपने और गैर की पहचान करना तो सीखे। वह न जातिहित जानता है, न वर्ग हित। दूसरी बात यह भी है कि अवर्णों में जो सबल तबका है वह खुद जातिवादी है, घोर जातिवादी। वह सवर्णों की तरह ही व्यापक अवर्णों को सहज स्वीकार्य नहीं हो रहा अब। क्यों? क्योंकि वह भी नव सामन्ती मानसिकता का अहो गया है। जो जहां है, अपने से कमजोर को दबाने, हड़पने में लगा है। चाहे वह पारंपरिक सामन्ती हो या नए धनार्जित नव्साम्न्ती हों। इस मुद्दे पर वैचारिक अभियान चलाने की जरुरत है। दूसरे को अपना हित साधने से रोक नहीं सकते। और ऐसा करना उचित भी नहीं है। अपना हित साधनकिन्तु तात्कालिक ही राजनीति से तो कर सकते हैं किन्तु समाज का हित बिना साहित्य के नहीं हो सकता। बिना मीडिया के नहीं हो सकता। यह आज की आवश्यकता है।

Friday 24 August 2018

दाउदनगर के बाबा ने बनाया चौरासन मंदिर को ध्येय: विकास की लिखी गाथा


द्वारिकानाथ मिश्र के श्रम, समर्पण और तपस्या 
का फलाफल है चौरासन मंदिर की सुविधाएं
कैमूर पहाडी की चोटी पर स्थित है चौरासन मंदिर
1500 फीट की ऊँचाई पर बनवाया-कुआं, यात्री शेड
विकास के हर चिन्ह में है बाबा की मौजूदगी
मंदिर का सेवक, ग्रामीण सभी देते हैं सम्मान
उपेंद्र कश्यप । डेहरी
आदमी ठान ले तो क्या नहीं कर सकता? पहाड़ पर भी रहने लायक सुविधाएं उपलब्ध करा सकता है, जंगल में भी मंगलदायक स्थिति उत्पन्न कर सकता है। इसी का उदाहरण है-स्व.द्वारिकानाथ मिश्र और चौरासन मंदिर।  
अनुमंडल मुख्यालय से करीब 45 किलोमीटर दूर स्थित अकबरपुर (रोहतास) के ठीक सामने कैमूर पहाडी की चोटी पर स्थित चौरासन मंदिर में एक ब्लैक एंड ह्वाईट तस्वीर दिखती है। यह स्व.द्वारिकानाथ मिश्र की है। यहाँ वे कब पहुंचे, यह तारीख सही सही ज्ञात नहीं है। संभवत: 1982 में वे यहाँ पहुंचे। यहाँ आज जो कुछ भी है, वह इनके श्रम, कर्म, त्याग, तपस्या, समर्पण का फलाफल है। इनके आगमन से पूर्व यहाँ ठहरना कदापि संभव नहीं हुआ करता था। घना जंगल और पहाड़ पर न पीने के लिए पानी, न धुप-पानी से बचने के लिए कोइ छत नसीब था। यहाँ आने वाले पर्यटकों के पीने के लिए पानी की व्यवस्था उन्होंने किया था। जन सहयोग से एक कुआं बनवाया। जन और जन प्रतिनिधियों के सहयोग से बड़ा धर्मशाला बनवाया। इसके लिए तत्कालीन विधायक जवाहर प्रसाद से सहयोग भी लिया। इसके निर्माण से पूर्व कैमूर पहाड़ की चोटी पर स्थित चौरासन मंदिर से लेकर रोहतास किला तक के परिसर में कोइ ऐसा स्थान नहीं था, जिसके छत के नीचे बरसात, बर्फबारी या धुप से बचने के लिए शरण ले सकें पर्यटक। उनके प्रयास से ही यह सब हुआ है। इसी कारण जब चौरासन मंदिर पर सावन हो या अन्य कोई भी मौसम या अवसर, पर्यटक पहुँचते हैं तो उनके योगदान को सम्मान के नजरिये से यहाँ के पुजारी या व्यवस्थापक देखते हैं। करीब डेढ़ हजार फीट की ऊँचाई पर इतना सब करना कल भी आसान नहीं था और आज भी मुश्किल ही है। यहाँ के पुजारी स्थानीय निवासी मंगरू भगत कहते हैं कि- सब बाबा का ही देन है। बताया कि अब भी पीने के लिए पानी गाँव जा कर लाना पड़ता है। इसी से यहाँ आये पर्यटकों की प्यास बुझाते हैं। पर्यटकों को वे पानी-मिश्री देकर सन्नाटा और गर्मी के दिनों में आतिथ्य सत्कार का उदाहरण बनाते हैं।

