Sunday 3 June 2018

चेयरमैन साहब: हकीमी से हुए खान बहादूर, कुत्ते को पच्चीस पैसे की जलेबी



दो बार वायस चेयरमैन रह चुके थे दूसरे चेयरमैन

चमरटोली को डूबसे से बचाया तो ब्रिटिश हुकूमत ने दी “खान बहादूर” का लकब

जब असहयोग आन्दोलन में प्राय: सभी कांग्रेसियों के साथ सूरज नारायण सिंह ने भी अपने सभी पदों से त्यागपत्र दे दिया तब सरकार ने खान बहादूर सैय्यद मुहम्मद को यहां का चेयरमैन नियुक्त किया था। वे 1942 से 1945 तक इस पद पर रहे। इसके पहले 1920 और 1931 में वायस चेयरमैन रहे थे। पहली बार ऐसा हुआ था कि कोई वायस चेयरमैन इस पद तक पहुंचे हों। हालांकि वे मात्र दूसरे ही चेयरमैन थे। पिता का नाम हकीम जलील खां था। सन-1939 में असहयोग आन्दोलन प्रारंभ हुआ था। तब डिस्ट्रिक्ट बोर्ड हुआ करता था। जब 1935 में गवर्मेंट आफ इंडिया एक्ट बना तो उसके तहत राज्य में फेडरल सरकार बनी थी। जिसमें सात मंत्री थे। सभी ने असहयोग आन्दोलन के समर्थन में इस्तिफा दे दिया था। सैय्यद मुहम्मद को ब्रिटिश हुकूमत ने खान बहादूरका तगमा दिया था। इसकी वजह थी। गया के कलक्टर की पत्नी बीमार रहती थी। इलाज के लिए काफी जगहों पर गई, वैद्य, हकीम से मिलीं, मगर स्वस्थ नहीं हो रही थीं। सैय्यद मुहम्मद खुद हकीम थे। उंची डिग्री नहीं थी उनके पास। तब भी इनकी हकीमी की चर्चा दूर दराज तक थी। इन्हें कलक्टर का बुलावा आया। अपनी दवा और नुस्खे से उन्हें ठीक कर दिया। शेरवानी और अचकन पहन कर गया जाते, कलक्टर से हाथ मिलाते। यह तब बडी हैरत और गरिमा की बात हुआ करती थी। इससे उनका कद बढता गया। कहते हैं शहर में सोन का हुल्लड (बाढ) आया तो वार्ड संख्या 3 चमार टोली पानी में डूब गया। शहरियों ने इस बाढ की विभीषिका से किसी तरह खुद को बचाया। इन्होंने गया कल्क्टर को टेलीग्राम पर सूचना दी कि हमने बाढ से शहार को बचा लिया तो उधर से उन्हें खान बहादूरका लकब दे दिया गया। वे यहां सेना के लिए जवान का चयन किया करते थे। रिक्रूटिंग आफिसर थे। जवानों का चयन फौज के लिए करते और उसे नगरपालिका का चपरासी फौजदार राम अपने साथ लेकर दानापुर कैंट पहुंचा देते। उन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी। मलुट गुरु जी उन्हें थोडी बहुत अंग्रेजी सीखाते थे। उनका काफी रुतबा था। ऐसा कि दूसरा उदाहरण मुश्किल से मिलेगा। एक वाकया याद आता है। नगरपालिका में सैय्यद वायज अहमद चपरासी थे। उनको कह दिया कि जाओ तुम्हें सस्पेन्ड किया।वह घर जा कर बैठ गए, मतलब काम पर आना बंद कर दिया। तीन दिन बाद बुलावा भेजा। आये और जब चेयरमैन ने पूछा कि क्यों नहीं आ रहे थे तो जवाब दिया कि- आपने सस्पेंड किया था।वे अवाक रह गए। आज जब चेयरमैन की बात चपरासी भी नहीं सुनता तो ऐसे वाकये चकित करते हैं। वे कागजी कारर्वाई नहीं करते थे। कर्मचारी को परेशान न होना पडे इसका ख्याल करते थे। मगर रुतबा था कि जो मुंह से कह दिया वह काम हो जाता था। उनके जमाने में बडा बाबु थे- गया प्रसाद वर्मा-उनको भी मौखिक ही सस्पेंड किया था। एक बार उनको अपने रईसजादे (बेटे) मो.जुबैर खान के लिए पैरवी करनी पडी थी। वे सरकारी सेवा में थे। गया में उनको उच्चाधिकारियों ने सस्पेंड कर दिया। मिलिट्री में कैप्टन रहे के.अब्राहम गया के तब कलक्टर थे। उनसे पैरवी किया। उनसे इनकी अच्छी बनती थी। कारण था रिक्रूटिंग आफिसर रहते उनसे संपर्क हुआ था। जुबैर खान कुत्ते को उस जमाने में रोजाना पच्चीस पैसे की जिलेबी खिलाया करते थे।
नोट-यह आलेख सबसे पहले मेरी किताब-‘श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर’- में प्रकाशित है, दूसरी बार आपके सामने अविकल प्रस्तुति यहाँ है। 

यह आलेख और तस्वीर कॉपी राईट के तहत है  बिना अनुमति लिए इसका पूर्ण या आंशिक प्रकाशन नियम विरुद्ध है  सामग्री इसी लेखक (उपेंद्र कश्यप) द्वारा लिखित पुस्तक- “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” में प्रकाशित है  यह निजी शोध कार्य है 

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