Thursday 31 May 2018

मैं नगरपालिका दाउदनगर हूं !


दाउदनगर नगर परिषद के प्रथम बोर्ड के गठन की समय सीमा निकट आ रही है। 1885 नें नगरपालिका बना यह शहर किस-किस दौर से गुजरा है, उसकी अब तक की यात्रा कैसी रही? क्या-क्या उतार-चढ़ाव देखा है इस शहर ने... जानिये यहां मेरे संग....  


संघर्ष ही आजादी का रास्ता

०० उपेन्द्र कश्यप ००
मैं सन 1885 का नगरपालिका हूं। मेरे सीने में कई राज दफन हैं। संघर्ष की कहानी प्रेरणा देती है और रास्ता भी बताती है। मेरे बनने की गाथा अलग है। पीढियों का आश्रयस्थल हूं, कइयों की आजीविका का शरणस्थली। कइयों के अपराध भी दर्ज हैं मेरी स्मरण पत्रिका में। अफसोस है कि आज उनके पास पश्चाताप का कोई अवसर भी नहीं रहा। मैं क्यों बना? क्या जरुरत थी मेरी? किसने प्रयास किया? कौन था वह काल पुरुष जिसने आने वीली पीढी के लिए एक नक्शा दिया, रास्ता दिया, तरक्की का मार्ग प्रसस्त किया? वे कौन थे? अब मैं नहीं जानता। यह काम तो पीढियों का था कि वे मेरे जन्म के बाद मेरी उपस्थिति की कहानी को लिपिबद्ध करते। संजोकर रखते उनका इतिहास जो थे काल पुरुष। जिनकी कोशिशों के बाद मेरा जन्म हुआ था। उनके वंशजों ने उन्हें जिंदा (रुहानी तौर पर) नहीं रखा। ऐसा करने की एकाधिक बार कोशिश भी की गई तो आधी अधूरी। एक कार्यकर्ता था- देवभूषण लाल दास। जो 01.01.1934 को जन्म तो लिया चेचरी कानून गो- राजनगर-मधुबनी जिला में, मगर जब 20 जुलाई 1954 में वह दाउदनगर आया तो 31 दिसंबर 1991 तक मेरी सेवा कर निवृत हुआ और यहीं बस गया। उसने बडी कोशिश कर उन पुराण पुरुषों की जानकारी इकट्ठा की। कई सारी जानकारी जुटाया, मगर बाद में उसे भी भुला दिया गया। यह पाप नहीं तो क्या है मेरे वंशजों? मेरी पैदाईश की कहानी क्यों बिसरा दी गई? वह भी उन्हीं के हाथों जिन्होंने मेरी ही कमाई 2खाया है। मेरी बदौलत ही नाम कमाया है। जो समाज अपने पुरखों को भुला देता है उसका भला कैसे हो सकता है? वह अतीत से सबक कैसे ले सकता है जिसने अपना अतीत ही जला कर राख कर दिया हो या फिर गायब कर दिया हो? यह गलती जान बुझ कर की गई हो या फिर अंजाने में हुई हो। यह क्षमा लायक गलती तो नहीं ही है। कहते हैं- न हन्यते, हन्य माने शरीरे- अर्थात आत्मा नहीं मरती, शरीर मरता है। जैसे पुराने वस्त्र को त्याग कर व्यक्ति नवीन वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार आत्म जीर्ण-शीर्ण शरीर को त्याग कर नवीन शरीर धारण करता है। मैं (आत्मा) अपने शरीर की सुध बुध लेने आता हूं। बडी पीडा होती है। मेरी प्रतिष्ठा थी। मैं आजादी के संघर्ष का भी महत्वपूर्ण हिस्सा रहा हूं। चतुर्थ गया जिला सम्मेलन कांग्रेस ने यहां 1934 में कराया था। आजादी का संघर्ष होता था। हमारी ही सीमा किनारे चौरम आश्रम में आजादी के दीवाने गढे जाते थे। यह सब ऐसे ही नहीं मिला हुआ अवसर था। यह नगरपालिका बनने के कारण हुआ था। लेकिन, छोडो, मन भर जाता है। मेरी हालत तो है कि पुरखों ने गलतियां कीं और सजा पीढियां भुगत रही हैं। मेरी छाती पर कैसे कैसे चेयरमैन साहब, हुए। कुछ के नाम के बाद साहब लगाना भी नागवार लगता है। वे माननीय तो थे मगर उनके कृत्य सम्माननीय नहीं थे। एक चेयरमैन साहब तो ऐसे हुए जो अपनी अय्याशी के लिए कार्यालय में ही ताला जड देते थे। कारिन्दे थे कार्यालय के और सेवा करते थे अय्याशी में डूबे चेयरमैन साहब की। नाम बताने का भी जी नहीं