विकास के लिए किया था अनशन
श्री मिश्र ने चौरासन मंदिर पर विकास के लिए अनशन किया था। हालांकि इनके दामाद औरंगाबाद जिला के दाउदनगर निवासी अश्विनी पाठक को इस शब्द पर आपत्ति है। वे इसे अनुष्ठान कहा जाना श्रेयष्कर मानते हैं। बताया कि सोन नद के किनारे कई दिन पीपल वृक्ष के नीचे भूखे बैठ गए। प्रशासनिक अधिकारी से लेकर आम-ओ-ख़ास लोग मिले। सवाल किया कि बाबा ऐसा क्यों कर रहे हैं? बोले-चौरासन पर जल स्त्रोत बनना चाहिए। भला कौन इसका विरोध करता? सबने सहमति दी और फिर पहाड़ की चोटी पर एक कुआं बना। यही एक मात्र जल स्त्रोत आज भी यहाँ है। हालांकि बदली परिस्थिति में मेले के वक्त बोतल बंद पानी भी अब मिलने लगा है।

कांवर यात्रा की परंपरा का किया प्रारंभ
चौरासन मंदिर पर इनके पूर्व कांवर यात्रा की परंपरा नहीं थी। द्वारिकानाथ मिश्र ने इसका प्रारंभ किया। सोनभद्र और गंगा (बक्सर) के जल से शिव के जलाभिषेक की परंपरा प्रारंभ किया। बोल बम के नारे गूंजने लगे। यह आज भी भर सावन गूंजता है। मेला लगता है। हजारों पर्यटक पहुंचते हैं। मंदिर में अखंड जोत जलने लगा। पर्यटक स्थल के रूप में इसने अपनी पहचान कायम की। अभी भर सावन यहाँ मेला सजता है, जगमग रहता है, श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।    

Thursday 23 August 2018

दाउदनगर भी आ चुके हैं स्व.अटल बिहारी वाजपेयी : अयूब अंसारी के माला डालने पर मारा था ताना