करता। ऐसे लोगों के नाम लेने से उनका अपमान नहीं होगा, क्योंकि उनका मान ही कहां था। अपमान उनके वंशजों का होगा, जो आज बेचारे किसी तरह अपनी जीविकोपार्जन करते हैं। अपमान शहर का होगा। जाति विशेष से जोड कर अपमान करने की कोशिश होगी। सो माफ करना मैं ऐसे चेयरमैनों का नाम नहीं लेता। मुझे बेच देने वालों की कमी कभी नहीं रही। फर्क बस मात्रा का है, कौन कितना बेचा? किस तरह बेचा? जब रामप्रसाद बाबू चेयरमैन थे सरस्वती पूजा की धार्मिक अनुभूति वाली रात को काली रात में बदल दिया गया था। रात्रि में नाईट गार्ड हरिद्वार तिवारी को एक व्यक्ति ने आ कर ट्रैक्टर का रियर ह्विल (बडा वाला चक्का) निकाल कर देने को कहा। वे ऐसा करने को तैयार नहीं हुए। वह आदमी चला गया। देर रात जब तिवारी जी सो गए तो लोग खुद से टायर खोलकर ले गए। सब जान गये कि कौन खोला है। वास्तविक दोषी के भाई का कद शहर में बडा जो था। सब जानते हुए भी तिवारी जी का वेतन रोक दिया गया। उनको सस्पेंड कर दिया गया। आखिर किसी न किसी को तो जिम्मेदारी देनी ही थी। तब उनकी बेटी अरुणा कुमारी की शादी तय हो गई थी। बेटी की शादी के वक्त एक सरकारी कर्मी का वेतन उस अपराध में रोक दिया जाए जो उसने किया ही नहीं। यह न्याय के साथ कितना बडा अन्याय है सोचिए। उन्होंने चेयरमैन से फरियाद की। तब चेयरमैन ही सर्वेसर्वा होते थे। कार्यपालक नहीं हुआ करता था। उन्होंने जांचोपरांत निर्दोष बताते हुए वेतन भुगतान पर रोक हटाया और आरोप मुक्त किया। मगर टायर की क्षतिपूर्ति के लिए काटी गई वेतन की राशि कभी वापस नहीं हो सकी। प्रतिष्ठा पर आंच आयी और परेशानी हुई सो अलग। तिवारी जी की सारी पहलवानी खत्म हो गई अपने ही घर में। पहलवान इसलिए कह रहा हूं कि उनको और रामकेश्वर यादव को पहलवानी के कारण ही नाईट गार्ड के रुप में रखा गया था। तब दोनों के जिम्मे था बैलगाडी, भैंसा गाडी, साइकिल से कर वसूली करना। खैर यह छोडो। इतिहास उनको माफ करे, मेरी तो बस पूर्वज होने के नाते यही तमन्ना है।
बदलते वक्त ने करवट लिया और कस्बे का मिजाज भी बदलने लगा। मैं जानता हूं कि यहां के नवाब दाउद खान के वंशज थे डोमन खान। वे अत्याचारी थे। मनसोख थे। बनिया प्रवृति के कस्बे में व्यापारी सुरक्षित नहीं रह गए थे। असुरक्षा के बोध ने उन्हें परेशान कर रखा था। इस बात की चर्चा कस्बे में होने लगी। प्राय: पीडा पहुंचाने वाली घटना से समाज विचलित हो रहा था। वैचारिक अकुलाहट भी साथ साथ होने लगी। जब राजा (नबाब) ही ऐसा हो तो उसका प्यादा उससे कम कैसे होगा? उनके प्यादे आबादी को तंग करने लगे। रोजमर्रे की जिन्दगी परेशान होने लगी। व्यापार हो या दैनिक दिनचर्या। सब पर उनका दखल बढने लगा। जीना मुश्किल हो गया। जिस कस्बा को दाउद खान ने इस तरह बसाया था कि यहां जातीय या धार्मिक संघर्ष न हो, टकराव न हो, उसी कस्बे में यह स्थिति थी। दाउद खान ने तो मुहल्लों मे इस तरह जातीय बसावट किया कि कोई लडाकु जाति ही नहीं रही। अपनी पुलिस छावनी बनाते वक्त अंछा के निवासियों के हमले रोकने के लिए उन्होंने लडाकु जाति मानी गई जाट को अवश्य बसाया था। इन दोनों जातियों के बीच संघर्ष हुआ। कहावत है कि सवा किलो जनेउ सोन में फेंका गया था, इतने लोग इस युद्ध में खेत खाए। जनेउ धारण कौन करता है? दिन में जितना निर्माण होता था उसे रात्रि में ध्वस्त कर दिया जाता था। उन्हें डर था कि पुलिस छावनी बन जाने से उनके काम में बाधा आयेगी, या संभव है लूट पाट को अंजाम देना ही बंद हो जाए। तारीख-ए-दाउदिया कहता है- अंछा पार जब गए भदोही, तब जानो घर आये बटोही। इस परिस्थिति से निपटने के लिए ही यहां छावनी बनाई गई थी। इसे यहां दाउद खां का किलाकहते हैं। छावनी और अंछा के रास्ते में जाट बसाये गए थे, जो आज भी जाट टोली के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा यहां की शांति और सुरक्षा कायम रखने के लिए ही अन्य किसी भी मजबूत, दबंग या लडाकु प्रवृति की जातियों को यहां नहीं बसाया था। साल 1930 से पूर्व ही जाट आबादी यहां से चली गई थी। तब दाउद खान ने सोचा भी नहीं था कि उनकी दूरदर्शिता और विचार को उन्हीं का वंशज डोमन खान तंग-ओ-तबाह कर देगा। यहां दाउद खां का दोहरा चरित्र नजर आता है। आप जानते हैं कि पलामु किला पर फतह के वक्त उन्होंने चेरो राजा को इस्लाम ग्रहण करने पर सारा राज छोड देने का प्रस्ताव किया था। इसी तरह दाउद खां ने दाऊदनगर को बसाने के बाद एक राजपूत को इस्लाम स्वीकार करा कर राजा तरार बना दिया था। जैसा कि तारीख-ए-दाउदिया बताता है। हालात-ए-मुख्तसर राजा तरारअध्याय में कहा गया है कि दाउद खां ने एक राजपूत बाबू भूरकुण्डा को मुसलमान बनाकर उसे अबूतालिब नाम दिया और परगनात अंछा, गोह एवं मनौरा में से एक रवा (चौथाई) देकर उसे राजा तरार बनाया। आज तरार में खण्डहर भी नहीं बचा। लगभग तीस फीट ऊँचा टीला राजा तरारके अतीत को खुद में छुपा लिया है। राजा तरार की काफी जमीनें अतिक्रमण कर ली गयी हैं। इस विरोधाभास के बावजूद भी उन्होंने दाउदनगर को इस तरह बसाया कि यहां शांति और सौहार्द बना रहे। हो सकता है कि समय के साथ यहां धार्मिक स्वतंत्रता भी प्रभावित होने लगी हो। इससे समाज में बेचैनी बढने लगी हो और तब करवट बदलने की तमन्ना जागृत होने लगा हो। यह कौन जानता है? तत्कालीन समाज नकारात्मकता के बीच से सकारात्मकता को खोजने को इन कारणों से प्रेरित हुआ हो? रोते रहना,  शोषण सहते रहना, शोषकों को बढावा देना है। शांत चित बनिया स्वभाव के कस्बे ने बहुत सहा होगा। उसकी सहन शक्ति की पराकाष्ठा अभी भी यदा कदा दिखती है। जब पीडा असहनीय हो गई तो चार बहादूर आगे आये। चावल बाजार के कसौन्धन बनिया जाति के पुरुषोत्तम दास, बजाजा रोड के कसौन्धन बनिया रामचरण साव, केशरी जाति के हुसैनी साव एवं अग्रवाल जाति के बाबु जवाहिर मल के नाम तो याद हैं। रामचरण साव के पूर्वज रोहतास जिला के नासरीगंज थाना के अमियावर गांव से आए थे। बजाजा रोड में उनकी किराने की दुकन थी। तूती बोलती थी। ग्रामीण इलाके में दूर दूर तक लोग नाम जानते थे। चलती इतनी थी कि 52 जोडी दरवाजे के मकान के बावजूद परिवार को सोने की जगह नसीब नहीं थी। इतना किराना सामान भरा हुआ रहता था। शहर के लिए अल्पसंख्यक थे मगर दबदबा था। रामचरण साव के पिता ने अमियावर की अपनी सारी संपत्ति ब्राह्मणों को दान कर दिया था। आज भी इस शहर में उनकी जाति कसौन्धन बनिया के मात्र 15 घर ही हैं। इनकी चौथी पीढि शहर में रहती है। रामजी प्रसाद तीन भाई हैं। इनके पिता जवाहिर साव तीन भाई, उनके पिता मोती साव तीन भाई और उनके पिता माधो साव अकेले भाई थे जिनके पिता थे राम चरण साव। इनके पहले का वंश वृक्ष ज्ञात नहीं है। बजाजा रोड में मकान है और गुड बाजार में दुकान। पुरुषोत्तम दास संपन्न व्यक्ति थे। उनके पास खेतिहर जमीनें काफी थीं। आवासीय जमीन भी