आपातकाल के बाद 1977 में दाउदनगर आये थे अटल बिहारी वाजपेयी

अयूब अंसारी ने पहनाया माला, फोटो खींचने पर वाजपेयी ने मारा ताना
 0 उपेंद्र कश्यप 0
गुरूवार को दाउदनगर के भखरुआं मोड़ से स्व.अटल बिहारी वाजपेयी की अस्थियाँ व्यवस्थित कलश यात्रा के रूप में गुज़री कुछ ऐसे पुराने लोग भी इस शहर में हैं, जो 41 वर्ष पुरानी स्मृतियों में खो गये सेवानिवृत शिक्षक बैजनाथ पाण्डेय को आज भी स्मरण है कि कैसे मो.अयूब अंसारी ने वाजपेयी जी को माला पहनाया था, और जब फोटो खींचने लगे तो, उन्होंने ताना मारा था बताया कि 1977 में जब आपातकाल हटा लिया गया तो मोरारजी भाई देसाई की अगुवाई वाली जनता पार्टी के साथ कांग्रेस (ओ), जनसंघ, भारतीय लोकदल और समाजवादी पार्टी ने मिलकर जनता पार्टी बनाया था उसी समय फ़रवरी महीना की किसी तारीख को 1977 में श्रद्धेय अटल बिहारी वापेयी जी दाउदनगर आये थे अभी गाजियाबाद रह रहे बैजनाथ पांडेय के पुत्र डॉ.विश्वकांत पाण्डेय ने अपने पिता के हवाले से बताया कि श्रद्धेय अटल बिहारी वापेयी को याद करते हुए उनका गला रुंध गया आँख डबडबा गए घटनाक्रम को चित्रित करने का प्रयास किया। बताया कि फ़रवरी महीना में तब न ज्यादा ठंढ था न ही ज्यादा गर्मी। अटल जी दाउदनगर के भखरुआं में पधारे थे। मोरारजी भाई देसाई का भी आने का कार्यकर्म था, किन्तु वे नहीं आ सके थे। श्रद्धेय अटल जी की अगुवाई के लिए तोरण द्वार बनवाया गया था। 
उस समय के दौर में जनसंघी लोग दाउदनगर से अशोक उच्च विद्यालय के शिझक पंडित शिवमूर्ति पांडेय की अगुवाई में जुटे थे। बलराम शर्मा (मौवारी) रामानंद सिंह (मखरा), मोहम्मद अयूब अंसारी (चूड़ी बाजार) के साथ दाउदनगर के दर्जनों वैश्य, स्वर्णकार, कांस्यकार हलुवाई समाज के साथ कई गण्यमान लोग उपस्थित हुए थे। उस समय का एक रोचक किस्सा याद करते हुए श्री पांडेय ने बताया। माला पहनाने की जिम्मेदारी मोहम्मद अयूब अंसारी ने ले रखा था। पहले उन्होंने माला पहनाया फिर फोटो खींचा महत्वपूर्ण है कि उस जमाने में श्री अंसारी फोटोग्राफी का काम भी खूब शौक से किया करते थे जब उन्होंने फोटों खींचा तो वापेयी जी ने कहा- अरे वाह! आप एक साथ दो -दो काम कर रहे हैं जी। माला भी पहना रहे हैं और फोटो भी ले रहे हैं। फोटो किसी दूसरे को लेने को बोल देते। उनकी वाक्यपटुता से अयूब अन्सारी जी तब झेंप गए थे। हाथ जोड़ कर पीछे हट गए। करीब आधे घंटे से भी कम समय के लिए दाउदनगर में रुक कर अपना अमिट छाप छोड़कर वापेयी जी वहाँ से तब चले गए थे आज उनकी जब अस्थि आने की सूचना वे सुने तो खुद को अपनी स्मृतियाँ साझा करने से रोक न सके

Thursday 16 August 2018

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बच्चों से पूछा-पीएम बनोगे? जवाब मिला-नहीं

पीएम ने कुर्सी की ओर इशारा कर पूछा-यहां आना चाहोगे? बच्चे बोले-नहीं। क्यों? जवाब मिला-अच्छे लोग राजनीति में नहीं आते।

फोटो-प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ विवेकानंद स्कूल के बच्चे निदेशक डॉ. शम्भू शरण सिंह के साथ

संसद पर हमले के बाद पहुंची बच्चों की पहली टीम से पूछा था अटल जी ने प्रश्न

दो समूह में विवेकानन्द मिशन स्कूल के मिले थे 28 बच्चे

उपेंद्र कश्यप । डेहरी
जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, तब वे अपने कक्ष में बच्चों के जवाब से चौंक गए थे। गजब का जवाब उनको बच्चों ने दिया था। ये बच्चे तब कक्षा 8, 9 या 10 में पढ़ते थे। अब सभी 28 बच्चे बड़े हो गए हैं, और विभिन्न क्षेत्रों में देश की सेवा कर रहे हैं। तब का एक वाकया संभव है उनको काफी समय तक स्मरण में रहा हो।
संसद पर हमले (13 दिसंबर 2001) के बाद दाउदनगर के विवेकानंद स्कूल ऑफ एजुकेशन की टोली लेकर निदेशक सह डालमियानगर महिला कॉलेज के इतिहास विभाग के प्रोफेसर (डॉ.) शम्भू शरण सिंह, मनोविज्ञान के प्रो.जयराम सिंह दिल्ली लोकसभा और राज्यसभा की कार्रवाई देखने गए थे। जिनके साथ उपेंद्र कश्यप, अशोक कुमार सिंह, प्रभात मिश्रा, विमल कुमार भी थे। डॉ.शम्भू शरण सिंह ने बताया-यादों में अब भी हैं वे पल। हम सब लोकसभा की कार्यवाही देख रहे थे। उसी वक़्त प्रधानमंत्री के कक्ष  से बुलावा आया और हुई एक अद्भुत विलक्षण व्यक्तित्व वाजपेयी जी से मुलाक़ात। गौरवपूर्ण पल। सबको प्रधानमंत्री कक्ष में ले जाया गया। ऑफर किया-बैठिये। खड़े होकर अपनी कुर्सी की ओर इशारा करते हुए पूछा-इस कुर्सी पर आना/ बैठना चाहोगे? बच्चे का जवाब था-नहीं सर। प्रति प्रश्न हुआ-क्यों? बच्चा तो जी बच्चा होता है। झेंप जरूर गया, किन्तु उत्तर के साथ-अच्छे लोग राजनीति में नहीं आते।

वाजपेयी के संवादों से प्रेरित होकर बने सफल बच्चों के अनुभव, उनकी ज़ुबानी:-

प्रधानमंत्री श्री वाजपेयी के साथ मिले-संवाद किये छः बच्चों के अनुभव -जो जब बच्चे थे, तब प्रधानमंत्री कक्ष में जाकर अटल बिहारी वाजपेयी जी से मिले थे। उनसे संवाद हुआ था, इनका। इसके बाद वे बड़े सफल हुए।

उनके कहे वाक्य से मिलती है प्रेरणा-शिव शंकर
कोल इंडिया लिमिटेड के एमटी शिवशंकर ने कहा- जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पूछा कि संसद आना पसंद करोगे? हंगामा देखने के बाद चूंकि छवि खराब बन गयी थी, तो हमने कहा-नहीं। इसके बाद उन्होंने कहा कि -'देश को बेहतर बनाने में आप सबकी भागीदारी महत्वपूर्ण है। हम ये भागीदारी हमें दिए हुए कार्य को ईमानदारी पूर्वक करके निभा सकते हैं।'
उनकी यह पंक्ति मेरी जिंदगी का मूलमंत्र बन गया। इससे दिए गए काम को करने के प्रति उत्साह बनाये रखता है। ईमानदार बनाये रखता है। काम छोटा हो या बड़ा, उस काम को ईमानदारी से निभाना ही सच्ची देश सेवा है।

सर ने ठहाका लगा कर चिंता व्यक्त किया:-धीरज कुमार

एकेडेमिया सोलुशन प्रा.लि. के मैनेजर धीरज कुमार ने कहा कि वाजपेयी जी के शाँत स्वभाव और सादगी से हम प्रभावित हुए थे। रुक रुक कर बात करने का अंदाज बताता है कि वो एक सुलझे हुए इंसान थे। सहपाठी द्वारा राजनीति में नहीं आने की बात सुन कर जोर से ठहाका लगाया और फिर चिंतित हो कर बोले कि- 'हमारी युवा पीढ़ी राजनीति को इतना बुरा मानती है कि वो राजनीति में आना पसंद नहीं करती। यह चिंता का विषय है औऱ हमें मंथन करने पे मजबूर करती है।' दो शब्द-
बिछड़े कुछ इस अदा से कि रुत ही बदल गई।
इक शख़्स सारे देश को वीरान कर गए।।