प्रयाप्त थी। मुख्य पथ में वर्तमान में जहां भारतीय स्टेट बैंक की शाखा है, उसी के सामने उनका मकान हुआ करता था। साधु प्रवृति के थे सो लंगोट पहनते थे। दाढी रखते थे। सादा जीवन उच्च विचार की जीवन शैली थी। जमीन की खरीद बिक्री भी किया करते थे। उनका कोई वंशज अब शहर में नहीं रहता। केशरी जाति के हुसैनी साव का बजाजा रोड में किराना दुकान था। इनके पिता का नाम तुलसी साव था। इसी दुकान में वे जडी बुटी भी बेचा करते थे। माथे पर मुरेठा बांधना कभी नहीं भुलते थे। एकदम सादा ड्रेस धोती-कुर्ता पहनते थे।  काडा ईस्टेट के खजांची थे। हुंडी का काम करते थे। यानी रुपए पैसे रखना-देना। उन्हीं के नाम पर वार्ड संख्या पांच में हुसैनी बाजार है। इनके वंशज के व्यवसाय आज भी शहर में है। श्री बाबू की जडी बुटी दुकान में ही वे अपना व्यवसाय करते थे। उनके तीन पुत्र थे केदार प्रसाद केशरी, द्वारिका प्रसाद केशरी एवं कन्हाई प्रसाद केशरी। केदार बाबु के पुत्र देवेन्द्र प्रसाद केशरी आज भी उसी हुसैनी साव की दुकान में अपनी जडी बुटी का कारोबार करते हैं। हुसैनी साव की चौथी पीढि भी जडी बुटी के करोबार में यहां सक्रिय है। उन्होंने ही बाजार लगाना शुरु किया था और मुहल्ला भी बसाया था। जिसे कालांतर में हुसैनी बाजार और हुसैनी मुहल्ला का नाम मिला। यह दाउद खां के किला से पश्चिम-दक्षिण स्थित है। बाबु जवाहिर मल जाति के अग्रवाल थे। शहर के कई मुख्य हिस्से में जमीन के टुकडों पर इनकी मिलकियत थी। बजाजा रोड, सुतहट्टी गली, मुख्य सडक पर एसबीआई के पास जमीन जायदाद थे। इनके दो पुत्र थे- जगरनाथ बाबु उर्फ नाथो बाबु एवं बैजनाथ प्रसाद उर्फ बीजु बाबु। बीजु बाबु की पट्टीशहर में मशहूर थी। जब किसी को जख्म होता था तो उन्हीं की पट्टी साटा करते थे और जख्म ठीक हो जाता था। दोनों नावल्द थे। उनकी सारी संपत्ति के उत्तराधिकारी बने सुरज प्रसाद अग्रवाल। इनके वंशज हैं प्रदीप अग्रवाल।
जब पीढियों ने दस्तावेज तैयार नहीं किया तो बुढाते दिमाग में कितना संरक्षित रह पायेगी स्मृतियां? चारों ने एक आवेदन ब्रिटिश सरकार में भाया कलक्टर गवर्नर  को दिया और दरख्वास्त की कि डोमन खान के अत्याचार से मुक्ति का रास्ता निकाला जाए। इसके बाद अक्टूबर 1884 में प्रारुप का प्रकाशन हुआ। यानी एक खाका तैयार हुआ कि शहर का क्षेत्रफल क्या है, उसकी चौहद्दी क्या है, कितनी आबादी है, सुविधाएं कौन कौन सी है? दावा आपत्ति की मांग हुई। कानूनी प्रक्रिया पूरी की गई। और फिर 10 फरवरी 1885 को मैं (दाउदनगर) कस्बा से नगर बन गया।
(नोट:-दाउदनगर अब नगर परिषद बन गया है। यह आलेख मेरी किताब "श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर" में प्रकाशित है, यहाँ अविकल प्रस्तुति)

यह आलेख और तस्वीर कॉपी राईट के तहत है  बिना अनुमति लिए इसका पूर्ण या आंशिक प्रकाशन नियम विरुद्ध है  सामग्री इसी लेखक (उपेंद्र कश्यप) द्वारा लिखित पुस्तक- “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” में प्रकाशित है  यह निजी शोध कार्य है 


2 comments:

  1. दाउदनगर नगरपालिका का बहुत-ही उपयोगी ऐतिहासिक विवरण जो अन्यत्र मिलना दुर्लभ है...आपको बहुत-बहुत साधुवाद...

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  2. Anchha par jab....... Mere dadaji v sunaya karte the, satik jankari

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