उनके ठहाके से मन की घबराहट खत्म हो गयी:-सीतेश वत्स

अग्रसेन मेडिकल कॉलेज हिसार में एमबीबीएस, एमएस डॉ.सीतेश वत्स ने कहा कि अटल जी से मिलना एक अदभुत क्षण था। एक बड़े व्यक्तित्व से मिलने की ख़ुशी भी थी और मन में कुछ घबराहट भी था। उनसे बातचीत के दौरान उनकी हँसी और ठहाकों ने सारा माहौल हल्का कर दिया। मन शांत हो गया। इतने सहजता से वे मिले थे। वह पल आज भी याद है। उनकी कविता की ये पंक्ति "क्या हार में क्या जीत में किंतित नहीं भयभीत मैं" अपने आप में उनके व्यक्तित्व की सारी कहानी कहती है। उनकी कविताएं और उनके शब्द हमारे लिए प्रेरणा के स्रोत रहेंगें।

उनके पथ चलने का लिया संकल्प:-अवनीश कुमार
यूके इंडस्ट्रीज फरीदाबाद में क्यू ए इंजीनियर सह इनकमिंग क्वालिटी हेड अवनीश कुमार ने कहा कि उनसे मिलने के बाद सोच और विकसित हुआ। बालमन था। हमने उनके पथ चलने का संकल्प लिया। आज उनकी प्रेरणा से ही सफल हुए हैं। जब मिले थे तब सिर्फ हम सब एक प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें जानते थे। उनके प्रतिभा और उनके व्यक्तित्व से हम सब अनभिज्ञ थे। मिलने के बाद हम सब ने उन्हें अलग अलग माध्यम से जाना। किसी भी व्यक्ति के सामान्य जीवन को प्रेरणास्रोत बनाने का वे ज्वलंत उदाहरण हैं। वे अभिभावक होने के साथ साथ हम सब के आदर्श भी है। उनके पथचिन्हों पर अपनी जिंदगी की गाड़ी दौड़े ये हमारा संकल्प है।

क्षितिज सा अनन्त और समुद्र से शांत थे अटल:-प्रो.मुरारी
आकाश एजुकेशन सर्विस लि. पटना के वनस्पति विज्ञान के लेक्चरर और डेहरी निवासी मुरारी सिंह ने कहा कि-
एक हंसी अभी भी मेरे ज़ेहन में गूंजती है...हाँ.... एक खुले दिल से तब के माननीय प्रधानमंत्री अटल जी की हँसी। क्षितिज के भाँति अनंत... समुद्र के भांति शांत..गंगा की तरह पवित्र। फिर भी अत्यंत ही सरल, प्रेरणादायी..... हाँ ऐसे थे अपने पूर्व प्रधानमंत्री माननीय अटल बिहारी वाजपेयी जी।

120 सेकेंड वाजपेयी के साथ:-आलोक सिंह
अर्जेंटीना में मेडिटरेनीयन शिपिंग कंपनी(MSC) में सीनियर मरीन इंजीनियर के पद पर कार्यरत आलोक सिंह कहते हैं-
भारतवर्ष के प्रधानमंत्री होकर भी बच्चों से यूं संजीदगी से मिलना और बातें करना, घुटनों के हालिया ऑपरेशन के दर्द के बावजूद, प्रोटोकॉल से हटकर खुद खड़े हो हम बच्चों के साथ फोटो के लिए खड़े हो जाना, हमसे हमारे दिल्ली भ्रमण के बारे में पूछना, वाजपेयी जी के व्यक्तित्व की सरलता और गहराई हम सब के लिए आदर्श हैं। उनकी सादगी और मृदुल स्वभाव को मैं अपने जीवन में उतारना चाहता रहा। उस 120 सेकेंड की मुलाकात ने मेरे चरित्र को सुदृढ करने के लिए 120 वर्षों का 'जीवनवायु' दिया था।